गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 6

  

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। ६।।


इसलिए जो मूढ़बुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों का मन से चिंतन करता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है।


अदभुत वचन है। कृष्ण कह रहे हैं कि जो मूढ़ व्यक्ति-- मूढ़ खयाल रखना--जो नासमझ, जो अज्ञानी इंद्रियों को हठपूर्वक रोककर मन में काम के चिंतन को चलाए चला जाता है, वह दंभ में, पाखंड में, अहंकार में पतित होता है। मूढ़ कहेंगे! कह रहे हैं, ऐसा व्यक्ति मूढ़ है, जो इंद्रियों को दमन करता  है!


कृष्ण कह रहे हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति----जो अपनी इंद्रियों को दबाता है। क्योंकि इंद्रियों को दबाने से मन नहीं दबता, बल्कि इंद्रियों को दबाने से मन और प्रबल होता है। इसलिए मूढ़ है वह व्यक्ति। क्योंकि इंद्रियों का कोई कसूर ही नहीं, इंद्रियों का कोई सवाल ही नहीं है। असली सवाल भीतर छिपे मन का है। वह मन मांग कर रहा है, इंद्रियां तो केवल उस मन के पीछे चलती हैं। वे तो मन की नौकर-चाकर, मन की सेविकाएं, इससे ज्यादा नहीं हैं।

मन कहता है, सौंदर्य देखो, तो आंख सौंदर्य देखती है। और मन कहता है, बंद कर लो आंख, तो आंख बंद हो जाती है। आंख की अपनी कोई इच्छा है? आंख ने कभी कहा कि मेरी यह इच्छा है? हाथ ने कभी कहा कि छुओ इसे? मन कहता है, छुओ, तो हाथ छूने चला जाता है। मन कहता है, मत छुओ, तो हाथ ठहर जाता है और रुक जाता है। इंद्रियों की अपनी कोई इच्छा ही नहीं है।

लेकिन कितनी इंद्रियों को गालियां दी गई हैं! इंद्रियों के खिलाफ कितने वक्तव्य दिए गए हैं! और इंद्रियां बिलकुल निष्पाप और निर्दोष और इनोसेंट हैं। इंद्रियों का कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्रिय मनुष्य को किसी काम में नहीं ले जाती, मन ले जाता है। और जब कोई इंद्रियों को दबाता है, इंद्रियों को रोकता है और मन जब इंद्रियों का सहयोग नहीं पाता है, तो पागल होकर भीतर ही उन चीजों की रचना करने लगता है, जो उसने बाहर चाही थीं।

अगर दिनभर आप भूखे रहे हैं, तो रात सपने में आप राजमहल में आमंत्रित हो जाते हैं। मन ने इंतजाम किया, मन ने कहा कि ठीक है। मन ने जिस स्त्री, जिस पुरुष के प्रति दिन में अपने को रोका, रात सपने में मन नहीं रोक पाता।

कृष्ण कह रहे हैं कि बाहर से दबा लोगे इंद्रियों को--इंद्रियों का तो कोई कसूर नहीं, इंद्रियों का कोई हाथ नहीं।  इंद्रियां असंगत हैं, उनसे कोई वास्ता ही नहीं है। सवाल है मन का। रोक लोगे इंद्रियों को, न करो भोजन आज, कर लो उपवास। मन, मन दिनभर भोजन किए चला जाएगा। ऐसे मन दो ही बार भोजन कर लेता है दिन में, उपवास के दिन दिनभर करता रहता है। यह जो मन है, मूढ़ (पागल) है वह व्यक्ति, जो इस मन को समझे बिना, इस मन को बदले बिना, केवल इंद्रियों के दबाने में लग जाता है। और उसका परिणाम क्या होगा? उसका परिणाम होगा कि वह दंभी हो जाएगा। वह दिखावा करेगा कि देखो, मैंने संयम साध लिया; देखो, मैंने संयम पा लिया; देखो, मैं तप को उपलब्ध हुआ; देखो, ऐसा हुआ, ऐसा हुआ। वह बाहर से सब दिखावा करेगा और भीतर, भीतर बिलकुल उलटा और विपरीत चलेगा।


अगर हम साधुओं के--तथाकथित साधुओं के,  और उनकी ही संख्या बड़ी है, वही हैं निन्यानबे प्रतिशत--अगर उनकी खोपड़ियों को खोल सकें और उनके हृदय के द्वार खोल सकें, तो उनके भीतर से शैतान निकलते हुए दिखाई पड़ेंगे। अगर हम उनके मस्तिष्क के सेल्स को तोड़ सकें और उनसे पूछ सकें कि तुम्हारे भीतर क्या चलता है? तो जो चलता है, वह बहुत घबड़ाने वाला है। ठीक विपरीत है। जो बाहर दिखाई पड़ता है, उससे ठीक उलटा भीतर चलता चला जाता है।

कृष्ण इसे मूढ़ता कह रहे हैं। क्योंकि जो भीतर चलता है, वही असली है। जो बाहर चलता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। धर्म का दिखावे से,  कोई संबंध नहीं है। धर्म का प्रदर्शन से क्या संबंध है? धर्म का होने से संबंध है। हो सकता है, बाहर कुछ उलटा भी दिखाई पड़े, तो कोई फिक्र नहीं; भीतर ठीक चलना चाहिए। बाहर भोजन भी चले, तो कोई फिक्र नहीं, भीतर उपवास होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर उपवास चलता है, भीतर भोजन चलता है। बाहर स्त्री भी पास में बैठी रहे तो कोई हर्ज नहीं, पुरुष भी पास में बैठा रहे तो कोई हर्ज नहीं, भीतर--भीतर स्वयं के अतिरिक्त और कोई भी नहीं होना चाहिए। लेकिन होता उलटा है। बाहर आदमी मंदिर में बैठा है, मस्जिद में बैठा है, गुरुद्वारे में बैठा है; और भीतर उसके गुरुद्वारे में, खुद के गुरुद्वारे में कोई और बैठे हुए हैं; वे चल रहे हैं।

जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो बाहर से नहीं दी जा सकती; जिंदगी को बदलाहट देनी है, तो वह भीतर से ही दी जा सकती है। और जो आदमी बाहर से देने में पड़ जाता है, वह भूल ही जाता है कि असली काम भीतर है। सवाल इंद्रियों का नहीं, सवाल मन का है। सवाल वृत्ति का है; सवाल वासना का है; सवाल शरीर का जरा भी नहीं है।

इसलिए शरीर को कोई कितना ही दबाए और नष्ट करे, मार ही डाले, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी प्रेतात्मा भटकेगी, उन्हीं वासनाओं में वह नए जन्म लेगा। नए शरीर ग्रहण करेगा उन्हीं वासनाओं के लिए, जिनको छोड़ दिया था पिछले शरीर में। उसकी यात्रा जारी रहेगी। वह अनंत-अनंत जन्मों तक वही खोजता रहेगा, जो उसका मन खोजना चाहता है।

दंभ, पाखंड, धोखा--किसको दे रहे हैं हम? दूसरे को? दूसरे को दिया भी जा सके, स्वयं को कैसे देंगे? और इसलिए प्रत्येक उस व्यक्ति को जो धर्म की दिशा में उत्सुक होता है, ठीक से समझ लेना चाहिए कि स्वयं को धोखा तो देने नहीं जा रहा है!  आत्मवंचना में तो नहीं पड़ रहा है! कृष्ण उसी के लिए कह रहे हैं--मूढ़!

सोचने जैसा है, कृष्ण जैसा आदमी मूढ़ जैसे शब्द का उपयोग करे! अगर मैं किसी को कह दूं कि तुम मूढ़ हो, तो वह लड़ने खड़ा हो जाएगा। कृष्ण ने अर्जुन को मूढ़ कहा। उन सब को मूढ़ कहा। एक आगे के सूत्र में तो अर्जुन को महामूढ़ कहा, कि तू बिलकुल महामूर्ख है। फिर भी अर्जुन लड़ने खड़ा नहीं हो गया। कृष्ण जो कह रहे हैं,  वह मूढ़ शब्द का उपयोग किसी की निंदा के लिए नहीं है, तथ्य की सूचना के लिए है।

मूढ़ हैं जगत में; कहना पड़ेगा, उन्हें मूढ़ ही कहना पड़ेगा। अगर सज्जनता और शिष्टाचार के कारण उन्हें कहा जाए कि हे बुद्धिमानो! तो बड़ा अहित होगा। लेकिन कृष्ण जैसे हिम्मत के धार्मिक लोग अब नहीं रह गए। अब तो धार्मिक आदमी के पास कोई भी जाए, तो उसको मूढ़ नहीं कह सकता। धार्मिक आदमी ही नहीं रहा।


कृष्ण कह रहे हैं कि मूढ़ हैं वे, जो इंद्रियों को दबाते, दमन करते, सप्रेस करते और परिणामतः भीतर जिनका चित्त उन्हीं-उन्हीं वासनाओं में परिभ्रमण करता है, तूफान लेता है, आंधियां बन जाता है; ऐसे व्यक्ति दंभ को, पाखंड को पतित हो जाते हैं। और इस जगत में अज्ञान से भी बुरी चीज पाखंड है। इसलिए उन्होंने कहा कि वे मिथ्या आचरण में, मिथ्यात्व में, फाल्सिटी में गिर जाते हैं।

इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना उचित है। मिथ्या किसे कहें? एक तो होता है सत्य; एक होता है असत्य। मिथ्या क्या है? असत्य? मिथ्या का अर्थ असत्य नहीं है। मिथ्या का अर्थ है, दोनों के बीच में। जो है तो असत्य और सत्य जैसा दिखाई पड़ता है। मिथ्या मिडिल टर्म है।

कृष्ण कह रहे हैं--ऐसे लोग असत्य में पड़ते हैं, यह नहीं कह रहे हैं--वे कह रहे हैं, ऐसे लोग मिथ्या में पड़ जाते हैं। मिथ्या का मतलब? दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल ठीक हैं; और बिलकुल ठीक होते नहीं हैं। ऐसे धोखे में पड़ जाते हैं। बाहर से दिखाई पड़ते हैं, बिलकुल सफेद हैं; और भीतर बिलकुल काले होते हैं। अगर बाहर भी काले हों, तो वह सत्य होगा; अगर भीतर भी सफेद हों, तो वह सत्य होगा। इसको क्या कहें? यह मिथ्या स्थिति है। हम और तरह की शकल बाहर बना लेते हैं और भीतर कुछ और चलता चला जाता है।

इस मिथ्या में जो पड़ता है, वह अज्ञानी से भी गलत जगह पहुंच जाता है। क्योंकि अज्ञान में पीड़ा है। गलत का बोध हो और मुझे पता हो कि मैं गलत हूं, तो मैं अपने को बदलने में भी लगता हूं। मुझे पता हो कि मैं बीमार हूं, तो मैं चिकित्सा का भी इंतजाम करता हूं, मैं चिकित्सक को भी खोजता हूं, मैं निदान भी करवाता हूं। लेकिन मैं हूं बीमार और मैं घोषणा करता हूं कि मैं स्वस्थ हूं, तब कठिनाई और भी गहरी हो जाती है। अब मैं चिकित्सक को भी नहीं खोजता, अब मैं निदान भी नहीं करवाता, अब मैं डाइग्नोसिस्ट के पास भी नहीं फटकता। अब तो मैं स्वस्थ होने की घोषणा किए चला जाता हूं और भीतर बीमार होता चला जाता हूं। भीतर होती है बीमारी, बाहर होता है स्वास्थ्य का दिखावा। तब आदमी सबसे ज्यादा जटिल उलझाव में पड़ जाता है। मिथ्यात्व, मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी जटिलता पैदा कर देता है।

तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी अंततः बहुत जटिल और कांप्लेक्स हो जाता है। करता कुछ, होता कुछ। जानता कुछ, मानता कुछ। दिखलाता कुछ, देखता कुछ। सब उसका अस्तव्यस्त हो जाता है। वह आदमी अपने ही भीतर दो हिस्सों में कट जाता है।

मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो वैसा आदमी सीजोफ्रेनिक, सिजायड हो जाता है। दो हिस्से हो जाते हैं उसके और दो तरह जीने लगता है--डबल बाइंड। उसके दोनों दाएं-बाएं पैर उलटे चलने लगते हैं। उसकी एक आंख इधर और एक आंख उधर देखने लगती है। उसका सब इनर एलाइनमेंट टूट जाता है। बाईं आंख इस तरफ देखती है, दाईं आंख उस तरफ देखती है; बायां पैर इस तरफ चलता है, दायां पैर उस तरफ चलता है। सब उसके भीतर की हार्मनी, उसके भीतर का सामंजस्य, तारतम्य--सब टूट जाता है।

ऐसे व्यक्ति को मिथ्या में गिरा हुआ व्यक्ति कहते हैं, जिसका इनर एलाइनमेंट, जिसकी भीतरी टयूनिंग, जिसके भीतर का सब सुर-संगम अस्तव्यस्त हो जाता है। जिसके भीतर आग जलती है और बाहर से जो कंपकंपी दिखाता है कि मुझे सर्दी लग रही है। जिसके भीतर क्रोध जलता है, ओंठ पर मुस्कुराहट होती है कि मैं बड़ा प्रसन्न हूं। जिसके भीतर वासना होती, और बाहर त्याग होता कि मैं संन्यासी हूं। जिसके बाहर-भीतर ऐसा भेद पड़ जाता है, ऐसा व्यक्ति अपने जीवन के अवसर को, जिससे एक महासंगीत उपलब्ध हो सकता था, उसे गंवा देता है और मिथ्या में गिर जाता है। मिथ्या रोग है, सीजोफ्रेनिया। मिथ्या का मतलब, खंड-खंड चित्त, स्वविरोध में बंटा हुआ व्यक्तित्व, डिसइंटिग्रेटेड।

कृष्ण क्यों अर्जुन को ऐसा कह रहे हैं? इसकी चर्चा उठाने की क्या जरूरत है? लेकिन कृष्ण इसे सीधा नहीं कह रहे हैं। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं। कृष्ण बहुत कुशल मनोवैज्ञानिक हैं। वे ऐसा नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू मिथ्या हो गया है। ऐसा कह रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति मूढ़ है अर्जुन, जो इस भांति मिथ्या में पड़ जाता है।

वे अर्जुन को भलीभांति जानते हैं। वह व्यक्तित्व उसका भीतर से एक्सट्रोवर्ट है, बहिर्मुखी है; क्षत्रिय है। तलवार के अतिरिक्त उसने कुछ जाना नहीं। उसकी आत्मा अगर कभी भी चमकेगी, तो तलवार की झलक ही उससे निकलने वाली है। उसके प्राणों को अगर उघाड़ा जाएगा, तो उसके प्राणों में युद्ध का स्वर ही बजने वाला है। उसके प्राणों को अगर खोला जाएगा, तो उसके भीतर से हम एक योद्धा को ही पाएंगे।  मिथ्या में पड़ रहा है अर्जुन। अगर यह अर्जुन भाग जाए छोड़कर, तो यह दिक्कत में पड़ेगा। इसको फिर अपनी इंद्रियों को दबाना पड़ेगा। और इसके मन में यही सब उपद्रव चलेगा।

कृष्ण अर्जुन को सीधा नहीं कह रहे हैं कि तू मिथ्या में पड़ रहा है। क्योंकि हो सकता है, ऐसा कहने से अहंकार मजबूत हो जाए। और अर्जुन कहे, मिथ्या में? कभी नहीं; मैं और मिथ्या में! आप कैसी बात करते हैं? समझाना फिर मुश्किल होता चला जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, मिथ्या में पड़ जाता है ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रियों को दबा लेता है जो और भीतर जिसका मन रूपांतरित नहीं होता। तो मन जाता है पश्चिम, इंद्रियां हो जाती हैं पूरब, फिर उसके भीतर का सब संगीत टूट जाता है। ऐसा व्यक्ति रुग्ण, डिसीज्ड हो जाता है। और करीब-करीब सारे लोग ऐसे हैं। इसीलिए जीवन में फिर कोई आनंद, फिर कोई सुवास, कोई संगीत अनुभव नहीं होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...