गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 27

  द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।। 28।।



और दूसरे कई पुरुष ईश्वर-अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं, वैसे ही कई पुरुष स्वधर्म पालन रूप तपयज्ञ को करने वाले हैं, और कई अष्टांग योगरूप यज्ञ को करने वाले हैं; और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञानयज्ञ के करने वाले हैं।



कृष्ण ने इस सूत्र में और बहुत-बहुत मार्गों से इस धर्म-यज्ञ को करने वाले लोगों का उल्लेख किया है। एक-एक को क्रमशः समझ लेना उपयोगी होगा।

पहला, ईश्वर-अर्पण भाव से सेवा को यज्ञ समझ लेने वाले लोग। ईश्वर-अर्पण भाव से सेवा को धर्म बना लेने वाले लोग, वे भी वहीं पहुंच जाते हैं। लेकिन शर्त है, ईश्वर-अर्पण भाव से।

सेवा अहंकार-अर्पित भी हो सकती है। जब मैं सेवा करूं किसी की और चाहूं कि वह मेरे प्रति अनुगृहीत हो, तो अहंकार-अर्पित हो गई सेवा। अगर चाहूं सेवा करके कि वह मुझे धन्यवाद दे, तो अहंकार-अर्पित हो गई सेवा।


सेवा मैं करूं और चाहूं कि परमात्मा को धन्यवाद दे; अनुग्रह परमात्मा का। मैं बीच में जरा भी नहीं। करूं, और हट जाऊं। मुझे पता ही न चले कि मैंने सेवा की; इतना ही पता चले कि परमात्मा ने मुझसे काम लिया। मुझे सेवक होने का कभी बोध भी न हो; सिर्फ परमात्मा का उपकरण होने का बोध हो। मैं कुछ कर रहा हूं, ऐसा कर्ता का भाव सेवा में न आए। प्रभु करवा रहा है, मैं उसके इशारों पर चल रहा हूं। जैसे हवा में वृक्ष के पत्ते डोलते, या सूखे पत्ते उड़ते अंधड़ में, या नदी पर तिनका तैरता; नदी जहां ले जाए, चला जाता। अंधड़ जहां ले जाए सूखे पत्ते को, उड़ जाता।

ऐसा ईश्वर-अर्पण भाव से जो व्यक्ति सेवा करता है, उसके लिए सेवा भी साधना बन गई। उसके लिए सेवा भी उपासना है। उसके लिए सेवा भी प्रार्थना है। लेकिन अकेली सेवा प्रार्थना नहीं है; ईश्वर-अर्पण भाव के कारण प्रार्थना है। ईश्वर-अर्पण--जो भी फल है, वह ईश्वर को अर्पित; जो भी कर्म है, वह मेरा; जो भी प्रतिफल है, वह प्रभु का--ऐसी दृष्टि हो, तो इस मार्ग से भी परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है।

सरल दिखती है बात। योगाग्नि की बात तो बहुत कठिन दिखती है। लेकिन आपसे मैं कहूं, योगाग्नि की बात सरल है; यह ईश्वर-अर्पण की बात कठिन है।

जो सरल दिखाई पड़ता है, वह सरल होता है, ऐसा जरूरी नहीं है। जो कठिन दिखाई पड़ती है बात, वह कठिन होती है, ऐसा जरूरी नहीं है। अक्सर धोखा होता है।

असल में जो सरल दिखाई पड़ती है, उसके सरल दिखाई पड़ने में ही खतरा है। सरल हो नहीं सकती। सरल दिखाई पड़ती है।

लगता है, ठीक; यह बिलकुल ठीक। सेवा करेंगे, ईश्वर-अर्पित कर देंगे। लेकिन ईश्वर-अर्पण, अहंकार का जरा-सा रेशा भी भीतर हो, तो नहीं हो सकता। रेशा मात्र भी अहंकार का भीतर हो, तो ईश्वर-अर्पण भाव नहीं हो सकता। जब तक मैं हूं--जरा-सा भी, रंच मात्र भी--तब तक परमात्मा के लिए अर्पित नहीं हो सकता हूं।

जब देखेंगे इसको गौर से, तो पाएंगे ईश्वर-अर्पण अति कठिन है। करने में मैं प्रवेश कर जाता है। किया नहीं, कि उसके पहले ही मैं खड़ा हो जाता है। 

मां जब बेटे को जन्म देती है, तो इसलिए नहीं देती कि बुढ़ापे में उससे सेवा लेगी। नहीं; कहीं इसका कोई पता नहीं होता। जब रात-रातभर जागती; बीमारी में, अस्वास्थ्य में, पीड़ा में महीनों सेवा करती; वर्षों तक बेटे को बड़ा करती, तब उसे कभी खयाल नहीं होता। लेकिन एक दिन बेटा बहू को लेकर घर आ जाता है और अचानक मां देखती है कि उस बेटे की आंख अब मां को देखती ही नहीं है! तब उसे अचानक खयाल आता है कि क्या मैंने इसलिए तुझे नौ महीने पेट में रखा था? क्या इसलिए मैं रात-रातभर जागी थी? क्या इसलिए मैंने तुझे इतना बड़ा किया? पाला-पोसा, तेरे लिए चक्की पीसी, गिट्टियां फोड़ीं--इसलिए?

बेटा तो पैदा हो गया बहुत वर्ष पहले, लेकिन अहंकार अब तक प्रेगनेंट था। अब तक भीतर छिपा था। गर्भ में बैठा था। मौका पाकर बाहर निकला। उसने कहा, इसलिए! मां के भीतर अहंकार है; यह बहू के आने तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहू के आने पर पैदा होता है। चोट पड़ती है। रहा भीतर, अन्यथा आ नहीं जाएगा।

सेवक तो बहुत हैं दुनिया में; कृष्ण उनकी बात नहीं कर रहे हैं। सेवक जरूरत से ज्यादा हैं! हमेशा हाथ जोड़े खड़े रहते हैं कि सेवा का कोई अवसर। लेकिन जरा सोच-समझकर सेवा का अवसर देना। क्योंकि जो आदमी पैर पकड़ता है, वह सिर्फ गर्दन पकड़ने की शुरुआत है। जब भी कोई कहे, सेवा के लिए तैयार हूं, तब कहना, इतनी ही कृपा करो कि सेवा मत करो। क्योंकि पैर तुम पकड़ोगे, फिर गर्दन हम कैसे छुड़ाएंगे? और अगर आपने पैर पकड़ने दिया और गर्दन न पकड़ने दी, तो वह आदमी कहेगा, मैंने नौ महीने तक तुम्हारे पैर इसलिए पकड़े? रात-रातभर जागा और इसलिए सेवा की कि गर्दन न पकड़ने दोगे?

सब सेवक खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि सब सेवा अहंकार-अर्पित हो जाती है। बहुत मिसचीवियस सिद्ध होती है। बहुत उपद्रवी सिद्ध होती है। जिस मुल्क में जितने ज्यादा सेवक हैं, उस मुल्क का भगवान के सिवाय और कोई बचाने वाला नहीं है।

लेकिन कृष्ण इन सेवकों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ईश्वर-अर्पण पहले। हां, जिस दिन किसी को चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर दिखाई पड़ने लगे, फिर वह आपकी सेवा नहीं कर रहा है, वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा है। फिर वह धन्यवाद मांगता नहीं, धन्यवाद देता है कि आपने सेवा करने दी, अनुगृहीत हूं। अनुग्रह है आपका कि सेवा करने दी; क्योंकि मेरी प्रार्थना, मेरी साधना, मेरी आराधना पूरी हो सकी।

परमात्मा सब ओर दिखाई पड़ने लगे, तो सेवा प्रभु-अर्पित हो सकती है। या भीतर अहंकार बिलकुल न रह जाए, तो सेवा प्रभु-अर्पित हो सकती है।

प्रभु-अर्पण की कीमिया योगाग्नि से कम कठिन नहीं, ज्यादा ही कठिन है। योगाग्नि तो टेक्निकल है, उसका तो तकनीक है। तकनीक अगर पूरा किया जाए, तो योगाग्नि पैदा होगी ही। लेकिन प्रभु-अर्पण टेक्निकल नहीं है। प्रभु-अर्पण बड़े भाव की उदभावना है; बड़े भाव का जन्म है। टेक्नोलाजी से उसका संबंध नहीं है, टेक्नीक से उसका संबंध नहीं है। टेक्नीक के लिए तो कठिन से कठिन चीज सरल हो सकती है। क्योंकि टेक्नीक विकसित किया जा सकता है। लेकिन भाव-अर्पण के लिए कोई टेक्नीक विकसित नहीं हो सकता। उसके लिए तो समझ चाहिए।

और ध्यान रहे, नासमझ आदमी भी टेक्नीशियन हो सकता है। अगर योगाग्नि की कला पूरी कोई सीख ले, तो कोई भी जो कला पूरी सीख गया है, योगाग्नि पैदा कर सकता है। कितनी ही कठिन हो, फिर भी बहुत कठिन नहीं है। लेकिन भाव-समाधि, ईश्वर-अर्पण बड़ी अंडरस्टैंडिंग, बड़ी गहरी समझ की बात है।

और गहरी समझ की अर्थात एक तो वह समझ है, जो बुद्धि से आती है; वह बहुत गहरी नहीं होती है। एक और समझ है, जो हृदय से आती है।

ईश्वर-अर्पण बुद्धि से कभी भी नहीं हो सकता, यह भी खयाल में रख लें। ईश्वर-अर्पण बुद्धि से कभी नहीं हो सकता। क्योंकि बुद्धि कभी भी अहंकार के पार नहीं जाती है। बुद्धि सदा कहती है, मैं। कभी-कभी हृदय कहता है, तू। बुद्धि तो सदा कहती है, मैं।

इसलिए जब भी आप प्रेम में होते हैं, तब बुद्धि को छुट्टी दे देनी पड़ती है। क्योंकि तू कहने का क्षण आ गया। अब हृदय से कहना पड़ा। इसलिए बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी प्रेम के क्षणों में बुद्धिमान नहीं होता; बालक जैसा हो जाता है; छोटे बच्चे जैसा हो जाता है।

बुद्धि तो सदा ही कहेगी, कर्म किया मैंने, तो फल मिले मुझे। बुद्धि का गणित साफ है। ठीक भी है। कर्म किया मैंने, फल मिले मुझे।

कृष्ण बड़ी अबौद्धिक बात कहते हैं, कर्म करो तुम, फल दे दो प्रभु को! तो बुद्धि कहेगी, कर्म भी कर ले प्रभु, फल भी ले ले वही। हमें क्यों फंसाता? हमारा क्या लेना-देना है? हम तो कर्म करेंगे, तो फल भी लेंगे हम। गणित सीधा और साफ है। ठीक दुकान और बाजार का गणित है!

कर्म करेंगे हम, तो फल वह कैसे लेगा? यह तो अन्याय है, सरासर अन्याय है। और अगर कहीं कोई अदालत हो विश्व के नियंता की, तो वहां हम सबको फरियाद करनी चाहिए कि कर्म करें हम, फल लो तुम! फल दें तुम्हें और कर्म करें हम? यह तो सरासर लूट है!

नहीं, बुद्धि के लिए यह गणित काम नहीं करेगा। इसलिए बुद्धि की समझ कभी भी इस स्थिति में नहीं पहुंच पाती कि कर्म मेरा, फल तेरा। सिर्फ हृदय की समझ पहुंच पाती है।

लेकिन हृदय की समझ का क्या मतलब होता है? समझ तो सब बुद्धि की है हमारे पास। हृदय की हमारे पास कोई समझ नहीं है। हृदय की समझ का मतलब यह है कि श्वास मुझे मिलती है, तो परमात्मा से; प्राण मुझे मिलता है, तो परमात्मा से। जन्म मुझे मिलता है, तो परमात्मा से; जीने का क्षण मुझे मिलता है, तो परमात्मा से। अगर मैं न जीता होता, तो कोई भी तो उपाय नहीं था कि मैं किसी से भी कह सकता कि मैं जीता क्यों नहीं हूं? अगर मैं अस्तित्व में न होता, तो शिकायत करने की भी तो कोई जगह न थी कि मैं अस्तित्व में क्यों नहीं हूं? और अगर आज मैं अस्तित्व में हूं, तो मैं यह भी तो नहीं जानता कि मैं अस्तित्व में क्यों हूं?

जब अस्तित्व के दोनों ही छोर अज्ञात हैं, तो तर्क से उन्हें नहीं खोला जा सकता, क्योंकि तर्क सिर्फ ज्ञात को खोल सकता है। अज्ञात तर्क के लिए बिलकुल बेमानी है। अज्ञात में तो हृदय ही टटोलता है। अज्ञात में तो टटोला ही जा सकता है।

न मुझे पता है कि मैं कहां से आता, न मुझे पता है कि मैं कहां जाता। न मुझे पता है कि मैं क्यों हूं, न मुझे पता है कि अगली सांस आएगी कि नहीं आएगी। जहां इतना सब अज्ञात है, जहां सारा का सारा मेरा होना ही अज्ञात शक्तियों पर निर्भर है, वहां मेरा किया हुआ कर्म, पागलपन की बात है। जब मैं ही अज्ञात शक्तियों का किया हुआ कर्म हूं, तो मेरा कर्म भी अज्ञात शक्तियों का किया हुआ कर्म है। जब मैं खुद ही अज्ञात से जन्मा हूं, तो मेरे हाथ से होने वाला भी अज्ञात से ही जन्म रहा है। मैं सिर्फ बीच का माध्यम हूं।

लेकिन तर्क और बुद्धि की बात नहीं है; क्योंकि तर्क और बुद्धि पूछती है, क्यों? और जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, तर्क और बुद्धि वहां से लौट आती है। और वह कहती है, वह हमारा क्षेत्र नहीं है। वह है ही नहीं। जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, वह है ही नहीं। जहां क्यों का उत्तर मिल जाता है, वही है। लेकिन हृदय वहां खोजता है, जहां क्यों का उत्तर नहीं है।

और बड़े मजे की बात है कि जीवन के समस्त गहरे प्रश्न बुद्धि के लिए खुलने योग्य नहीं हैं, मिस्टीरियस हैं। बुद्धि से कुछ भी गहरा प्रश्न खुला नहीं कभी, सिर्फ उलझा; और-और भी उलझा है। थोड़ा-सा खुलता लगता है, तो हजार नई उलझनें खुल जाती हैं, और कुछ भी नहीं खुलता।

अज्ञात से आता हूं मैं, अज्ञात को जाता हूं, इसलिए मेरे हाथों से भी जो हो रहा है, वह भी अज्ञात ही कर रहा है। अगर मैंने किसी के पैर दबा दिए हैं; और अगर मैंने राह चले किसी गिरे आदमी को उठा दिया है; और अगर मैंने चौरस्ते पर खड़े होकर किसी को पता बता दिया है कि बाएं से जाओ तो नदी पर पहुंच जाओगे; तो यह मेरी अंगुली का इशारा, यह मेरे हाथों की ताकत, मेरी नहीं है। यह ताकत और ये इशारे भी सब अज्ञात से मुझ में आते हैं और मुझ से फिर अज्ञात में चले जाते हैं।

ऐसी हृदय की समझ गहरी हो जाए, तो व्यक्ति ईश्वर-अर्पण कर पाता है। और तब ईश्वर-अर्पित सेवा भी वही कर जाती है, जो योगाग्नि को समर्पित इंद्रियों से होता है।

कृष्ण और भी गिनाते हैं, वे कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से!

अहिंसा से जो चलता है, वह भी वहीं पहुंच जाता है। बड़ी कंट्राडिक्टरी बात मालूम पड़ती है; बड़ी विरोधी बात मालूम पड़ती है। क्योंकि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू हिंसा की फिक्र मत कर, क्योंकि कोई मरता ही नहीं, अर्जुन। मरने का खयाल ही भ्रम है। न कोई कभी मरा, न कोई कभी मरेगा। तू हिंसा की बात ही मत कर। तू युद्ध में उतर जा।

ये कृष्ण यहां बीच में एक छोटा-सा वाक्य उपयोग करते हैं कि अहिंसादि मार्गों से चले हुए लोग भी वहीं पहुंच जाते हैं!

अहिंसा का मार्ग क्या है? अहिंसा का मार्ग क्या यह है कि मैं किसी को न मारूं? अगर यह है, तो कृष्ण की बात फिर उलटी है, जो उन्होंने पहले कही उससे। फिर तो कृष्ण जो बता रहे हैं, वह हिंसा का मार्ग बता रहे हैं!

नहीं; अहिंसा के मार्ग का अर्थ बहुत गहरा है, जितना कि अहिंसक कभी भी नहीं समझ पाते। अहिंसक--तथाकथित अहिंसक, जो समझते हैं कि वे नानवायलेंट हैं; अहिंसा, नानवायलेंस के मानने वाले हैं--उनको भी पता नहीं कि अहिंसा का क्या अर्थ है। किसी महावीर को कभी पता होता है कि अहिंसा का क्या अर्थ है।

अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी को मत मारो। क्योंकि अगर अहिंसा का यह मतलब है कि तुम किसी को मत मारो, तब तो अहिंसा का यह मतलब हुआ कि आत्मा मर सकती है! तो महावीर तो निरंतर चिल्लाकर कहते हैं कि आत्मा अमर है। जब महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, तो तुम मार ही कैसे सकते हो? जब मार ही नहीं सकते हो, तो हिंसा की बात ही कहां रही? हां, इतना ही कर सकते हो कि शरीर और आत्मा को अलग कर दो। तो शरीर सदा से मरा हुआ है और आत्मा कभी मरी हुई नहीं है। तो मरे हुए को, गैर-मरे हुए से अगर किसी ने अलग भी कर दिया, तो हर्जा क्या है? कुछ भी तो हर्ज नहीं है।

महावीर खुद कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए महावीर का यह मतलब नहीं हो सकता अहिंसा से कि तुम किसी को मारो मत। महावीर का भी मतलब यही है और कृष्ण का भी मतलब यही है कि मारने की इच्छा मत करो। मरता तो कोई कभी नहीं, लेकिन मारने की इच्छा की जा सकती है। और पाप मारने से नहीं लगता, मारने की इच्छा से लगता है। मरता नहीं है कोई।

मैंने एक पत्थर उठाया और आपका सिर तोड़ देने के लिए फेंका। नहीं लगा पत्थर और किनारे से निकल गया। कुछ चोट नहीं पहुंची; कहीं कुछ नहीं हुआ। लेकिन मेरी हिंसा पूरी हो गई। असल में मैंने पत्थर फेंका, तब हिंसा प्रकट हुई। पत्थर फेंकने की कामना की, आकांक्षा की, वासना की, तभी हिंसा पूरी हो गई। पत्थर फेंकने की वासना की, तब भी हिंसा मेरे सामने प्रकट हुई। पत्थर फेंकने की वासना कर सकता हूं, इसकी संभावना मेरे अचेतन में छिपी है, तभी हिंसा हो गई। मैं हिंसा कर सकता हूं, तो मैंने हिंसा कर दी।

हिंसा का संबंध किसी को मारने से नहीं, हिंसा का संबंध मारने की वासना से है। तो जब कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी! वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं! तो इसे जरा समझना पड़ेगा।

वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं, वे भी पहुंच जाते हैं वहीं, जहां कोई योग से, कोई सांख्य से, कोई सेवा से, प्रभु-अर्पण से पहुंचता है।

अहिंसा की कामना या हिंसा की वासना से मुक्त हो जाने का क्या अर्थ है?

बहुत मजे की बात है कि ये सारे भिन्न-भिन्न मार्ग बहुत गहरे में कहीं एक ही मूल से जुड़े होते हैं। जब तक मनुष्य के मन में इंद्रियों का लोभ है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है। जब तक आदमी इंद्रियों को तृप्त करने के लिए विक्षिप्त है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है।

इंद्रियां पूरे समय हिंसा कर रही हैं। जब आपकी आंख किसी के शरीर पर वासना बन जाती है, तब हिंसा हो जाती है। तब आपने बलात्कार कर लिया। अदालत में नहीं पकड़े जा सकते हैं आप, क्योंकि अदालत के पास आंखों से किए गए बलात्कार को पकड़ने का अब तक कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब आंख किसी के शरीर पर पड़ी और आंख मांग बन गई, काम बन गई, वासना बन गई; और आंख ने एक क्षण में उस शरीर को चाह लिया, पजेस कर लिया; एक क्षण में उस शरीर को भोगने की कामना का धुआं चारों तरफ फैल गया--बलात्कार हो गया। आंख से हुआ, आंख शरीर का हिस्सा है। आंख से हुआ, आंख के पीछे आप खड़े हैं। आंख से हुआ, आपने किया; हिंसा हो गई। हिंसा सिर्फ छुरा भोंकने से नहीं होती, आंख भौंकने से भी हो जाती है।

इंद्रियां जब तक आतुर हैं भोगने को, तब तक हिंसा जारी रहती है। इंद्रियां जब भोगने को आतुर नहीं रहतीं, तभी हिंसा से छुटकारा है।

जिसे हम हिंसा कहते हैं, वह कब पैदा होती है? यह सूक्ष्म हिंसा छोड़ें; जिसे हम हिंसा कहते हैं, स्थूल, वह कब पैदा होती है? वह तभी पैदा होती है, जब आपकी किसी कामना में अवरोध आ जाता है, अटकाव आ जाता है। तभी पैदा होती है। अगर आप किसी के शरीर को भोगना चाहते हैं और कोई दूसरा बीच में आ जाता है; या जिसका शरीर है, वही बीच में आ जाता है कि नहीं भोगने देंगे--तब हिंसा शुरू होती है।

जब भी आपकी इंद्रियां भोगने के लिए कहीं कब्जा मांगती हैं और कब्जा नहीं मिल पाता, तभी हिंसा शुरू हो जाती है। स्थूल हिंसा शुरू हो जाती है। सूक्ष्म हिंसा पहले, भाव हिंसा पहले, फिर हिंसा सक्रिय होती और स्थूल बन जाती है।

कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात इंद्रियों से जिसने अब मांगना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके भिक्षापात्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने छेदना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके शस्त्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने आक्रमण छोड़ दिया।

महावीर का एक बहुत कीमती शब्द यहां खयाल में रख लेना उपयोगी होगा। महावीर ध्यान के पहले प्रतिक्रमण शब्द का उपयोग करते हैं। ध्यान में जाना हो, तो पहले प्रतिक्रमण।

कभी आपने सोचा है कि प्रतिक्रमण का मतलब होता है, आक्रमण से उलटा! आक्रमण का मतलब है, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण का मतलब है, आक्रमण की सारी शक्तियों को अपने में वापस लौटा ले जाना। एग्रेशन, आक्रमण। प्रतिक्रमण, रिग्रेशन; कमिंग बैक टु वनसेल्फ। आंख गई आप पर आक्रमण करने को, तो हिंसा हो गई। और मैंने आंख को वापस लौटा लिया उसकी पूरी कामना के साथ अपने भीतर, अपने भीतर, गहरे में वहां, जहां से उठती है कामना, वहीं उसे ले गया वापस--तो यह हुआ प्रतिक्रमण। और जब प्रतिक्रमण हो, तभी महावीर कहते हैं कि ध्यान हो सकता है, अन्यथा ध्यान नहीं हो सकता। क्योंकि आक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान कैसा? प्रतिक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान फलित हो सकता है।

कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात आक्रमण जो नहीं कर रहा।

अब ध्यान रखें, अगर ठीक से समझें, तो किसी भी तल पर आक्रमण की कामना हिंसा है--किसी भी तल पर। सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी आक्रमण की इच्छा हिंसा है। अनाक्रमण, नान-एग्रेशन, प्रतिक्रमण, शक्तियों को लौटा लेना वापस अपने में--आंख लौट जाए आंख के मूल में; कान लौट जाए कान के मूल में; स्वाद लौट जाए स्वाद के मूल में; फैलाव बंद हो; सब सिकुड़ आए अपने मूल में--जब ऐसा प्रतिक्रमण फलित हो, तब व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो पाता है।

अहिंसा का अर्थ है, प्रतिक्रमण, लौटना, कमिंग बैक टु वनसेल्फ। हिंसा का मतलब है, जाना दूसरे के ऊपर, किसी भी रूप में दूसरे के ऊपर जाना। दूसरे पर जाना! यह हिंसा शत्रुतापूर्ण भी हो सकती है, मित्रतापूर्ण भी हो सकती है। जो नासमझ हैं, वे शत्रुता के ढंग से दूसरे पर जाते हैं; जो होशियार हैं, वे मित्रतापूर्ण ढंग से दूसरों के ऊपर जाते हैं।

लेकिन जब तक कोई दूसरे पर जाता है, तब तक हिंसा है। और जब कोई दूसरे पर जाता ही नहीं, अपने जाने को ही वापस लौटा लेता है, तब अहिंसा है। इस अहिंसा के क्षण में भी वही हो जाता है, जो योगाग्नि में जलकर होता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से भी।

ऐसे वे और मार्ग भी गिनाते हैं। ऐसे बहुत मार्ग हैं। इसमें उन्होंने दो-चार ही गिनाए। कोई एक सौ बारह मार्ग हैं, जिनसे व्यक्ति वहां पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर और आगे पहुंचने को कुछ शेष नहीं रह जाता; उसे पा सकता है, जिसे पाकर फिर पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। आप्तकाम हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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