श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ ३ ॥
श्री- भगवान् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; लोके-संसार में; अस्मिन् - इस; द्विविधा - दो प्रकार की; निष्ठा - श्रद्धा पुरा- पहले प्रोक्ता कही गई मया- मेरे द्वारा; अनघ हे निष्पाप ज्ञान योगेन ज्ञानयोग के द्वारा; सांख्यानाम् ज्ञानियों का; कर्म योगेन- भक्तियोग के द्वारा; योगिनाम्-भक्तों का ।
श्रीभगवान् ने कहा हे निष्पाप अर्जुन! में पहले ही बता चुका हूँ कि आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं। कुछ इसे ज्ञानयोग द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं, तो कुछ भक्ति-मय सेवा के द्वारा ।
कहते हैं कृष्ण, निष्पाप अर्जुन! संबोधन करते हैं, निष्पाप अर्जुन! क्यों? क्यों? इसे थोड़ा समझना जरूरी है। यह एक बहुत मनोवैज्ञानिक संबोधन है।
मनोविज्ञान कहता है, चित्त में जितना ज्यादा पाप, अपराध और गिल्ट हो, उतना ही इनडिसीजन पैदा होता है। चित्त में जितना पाप हो, जितना अपराध हो, उतना चित्त डांवाडोल होता है। पापी का चित्त सर्वाधिक डांवाडोल हो जाता है। अपराधी का चित्त भीतर से भूकंप से भर जाता है।
बड़े मजे की बात है कि कृष्ण से पूछा है अर्जुन ने, कोई निश्चित बात कहें। कृष्ण जो उत्तर देते हैं, वह बहुत और है। वे निश्चित बात का उत्तर नहीं दे रहे हैं। वे पहले अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि वह भीतर निश्चित हो पाए। वे उससे कहते हैं, निष्पाप अर्जुन!
यह भी समझ लेने जैसा है कि पाप कम सताता है; पाप किया मैंने, यह ज्यादा सताता है। पाप के साथ एक मजा है कि पाप को हम छिपाना चाहते हैं। अगर इसे और ठीक से समझें, तो कहना होगा कि जिसे हम छिपाना चाहते हैं, वह पाप है। इसलिए जिसे हम प्रकट कर दें, वह पाप नहीं रह जाता। जिसे हम घोषित कर दें, वह पाप नहीं रह जाता।
यह भी बहुत मजे की बात है कि हम वही करते हैं, जो हमारी अपने बाबत इमेज होती है। अगर एक आदमी को पक्का ही पता है कि वह चोर है, तो उसे चोरी से बचाना बहुत मुश्किल है। वह चोरी करेगा ही। वह अपनी प्रतिमा को ही जानता है कि वह चोर की प्रतिमा है, और तो कुछ उससे हो भी नहीं सकता। इसलिए अगर हम एक आदमी को चारों तरफ से सुझाव देते रहें कि तुम चोर हो, तो हम अचोर को भी चोर बना सकते हैं।
इससे उलटा भी संभव है, घटित होता है। अगर हम चोर को भी सुझाव दें चारों तरफ से कि तुम चोर नहीं हो, तो हम उसे चोर होने में कठिनाई पैदा करते हैं। अगर दस भले आदमी एक बुरे आदमी को भला मान लें, तो उस बुरे आदमी को भले होने की सुविधा और मार्ग मिल जाता है।
इसलिए सारी दुनिया में धर्मों ने बहुत-बहुत रूप विकसित किए थे। सब रूप विकृत हो जाते हैं, लेकिन इससे उनका मौलिक सत्य नष्ट नहीं होता।
हम इस देश में कहते थे कि गंगा में स्नान कर आओ, पाप धुल जाएंगे। गंगा में कोई पाप नहीं धुल सकते। गंगा के पानी में पाप धोने की कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है। लेकिन एक साइकोलाजिकल सत्य है कि अगर कोई आदमी पूरे भरोसे और निष्ठा से गंगा में नहाकर अनुभव करे कि मैं निष्पाप हुआ, तो लौटकर पाप करना मुश्किल हो जाएगा। डिसकंटिन्युटी हो गई। वह जो कल तक पापी था, गंगा में नहाकर बाहर निकला और अब वह दूसरा आदमी है, आइडेंटिटी टूटी। संभावना है कि उसको निष्पाप होने का यह जो क्षणभर को भी बोध हुआ है...।
गंगा कुछ भी नहीं करती। लेकिन अगर पूरे मुल्क के कलेक्टिव माइंड में, अगर पूरे मुल्क के अचेतन मन में यह भाव हो कि गंगा में नहाने से पाप धुलता है, तो गंगा में नहाने वाला निष्पाप होने के भाव को उपलब्ध होता है। और निष्पाप होने का भाव निश्चय में ले जाता है, पापी होने का भाव अनिश्चय में ले जाता है।
इसलिए अर्जुन तो पूछता है कि कृष्ण, कुछ ऐसी बात कहो, जो निश्चित हो और जिससे मेरा डांवाडोलपन मिट जाए। लेकिन कृष्ण कहां से शुरू करते हैं, वह देखने लायक है। कृष्ण कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन!
कृष्ण जैसे व्यक्ति के मुंह से जब अर्जुन ने सुना होगा, हे निष्पाप अर्जुन! तो गंगा में नहा गया होगा। सारी गंगा उसके ऊपर गिर पड़ी होगी, जब उसने कृष्ण की आंखों में झांका होगा और देखा होगा कि कृष्ण कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और कृष्ण जैसे व्यक्ति जब किसी को ऐसी बात कहते हैं, तो सिर्फ शब्द से नहीं कहते; खयाल रखें! उनका सब कुछ कहता है। उनका रोआं-रोआं, उनकी आंख, उनकी श्वास, उनका होना--उनका सब कुछ कहता है, हे निष्पाप अर्जुन!
जब कृष्ण की उस गंगा में अर्जुन को निष्पाप होने का क्षणभर को बोध हुआ होगा। तो जो निश्चय कृष्ण के कोई वचन नहीं दे सकते, वह अर्जुन को निष्पाप होने से मिला होगा।
इसलिए कृष्ण पहले उसे मनोवैज्ञानिक रूप से उसके भीतर के आंदोलन से मुक्त करते हैं। कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और मजे की बात यह है कि यह कहकर, फिर वे वही कहते हैं कि दो निष्ठाएं हैं। वह कह चुके हैं। वह दूसरे अध्याय में कह चुके हैं। लेकिन तब तक अर्जुन को निष्पाप उन्होंने नहीं कहा था। अर्जुन डांवाडोल था। अब वे फिर कहते हैं कि दो तरह की निष्ठाएं हैं अर्जुन! सांख्य की और योग की, कर्म की और ज्ञान की।
एकदम तत्काल! कृष्ण ने तीन बार नहीं कहा कि हे निष्पाप अर्जुन, हे निष्पाप अर्जुन, हे निष्पाप अर्जुन। नियम यही था। अदालत में शपथ लेते हैं तो तीन बार। दुनिया के किसी भी सम्मोहनशास्त्री और मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहेगा कि जितनी बार सुझाव दो, उतना गहरा परिणाम होगा। कृष्ण कुछ ज्यादा जानते हैं। कृष्ण कहते हैं एक बार, और छोड़ देते हैं। क्योंकि दुबारा कहने का मतलब है, पहली बार कही गई बात झूठ थी क्या!
जब अदालत में एक आदमी कहता है कि मैं परमात्मा की कसम खाकर कहता हूं कि सच बोलूंगा; और फिर दुबारा कहता है कि मैं परमात्मा की कसम खाकर कहता हूं कि सच बोलूंगा; तो पहली बात का क्या हुआ! और जिसकी पहली बात झूठ थी, उसकी दूसरी बात का कोई भरोसा है? वह तीन बार भी कहेगा, तो क्या होगा?
कृष्ण एक बार कहते हैं इनोसेंटली--जैसे कि जानकर कहा ही नहीं--हे निष्पाप अर्जुन! और बात छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं; एक क्षण ठहरते भी नहीं। शक का मौका भी नहीं देते, हेजिटेशन का मौका भी नहीं देते, अर्जुन को विचारने का भी मौका नहीं देते। ऐसा भी नहीं लगता अर्जुन को कि उन्होंने कोई जानकर चेष्टा से कहा हो। बस, ऐसे संबोधन किया और आगे बढ़ गए।
असल में उसका निष्पाप होना, कृष्ण ऐसा मान रहे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं है। जैसे उन्होंने कहा हो, हे अर्जुन! और बस, ऐसे ही चुपचाप आगे बढ़ गए। जितना साइलेंट सजेशन, उतना गहरा जाता है। जितना चुप, जितना इनडायरेक्ट, जितना परोक्ष--चुपचाप भीतर सरक जाता है। जितनी तीव्रता से, जितनी चेष्टा से, जितना आग्रहपूर्वक--उतना ही व्यर्थ हो जाता है।
हे निष्पाप अर्जुन! आगे बढ़ गए वे और कहा कि दो निष्ठाएं हैं। अर्जुन को मौका भी नहीं दिया कि सोचे-विचारे, पूछे कि कैसा निष्पाप? क्यों कहा निष्पाप? मुझ पापी को क्यों कहते हैं? कोई मौका नहीं दिया। बात आई और गई, और अर्जुन के मन में सरक गई।
ध्यान रहे, जैसे ही चित्त सोचने लगता है, वैसे ही बात गहरी नहीं जाती है। चित्त ने सोचा, उसका मतलब है कि हुक्स में अटक गई। चित्त ने सोचा, उसका मतलब है कि ऊपर-ऊपर रह गई, लहरों में जकड़ गई--गहरे में कहां जाएगी! विचार तो लहर है। सिर्फ वे ही बातें गहरे में जाती हैं, जो बिना सोचे उतर जाती हैं। इसलिए सोचने का जरा भी मौका नहीं है। और सोचने का मौका दूसरी बात में है, ताकि इसमें सोचा ही न जा सके। वे कहते हैं, दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा है ज्ञान की, एक निष्ठा है कर्म की।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें