गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 1

 संन्यास की घोषणा




अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।। 1।।


हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याणकारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए।


मनुष्य का मन निरंतर ही आज्ञा चाहता है। मनुष्य का मन, कोई और तय कर दे, ऐसी आकांक्षा से भरा होता है। निर्णय करना संताप है; निर्णय करने में चिंता है; स्वयं ही विचार करना तपश्चर्या है। मनुष्य का मन चाहता है, निर्णय भी न करना पड़े। कुछ भी न करना पड़े। सत्य ऐसे ही उपलब्ध हो जाए, बिना थोड़े-से भी श्रम, विचार, तपश्चर्या के।

अर्जुन कृष्ण से कहता है, आपने कर्म-संन्यास की बात कही, आपने निष्काम कर्म की बात कही। लेकिन मुझे तो ऐसा सुनिश्चित मार्ग बता दें, जिसमें मैं आश्वस्त होकर चल सकूं।

इस संबंध में बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। कृष्ण ने इस बीच जो भी बातें कहीं, वे अर्जुन को आदेश की तरह नहीं हैं; अर्जुन के सामने समस्याओं को खोलकर रख देने की कोशिश की है। जीवन के सारे रास्तों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। अंतिम निर्णय अर्जुन के हाथ में ही छोड़ा है कि वह निर्णय करे, संकल्प करे, निष्पत्ति अर्जुन स्वयं ले।

इस जगत में जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, वे सदा ही शिष्यों को निष्पत्ति देने से बचते हैं, कनक्लूजंस देने से बचते हैं। क्योंकि जो निष्पत्ति दी हुई होती है, उधार, बासी, मृत हो जाती है। जो निष्पत्ति, जो निष्कर्ष स्वयं लिया होता है, उसकी जड़ें स्वयं के प्राणों में होती हैं। जिस नतीजे पर व्यक्ति अपने ही चिंतन और खोज और शोध से पहुंचता है, वह निर्णय उसके व्यक्तित्व को रूपांतरित करने की क्षमता रखता है।

जो निर्णय बाहर से आते हैं--उधार, विजातीय--उनकी कोई जड़ें व्यक्ति की स्वयं की आत्मा में नहीं हो पाती हैं। उन पर कोई अनुसरण भी करे, तो भी वे आचरण की सतह ही निर्मित करती हैं, आत्मा नहीं बन पाती हैं। जैसे बाजार से फूल लाकर हमने गुलदस्ते में लगा लिए हों, ऐसे ही दूसरे से मिले निर्णय भी गुलदस्ते के फूल बन जाते हैं; लेकिन जमीन में उगे हुए फूल नहीं हैं--प्राणवान, जीवित, जमीन से रस को लेते हुए, सूरज से रोशनी को पीते हुए, हवाओं में नाचते हुए--जिंदा नहीं हैं।

लेकिन आदमी का मन इतने आलस्य से भरा है, इतने तमस से, इतनी लिथार्जी से कि भोजन भी यदि किया हुआ मिल जाए, तो हम करना पसंद नहीं करेंगे। भोजन भी पचाया हुआ हो, तो पचाने को हम राजी नहीं होंगे। लेकिन जिस दिन भोजन पचाया हुआ मिल जाएगा, उस दिन हम प्लास्टिक के आदमी होंगे, जिंदा आदमी नहीं। जिंदगी की सारी गहरी प्रक्रिया स्वयं ही पचाने में निर्भर है। वह चाहे भोजन को पचाकर खून बनाना हो और चाहे जीवन के अनुभव को पचाकर ज्ञान की निष्पत्ति लेना हो। वह चाहे जगत में चलना हो और चाहे परमात्मा में प्रवेश हो। जिस बात को हम आत्मसात करते हैं, जो हमारे ही श्रम से फलित होती है, वही हमारी है। शेष सब उधार है और ठीक समय पर बेकार सिद्ध होता है, काम में नहीं आता है।

लेकिन अर्जुन की आकांक्षा वही है जो सभी आदमियों की आकांक्षा है। वह कहता है, मुझे सुनिश्चित कह दें; उलझाव में न डालें। ऐसी सब बातें न कहें, जिनमें मुझे सोचना पड़े और तय करना पड़े। आप ही मुझे कह दें कि क्या ठीक है। जो बिलकुल ठीक हो, मुझे कह दें।

कृष्ण को भी आसान है यही कि जो बिलकुल ठीक है, वही कह दें। लेकिन जो आदमी ऐसी मांग कर रहा हो कि जो बिलकुल ठीक है, वही मुझे कह दें, उससे बिलकुल ठीक बात कहनी खतरनाक है। क्योंकि ठीक बात को पाकर वह सदा के लिए ही बचकाना, जुवेनाइल रह जाएगा। वह कभी मैच्योर और प्रौढ़ नहीं हो सकता है।

इसलिए वे गुरु खतरनाक हैं, जिनके नीचे शिष्य सदा ही बचकाने, अप्रौढ़ रह जाते हों। वे गुरु खतरनाक हैं, जो निष्कर्ष दे देते हों। ठीक गुरु तो समस्याएं देता है। ठीक गुरु तो प्रश्न देता है। निश्चित ही ऐसे प्रश्न, ऐसी समस्याएं, ऐसे उलझाव, जिनसे गुजरकर अगर व्यक्ति चलने का साहस और हिम्मत जुटाए, तो निष्कर्ष पर जरूर ही पहुंच सकता है।

लेकिन बंधे-बंधाए, रेडिमेड उत्तर इस पृथ्वी पर किसी भी श्रेष्ठतम व्यक्ति ने कभी भी नहीं दिए हैं।

अर्जुन कहता है, मुझे तो तैयार--आप जानते ही हैं, वही कह दें, जो ठीक है। मुझे उलझाएं मत। मैं वैसे ही बड़े संभ्रम में, वैसे ही बड़े संशय में हूं, वैसे ही बहुत अनिश्चय में डूबा हुआ हूं। इतनी बातें न करें कि मैं और उलझ जाऊं। मैं कनफ्यूज्ड हूं।

अर्जुन जानता है कि उलझा हुआ है। लेकिन उलझे हुए मन को सुलझा हुआ सत्य भी मिल जाए, तो उसे भी उलझा लेता है। सुंदरतम व्यक्ति को भी हम विकृत आईने के सामने खड़ा कर दें, तो आईना तत्काल उसे विकृत कर लेता है। श्रेष्ठतम चित्र को भी हम, आंखें कमजोर हों, बिगड़ गई हों, ऐसे आदमी के सामने रख दें, तो भी आंखें उस श्रेष्ठतम चित्र को कुरूप कर लेती हैं।
निश्चित ही कृष्ण सीधे निष्कर्ष की बात कह सकते हैं, लेकिन उलझा हुआ अर्जुन समझ कैसे पाएगा! अर्जुन उलझा हो, तो सुलझी हुई बात को भी उलझा लेगा। इसलिए कृष्ण को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अर्जुन का उलझाव हल हो, तो ही सुलझे हुए सत्यों को सुनने की क्षमता आ सकती है।

हम वही समझ पाते हैं, जो हम समझ सकते हैं। हम अपने से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझ पाते हैं। और हम वही अर्थ निकाल लेते हैं, जो हमारे भीतर पड़ा है। हम वही अर्थ नहीं निकाल पाते हैं, जो कृष्ण जैसा व्यक्ति बोलता है।

अर्जुन के साथ कृष्ण की वार्ता सीधी नहीं है, बहुत उलझी और पगडंडियों से भरी है, बहुत गोल चक्रों में घूमती हुई है। इस सारी गीता की चर्चा से कृष्ण अर्जुन को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। सुलझ जाए, तो वे उसे निष्कर्ष की बात भी कह सकें। लेकिन अर्जुन सुलझने की पीड़ा से भी नहीं गुजरना चाहता है।

सुलझने की पीड़ा भी प्रसव की पीड़ा है। स्वयं का बहुत कुछ काटना, गिराना, हटाना पड़ेगा। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती है कि मैं उलझा हुआ हूं, इसे इसकी पूरी नग्नता में जानना पड़ेगा। और कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि कनफ्यूज्ड है। कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि उसका मन उलझा हुआ है। सभी लोग मानकर चलते हैं कि वे सुलझे हुए हैं। अपने को धोखा देने की कुशलता भी अदभुत है। हर आदमी यह मानकर चलता है कि मैं सुलझा हुआ हूं।

इस दुनिया की सारी उलझनें निन्यानबे प्रतिशत कम हो जाएं, अगर लोगों को यह पता चल जाए कि हम उलझे हुए हैं। लेकिन लोग बिलकुल आश्वस्त हैं। लोग बिलकुल आत्मविश्वास से भरे हैं कि हम सुलझे हुए लोग हैं। और सारी दुनिया इतने उलझाव में है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ये उलझाव कहां से आते हैं? हम सब सुलझे हुए लोग! ये इतने उलझाव इस जमीन पर पैदा कैसे होते हैं? यदि हम सब सुलझे हुए हैं, तो जगत एक शांत और एक आनंद से भरी हुई जगह होनी चाहिए--स्वर्ग; लेकिन जगत है एक नर्क।

हम सब उलझे हुए हैं। और उलझाव और भी भयंकर है, क्योंकि प्रत्येक उलझा हुआ आदमी समझता है कि मैं सुलझा हुआ हूं। हर पागल समझता है कि पागल नहीं है। पागलखानों में ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है, जो समझता हो कि मैं पागल हूं। पागलखाने के बाहर मिल भी जाए; पागलखाने के भीतर नहीं मिल सकता।

तो अर्जुन को यह भी दिखा देना जरूरी है कि वह कितना उलझा हुआ है। कृष्ण की अब तक की बातचीत से अर्जुन को एक बात तो कम से कम दिखाई पड़नी शुरू हो गई कि वह उलझा हुआ है। शुरू में जब उसने बोलना शुरू किया था, तो ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल रहा है। धर्म और शास्त्र और नीति और परंपरा, इन सब की बात कर रहा था। ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल रहा है। अज्ञानी आदमी जितने जानते हुए बोलते मालूम पड़ते हैं, उतने ज्ञानी कभी बोलते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं।

बर्ट्रेंड रसेल ने कहीं कहा है कि जितना कम जानने वाला आदमी हो, उतनी दृढ़ता से बोल सकता है; उतना डाग्मैटिक हो सकता है। जितना जानने वाला आदमी हो, उतना हेजीटेट करता है; झिझकता है। क्योंकि जितना ज्यादा जानता है, उतना ही पाता है कि जीवन अति दुरूह है, गहन पहेली है। जितना जानता है, उतना ही पाता है कि जानना आसान नहीं है। और जितना जानता है, उतना ही पाता है कि जानने को अनंत शेष है।

अज्ञानी बिलकुल दृढ़ता से बोल सकता है। इतना कम जानता है कि अज्ञान का भी उसे पता नहीं है।

अर्जुन ने जब प्रश्न उठाने शुरू किए थे, तो वह ऐसे आदमी के प्रश्न थे, जिसे उत्तर पहले से ही पता हैं। अगर कृष्ण से पूछता था, तो इसलिए कि तुम भी शायद जो मैं कहता हूं वही कहोगे, गवाही मेरी बनोगे!

कृष्ण से अर्जुन ने गवाही, विटनेस ही मांगी थी, कि आप भी कह दें कि जो मैं कहता हूं, ठीक है। कि यह युद्ध व्यर्थ है। कि यह धन और राज्य के लिए संघर्ष गलत है। कि सब छोड़कर चले जाना धर्म की पुरानी व्यवस्था है। कि हिंसा पाप है; कि अहिंसा में, समस्त हिंसा का त्याग करके चले जाने में गौरव है।

अर्जुन ने जब ये बातें कही थीं, तो आश्वस्त भाव से कही थीं कि कृष्ण भी समर्थन करेंगे। लेकिन कृष्ण ने उनका समर्थन नहीं किया। और अब अर्जुन इस स्थिति में नहीं है कि कह सके कि मैं जानता हूं। इतना उसे साफ हुआ है कि मैं उलझा हुआ हूं। मुझे कुछ पता नहीं है।

यह बहुत बड़ी घटना है। ज्ञान के मार्ग पर पहला चरण है। ज्ञान के मार्ग पर अज्ञान की दृढ़ता पिघल जाए, तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। अज्ञान की मजबूती ढीली पड़ जाए, अज्ञान का आश्वासन डिग जाए--बड़ी उपलब्धि है।

अर्जुन इस जगह कृष्ण के द्वारा लाया जा सका है, जहां वह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। यह बात कीमत की है। लेकिन तत्काल वह कहता है कि जो आपको पता हो, वह सीधा आप मुझे कह दें।
इतना तो अच्छा हुआ कि वह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। लेकिन अब यह दूसरा खतरा उसके साथ जुड़ा है। अभी वह दूसरे से तैयार ज्ञान को पाने की आकांक्षा रखता है। वह भी उसकी भ्रांति है। कोई छोटा-मोटा गुरु होता कृष्ण की जगह, तो बहुत प्रसन्न होता और कहता कि यह जो मैं जानता हूं, तुझे दिए देता हूं। तेरा काम है कुल इतना कि मान ले चुपचाप और आचरण कर।
लेकिन कृष्ण उन मनोवैज्ञानिक गुरुओं में से एक हैं, जो जब तक कि पात्र पूरा तैयार न हो, जब तक कि क्षमता अर्जुन की इस योग्य न हो कि वह सत्य को समझने और सत्य को प्रतिध्वनित करने की स्थिति में आ जाए, तब तक वे अभी और कुछ बातें करेंगे, और भी मार्गों की।

अर्जुन के नीचे से उसके सारे आश्वासन की भूमि हट जानी चाहिए। और अर्जुन के मन से यह खयाल भी हट जाना चाहिए कि कोई दूसरा दे सकेगा। इतनी तैयारी होनी चाहिए कि मैं खोजूं, श्रम करूं; सत्य को मुफ्त में पाने की आकांक्षा न करूं।

इसलिए कृष्ण ने वे सब मार्ग, जिनसे मनुष्य सरलता को, सत्य को, सुलझाव को उपलब्ध हुआ है, उन सबको धीरे-धीरे खोलकर अर्जुन के सामने रखने का तय किया है। पर उसके मन की बात ठीक से आप समझ लेना, वह हम सबके मन की बात है।
हम भी चाहेंगे कि इतनी लंबी चर्चा की क्या जरूरत है? कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि सत्य क्या है। अर्जुन की स्थिति भी भलीभांति जानते हैं। अर्जुन के लिए क्या हितकर है, यह भी भलीभांति जानते हैं। तो दे ही क्यों नहीं देते!


जो भी मांग की जाएगी, उसको सप्लाई करने वाले लोग सदा ही उपलब्ध हो जाते हैं। अगर आप मांगेंगे अंधापन, तो आपकी आंखें फोड़ने वाले लोग भी मिल जाएंगे। आप मांगेंगे बहरापन, तो आप पर कृपा करके आपको बहरा कर देने वाले लोग भी मिल जाएंगे। आप चाहेंगे कि मैं तो किसी का हाथ पकड़कर चलूं और अपना कोई भी श्रम न लगाना पड़े, तो ऐसे लोग भी आपको मिल जाएंगे, जो कहेंगे, यह रहा हाथ; पकड़ो और चलो!




लेकिन ध्यान रखना, जो भी ऐसा व्यक्ति आपको मिल जाएगा, वह व्यक्ति आपके ऊपर करुणा नहीं कर रहा है। क्योंकि करुणा सदा ही आपके पैर को सबल बनाती है, आपकी आंखों को मजबूत करती है, आपके बल को जगाती है। वह व्यक्ति आपका शोषण कर रहा है। और शोषण केवल वही कर सकता है, जो नहीं जानता है। इसलिए अंधे अक्सर अंधों को नेतृत्व करने के लिए मिल जाते हैं। सच तो यह है कि अंधों के बड़े समाज में आंख वाले आदमी को नेतृत्व करना अति कठिन है। अंधों का समाज, सजातीय अंधे को ही अपने आगे कर लेने को सदा उत्सुक रहता है।

कृष्ण वैसे गुरु नहीं हैं। वे अर्जुन को कुछ भी देने के लिए राजी नहीं हैं, जिसको पाने की क्षमता स्वयं अर्जुन में न हो। और अर्जुन में अगर उसे पा लेने की क्षमता हो, तो कृष्ण उसे देने को तैयार हो सकते हैं। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर एक व्यक्ति पाने के लिए तैयार है श्रम करने को, तो उसे सत्य की किरण दी भी जा सकती है।

यह बहुत मजे की और विरोधाभासी बात मालूम पड़ेगी। जिनकी क्षमता नहीं है, उन्हें दिया नहीं जा सकेगा; यद्यपि जिनकी क्षमता नहीं है, वे सदा भिखारी की तरह मांगते हैं। और जिनकी क्षमता है, उन्हें सदा दिया जा सकता है; यद्यपि जिनकी क्षमता है, वे कभी भी भिखारियों की तरह मांगते नहीं हैं। अब यह बड़ी उलटी बात है।

सत्य के द्वार पर जो भिखारी की तरह खड़ा होगा, वह खाली हाथ वापस लौटेगा। सत्य के द्वार पर तो जो सम्राट की तरह खड़ा होता है, उसे ही सत्य मिलता है।

अभी भी कृष्ण भिखारी को पा रहे हैं अर्जुन में। इस वचन में भी अर्जुन ने अपने भिखारी होने की ही घोषणा की है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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