गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 16

  वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।

और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक करता हूंतो यह भी उचित नहीं हैक्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकरदूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता हैवैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।


वस्त्रों की भांतिजीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मानए शरीरों को ग्रहण करती है। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव कियाऐसा जिसे हमने ओढ़ा होऐसा जिसे हमने पहना होऐसा जो हमारे बाहर होऐसा जिसके हम भीतर होंकभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया?

नहींहमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। जब भूख लगती हैतो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता हैमुझे भूख लगी। जब सिर में दर्द होता हैतो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। नहींऐसा लगता हैमेरे सिर में दर्द हो रहा हैमुझे दर्द हो रहा है। तादात्म्यआइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता हैशरीर ही मैं हूं।

कभी आंख बंद करके यह देखाशरीर की उम्र पचास वर्ष हुईमेरी कितनी उम्र हैकभी आंख बंद करके दो क्षण सोचाशरीर की उम्र पचास साल हुईमेरी कितनी उम्र हैकभी आंख बंद करके चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा हैमेरा कैसा चेहरा हैकभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है?

शरीर को भीतर से जानना पड़े । हम अपने शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया हैबाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैंतो यह हम बाहर से ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर सेऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती हैघर के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियरभीतर की दीवार दिखाई पड़ती है।

इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगेतब तक जीर्ण वस्त्रों की तरहवस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे भीतर से देखेंइसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर भीतर से कैसा हैइनर लाइनिंग कैसी हैकोट के भीतर की सिलाई कैसी हैबाहर से तो ठीक हैभीतर से कैसी हैइसकी भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे साफ होने लगेगावैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने देखा थातो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग हैकांच तो केवल बाहरी आवरण है।


और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति अलग है और शरीर बाहरी आवरण हैतो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का बदलना हैफिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण हैफिर सब मृत्यु पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता हैनए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्युजन्म और मृत्यु नहीं हैंकेवल वस्त्रों का परिवर्तन है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।

लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैंयह गीता से समझ में न आएगायह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैंइसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा हूंउसे समझकर समझ लेंगेइस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने लग जाना। लौटकर भी क्योंयहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा देखना कि यह जो चल रहा है शरीरइसके भीतर कोई अचल भी हैऔर चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। यह जो श्वास चल रही हैयही मैं हूं या श्वासों को भी देखने वाला पीछे कोई हैतब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही हैवह श्वास नहीं हो सकताक्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती।

तब विचारों को जरा भीतर देखने लगनाकि ये जो विचार चल रहे हैं मस्तिष्क मेंयही मैं हूंतब पता चलेगा कि जिसको विचार दिखाई पड़ रहे हैंवह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षीवह अलग है। और जब शरीरविचारश्वासचलनाखानाभूख-प्याससुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगेंतब पता चलेगा कि कृष्ण जो कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता हैनए वस्त्रों की तरह लिया जाता हैउसका क्या अर्थ है। और अगर यह दिखाई पड़ जाएतो फिर कैसा दुखकैसा सुखमरने में फिर मृत्यु नहींजन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह हैसिर्फ वस्त्र बदले जा रहे हैं।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...