गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 1

 कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास



श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।। 1।।


श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला संन्यासी, योगी नहीं है; तथा केवल क्रियाओं को त्यागने वाला भी संन्यासी, योगी नहीं है।


कृष्ण के साथ इस पृथ्वी पर एक नए संन्यास की धारणा का जन्म हुआ। संन्यास सदा से संसार-विमुख धारा थी--संसार के विरोध में, शत्रुता में। जीवन का निषेध, कृष्ण के पहले तक संन्यास की व्याख्या थी। जो छोड़ दे सब--कर्म को, गृह को, जीवन के सारे रूप को--निष्क्रिय हो जाए, पलायन में चला जाए, हट जाए जीवन से, वैसा ही व्यक्ति संन्यासी था। कृष्ण ने संन्यास को बहुत नया आयाम दिया। वह नया आयाम इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं।

अर्जुन के मन में भी यही खयाल था संन्यास का। अर्जुन भी यही सोचता था कि सब छोड़कर चला जाऊं, तो जीवन संन्यास को उपलब्ध हो जाएगा। अर्जुन भी सोचता था, कर्तव्य छोड़ दूं, करने योग्य है वह छोड़ दूं, कुछ भी न करूं, अक्रिय हो जाऊं, निष्क्रिय हो जाऊं, अकर्म में चला जाऊं, तो संन्यास को उपलब्ध हो जाऊंगा। लेकिन कृष्ण ने उससे इस सूत्र में कहा है, फल की आकांक्षा न करते हुए जो कर्म को करता है, उसे ही मैं संन्यासी कहता हूं। उसे नहीं, जो कर्म को छोड़ देता है मात्र, लेकिन फल की आकांक्षा जिसकी शेष रहती है। जो बाह्य रूपों को छोड़ देता है, लेकिन अंतर जिसका पुराना का पुराना ही बना रह जाता है, उसे मैं संन्यासी नहीं कहता हूं।

तो संन्यास की इस धारणा में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो संन्यास का बहिर रूप है; लेकिन एक संन्यास की अंतरात्मा भी है। पुराना संन्यास बहिर रूप पर बहुत जोर देता था। कृष्ण का संन्यास अंतरात्मा के रूपांतरण पर, इनर ट्रांसफार्मेशन पर जोर देता है।

कर्म को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। आलसी भी कर्म को छोड़कर बैठ जाते हैं। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा ने आलसियों को आकर्षित किया हो, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। और इसलिए, अगर पुराने संन्यास की धारणा को मानने वाले समाज धीरे-धीरे आलसी हो गए हों, तो भी आश्चर्य नहीं है। जो कुछ भी नहीं करना चाहते हैं, उनके लिए पुराने संन्यास में बड़ा रस मालूम होता है। कुछ न करना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है।

इस जगत में कोई भी कुछ नहीं करना चाहता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो कुछ करना चाहता है। लेकिन सारे लोग करते हुए दिखाई पड़ते हैं, इसलिए नहीं कि कर्म में बहुत रस है, बल्कि इसलिए कि फल बिना कर्म के नहीं मिलते हैं। हम कुछ चाहते हैं, जो बिना कर्म के नहीं मिलेगा। अगर यह तय हो कि हमें बिना कर्म किए, जो हम चाहते हैं, वह मिल सकता है, तो हम सभी कर्म छोड़ दें, हम सभी संन्यासी हो जाएं! लेकिन चाह पूरी करनी है, तो कर्म करना पड़ता है। यह मजबूरी है, इसलिए हम कर्म करते हैं।
कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, कर्म तो तुम करो और फल की आशा छोड़ दो। हम कर सकते हैं आसानी से, कर्म न करें और फल की आशा करें। जो आसान है, वह यह मालूम पड़ता है कि हम कर्म तो न करें और फल की आशा करें। और अगर कोई फल पूरा कर दे, तो हम कर्म छोड़ने को सदा ही तैयार हैं। कृष्ण इससे ठीक उलटी ही बात कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि कर्म तो तुम करो ही, फल की आशा छोड़ दो। यह फल की आशा छूट जाए, तो कृष्ण के अर्थों में संन्यास फलित होगा।


फल की आशा के बिना कर्म कौन कर पाएगा? कर्म करेगा ही कोई क्यों? दौड़ते हैं, इसलिए कि कहीं पहुंच जाएं। चलते हैं, इसलिए कि कोई मंजिल मिल जाए। आकांक्षाएं हैं, इसलिए श्रम करते हैं; सपने हैं, इसलिए संघर्ष करते हैं। कुछ पाने को दूर कोई तारा है, इसलिए जन्मों-जन्मों तक यात्रा करते हैं।

वह तारा तोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, वह तारा तोड़ दो। नाव तो खेओ जरूर, लेकिन उस तरफ कोई किनारा है, उसका खयाल छोड़ दो। पहुंचना है कहीं, यह बात छोड़ दो; पहुंचने की चेष्टा जारी रखो।

असंभव मालूम पड़ेगा। अति कठिन मालूम पड़ेगा। फिर नाव किसलिए चलानी है, जब कोई तट पर पहुंचना नहीं!

पर कृष्ण बहुत अदभुत बात कहते हैं। वे यह कहते हैं कि नाव चलाने से कोई तट पर नहीं पहुंचता, जन्मों-जन्मों तक चलकर भी कोई मंजिल पर नहीं पहुंचता, आकांक्षाएं करने से कोई आकांक्षाएं पूरी होती नहीं हैं। लेकिन जो आदमी नाव चलाए और किनारे पर पहुंचने का खयाल छोड़ दे, उसे बीच मझधार भी किनारा बन जाती है। और जो आदमी कल की आशा छोड़ दे और आज कर्म करे, कर्म ही उसका फल बन जाता है, कर्म ही उसका रस बन जाता है। फिर कर्म और फल में समय का व्यवधान नहीं होता। फिर अभी कर्म और अभी फल।
संन्यास जीवन का त्याग नहीं है कृष्ण के अर्थों में, जीवन का परम भोग है।

जीवन का रहस्य ही यही है कि हम जिसे पाना चाहते हैं, उसे हम नहीं पा पाते हैं। जिसके पीछे हम दौड़ते हैं, वह हमसे दूर हटता चला जाता है। जिसके लिए हम प्रार्थनाएं करते हैं, वह हमारे हाथ के बाहर हो जाता है। जीवन करीब-करीब ऐसा है, जैसे मैं मुट्ठी में हवा को बांधूं। जितने जोर से कसता हूं मुट्ठी को, हवा उतनी मुट्ठी के बाहर हो जाती है। खुली मुट्ठी में हवा होती है, बंद मुट्ठी में हवा नहीं होती। हालांकि जिसने मुट्ठी बांधी है, उसने हवा बांधने को बांधी है।

जीवन को जो लोग जितनी वासनाओं-आकांक्षाओं में बांधना चाहते हैं, जीवन उतना ही हाथ के बाहर हो जाता है। अंत में सिवाय रिक्तता, विषाद के कुछ भी हाथ नहीं पड़ता है।

कृष्ण कहते हैं, खुली रखो मुट्ठी; आकांक्षा से बांधो मत, इच्छा से बांधो मत। जीओ, लेकिन किसी आगे भविष्य में कोई फल मिलेगा, इसलिए नहीं। फिर किसलिए? हम पूछना चाहेंगे कि फिर किसलिए जीओ?

कृष्ण कहते हैं, जीना अपने में ही आनंद है

जीने के लिए कल की इच्छा से बांधना नासमझी है। जीना अपने में ही आनंद है। यह पल भी काफी आनंदपूर्ण है। और तब श्रम ही अपने में आनंद हो जाए, कर्म ही अपने में आनंद हो जाए, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।

लेकिन कृष्ण के समय तक सारा संन्यास भगोड़ा था, पलायनवादी था। हट जाओ। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां से हट जाओ। जहां-जहां पीड़ा है, वहां-वहां से हट जाओ। लेकिन कृष्ण कहते हैं, पीड़ा स्थान की वजह से नहीं है; पीड़ा वासना के कारण है। वही उनकी बुनियादी खोज है।

पीड़ा इसलिए नहीं है कि आप बाजार में बैठे हो; और जंगल में बैठोगे, तो सुख हो जाएगा। अगर आप जिस भांति दुकान पर बैठे हो, उसी भांति मंदिर में बैठ गए, तो कोई सुख न होगा। आप ही तो मंदिर में बैठ जाओगे! आप बाजार में थे; आप ही जंगल में बैठ जाओगे। आपमें कोई फर्क न हुआ, तो जंगल में उतनी ही पीड़ा है, जितनी बाजार में दुकान पर थी।

सवाल यह नहीं है कि जगह बदल ली जाए। जगह का कोई भी संबंध नहीं है। जहां आज आपकी दुकान है, कल कभी वहां जंगल रहा था। और कल कभी कोई संन्यास लेकर उस जंगल में आकर बैठ गया होगा। जगह वही है; अब वहां दुकान है। जहां आज जंगल है, कल दुकान हो जाएगी। जहां आज दुकान है, कल जंगल हो जाएगा। जगहों में कोई अंतर नहीं है। जमीन ने तय नहीं कर रखा है कि कहां जंगल हो और कहां दुकान हो। दुकान तय होती है मन से, स्थान से नहीं। दुकान तय होती है मनःस्थिति से, परिस्थिति से नहीं।

कृष्ण कहते हैं, अगर तुम तुम ही रहे, तो तुम कहीं भी भाग जाओ, दुख तुम्हारे साथ पहुंच जाएगा। वह तुम्हारे भीतर है, वह तुममें है, वह तुम्हारी वासना में है, वह तुम्हारी इच्छा में है। जहां इच्छा है, वहां दुख छाया की तरह पीछा करेगा। इसलिए भागो जंगल में, गुफाओं में, हिमालय पर, कैलाश पर। दुख को तुम पाओगे कि वह तुम्हारे साथ मौजूद है। खोलोगे आंख, पाओगे, सामने खड़ा है। बंद करोगे आंख, पाओगे, भीतर बैठा है।

दुख उस चित्त में निवास करता है, जो वासना में जीता है।

फिर यह भी मजे की बात है कि जो आदमी संसार छोड़कर भागता है, वह भी वासनाएं छोड़कर नहीं भागता। वह भी किसी वासना के लिए संसार छोड़कर भागता है। इस बात को भी थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। वह पाना चाहता होगा मोक्ष, पाना चाहता होगा परमात्मा, पाना चाहता होगा स्वर्ग, पाना चाहता होगा शांति, पाना चाहता होगा आनंद। लेकिन पाना जरूर चाहता है।

एक आदमी को सिनेमा जाना होता है, तो दुकान छोड़कर जाता है। एक आदमी को वेश्या को खरीदना होता है, तो कुछ छोड़कर खरीदना होता है। एक ही चीज से आप सब चीजें नहीं खरीद सकते। एक चीज छोड़नी पड़ती है, तो दूसरी चीज खरीद सकते हैं। जीवन का अपना अर्थशास्त्र है।

आपके खीसे में एक रुपया पड़ा हुआ है। रुपया बहुत चीजें खरीद सकता है। जब तक नहीं खरीदा है, तब तक रुपया बहुत चीजें खरीद सकता है। लेकिन जब खरीदने जाएंगे, तो एक ही चीज खरीद सकता है। जब आप एक चीज खरीदेंगे, तो बाकी जो चीजें रुपया खरीद सकता था, उनका त्याग हो गया। अगर आपने एक रुपए से टिकट खरीद ली और रात जाकर सिनेमा में बैठ गए, तो आप एक रुपए से और जो खरीद सकते थे, उस सबका आपने त्याग कर दिया। आप भी त्याग करके वहां गए हैं। हो सकता है, बच्चे को दवा की जरूरत हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो सकता है, पत्नी के तन पर कपड़ा न हो, उसको कपड़े की जरूरत हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो सकता है, आपका खुद का पेट भूखा हो, लेकिन आपने अपनी भूख का त्याग कर दिया।

जगत में जीवन का एक अर्थशास्त्र है। यहां एक इच्छा पूरी करनी हो, तो दूसरी इच्छाएं छोड़नी पड़ती हैं। तो जो आदमी संसार की इच्छाएं छोड़कर जंगल चला जाता है, पूछना जरूरी है, वह क्या पाने वहां जा रहा है? कहेगा, परमात्मा को पाने जा रहा हूं, आत्मा को पाने जा रहा हूं, आनंद को पाने जा रहा हूं। लेकिन इच्छाओं को छोड़कर अगर किसी इच्छा को पाने ही जा रहे हैं, तो आप संन्यासी नहीं हैं।

कृष्ण कहते हैं संन्यासी उसे, जो किसी इच्छा के लिए और इच्छाओं को नहीं छोड़ता, जो इच्छाओं को ही छोड़ देता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। किसी इच्छा के लिए छोड़ना, तो सभी से हो जाता है। नहीं, इच्छाओं को ही छोड़ देता है।

हम कहेंगे कि इच्छा छूटी कि कर्म छूट जाएगा! हम कहेंगे कि इच्छा अगर छूट जाए, तो फिर हम कर्म क्यों करेंगे? यह भी हमारा इच्छा से भरा हुआ मन सवाल उठाता है। क्योंकि हमने बिना इच्छा के कभी कोई कर्म नहीं किया है। लेकिन कृष्ण गहरा जानते हैं। वे जानते हैं कि इच्छा छूट जाए, तो भी कर्म नहीं छूटेगा, सिर्फ गलत कर्म छूट जाएगा। यह दूसरा सूत्र इस सूत्र में समझ लेने जैसा है।

इसलिए वे कहते हैं, जो करने योग्य है, वही कर्म। जैसे ही इच्छा छूटी कि गलत कर्म छूट जाएगा, ठीक कर्म नहीं छूटेगा। क्योंकि ठीक कर्म जीवन से वैसे ही निकलता है, जैसे झरने सागर की तरफ बहते हैं। ठीक कर्म जीवन में वैसे ही खिलता है, जैसे वृक्षों में फूल खिलते हैं। ठीक कर्म जीवन का स्वभाव है।

गलत कर्म जीवन का स्वभाव नहीं है। इच्छाओं के कारण गलत कर्म जीवन करने को मजबूर होता है। जो आदमी चोरी करता है, वह भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं चोर हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि मजबूरी में मैंने चोरी की है; मैं चोर नहीं हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि ऐसा दबाव था परिस्थिति का कि मुझे चोरी करनी पड़ी है, वैसे मैं चोर नहीं हूं। बुरे से बुरा कर्म करने वाला भी ऐसा नहीं मानता कि मैं बुरा हूं। वह ऐसा ही मानता है, एक्सिडेंट है बुरा कर्म।

आज तक पृथ्वी पर ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ, जिसने कहा हो कि मैं बुरा आदमी हूं। वह इतना ही कहता है, आदमी तो मैं अच्छा हूं, लेकिन दुर्भाग्य कि परिस्थितियों ने मुझे बुरा करने को मजबूर कर दिया।

लेकिन परिस्थितियां! उसी परिस्थिति में बुद्ध भी पैदा हो जाते हैं; उसी परिस्थिति में एक डाकू भी पैदा हो जाता है; उसी परिस्थिति में एक हत्यारा भी पैदा हो जाता है। एक ही घर में भी तीन लोग तीन तरह के पैदा हो जाते हैं। बिलकुल एक-सी परिस्थिति भी एक-से आदमी पैदा नहीं कर पाती।

परिस्थिति भेद कम डालती है; इच्छाएं भेद ज्यादा डालती हैं।

इच्छाएं इतनी मजबूत हों, तो हम सोचते हैं कि एक इच्छा पूरी होती है, थोड़ा-सा बुरा भी करना हो, तो कर लो। इच्छा की गहरी पकड़ बुरा करने के लिए राजी करवा लेती है। बुरा काम भी कोई आदमी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए करता है। बुरा काम भी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने मन को समझा लेता है कि इच्छा इतनी अच्छी है, साध्य इतना अच्छा है, इसलिए अगर थोड़े गलत मार्ग भी पकड़े गए, तो बुरा नहीं है। और ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे साधारणजन ऐसा सोचते हैं, बड़े बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग भी ऐसा ही सोचते हैं। मार्कस या लेनिन जैसे लोग भी ऐसा ही सोचते हैं कि अगर अच्छे अंत के लिए बुरा साधन उपयोग में लाया जाए, तो कोई हर्जा नहीं है; ठीक है। लेकिन हम जो करना चाहते हैं, वह तो अच्छा ही करना चाहते हैं।
बुरे से बुरे आदमी की भी तर्क-शैली यही है कि जो मैं करना चाहता हूं, वह तो अच्छा ही है। अगर मैं एक मकान बना लेना चाहता हूं और उसकी छाया में दोपहर विश्राम करना चाहता हूं, तो बुरा क्या है! सहज, स्वाभाविक, मानवीय है। फिर इसके लिए थोड़ी कालाबाजारी करनी पड़ती है, थोड़ी चोरी करनी पड़ती है, थोड़ी रिश्वत देनी पड़ती है, वह मैं दे लेता हूं। क्योंकि उसके बिना यह नहीं हो सकेगा।

कृष्ण कहते हैं कि जिस आदमी की इच्छाएं छूट जाएं, उस आदमी के बुरे कर्म तत्काल छूट जाते हैं। लेकिन अच्छे कर्म नहीं छूटते।

अच्छा कर्म वही है--उसकी परिभाषा अगर मैं देना चाहूं, तो ऐसी देना पसंद करूंगा--अच्छा कर्म वही है, जो बिना इच्छा के भी चल सके। और बुरा कर्म वही है, जो इच्छा के पैरों के बिना न चल सके। जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा जरूरी हो, वह बुरा है; और जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा बिलकुल भी गैर-जरूरी हो, वह कर्म अच्छा है। अच्छे का एक ही अर्थ है, जीवन के स्वभाव से निकले, जीवन से निकले।

कृष्ण कहते हैं, अगर इच्छाएं छोड़ दे कोई और सिर्फ कर्म करे, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं।

यह बड़ी इसोटेरिक, बड़ी गुह्य व्याख्या है। साधारणतः यही दिखाई पड़ता है संन्यासी और गृहस्थ का फर्क कि गृहस्थ वह है जो घर में रहे, संन्यासी वह है जो घर छोड़ दे। कृष्ण की परिभाषा में उलटा भी हो सकता है। घर में रहने वाला भी संन्यासी हो सकता है, घर छोड़ने वाला भी गृहस्थ हो सकता है।

कृष्ण की परिभाषा थोड़ी गहन है। अगर कोई आदमी घर छोड़ दे, किसी इच्छा के लिए, तो वह गृहस्थ है। और अगर कोई आदमी घर में चुपचाप रहा आए बिना किसी इच्छा के, तो वह संन्यासी है। अगर कोई आदमी अपने घर में बिना इच्छाओं के जीने लगे, तो घर आश्रम हो गया। और अगर कोई आदमी आश्रम में जाकर नई इच्छाओं के आस-पास जाल बुनने लगे, तो वह घर हो गया।

ऐसा संन्यासी आपने देखा है, जिसकी इच्छा न हो? अगर ऐसा संन्यासी नहीं देखा जिसकी इच्छा न हो, तो समझना कि आपने संन्यासी ही नहीं देखा है।

आदमी का मन, बहुत रूपों में अपने को बचाने में कुशल है। सब तरफ से अपने को बचाने में कुशल है। विपरीत स्थितियों में भी अपने को बचा लेता है। जंगल में भी बैठ जाएं, तो वहां भी इच्छा के जाल बुनता रहता है। मंदिर में, तीर्थ में भी बैठकर इच्छाओं के जाल बुनता रहता है। मन का काम ही इच्छाओं के जाल निर्मित करना है।

अगर हम ऐसा कहें कि मन ऐसा वृक्ष है, जिस पर इच्छाओं के पत्ते लगते हैं, लगते ही चले जाते हैं। एक पत्ता कुम्हलाया, गिरा नहीं कि नए पत्ते के पीके निकलने शुरू हो गए, अंकुरित होने लगे। अगर और गहरे में देखें, तो पुराना पत्ता गिरता तभी है, जब उसके नीचे से नया पत्ता उसे गिराने के लिए धक्के देने लगता है। एक इच्छा छूटती तभी है, जब दूसरी इच्छा जगह बनाने के लिए मांग करती है कि मुझे जगह खाली करो। एक इच्छा हटती तभी है, जब उससे भी प्रबल इच्छा धक्के देकर जगह बनाती है। मन में इच्छाएं निर्मित होती चली जाती हैं।

कृष्ण कहते हैं, इच्छाएं न हों, तो संन्यासी हो जाएगा। जिसमें इच्छाएं न रहीं, उसमें मन भी न रहा। क्योंकि मन और इच्छाएं एक ही चीज का नाम है। मन समस्त इच्छाओं का जोड़ है, समस्त कामनाओं का जोड़, समस्त तृष्णाओं का जोड़। अगर इच्छाएं न रही, तो मन न रहा।

कृष्ण कहते हैं, जिसके पास मन न रहा, वह संन्यासी है। कर्म न रहा, नहीं; मन न रहा, वह संन्यासी है।

बुरे कर्म तो गिर जाएंगे, क्योंकि बुरे कर्म बिना इच्छाओं के कोई भी नहीं कर सकता।

इसमें एक बहुत गहन आस्था भी प्रकट की गई है।

कृष्ण की मनुष्य पर निष्ठा अपरिसीम है। इतनी निष्ठा शायद ही किसी दूसरे व्यक्ति की पृथ्वी पर कभी रही हो। जो आदमी भी मानता है कि तुम्हें अच्छा होना पड़ेगा, उस आदमी की आदमी पर बहुत निष्ठा नहीं है। कृष्ण की निष्ठा है कि आदमी तो अच्छा है, सिर्फ मन मौजूद न हो, तो आदमी की अच्छाई में कोई कमी ही नहीं है। वह अच्छा है ही। वह स्वभावतः अच्छा है। वह शुभ है। इतनी ही शर्त काफी है कि वह इच्छाएं छोड़ दे और उसके भीतर शुभ का जन्म हो जाएगा। वह बिलकुल शुद्ध, पवित्रतम, निर्दोष, निष्कलंक प्रकट हो जाएगा। उसकी इनोसेंस, उसका निर्दोषपन जाहिर हो जाएगा।

जैसे दर्पण पर धूल जम गई हो और धूल को किसी ने पोंछ दिया हो और दर्पण शुद्ध हो जाए। लेकिन क्या आप कहेंगे कि जब दर्पण पर धूल थी, तब दर्पण अशुद्ध हो गया था? आपको तस्वीर नहीं दिखाई पड़ती थी, यह बात दूसरी है। लेकिन दर्पण तब भी अशुद्ध नहीं हो गया था। दर्पण तब भी पूरा ही दर्पण था। सिर्फ धूल की एक पर्त थी कि तस्वीर दिखाई नहीं पड़ती थी। दर्पण में धूल कहीं घुस नहीं गई थी, प्रवेश नहीं कर गई थी, बाहर ही बाहर थी। फूंक मार दी, झाड़ दी। धूल हट गई, दर्पण साफ हो गया।

कृष्ण की दृष्टि में आदमी दर्पण की तरह शुद्ध है। इच्छाएं करता है, तो धूल इकट्ठी कर लेता है चारों तरफ, इच्छाओं के कण इकट्ठे कर लेता है।

अभी पश्चिम में इस बात पर काफी चिंतन-मनन चलता है कि जब आदमी इच्छाएं करता है, तो क्या उसके मन में कोई अंतर पड़ता है इच्छाओं के करने से? जब एक आदमी क्रोध से भरता है, तब उसके पास वही मन रहता है, जो क्रोध करने के पहले था? जब एक आदमी क्षमा से भरता है, तब उसके पास वही मन रहता है, जो क्रोध के वक्त था?

तो अब मनोविज्ञान कहता है कि मन तो वही रहता है, लेकिन मन के आस-पास की चीजें बदल जाती हैं। जब आदमी क्रोध से भरता है, तो शरीर की ग्रंथियां ऐसे जहर को छोड़ देती हैं, जो मन को चारों तरफ से घेर लेता है, पायजनस कर देता है, जैसे दर्पण को धूल घेर ले। और जब आदमी प्रेम से भरता है, तो उसकी रस-ग्रंथियां उसके सारे शरीर से उस अमृत को छोड़ देती हैं; तब भी मन वही रहता है, लेकिन उसके चारों तरफ रस की धार बहने लगती है--उसी आदमी के पास।

कृष्ण और भी गहरी बात कहते हैं। वे कहते हैं कि आदमी की चेतना तो निर्दोष है ही। बस, तुमने चाहा कि दोष इकट्ठे होने शुरू हुए। वे भी बाहर ही इकट्ठे होते हैं, भीतर प्रवेश नहीं करते। एक क्षण को भी कोई इच्छाएं छोड़ दे, तो वे सारे दोष गिर जाते हैं। और तब बुरा कर्म असंभव हो जाता है। लेकिन शुभ कर्म जारी रहता है। सच तो यह है कि जो शक्ति हमारे बुरे कर्म में लगती है, वह सारी शक्ति बच जाती है और शुभ कर्म में समायोजित हो जाती है।

कृष्ण के लिए, कर्म इच्छाओं के कारण से नहीं होते; कर्म जीवन के स्वभाव की स्फुरणा है; जीवन की एनर्जी से होते हैं। जहां शक्ति है, वहां कर्म आएगा। क्योंकि शक्ति कर्म में प्रकट होना चाहती है।

यह परमात्मा इतने बड़े विराट जगत में प्रकट होता है, यह उसकी ऊर्जा है, शक्ति है, जो प्रकट होना चाहती है। जमीन से एक पत्थर हटा लिया और एक फव्वारा फूटने लगा। यह फव्वारा कहीं जाने को नहीं फूट रहा है। इसके भीतर ऊर्जा है, वह प्रकट होना चाहती है।

आदमी की अगर इच्छाएं गिर जाएं, तो उसके जीवन की पूरी ऊर्जा शुभ में प्रकट होना चाहती है। इच्छाओं रहित चेतना शुभ की ऊर्जा को प्रकट करने लगती है।

तो कृष्ण कहते हैं, बुरे कर्म गिर जाएंगे। जो करने योग्य है, वही किया जा सकेगा। इसको ही मैं संन्यास कहता हूं। उसको नहीं कि जिसने अग्नि छोड़ दी।

उन दिनों अग्नि को छोड़ना बहुत बड़ी घटना थी। इसको थोड़ा खयाल में ले लें। यह सूत्र जब कहा गया, तब अग्नि को छोड़ना बहुत बड़ी घटना थी। आज हमारे मन में खयाल आएगा कि यह क्या बात कहते हैं कृष्ण कि जिसने अग्नि छोड़ दी! आज हमारे लिए अग्नि उतनी बड़ी घटना नहीं है। लेकिन जिस दिन यह बात कही गई थी, उस दिन अग्नि उतनी ही बड़ी घटना थी, जितनी अगर हम आज सोचना चाहें, तो सिर्फ एक ही बात खयाल में आ सकती है। जैसे आज अगर हम कहें कि जिस व्यक्ति ने यंत्रों का उपयोग छोड़ दिया! आज अगर पैरेलल, समानांतर कोई बात कहना चाहें; अगर आज हम कहें कि जिस व्यक्ति ने यंत्रों का उपयोग छोड़ दिया!

तो आप सोचें कि यंत्र के उपयोग छोड़ने में करीब-करीब जीवन का सब कुछ छूट जाएगा। क्योंकि आज जीवन को यंत्र ने सब तरफ से घेर लिया है। वह आदमी ट्रेन में नहीं बैठ सकेगा। वह आदमी माइक से नहीं बोल सकेगा। वह आदमी चश्मा नहीं लगा सकेगा। वह आदमी कपड़ा नहीं पहन सकेगा। सब यंत्र पर निर्भर है। वह आदमी फाउंटेनपेन से नहीं लिख सकेगा। वह आदमी जाकर नाई से बाल नहीं बनवा सकेगा। थोड़ा सोचें कि जिस आदमी ने यंत्र का उपयोग छोड़ दिया, उसके जीवन में क्या बच रहेगा? कुछ नहीं बच रहेगा।

उस दिन अग्नि इतनी ही बड़ी घटना थी। तो उस दिन कृष्ण कहते हैं कि जिसने अग्नि छोड़ दी। उस दिन सब कुछ अग्नि पर निर्भर था: भोजन, जीवन की सुरक्षा, जीवन की व्यवस्था। अग्नि बहुत बड़ी घटना थी। जब तक अग्नि नहीं थी आदमी के पास, तब तक आदमी इतना असुरक्षित था, कहना चाहिए, सभ्य नहीं था। आदमी सभ्य हुआ अग्नि के साथ।

अग्नि नहीं थी, तो मांसाहार भोजन के अतिरिक्त और कोई उपाय न था। या कच्चे फल खा लेता, या मांस खा लेता। अग्नि थी, तो भोजन पकाकर उसने खाना शुरू किया। अग्नि नहीं थी, तो दिनभर ही घूम-फिर सकता था। रात होते ही खतरे में पड़ जाता था। चारों तरफ जंगली जानवर थे, उनका भय था। रातभर आधे लोगों को पहरा देना पड़ता, आधे लोग सोते। तब भी खतरा हमेशा मौजूद रहता। सभ्य होने का मौका नहीं था। खाना और रात सो लेना, दो काम जीवन की सारी ऊर्जा ले लेते थे। अग्नि ने आकर बड़ा उपाय कर दिया। अग्नि ने सुरक्षा दे दी। जंगल का आदमी चारों तरफ अग्नि जलाकर बीच में आराम से सोने लगा। अग्नि पहला देवता था, आदमी को सभ्य करने वाला। सभ्यता आई अग्नि के साथ।

तो जिस जिन यह सूत्र कहा गया, उस दिन अग्नि ने जीवन को चारों तरफ से इसी तरह सिविलाइज किया था, सभ्य किया था, जैसे आज यंत्रों ने किया हुआ है।

अग्नि छोड़ दे जो उस दिन, उसका सब छूट जाता था। सब! उसके हाथ में कुछ बचता नहीं था। वह सभ्य जीवन से हट जाता था। वह असभ्य जीवन की ओर, वन की ओर, अरण्य की ओर हट जाता था। वह उसी दुनिया में लौट जाता, जहां अग्नि के पहले आदमी रहता था, गुफाओं में। हाथ से खाना नहीं पकाता था। आग जलाकर ठंड से अपने को नहीं बचाता था। वह वहां लौट जाता था। अग्नि छोड़ने का अर्थ यह है, गुफा-मानव की ओर वापस लौट जाए कोई।

तो भी कृष्ण कहते हैं, वह संन्यासी नहीं है। क्योंकि अगर यह कृत्य भी किसी वासना से प्रेरित होकर हो रहा है, तो संन्यास नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, वासनाशून्य कृत्य। कोई भी कृत्य वासना से शून्य हो जाए, फिर चाहे वह कृत्य कितना ही बड़ा हो। अर्जुन युद्ध में जाने को खड़ा है। कृष्ण कहते हैं, तू युद्ध में जा। अगर फल की आकांक्षा छोड़कर जा सके, तो यह युद्ध भी संन्यास है। फिर कोई हर्ज नहीं है।

अजीब बात कहते हैं! जो आदमी सब कुछ छोड़कर जंगल की गुफा में चला जाए, उसे कहते हैं, वह भी संन्यास नहीं। अर्जुन जो युद्ध में खड़ा है, युद्ध में लड़े, उससे कहते हैं, यह भी संन्यास है!

कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत सोचने जैसा है। सैद्धांतिक अर्थों में उतना मूल्यवान नहीं, जितना व्यावहारिक अर्थों में मूल्यवान है। अगर भविष्य में इस पृथ्वी पर कोई भी संन्यास बचेगा, तो वह कृष्ण का संन्यास बच सकता है, और कोई संन्यास बच नहीं सकता है। क्योंकि अगर आज कोई मान ले पुराने संन्यास की धारणा को; पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोग हैं, अगर ये छोड़कर जंगल में चले जाएं, तो जंगल में सिर्फ मेला भर जाएगा, और कुछ भी नहीं होगा! ये जहां जाएंगे, वहीं जंगल नहीं रहेगा। ये कहीं भी चले जाएं, ये जहां जाएंगे, वहीं जंगल सपाट हो जाएगा।

यह साढ़े तीन अरब लोगों की पृथ्वी, जो रोज बढ़ती जा रही है। इस सदी के पूरे होते-होते और एक अरब संख्या बढ़ जाएगी। और वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सौ वर्ष इसी तरह संख्या बढ़ती रही, तो आदमी को कोहनी हिलाने की जगह नहीं बचेगी। सब जगह, जहां भी जाएगा, कोई हाथ चारों तरफ लगा रहेगा। अब भागकर आप नहीं जा सकेंगे।

तो फिर क्या होगा संन्यास का? पुराना गुफा वाला संन्यास तो फिर नहीं हो सकेगा। तो फिर इस पृथ्वी पर संन्यास ही नहीं होगा? तब जो जीवन का एक बहुत अमृत-फूल नष्ट हो जाएगा। तब तो जीवन की एक बहुत अदभुत सुगंध--क्योंकि जिसने संन्यास नहीं जाना, उसने जीवन नहीं जाना--वह नष्ट हो जाएगा, वह खो जाएगा। कृष्ण का संन्यास बच सकता है।

इसलिए मुझे कई बार लगता है कि गीता भविष्य के लिए बहुत सार्थक होती चली जाएगी। उसकी दृष्टि भविष्य के लिए रोज अनुकूल पड़ती चली जाएगी। कृष्ण रोज करीब आते चले जाएंगे। क्योंकि वे गहरी बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, कहीं कोई जाने की जरूरत नहीं है। जहां हो वहीं, सिर्फ एक शर्त पूरी करो और तुम गृहस्थ न रह जाओगे। एक शर्त पूरी करो, और तुम संन्यासी हो जाओगे। और वह शर्त है कि तुम वासना मत करो, फल की आकांक्षा मत करो।

कठिन होगा समझना कि फल की आकांक्षा कैसे न करें! चौबीस घंटे के लिए प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा, अन्यथा शायद जीवनभर समझने से खयाल में न आ सके।

कुछ चीजें हैं इस जीवन में, जो प्रयोग करने से तत्काल समझ में आ जाती हैं। मुंह पर कोई शक्कर का एक टुकड़ा रख दे, और तत्काल समझ में आता है कि स्वाद क्या है। एक जरा-सा टुकडा ?एक क्षण की भी देर नहीं लगती, पूरा शरीर खबर देता है कि क्या है। और जिस आदमी ने नहीं स्वाद लिया हो, उसे हम पूरे के पूरे जीवनभर समझाते रहें कि स्वाद क्या है; वह कहेगा, आप कहते हैं, सब ठीक है। लेकिन फिर भी स्वाद क्या है, अभी समझ में नहीं आया। उसमें समझ की कोई गलती नहीं है। समझ का काम ही नहीं है; अनुभव का काम है। कुछ बातें हैं, जो समझ से समझ में आती हैं। बेकार बातें समझने से समझ में आ जाती हैं। गहरी और काम की बातें सिर्फ अनुभव से समझ में आती हैं, समझने से समझ में नहीं आतीं।

कृष्ण कहते हैं, फल की आकांक्षा छोड़ दो।

हजारों साल से हम सुन रहे हैं। गीता इतनी परिचित है, जितनी और कोई किताब परिचित नहीं है।  गीता के संबंध में बड़ा भ्रम हो गया है कि परिचित है। पढ़ ली, तो हम सोचते हैं, परिचित है। गीता से ज्यादा अपरिचित किताब मुश्किल है। एक अर्थ में ठीक है कि परिचित है। सभी लोगों के घरों में रखी है और धूल इकट्ठी करती है। सभी लोगों को पता है कि गीता में क्या लिखा है।

काश, सभी लोगों को पता होता, तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी हो सकती थी! नहीं, पता नहीं है। शब्द पता हैं। शायद अर्थ भी पता है, क्योंकि अर्थ शब्दकोश में मिल जाता है। अभिप्राय पता नहीं है, क्या प्रयोजन है!

ये कृष्ण कहते हैं कि तू फल कि आकांक्षा छोड़ दे और कर्म कर।

मैं आपसे कहूंगा, एक चौबीस घंटे के लिए--दुनिया नष्ट नहीं हो जाएगी--एक दिन प्रयोग कर लें। सुबह छः बजे से दूसरे दिन सुबह छः बजे तक फल की आकांक्षा छोड़ दें और कर्म करें। और आपकी जीभ पर स्वाद आ जाएगा। और आपको पता चलेगा कि कर्म हो सकता है, फल की आकांक्षा के बिना भी। और पहली दफे आपके जीवन में ऐसा कर्म होगा, जिसको हम टोटल एक्ट, पूर्ण कर्म कह सकते हैं। क्योंकि मन कहीं नहीं दौड़ेगा; फल की कोई आकांक्षा नहीं है। और एक बार आपको स्वाद आ जाए, तो मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि वे चौबीस घंटे फिर कभी खतम नहीं होंगे। छः बजे शुरू जरूर होगी यात्रा, लेकिन दूसरे छः फिर कभी नहीं बजेंगे।

एक बार स्वाद आ जाए, तो आपको पता चले कि इतने निकट जीवन के, इतना बड़ा सागर था आनंद का, हमने कभी नजर न की; हम चूकते ही चले गए। हमारी गर्दन ही तिरछी हो गई है। हम भागते ही चले जाते हैं। बस, चूकते चले जाते हैं। देख ही नहीं पाते कि किनारे कोई एक और स्वाद भी है जीवन का। कभी-कभी उसकी झलक मिलती है किन्हीं कृत्यों में।

कभी आप अपने बच्चे के साथ खेल रहे हैं, कोई फल की आकांक्षा नहीं होती। कभी आपने खयाल किया है कि बच्चे के साथ खेलने में कैसा आह्लाद! हां, अगर बड़े के साथ खेल रहे हैं, तो उतना आह्लाद नहीं होगा, क्योंकि बड़े के साथ खेल भी काम बन जाता है। बाजी! हार-जीत शुरू हो जाती है। फल की आकांक्षा आ जाती है। बाप अपने छोटे-से बेटे के साथ खेल रहा है। कभी आपने किसी बाप को अपने छोटे बेटे के साथ खेलते देखा? वैसे यह घटना दुर्लभ होती जाती है।

बाप अपने छोटे बेटे के साथ खेल रहा है। हराने का कोई सवाल नहीं उठता। हराने का खयाल भी नहीं उठता। हां, खेल में हार जाने का मजा जरूर वह लेता है। जमीन पर लेट गया है, बेटे को छाती पर बिठा लिया है। बेटा नाच रहा है खुश होकर; बाप को उसने हरा दिया है!

सभी बेटे बाप को हराना चाहते हैं। और जो बाप जिद्द करते हैं, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। और जो बाप होशियार हैं, वे खुद जमीन पर लेट जाते हैं और हार जाते हैं। और उनके बच्चे बाद में पछताते हैं कि बाप ने बहुत गहरी मजाक कर दी। लेकिन तब कोई आकांक्षा नहीं है, सिर्फ उस छोटे-से खेल में सब समा गया है।

नहीं, कभी चौबीस घंटे एक प्रयोग करके देखें, और वह प्रयोग आपकी जिंदगी के लिए कीमती होगा। उस प्रयोग को करने के पहले इस सूत्र को पढ़ें, फिर प्रयोग को करने के बाद इस सूत्र को पढ़ें, तब आपको पता चलेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। और एक काम भी अगर आप फल के बिना करने में समर्थ हो जाएं, तो आपकी पूरी जिंदगी पर फलाकांक्षाहीन कर्मों का विस्तार हो जाएगा। वही विस्तार संन्यास है।

होगा क्या? अगर आप फल की आकांक्षा न करें, तो क्या बनेगा, क्या मिट जाएगा?

कृष्ण कहते हैं कि जानो तुम कि जिस परमात्मा ने तुम्हें पैदा किया या जिस परमात्मा की तुम एक लहर हो, जिसने तुम्हें जीवन की ऊर्जा दी, वही तुमसे कर्म करवाता रहा है, वही तुमसे कर्म करवाता रहेगा। तुम जल्दी मत करो। तुम अपने सिर पर व्यर्थ का बोझ मत लो। तुम उसी पर छोड़ दो। तुम इसकी भी फिक्र छोड़ दो कि कल क्या होगा! जो होगा कल, वह कल देख लेंगे। जो आज हो रहा है, तुम उसमें राजी रहो। तुम अपने को पूरा छोड़ दो। जैसे कोई पानी में अपने को छोड़ दे और बह जाए। तैरे नहीं, बह जाए; जस्ट फ्लोटिंग। तैरने का भी श्रम मत करो। बस, बह जाओ। जीवन तुम्हें जो दे, उसमें चुपचाप बह जाओ। कोई आकांक्षा कल की मत बांधो, कोई फल निश्चित मत करो, कोई कर्म की नियति मत बांधो, वह प्रभु पर छोड़ दो। वह उस पर छोड़ दो, जो समग्र को जी रहा है। और ऐसा करते ही व्यक्ति संन्यासी हो जाता है।

संन्यासी वह है, जिसने कहा कि कर्म मैं करूंगा, फल तेरे हाथ। संन्यासी वह है, जिसने कहा कि शक्ति तूने मुझे दी है, तो काम करवा ले। न मुझे कल का पता है, न मुझे बीते कल का कोई पता है। न मुझे यह भी पता है कि क्या मेरे हित में है और क्या मेरे अहित में है। मुझे कुछ भी पता नहीं है। बाकी तू सम्हाल। जिसने जीवन की परम सत्ता को कहा कि सब तू सम्हाल; मुझमें जो ऊर्जा है, उससे जो काम लेना है, वह काम ले ले। काम मैं करूंगा, फल की बातचीत मुझसे मत कर। ऐसा व्यक्ति संन्यासी है। सच, ऐसा ही व्यक्ति संन्यासी है।



संन्यास का अर्थ ही यही है कि जिसने अपनी अस्मिता का बोझ अलग कर दिया, जिसने अपने अहंकार का बोझ अलग रख दिया, जिसने कहा कि अब समर्पित हूं। समर्पण संन्यास है।

समर्पित व्यक्ति फल की आकांक्षा नहीं करता। क्योंकि हम जानते ही नहीं कि क्या ठीक है और क्या गलत है। क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, यह भी हमें पता नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, मांगो ही मत। क्योंकि जिसने तुम्हें जीवन दिया, वह तुमसे ज्यादा समझदार है। तुम अपनी समझदारी मत बताओ। डोंट बी टू वाइज। बहुत बुद्धिमानी मत करो। जिसने तुम्हें जीवन दिया और जिसके हाथ से चांदत्तारे चलते हैं और अनंत जीवन जिससे फैलता है और जिसमें लीन हो जाता है, निश्चित, इतना तो तय ही है कि वह हमसे ज्यादा समझदार है। और अगर वह भी नासमझ है, तो फिर हमें समझदार होने की चेष्टा करनी बिलकुल बेकार है।

कृष्ण कहते हैं, उस पर छोड़ दो। तुम किए चले जाओ; सब उस पर छोड़ दो।

और बड़ा आश्चर्य तो यह है कि जो छोड़ देता है, वह सब पा लेता है जो मिलने जैसा है। 

संन्यासी वह है, जिसने फल का खयाल ही छोड़ दिया, जो आज जी रहा है, यहीं।

क्या आप सोच सकते हैं कि बिना फल के आप कुछ गलत काम कर सकेंगे? अगर चोर को भरोसा न हो कि रुपए मिल सकेंगे; तिजोरी लूट ही लूंगा, फल पा ही लूंगा; चोर चोरी करने जा सकेगा? असंभव है। आपके जीवन से बुरा कर्म तत्क्षण गिर जाएगा, अगर आकांक्षा और फल की कामना गिर गई। फिर भी जीवन की ऊर्जा काम करेगी। लेकिन तब प्रभु का हाथ बन जाती है जीवन की ऊर्जा, और वैसा प्रभु के हाथ बने हुए आदमी को कृष्ण संन्यासी कहते हैं। 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...