गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 26

  निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया


एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।


हे पार्थयह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तूकर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।


अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंतक्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैंएक ही द्वार हैएक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैंवे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग हैएक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही हैजो नहीं पहुंचे हैंजो पहुंच गए हैंवे अनाग्रही हैं।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैंअब तक जो मैंने तुझसे कहावह सांख्य की दृष्टि थी।

सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग हैवह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लेंतो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।

पर कृष्ण ने क्यों सांख्य की ही पहले बात कर ली! सांख्य की इसलिए पहले बात कर ली कि अगर सांख्य काम में आ जाएतो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सकेतो ही फिर कोई और आवश्यकता है।

सांख्य का कहना यही है कि जानना ही काफी हैकरना कुछ भी नहीं है;  जानना पर्याप्त है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन हैवह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं हैजिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह हैजिसे मिटाना है। न ही कोई जगह हैजिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूंजानना है कि जो चारों तरफ फैला हैवह क्या हैसिर्फ जानना।

एक आदमीजो वस्तुतः चिंतित और परेशान हैविक्षिप्त हैपागल हैउससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगाजानता तो मैं काफी हूंजानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है।

कृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले सांख्य की दृष्टि कहीक्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई जरूरत नहीं है। न काम में आएतो फिर किसी और बात के कहने की जरूरत पड़ सकती है।तो कृष्ण ने कहा कि अभी जो मैंने तुझसे कहा अर्जुनवह सांख्य की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त कृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की कोशिश कीकि आत्मा अमर हैन उसका जन्म हैन उसकी मृत्यु है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त थाअव्यक्त होगाबीच में व्यक्त का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैंवे पहले भी थेआगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने के भय से भयभीत हो रहा हैउन्हें मारा नहीं जा सकता है।


इस पूरे समय कृष्ण क्या कर रहे हैंकृष्ण अर्जुन को ऐसे  किसी विचार के लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कणकोई स्मृति चोट कर जाए और वह कहे कि ठीकयही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा वह नहीं कह पाता।

वह शिथिल गातअपने गांडीव को रखेउदास मनवैसा ही हताशविषाद से घिरा बैठा है। वह कृष्ण की बातें सुनता है।  कहीं भी उसे स्मरण नहीं आता कि वह दौड़कर कहेकि यह रहा मैंठीक हैबात अब बंद करोपहचान आ गईरिकग्नीशन हुआप्रत्यभिज्ञा हुईस्मरण आ गया है। ऐसा वह कहता नहीं। वह बैठा है। वह रीढ़ भी नहीं उठातावह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण नहीं आ रहा है।

इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है। अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं। वे जो जानने से ही नहीं जान सकतेजिन्हें कुछ करना ही पड़ेगाजो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकते-- अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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