गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 1 भाग 3

  


भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्थैव च।। ८।।


अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।

नानाशस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।। ९।।


एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, और भी बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र-अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सबके सब युद्ध में चतुर हैं।


अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।। १०।।


अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।। ११।।



और भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब ही निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।




श्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार अर्जुन पर है और यहां गीता में दुर्योधन कहता है, पांडवों की सेना भीम-अभिरक्षित और कौरवों की भीष्म...। तो भीष्म के सामने भीम को रखने का खयाल क्या यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भीम को ही देखता है?

यह बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर है, लेकिन यह पीछे से सोची गई बात है--युद्ध के बाद, युद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल को जानते हैं, वे कहेंगे कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर घूमा है। लेकिन जो युद्ध के प्रारंभ में खड़े थे, वे ऐसा नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा होती थी। उसके कारण थे। अर्जुन जैसे भले व्यक्ति पर युद्ध का भरोसा दुर्योधन भी नहीं कर सकता था। अर्जुन डांवाडोल हो सकता है, इसकी संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता है, इसकी कोई गहरी अचेतन प्रतीति दुर्योधन के मन में भी है। अगर युद्ध टिकेगा, तो भीम पर टिकेगा। युद्ध के लिए भीम जैसे कम बुद्धि के, लेकिन ज्यादा शक्तिशाली लोगों पर भरोसा किया जा सकता है।

अर्जुन बुद्धिमान है। और जहां बुद्धि है, वहां संशय है। और जहां संशय है, वहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां विचारशीलता है, वहां पूरे पर्सपेक्टिव, पूरे परिप्रेक्ष्य को सोचने की क्षमता है; वहां युद्ध जैसी भयंकर स्थिति में आंख बंद करके उतरना कठिन है। दुर्योधन भरोसा कर सकता है--युद्ध के लिए--भीम का।

भीम और दुर्योधन के बीच गहरा सामंजस्य है। भीम और दुर्योधन एक ही प्रकृति के, बहुत गहरे में एक ही सोच के, एक ही ढंग के व्यक्ति हैं। इसलिए अगर दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम केंद्र है दूसरी तरफ, तो गलत नहीं देखा, ठीक ही देखा। और गीता भी पीछे सिद्ध करती है कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन पलायनवादी दिखाई  पड़ा है। अर्जुन जैसे व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी पड़ा है। युद्ध में जाना, अर्जुन के लिए अपने को रूपांतरित करके ही संभव हो सका है। अर्जुन एक नए तल पर पहुंचकर ही युद्ध के लिए राजी हो सका है।

भीम जैसा था, उसी तल पर युद्ध के लिए तैयार था। भीम के लिए युद्ध सहजता है, जैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए दुर्योधन भीम को केंद्र में देखता है, तो आकस्मिक नहीं है। लेकिन यह युद्ध के प्रारंभ की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या होगी, अंत क्या होगा, यह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है।


और ध्यान रहे, अक्सर ही जीवन जैसा प्रारंभ होता है, वैसा अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत है, अंत सदा ही अदृश्य है। अक्सर ही जो हम सोचकर चलते हैं, वह नहीं होता। अक्सर ही जो हम मानकर चलते हैं, वह नहीं होता। जीवन एक अज्ञात यात्रा है। इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणों में--किसी भी घटना के प्रारंभिक क्षणों में--जो सोचा जाता है, वह अंतिम निष्पत्ति नहीं बनती। और हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रत हो सकते हैं, लेकिन भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते हैं; निष्पत्ति कुछ और होती है।

खयाल तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और अगर भीम केंद्र पर रहता, तो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम विजयी हो सकेंगे, हो सकता था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही सिद्ध नहीं हुई। और आकस्मिक तत्व बीच में उतर आया। वह भी सोच लेने जैसा है।

कृष्ण का खयाल ही न था। कि अर्जुन अगर भागने लगे, तो कृष्ण उसे युद्ध में रत करवा सकते हैं। हम सबको भी खयाल नहीं होता। जब हम जिंदगी में चलते हैं, तो एक अज्ञात परमात्मा की तरफ से भी बीच में कुछ होगा, इसका हमें कभी खयाल नहीं होता। हम जो भी हिसाब लगाते हैं, वह दृश्य का होता है। अदृश्य भी बीच में उतर आएगा, इसका हमें भी कोई खयाल नहीं होता।

कृष्ण के रूप में अदृश्य बीच में उतर आया है और सारी कथा बदल गई है। जो होता, वह नहीं हुआ; और जो नहीं होने की संभावना मालूम होती थी, वह हुआ है। और अज्ञात जब उतरता है तो उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए जब कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धक्का देने लगे, तो जो भी इस कथा को पहली बार पढ़ता है,  उसको धक्का लगता है।

लेकिन जिंदगी किन्हीं सिद्धांतों के हिसाब से नहीं चलती। जिंदगी बहुत अनूठी है। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती नहीं, गंगा की धारा की तरह बहती है; उसके रास्ते पहले से तय नहीं हैं। और जब परमात्मा बीच में आता है, तो सब डिस्टर्ब कर देता है; जो भी तैयार था, जो भी आदमी ने निर्मित किया था, जो आदमी की बुद्धि सोचती थी, सब उलट-फेर हो जाता है।

इसलिए बीच में परमात्मा भी उतर आएगा इस युद्ध में, इसकी दुर्योधन को कभी कल्पना न थी। इसलिए वह जो कह रहा है, प्रारंभिक वक्तव्य है। जैसा कि हम सब आदमी जिंदगी के प्रारंभ में जो वक्तव्य देते हैं, ऐसे ही होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता चलता है और सब कहानी बदलती चलती है। अगर हम जिंदगी को पीछे से लौटकर देखें, तो हम कहेंगे, जो भी हमने सोचा था, वह सब गलत हुआ: जहां सफलता सोची थी, वहां असफलता मिली; जो पाना चाहता था, वह नहीं पाया जा सका; जिसके मिलने से सुख सोचा था, वह मिल गया और दुख पाया; और जिसके मिलने की कभी कामना भी न की थी, उसकी झलक मिली और आनंद के झरने फूटे। सब उलटा हो जाता है।

लेकिन इतने बुद्धिमान आदमी इस जगत में कम हैं, जो निष्पत्ति को पहले ध्यान में लें। हम सब प्रारंभ को ही पहले ध्यान में लेते हैं। काश! हम अंत को पहले ध्यान में लें तो जिंदगी की कथा बिलकुल और हो सकती है। लेकिन अगर दुर्योधन अंत को पहले ध्यान में ले ले, तो युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत को ध्यान में नहीं ले सकता; अंत को मानकर चलेगा कि ऐसा होगा। इसलिए वह कह रहा है बार-बार कि यद्यपि सेनाएं उस तरफ महान हैं, लेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे योद्धा जीवन देकर भी मुझे जिताने के लिए आतुर हैं।

लेकिन हम अपनी सारी शक्ति भी लगा दें, तो भी असत्य जीत नहीं सकता। हम सारा जीवन भी लगा दें, तो भी असत्य जीत नहीं सकता; इस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई भी बोध नहीं हो सकता है। और सत्य, जो कि हारता हुआ भी मालूम पड़ता हो, अंत में जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में जीतता हुआ मालूम पड़ता है, अंत में हार जाता है। सत्य प्रारंभ में हारता हुआ मालूम पड़ता है, अंत में जीत जाता है। लेकिन प्रारंभ से अंत को देख पाना कहां संभव है! जो देख पाता है, वह धार्मिक हो जाता है। जो नहीं देख पाता है, वह दुर्योधन की तरह अंधे युद्ध में उतरता चला जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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