दशरथ पुत्र रामचन्द्र ने रावण के जीवनवृत्त के बारे में महर्षि अगस्त्य से प्रश्न किया था। अगस्त्य जी ने कहा- हे राम ! मैं आपको रावण के कुल और वर-प्राप्ति के संबंध में बताता हूं।
दादा महर्षि पुलस्त्य
हे राम ! प्राचीन समय में सतयुग में प्रजापति ब्रह्माजी के एक पुत्र 'पुलस्त्य' थे। वह ब्रह्मर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के समान ही तेजस्वी और शूरवीर थे। उनके गुण, शील और धर्म का पूर्ण वर्णन करना संभव नहीं लगता। उनके विषय में केवल इतना कहना ही पूर्ण है कि वह प्रजापति ब्रह्माजी के पुत्र थे।
एक बार वह धार्मिक यात्रा के लिए महागिरि सुमेरु पर्वत के पास राजर्षि तृणविन्दु के आश्रम में गए और वहीं पर रहने लगे।वह दानवीर-धर्मात्मा तपस्या करते हुए, स्वाध्याय और जितेंद्रिय में संलग्न रहते थे। परन्तु कुछ कन्याएं उनके आश्रम में पहुंच कर उनकी तपस्या में विघ्न पैदा करती थीं।
राजर्षियों, नागों और ऋषियों की कन्याएं तथा कुछ अन्य अप्सराएं भी खेल-खिलाव करती हुईं उनके आश्रम के क्षेत्र में प्रवेश कर जाती थीं।
जिस स्थान पर ब्राह्मण श्रेष्ठ पुलस्त्यजी रहते थे, वह तो अत्यधिक रमणीय था। अतः सभी कन्याएं उस स्थान पर पहुंच कर प्रतिदिन नृत्य, गायन, वादन करती थीं।
अपनी इन विभिन्न गतिविधियों द्वारा वे सभी कन्याएं मुनि के तप में बाधा एवं विघ्न पैदा करती थीं। इस कारण ही एक दिन महामुनि महातेजस्वी कुछ क्रोधित हो उठे।
अतः उन्होंने यह घोषणा कर दी कि कल से मुझे इस स्थान पर जो कन्या दिखाई पड़ेगी, वह गर्भवती हो जाएगी। उनके इस वाक्य को सुनकर वे सभी कन्याएं भयभीत हो गईं। उस ब्रह्मशाप के भय से डरकर उन्होंने उस आश्रम क्षेत्र में जाना छोड़ दिया। किन्तु राजर्षि तृणविन्दु की कन्या ने ऋषि के इस शाप को नहीं सुना था । वह कन्या अगले दिन भी बिना किसी भय के उस आश्रम में जाकर विचरण करने लगी।
उसने देखा कि वहां उसकी कोई भी अन्य सखी नहीं है। उस समय वहां प्रजापति के पुत्र महातेजस्वी महान् ऋषि पुलस्त्यजी अपनी तपस्या में संलग्न होकर वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे।
उनकी वेदों की आवाज सुनकर वह उसी ओर चली गई और वहां उसने तपोनिधि मुनिजी को देखा। महर्षि पुलस्त्यजी को देखते ही उस कन्या का शरीर पीला पड़ गया और वह गर्भवती हो गई। उस भयंकर दोष को अपने शरीर में देखकर वह राजकन्या घबरा गई। तदुपरान्त वह यह सोचती हुई कि मुझे यह क्या हो गया है, अपने पिता के आश्रम में जा पहुंची।
कन्या की स्थिति को देखकर तृणविन्दु ने पूछा- तुम्हारे शरीर की यह दशा कैसे हो गई?
उस समय उस दीनभावापन्न कन्या ने अपने तपस्वी पिता से हाथ जोड़कर कहा- हे तात! मैं उस वजह को नहीं जानती जिसके कारण मेरा शरीर ऐसा हो गया है।
कुछ समय पहले अपनी सखियों को ढूंढ़ती हुई मैं महर्षि पुलस्त्य के आश्रम में गई थी। परन्तु वहां पर मैंने अपनी किसी भी सहेली को नहीं पाया। उस समय ही मेरा शरीर ऐसा विकृत हो गया। यह देखकर मैं भय के कारण यहां चली आई हूं।
राजर्षि तृणविन्दु अपनी घोर तपस्या के कारण स्वयं प्रकाशित थे। जब उन्होंने अन्तर ध्यान होकर देखा तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह सब कुछ ऋषि पुलस्त्य के कारण हुआ है।
महर्षि के शाप को जानने के बाद वे अपनी पुत्री के साथ महामुनि पुलस्त्यजी के आश्रम में जा पहुंचे और उनसे कहने लगे।
हे भगवान्! यह मेरी पुत्री अपने गुणों से विभूषित है। हे महर्षि! इसे आप स्वयं अपने आप प्राप्त होने वाली भिक्षा के रूप में ग्रहण कर लें।
आप तपस्या तथा आराधना करने के कारण थकान का अनुभव करते होंगे। यह आपकी सेवा में संलग्न रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।
धर्मात्मा राजर्षि के इस कथन पर, ब्रह्मर्षि पुलस्त्यजी ने उस कन्या को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करते हुए कहा- बहुत अच्छा।
उस समय राजर्षि तृणविन्दु अपनी कन्या को महर्षि को सौंपकर अपने आश्रम लौट पड़े। उसके बाद वह कन्या अपने गुणों और बुद्धि की सहायता से अपने पति को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हुई वहां रहने लगी।
उस कन्या ने अपने सदाचरण और शील व्यवहार से मुनिश्रेष्ठ को संतुष्ट कर दिया। उसके कारण एक दिन महातेजस्वी मुनिवर पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर उससे कहा।
हे सुन्दरी! मैं तुम्हारे गुणों और व्यवहार के संपत्ति रूपी भण्डार से बहुत प्रसन्न हूं, अतः हे देवी! मैं तुम्हें अब एक ऐसा पुत्र प्रदान करूंगा जो ठीक मेरे जैसा ही होगा।
माता-पिता दोनों के कुलों की प्रतिष्ठा को बढ़ावा देने वाला वह बालक 'पौलस्त्य' के नाम से प्रसिद्ध होगा। जब मैं वेद-पाठ कर रहा था, उस समय विशेष रूप से तुमने उसे श्रवण किया था।
अतः उस बालक का नाम 'विश्रवा' होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। महर्षि के यह कहने पर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हुई।
कुछ समय के बाद उस देवी ने विश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया जो धर्म, यश एवं परोपकार से समन्वित होकर तीनों लोकों में अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ।
'विश्रवा' नाम के यह मुनि वेदज्ञ, व्रत, आचारों और समदर्शी का पालन करने वाले ठीक अपने पिता के समान ही महान् तेजस्वी थे।
महर्षि पुलस्त्य के यह पुत्र मुनिश्रेष्ठ विश्रवा कुछ ही वर्ष बाद पिता की भांति तपस्या करने में संलग्न हो गए।
वे सत्यवादी, सदैव ही धर्म में तत्पर रहने वाले, स्वाध्यायी, पवित्र, परायण, जितेन्द्रिय एवं शीलवान् आदि सभी प्रकार के गुणों से संलिप्त थे।
महामुनि विश्रवा के इन महान गुणों तथा सदृत्तों के बारे में जानकारी पाकर महामुनि भारद्वाज ने देवाङ्गनाओं के समान अपनी सुन्दर कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया।
मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ विश्रवा ने महर्षि भारद्वाज की कन्या को प्रसन्नतापूर्वक तथा धर्मानुसार ग्रहण किया। फिर जन-प्रजा के हित-चिन्तन करने वाली बुद्धि द्वारा जन-कल्याण की कामना करते हुए उन्होंने उस कन्या के गर्भ से एक पराक्रमी तथा अद्भुत पुत्र उत्पन्न किया, जो उनके समान ही समस्त गुणों से सम्पन्न था।
रावण संहिता
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