शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

 दशरथ पुत्र रामचन्द्र ने रावण के जीवनवृत्त के बारे में महर्षि अगस्त्य से प्रश्न किया था। अगस्त्य जी ने कहा- हे राम ! मैं आपको रावण के कुल और वर-प्राप्ति के संबंध में बताता हूं।

दादा महर्षि पुलस्त्य

हे राम ! प्राचीन समय में सतयुग में प्रजापति ब्रह्माजी के एक पुत्र 'पुलस्त्य' थे। वह ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के समान ही तेजस्वी और शूरवीर थे। उनके गुण, शील और धर्म का पूर्ण वर्णन करना संभव नहीं लगता। उनके विषय में केवल इतना कहना ही पूर्ण है कि वह प्रजापति ब्रह्माजी के पुत्र थे।

एक बार वह धार्मिक यात्रा के लिए महागिरि सुमेरु पर्वत के पास राजर्षि तृणविन्दु के आश्रम में गए और वहीं पर रहने लगे।वह दानवीर-धर्मात्मा तपस्या करते हुए, स्वाध्याय और जितेंद्रिय में संलग्न रहते थे। परन्तु कुछ कन्याएं उनके आश्रम में पहुंच कर उनकी तपस्या में विघ्न पैदा करती थीं।

राजर्षियों, नागों और ऋषियों की कन्याएं तथा कुछ अन्य अप्सराएं भी खेल-खिलाव करती हुईं उनके आश्रम के क्षेत्र में प्रवेश कर जाती थीं।

जिस स्थान पर ब्राह्मण श्रेष्ठ पुलस्त्यजी रहते थे, वह तो अत्यधिक रमणीय था। अतः सभी कन्याएं उस स्थान पर पहुंच कर प्रतिदिन नृत्य, गायन, वादन करती थीं।

अपनी इन विभिन्न गतिविधियों द्वारा वे सभी कन्याएं मुनि के तप में बाधा एवं विघ्न पैदा करती थीं। इस कारण ही एक दिन महामुनि महातेजस्वी कुछ क्रोधित हो उठे।

अतः उन्होंने यह घोषणा कर दी कि कल से मुझे इस स्थान पर जो कन्या दिखाई पड़ेगी, वह गर्भवती हो जाएगी। उनके इस वाक्य को सुनकर वे सभी कन्याएं भयभीत हो गईं। उस ब्रह्मशाप के भय से डरकर उन्होंने उस आश्रम क्षेत्र में जाना छोड़ दिया। किन्तु राजर्षि तृणविन्दु की कन्या ने ऋषि के इस शाप को नहीं सुना था । वह कन्या अगले दिन भी बिना किसी भय के उस आश्रम में जाकर विचरण करने लगी।

उसने देखा कि वहां उसकी कोई भी अन्य सखी नहीं है। उस समय वहां प्रजापति के पुत्र महातेजस्वी महान् ऋषि पुलस्त्यजी अपनी तपस्या में संलग्न होकर वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे।

उनकी वेदों की आवाज सुनकर वह उसी ओर चली गई और वहां उसने तपोनिधि मुनिजी को देखा। महर्षि पुलस्त्यजी को देखते ही उस कन्या का शरीर पीला पड़ गया और वह गर्भवती हो गई। उस भयंकर दोष को अपने शरीर में देखकर वह राजकन्या घबरा गई। तदुपरान्त वह यह सोचती हुई कि मुझे यह क्या हो गया है, अपने पिता के आश्रम में जा पहुंची।

कन्या की स्थिति को देखकर तृणविन्दु ने पूछा- तुम्हारे शरीर की यह दशा कैसे हो गई?

उस समय उस दीनभावापन्न कन्या ने अपने तपस्वी पिता से हाथ जोड़कर कहा- हे तात! मैं उस वजह को नहीं जानती जिसके कारण मेरा शरीर ऐसा हो गया है। 

कुछ समय पहले अपनी सखियों को ढूंढ़ती हुई मैं महर्षि पुलस्त्य के आश्रम में गई थी। परन्तु वहां पर मैंने अपनी किसी भी सहेली को नहीं पाया। उस समय ही मेरा शरीर ऐसा विकृत हो गया। यह देखकर मैं भय के कारण यहां चली आई हूं।

राजर्षि तृणविन्दु अपनी घोर तपस्या के कारण स्वयं प्रकाशित थे। जब उन्होंने अन्तर ध्यान होकर देखा तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह सब कुछ ऋषि पुलस्त्य के कारण हुआ है।

महर्षि के शाप को जानने के बाद वे अपनी पुत्री के साथ महामुनि पुलस्त्यजी के आश्रम में जा पहुंचे और उनसे कहने लगे।

हे भगवान्! यह मेरी पुत्री अपने गुणों से विभूषित है। हे महर्षि! इसे आप स्वयं अपने आप प्राप्त होने वाली भिक्षा के रूप में ग्रहण कर लें।

आप तपस्या तथा आराधना करने के कारण थकान का अनुभव करते होंगे। यह आपकी सेवा में संलग्न रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।

धर्मात्मा राजर्षि के इस कथन पर, ब्रह्मर्षि पुलस्त्यजी ने उस कन्या को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करते हुए कहा- बहुत अच्छा।

उस समय राजर्षि तृणविन्दु अपनी कन्या को महर्षि को सौंपकर अपने आश्रम लौट पड़े। उसके बाद वह कन्या अपने गुणों और बुद्धि की सहायता से अपने पति को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हुई वहां रहने लगी।

उस कन्या ने अपने सदाचरण और शील व्यवहार से मुनिश्रेष्ठ को संतुष्ट कर दिया। उसके कारण एक दिन महातेजस्वी मुनिवर पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर उससे कहा।

हे सुन्दरी! मैं तुम्हारे गुणों और व्यवहार के संपत्ति रूपी भण्डार से बहुत प्रसन्न हूं, अतः हे देवी! मैं तुम्हें अब एक ऐसा पुत्र प्रदान करूंगा जो ठीक मेरे जैसा ही होगा।

माता-पिता दोनों के कुलों की प्रतिष्ठा को बढ़ावा देने वाला वह बालक 'पौलस्त्य' के नाम से प्रसिद्ध होगा। जब मैं वेद-पाठ कर रहा था, उस समय विशेष रूप से तुमने उसे श्रवण किया था।

अतः उस बालक का नाम 'विश्रवा' होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। महर्षि के यह कहने पर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हुई।

कुछ समय के बाद उस देवी ने विश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया जो धर्म, यश एवं परोपकार से समन्वित होकर तीनों लोकों में अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ।

'विश्रवा' नाम के यह मुनि वेदज्ञ, व्रत, आचारों और समदर्शी का पालन करने वाले ठीक अपने पिता के समान ही महान् तेजस्वी थे।

महर्षि पुलस्त्य के यह पुत्र मुनिश्रेष्ठ विश्रवा कुछ ही वर्ष बाद पिता की भांति तपस्या करने में संलग्न हो गए।

वे सत्यवादी, सदैव ही धर्म में तत्पर रहने वाले, स्वाध्यायी, पवित्र, परायण, जितेन्द्रिय एवं शीलवान् आदि सभी प्रकार के गुणों से संलिप्त थे।

महामुनि विश्रवा के इन महान गुणों तथा सदृत्तों के बारे में जानकारी पाकर महामुनि भारद्वाज ने देवाङ्गनाओं के समान अपनी सुन्दर कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया।

मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ विश्रवा ने महर्षि भारद्वाज की कन्या को प्रसन्नतापूर्वक तथा धर्मानुसार ग्रहण किया। फिर जन-प्रजा के हित-चिन्तन करने वाली बुद्धि द्वारा जन-कल्याण की कामना करते हुए उन्होंने उस कन्या के गर्भ से एक पराक्रमी तथा अद्भुत पुत्र उत्पन्न किया, जो उनके समान ही समस्त गुणों से सम्पन्न था।

रावण संहिता 

रविवार, 6 जुलाई 2025

 शिव-विवाह

सती विरह में भगवान् शंकर की विचित्र दशा हो गयी। वे दिन-रात सती का ही ध्यान करते और उसी की चर्चा करते। सती ने भी देहत्याग करते समय यही संकल्प किया था कि मैं पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म ग्रहण कर फिर से शंकरजी की अर्द्धांगिनी बनूं। भला जगदम्बा का संकल्प कहीं अन्यथा हो सकता है? वे काल पाकर हिमालय-पत्नी मैना के गर्भ में प्रविष्ट हुईं और यथासमय उनकी कोख से प्रकट हुईं। पर्वतराज की दुहिता होने के कारण वे 'पार्वती' कहलायीं। जब वे कुछ सयानी हुईं तो उनके माता-पिता को उनके अनुरूप वर तलाश करने की फिक्र पड़ी। एक दिन अकस्मात् देवर्षि नारद पर्वतराज के भवन में आ पहुंचे और कन्या को देखकर कहने लगे- इसका विवाह शंकरजी के साथ होना चाहिए, वही इसके योग्य हैं। यह जानकर कि साक्षात् जगन्माता सती ही उनके यहां प्रकट हुई हैं, पार्वती के माता-पिता के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे मन ही मन अपने भाग्य की सराहना करने लगे।

एक दिन अकस्मात् शंकरजी सती विरह में व्याकुल, घूमते-घामते उसी प्रदेश में जा पहुंचे और पास ही गंगावतरण-स्थान में तपस्या करने लगे। हिमालय को जब इस बात का पता लगा तो वे अपनी पुत्री को साथ लेकर शिवजी के पास पहुंचे और अनुनय-विनय पूर्वक अपनी पुत्री को सेवा में ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिवजी ने पहले तो उनकी सेवा स्वीकार करने में आनाकानी की, किन्तु पार्वती की अनुपम भक्ति देखकर उनका आग्रह न टाल सके। अब तो पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ लेकर शंकरजी की सेवा में उपस्थित होने लगीं। वे उनके बैठने का स्थान झाड़-बुहारकर साफ कर देतीं और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो, इस बात का सदा ध्यान रखतीं। वे नित्यप्रति उनके चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से उनकी पूजा करतीं।

इस प्रकार पार्वती को भगवान् शंकर की सेवा करते सुदीर्घ काल व्यतीत हो गया। किन्तु त्रिभुवन सुन्दरी पूर्णयौवना बाला पार्वती से इस प्रकार एकान्त में सेवा लेते रहने पर भी शंकर के मन में कभी विकार नहीं उत्पन्न हुआ। वे सदा आत्मस्मरण करते हुए समाधि में निश्चल रहते।

इधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास देने लगा। यह जानकर कि शिव के पुत्र से ही उसकी मृत्यु हो सकती है, वे शिव-पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने हेतु कामदेव को सिखा-पढ़ाकर उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटे वह उनकी क्रोधाग्नि से भस्म हो गया। शंकरजी भी वहां अधिक रहना अपनी तपश्चर्या के लिए अन्तराय रूप समझ कैलास की ओर चल दिए। पार्वती को शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किन्तु उन्होंने निराश न होकर अबकी बार तप के द्वारा शंकर को सन्तुष्ट करने की मन में ठानी। उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत कुछ मना किया। इसीलिए उनका नाम 'उमा' = उ+मा (तप न करो) प्रसिद्ध हुआ।

किन्तु पार्वतीजी अपने संकल्प से तनिक भी विचलित नहीं हुईं। वे तपस्या हेतु घर से निकल पड़ीं और जहां शिवजी ने तपस्या की थी, उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं। तभी से लोग उस शिखर को 'गौरी-शिखर' कहने लगे। वहां उन्होंने पहले वर्ष फलाहारी जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे पर्ण (वृक्षों के पत्ते) खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया, इसीलिए वे 'अपर्णा' कहलायीं। इस प्रकार उन्होंने तीन हजार वर्ष तक घोर तपस्या की। उनकी कठोर तपश्चर्या को देखकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अन्त में भगवान् आशुतोष का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तऋषियों को भेजा और बाद में स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।

जब उन्होंने सब प्रकार से जांच-परखकर देख लिया कि पार्वती की उनमें अविचल निष्ठा है, तब वह अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरन्त अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अन्तर्धान हो गए।

पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख अपने घर लौट आयीं और अपने माता-पिता से शंकरजी के प्रकट होने तथा वरदान देने का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अपनी एकमात्र दुलारी पुत्री की कठोर तपश्चर्या को फलोन्मुख देखकर हिमालय ने शंकर जी के पास विवाह का संदेश भेजा। इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित हुई। शंकरजी ने नारदजी के द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमन्त्रित किया और निश्चित तिथि को ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र प्रभृति सारे प्रमुख देवता अपने-अपने दल-बल सहित कैलास पर आ पहुंचे। उधर हिमाचल ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियां कीं। शुभलग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना देखकर मैना बहुत डर गयीं। वे उनके साथ अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। बाद में जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह-गेह की सुधि भूल गयीं। उन्होंने शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। हर-गौरी का शुभविवाह आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ तथा हिमाचल ने बड़े चाव से कन्यादान किया। भगवान् विष्णु, अन्यान्य देव और अन्य प्राणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उछाह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।

रावण संहिता 

 ईश्वर भक्ति में प्रेमयोग

कैलासपति भगवान् शिव के प्रति अनन्य प्रेम होने में ही इस जीवन की सार्थकता है। जिस बड़भागी ने इस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूष का पान कर लिया, उसका जन्म सफल हो जाता है। उसकी युग-युग की, जन्म-जन्मों की विषय-पिपासा बुझ जाती है। भवताप से संतप्त प्राणी भगवत्प्रेम की पावन मन्दाकिनी में निमज्जन करके ही पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकता है। यही वह परम रस है, जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है। उसके प्राप्त होने पर प्राणी इच्छा-शोक-राग-द्वेष आदि की परिधि से बाहर अनन्त अगाध आनन्दराशि में तरंगायमान होता रहता है। वह न तो विषय-भोगों में रमता है और न उनमें कभी उसका उत्साह ही होता है।

प्रेम साधन भी है और साधनों का फल यानी साध्य भी। परमात्मा की ही भांति प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है। गूंगे के स्वाद की तरह यह वाणी का विषय नहीं होता। इसलिए प्रेम का स्वरूप अलौकिक बताया गया है; क्योंकि वह लोक से सर्वथा विलक्षण है।

लौकिक प्रेम भोग-कामनाओं और दुर्वासनाओं से वासित होने के कारण शुद्ध नहीं होता। जहां वासना का आधिपत्य है, वह प्रेम नहीं, आसक्तिमूल मोह है। इसके अलावा लौकिक प्रेम के आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान होते हैं; अतः वह भगवत्प्रेम के सामने हेय ही है। यदि भगवत्प्रेम भी किसी कामना से किया जाए तो वह सकाम कहलाता है। सकाम प्रेम में दिव्यता, अनन्यता एवं विशुद्धता का अभाव होता है। कामना लौकिक वस्तु के लिए ही होती है, अतः लौकिकता का सम्मिश्रण हो जाने से उसकी दिव्यता नष्ट हो जाती है तथा उक्त कामना में वह प्रेम बंट जाता है, इसलिए उसमें ऐकनिष्ठता एवं अनन्यता नहीं रह जाती।

इसी प्रकार कामना से मिश्रित या दूषित हो जाने से वह प्रेम विशुद्ध नहीं रह पाता। दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनों गुणों से अतीत और कामनाओं से रहित होता है। यह प्रतिक्षण बढ़ता है, कभी घटता नहीं, वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म होता है, उसे वाणी द्वारा नहीं व्यक्त किया जा सकता, यह तो अनुभव की वस्तु है। हेतु या कामना ही प्रेम का दूषण है, निर्हेतुक अथवा निष्काम प्रेम में कामना की गन्ध भी नहीं है, इसलिए यह शुद्ध है। अपने अभिन्न प्रियतम परमात्मा भगवान् शंकर के सिवा कोई दूसरा इस प्रेम का लक्ष्य नहीं है, इसलिए यह अनन्य है तथा ऊपर कहे अनुसार लोक से सर्वथा विलक्षण होने के कारण यह प्रेम दिव्य है।

इस प्रेम को पाकर प्रेमी सदा आनन्द में मस्त रहता है। संसार की सारी चिन्ताएं उसका स्पर्श भी नहीं कर सकतीं, उसकी दृष्टि में प्रेम के सिवा और कुछ रह ही नहीं जाता। यह तो प्रेम को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता और प्रेम का ही वर्णन तथा चिन्तन करता है। उसके मन, प्राण और आत्मा प्रेम की ही गंगा में अनवरत अवगाहन करते रहते हैं। वह अपने सब धर्म और आचरण प्रेममय भगवान् शंकर को ही अर्पण कर देता है। वह उनकी पलभर के लिए भी याद भूलने पर अत्यन्त व्याकुल और बेचैन हो जाता है। वह सर्वत्र प्रेममय भगवान् को ही देखता है, सब कुछ भगवान् में ही देखता है, ऐसी दृष्टि रखने वाले की नजरों से भगवान् अलग नहीं हो सकते तथा वह भी भगवान् से अलग नहीं हो सकता। इस प्रकार दोनों का नित्य ऐक्य शाश्वत संयोग बना रहता है। भगवान् ऐसे भक्त का लोकोत्तर अनुराग देख अपनी महेश्वरता भूल जाते हैं और मुग्ध होकर अपने प्राणप्रिय भक्त को निहारते रहते हैं। उसके साथ उसी के अनुरूप बनकर उसकी इच्छा के अनुकूल विग्रह धारण कर खेलते, नृत्य करते, गाते, बजाते और आनन्दित होते रहते हैं।

प्रेमी भक्त मिलन और विछोह की चिन्ता से भी परे होता है। उसे क्या गरज पड़ी है, जो मिलने के लिए विकल हो। उसे तो केवल प्रेम करना है, वह भी प्रेम के लिए। वह प्रेम तत्वज्ञ प्रियतम स्वयं ही मिले बिना नहीं रह सकता। उसे गरज होगी तो स्वयं ही आएगा, भक्त क्यों मिलने के लिए परेशान हो? वह विछोह से भी क्यों डरे? उसे अपने लिए तो सुख या आनन्द की चाह है नहीं; वह तो सब कुछ उस प्रियतम के ही सुख के लिए करता है। यदि उसे मिलन में सुख मिलता है तो स्वयं ही आकर मिले। विछोह से दुःख होता हो तो अपने आप दौड़ा आएगा, न होगा तो बुलाने से भी नहीं आएगा। इसीलिए जो निष्काम प्रेमी होते हैं, वे भगवान् को बुलाते भी नहीं।

वास्तव में न तो भगवान् को दर्शन देने के लिए बुलाने की आवश्यकता है, न रोकने की। बिना किसी कामना या हेतु के ही भगवान् में केवल प्रेम बढ़ाना आवश्यक है। अहंकार से दूर रहकर संयोग-वियोग की चिन्ता से बेपरवाह होकर उत्तरोत्तर प्रेम बढ़ता रहे, इसी के लिए सारा प्रयत्न-सम्पूर्ण चेष्टा होनी उचित है। भक्त प्रहलाद ने कभी प्रार्थना नहीं की कि मुझे दर्शन दो। सब कुछ भगवान् ने अपने आप ही किया।

भगवत्प्रेमी का पूजन; खाना, पीना, रोना-गाना आदि सब भगवत्प्रीत्यर्थ होना चाहिए। प्रेमी का प्रेममय भगवान् के सिवा कोई दूसरा लक्ष्य न हो। दार्शन-मिलन आदि तो आनुषंगिक फल हैं। अपने आप प्राप्त होते हैं। इस प्रेम की पूर्णता उस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम में ही है, जहां प्रेम, प्रेमी और प्रियतम की एकता होती है।

ऐसा प्रेम उस दिव्य प्रेम का साक्षात् स्वरूप होता है। उसकी वाणी प्रेम से ओतप्रोत तथा शरीर और मन प्रेमरस में सराबोर होते हैं। उसका रोम-रोम प्रेमानन्द से थिरकता दिखायी देता है। उसके साथ सम्भाषण, उसका चिन्तन तथा उसके निकट गमन करने से अपने अन्दर प्रेम के परमाणु आते हैं। उसका स्पर्श पाकर नीरस हृदय में भी प्रेम का संचार होता है। बड़े-बड़े नास्तिक भी उसके सम्पर्क में आने पर सब कुछ भूलकर प्रेम दीवाने बन सकते हैं। उसके अनन्य अनुराग या अलौकिक भावोद्रेक को ठीक-ठीक हृदयंगम कराने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं हैं। समझाने के लिए उसके भाव को चाहे कोई भाव कह दिया जाए; वास्तव में वह सब भावों से ऊपर होता है। यहां न भाव है, न अभाव। उसकी स्थिति सभी भावों से परे है। साख्यभाव से भी इस दिव्य प्रेम की तुलना नहीं हो सकती। यह साख्य से भी ऊंचा है। दास्यभाव से भी उस अनन्य प्रेम का भाव अत्यन्त उत्कृष्ट है। दास्यभाव में ऊंच-नीच, स्वामी-सेवक की दृष्टि है, पर यहां तो पूर्ण समता है-न कोई सेवक है, न स्वामी। भक्त भगवान् की प्रेम गंगा में निमज्जन करके प्रसन्न होता है तो भगवान् भी वैसे ही प्रेम में मग्न हो जाते हैं।

वात्सल्यभाव से भी इस दिव्य अनन्यभाव का स्थान ऊंचा है। वहां उस लोकोत्तर साम्य का दर्शन नहीं होता, जो यहां सहज ही अनुभव में आता है। उसमें छोटे-बड़े, पिता-पुत्र आदि भाव रहते हैं, किन्तु यहां न कोई छोटा है, न बड़ा; न कोई माता-पिता है, न कोई किसी का पुत्र। सब एक समान हैं। माधुर्यभाव से भी यह अद्भुत प्रेमभाव और परकीयाभाव है। परम श्रेष्ठ सतीशिरोमणि पतिव्रता नारी का अपने प्रियतम पति के प्रति जो भाव होता है, वही स्वकीयाभाव है तथा परस्त्री का परपुरुष में जो गुप्त प्रेम होता है, उसी भाव से जो भगवान् के दिव्य स्वरूप में उच्च श्रेणी का प्रेम हो, उसे परकीयाभाव कहते हैं। उपर्युक्त प्रेमी इन सभी भावों से ऊपर उठा होता है।

भगवान् के साथ उसका एक क्षण के लिए भी कभी वियोग नहीं होता। भगवान् उसके अधीन होते हैं, उसके हाथों बिके रहते हैं। उसका साथ छोडकर कहीं जाते ही नहीं। वह अनन्यप्रेमी भक्त पूर्ण प्रेममय-भगवन्मय हुआ रहता है। भगवान् से वह भिन्न नहीं, भगवान् उससे भिन्न नहीं। इस अवस्था में न भय है न संकोच, मान, आदर और सत्कार का भी यहां कुछ खयाल नहीं रहता। बड़े-छोटे का कोई लिहाज नहीं किया जाता। उन (भक्त और भगवान) में न कोई उत्तम है न मध्यम। दोनों समान हैं। पतिव्रता पति को नारायण मानती है और अपने को उनकी दासी। यह भाव बड़ा ही उत्तम और परम कल्याणकारी है। फिर भी इसमें बड़े-छोटे का दर्जा तो है ही। परन्तु उपर्युक्त दिव्य प्रेम में बड़े-छोटे की कोई श्रेणी नहीं है। वहां दोनों की समान अवस्था है।

परकीयाभाव में भी दूसरों से भय है, छिपाव है, सदा यह डर बना रहता है कि कोई जान न ले, पर यहां इस दिव्य प्रेम में न भय है, न छिपाव। फिर संकोच की तो बात ही क्या है। भगवान के गुण और प्रभाव से प्रभावित होकर ही परकीया का मन उनकी ओर आकृष्ट होता है। जहां अपने से अन्यत्र श्रेष्ठता का अनुभव है, वहां अपने में किंचित् न्यूनता का आभास भी है। अतः वहां भी निर्भीकता एवं पूर्ण समानता नहीं है। परन्तु अनन्य और विशुद्ध प्रेम में गुण एवं प्रभाव के गुण और प्रभाव से प्रभावित होकर ही परकीया का मन उनकी ओर आकृष्ट होता है। जहां अपने से अन्यत्र श्रेष्ठता का अनुभव है, वहां अपने में किंचित् न्यूनता का आभास भी है। अतः वहां भी निर्भीकता एवं पूर्ण समानता नहीं है। परन्तु अनन्य और विशुद्ध प्रेम में गुण एवं प्रभाव की विस्मृति है। स्मृति होने पर भी उनका कोई मूल्य नहीं है। यहां तो दोनों में अनिर्वचनीय ऐक्य है। वहां सर्वशक्तिमान और सर्वान्तर्यामी कहकर स्तवन नहीं किया जाता। स्तुति की अवस्था तो बहुत पहले ही समाप्त हो जाती है। अब तो कौन सर्वशक्तिमान और कहां का सर्वेश्वर दोनों एक हैं, समान हैं। दोनों ही एक-दूसरे के प्रेमी और प्रियतम हैं; इनमें परस्पर हेतुरहित सहज प्रेम होता है। इसमें भक्त और भगवन्त-सब एक हो जाते हैं। किसी भावुक भक्त के निम्नांकित वचन से भी इसी भाव की पुष्टि हुई है

त्रिधाप्येकं सदागम्यं गम्यमेकप्रभेदने । 

प्रेम प्रेमी प्रेमपात्रं त्रितयं प्रणतोऽस्म्यहम् ।।

अर्थात् प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र (प्रियतम) - देखने में तीन होने पर भी वास्तव में एक हैं। इनका तत्व सदा सबकी समझ में नहीं आता। इन्हें एक रूप ही जानना चाहिए। मैं इन तीनों को, जो वस्तुतः एक हैं, प्रणाम करता हूं। ऐसे अनन्य प्रेमी की दृष्टि में सर्वत्र और सदा ही दिव्य प्रेम की अखण्ड ज्योति जगमगाती रहती है। वह सम्पूर्ण जगत पर समान रूप से प्रेमामृत की वर्षा करता है। उसकी दृष्टि में कोई घृणा या द्वेष का पात्र नहीं है। उसके लिए सर्वत्र ही प्रेम का महासागर लहराता है। ज्ञानमार्ग से चलने वाले महात्मा अद्वैत-अभेद रूप से ब्रह्म को प्राप्त होते हैं- 'ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति।' पर यहां तो इस दिव्य प्रेम-संसार की अनुभूति ही निराली है। यहां न द्वैत है, न अद्वैत ! दोनों से विलक्षण स्थिति है। प्रेमी और प्रियतमा का नित्य-नूतन प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता है। 'प्रतिक्षणं वर्धमानम्' की स्थिति में पुष्ट होता है। बढ़ते-बढ़ते यह असीम अनन्त हो जाता है कि उनमें द्वैत का सा भान नहीं होता। इनके दिव्य भाव को वाणी द्वारा व्यक्त करना असम्भव है। यहां प्रेम के सिवा कुछ रहता ही नहीं। इन प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण और अत्यन्त अलौकिक होता है। यहां अद्वैत होते हुए भी द्वैत है और द्वैत होते हुए भी अद्वैत । हमारे दोनों हाथ परस्पर मिलकर एक हो जाते हैं। उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो। इस प्रकार यहां न भेद है, न अभेद।

गंगा और समुद्र मिलकर एक से हो जाते हैं, किन्तु भगवान् और अनन्यप्रेमी भक्त का दिव्य मिलन इनसे भी विलक्षण एवं उत्कृष्ट है। वह अलौकिक एवं अनिर्वचनीय अवस्था है। भेद-अभेद से परे की फलरूपा स्थिति है। यह मिलन नित्य है। यहां वस्त्र, आभूषण या आयुध का व्यवधान भी वांछनीय नहीं है। वस्त्र का व्यवधान लज्जा-निवारण के लिए अपेक्षित होता है और लज्जा दूसरे से होती है। यहां तो प्रेमी और प्रियतम एकप्राण हो चुके हैं। भला अपने से भी कोई लज्जा करता है। यदि बंद एकान्त कमरे में अपने सिवा कोई दूसरा न हो तो लज्जा निवारण के लिए वस्त्र की आवश्यकता नहीं होती। इस दिव्य मिलन में द्वैतभाव मिट चुका है, दूसरों की ही दृष्टि में भेद प्रतीत होता है। इस मिलन में तो आभूषण भी दूषण जान पड़ते हैं। यहां परस्पर मान-सम्मान, आदर-सत्कार का भी कोई व्यवहार नहीं है। जहां पूर्णरूप से प्रेम है, वहां आदर-सत्कार तो एक विघ्न है। क्या कोई स्वयं ही अपना आदर करता है।

इस स्थिति में शोक, मोह और भय आदि का नामोनिशान भी नहीं रहता। यहां तो देखने मात्र की भिन्नता होते हुए भी वास्तव में पूर्ण एकत्व है। अनन्य प्रेमी का ऊपरी व्यवहार चाहे जैसा हो, भीतर से वह एकनिष्ठ है, भगवन्मय है, इसीलिए वह भगवान् में नित्य स्थित है। जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझ शिव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मेरे में ही बरतता है क्योंकि उसके अनुभव में मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं। यह द्वैत-अद्वैत, भेद-अभेद से विलक्षण एवं अनिर्वचनीय स्थिति है। इस अनन्य प्रेम को प्राप्त करना ही मानवमात्र का वास्तविक लक्ष्य है। इसी की प्राप्ति में जन्म और जीवन की सार्थकता है।

रावण संहिता 

 दशरथ पुत्र रामचन्द्र ने रावण के जीवनवृत्त के बारे में महर्षि अगस्त्य से प्रश्न किया था। अगस्त्य जी ने कहा- हे राम ! मैं आपको रावण के कुल और...