शुक्रवार, 27 मई 2022

श्री कृष्ण

 कन्हैया की सभी लीला निराली हैं, बहुत गहन है। कन्हैया कभी किसी से ऐसा कहते नही कि तुम मेरी माँ से कहो। ये आने देगी तो मैं तुम्हारे घर आऊंगा । कन्हैया को तो किसी के आमन्त्रण की जरूरत ही क्या थी ? कन्हैया तो कहते है, मुझे कौन निमन्त्रण देगा ? मैं तो घर धनी हूँ। इसलिए मुझे तो सबको इकट्ठा करके ले जाना है। लाला आमन्त्रण की बाट क्या कभी देखता है ? कन्हैया तो बगैर बुलाये ही गोपियो के घर जाते हैं परन्तु लाला का ऐसा नियम था कि जिस घर का मालिक है, जिसने अपना सर्वस्व मन से लाला को अर्पण कर दिया है, उसी के ही घर लाला जाता है। यह किसी अन्य के घर नही जाता, चाहे जिसके घर जाकर यह माखन नही खाता। लाला तो जहाँ प्रेम है, वही जाता है। श्री कृष्ण की लीला मे अतिशय प्रेम है।


एक गोपीके घर लाला माखन खा रहे थे। उस समय गोपी ने लाला को पकड़ लिया। तब कन्हैया बोले- तेरे धनी की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, अब फिर कभी भी तेरे घर मे नही आऊँगा ।

गोपी ने कहा- मेरे घनी की सौगन्ध क्यों खाता है ?

कन्हैया ने कहा – तेरे बाप की सौगन्ध, बस ? गोपी और ज्यादा खीझ जाती है और लाला को धमकाती है परन्तु तू मेरे घर आया ही क्यों ?

कन्हैया ने कहा—अरी सखी ! तू रोज कथा मे जाती है, फिर भी तू मेरा-तेरा छोड़नी नही चाहती- इस घरका मैं धनी हूँ, यह घर मेरा है ।


गोपी को आनन्द हुआ कि मेरे घर को कन्हैया अपना घर मानता है। कन्हैया तो सबका मालिक है। सभी घर उसी के हैं। उसको किसीकी आज्ञा लेने की जरूरत नही ।

गोपी कहती है - तूने माखन क्यों खाया ।

लाला ने कहा – माखन किसने खाया है ? इस माखन मे चीटी चढ़ गई थी, उसे निकालने को हाथ डाला। इतने में ही तू टपक पड़ी। गोपी कहती है – परन्तु, लाला ! तेरे ओंठके ऊपर भी तो माखन चिपक रहा है।


कन्हैया ने कहा— चींटी निकालता था, तभी ओठ के ऊपर मक्खी बैठ गयी, उसको उड़ाने लगा तो माखन ओठ पर लग गया होगा।


कन्हैया जैसा बोलते है, ऐसा बोलना किसीको आता नही। कन्हैया जैसे चलते है, वैसा चलना भी किसीको आता नही । गोपी ने तो पीछे लाला को घरमें खम्भ के साथ ढोरी से बाँध दिया। कन्हैया का श्रीअङ्ग बहुत ही कोमल है। गोपी ने जब डोरी कसकर बाँधी तो लाला की आँख में पानी आ गया। गोपी को दया आयी, उसने लालासे पूछा लाला ! तुझे कोई तकलीफ है क्या ?

लाला ने गर्दन हिलाकर कहा- मुझे बहुत दुःख हो रहा है, डोरी जरा ढीली कर । गोपी ने विचार किया कि लाला को डोरी से कसकर बांधना ठीक नही मेरे लाला को दुःख होगा । इसलिए गोपी ने डोरी थोड़ी ढोली रखी और पीछे सखियो को खबर देने गयी कि मैंने लाला को बाँधा है।


तुम लाला को बाँधो परन्तु किसीसे कहना नहीं । तुम खूब भक्ति करो परन्तु उसे प्रकाशित मत करो। भक्ति प्रकाशित हो जायेगी तो भगवान सटक जायेगे। भक्तिका प्रकाश होनेसे भक्ति बढ़ती नही, भक्तिमें आनन्द आता नहीं।


बालकृष्ण सूक्ष्म शरीर कर के डोरीमें से बाहर निकल गये और गोपी को अंगूठा दिखाकर कहा, तुझे बाँधना ही कहाँ आता है ?

गोपी कहती है - तो मुझे बता, किस तरह से बांधना चाहिये ।


गोपी को तो लालाके साथ खेल करना है, लाला गोपी को बाँधते हैं।


योगीजन मनसे श्री कृष्ण का स्पर्श करते है तो समाधि लग जाती है। यहाँ तो गोपीको प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण का स्पर्श हुआ है। गोपी लाला के दर्शनमे तल्लीन हो जाती है। गोपी का ब्रह्म-सम्बन्ध हो जाता है। लाला ने गोपीको बाँध दिया।


गोपी कहती है कि लाला छोड़ ! छोड़ ! लाला कहते है-मुझे बाँधना आता है, छोड़ना तो आता ही नहीं ।


यह जीव एक ऐसा है, जिसको छोड़ना आता है। चाहे जितना प्रगाढ़ सम्बन्ध हो परन्तु स्वार्थ सिद्ध होनेपर उसको भी छोड़ सकता है। परमात्मा एक बार बाँधने बाद छोड़ते नहीं ।

श्री कृष्ण की लीला अटपटी है। लाला कृपा करे, उसे ही यह लीला समझ पड़ती है । श्रीकृष्ण-लीलामें विनोद है, प्रेम है. गूढ तत्त्व है। श्रीकृष्ण की वाणी का रहस्य समझना कठिन है। श्रीकृष्णको पहचानना कठिन है। 

श्री राम बहुत शर्मीले है। कौशल्या माँ माखन-मिश्री देना भूल जायँ तो रामजी मांगते नही। बहुत मर्यादामे रहते है। अनेक बार ऐसा हुआ कि कौशल्याजी लक्ष्मीनारायण की सेवामें ऐसी तन्मय हो जाती है कि रामजी कौशल्या मांका वन्दन करने आवे, पास बैठ जायें परन्तु माँ रामजीको माखन मिश्री देना भूल जाती है परन्तु रामजी कभी भी माँगते नही ।


कन्हैया तो यशोदा माँके पीछे पड़ जाते थे कि 'मां ! माखन-मिश्री मुझे दो ।' लालाकी सभी लीला विचित्र है। ये तो प्रेम मूर्ति है।






गुरुवार, 26 मई 2022

सीता जी मधुरता

 श्री सीताजी ने जगत को स्त्री धर्मं समझाया है। श्री सीता जी मे सब ही सद्गुण एकत्रित हुए है। रामायण में लिखा है कि रामजी को कभी-कभी क्रोध आ जाता है । राक्षसों के साथ रामजी युद्ध करते है, उस समय उनकी आँखे लाल हो जाती है परन्तु सीता माँ को जीवनमे कभी भी क्रोध आया नही। श्रीसीताजी जीवनमें कभी भी ऊंचे स्वरसे बोली नही। श्रीसीताजी अतिशय मधुर बोलती है। इनको कर्कश बोलना आता ही नहीं।

तुम्हारे घर कलह न हो, ऐसी इच्छा रखते हो तो भले ही कुछ भी हो जाय, कभी ऊँचे स्वर से बोलना नही। कर्कश वाणी से कलह का जन्म होता है। क्रोध की बुरी उक्ति-यही कर्कश वाणी है। कर्कश वाणी मे से विवाद उठता है और वाद-विवाद में फिर मारा-मारी होती है। सब पापों की मूल वाणी हैं। शरीरमे सब ठिकाने हाड़ है, एक जीभ मे ही हड्डी नहीं है। यह जीभ कहलाती तो 'लूली' है, परन्तु यह 'लूली' अर्थात् यह लँगड़ी तूफान बहुत करती है। आड़ी-तिरछी बोल देती है। इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के समय द्रौपदी ने अन्धे का पुत्र अन्धा कहकर दुर्योधन का अपमान किया। उसमे से महाभारत के युद्ध का जन्म हुआ। श्री सीता जी जीवन मे एक ही समय कर्कश वाणी बोली थी, और उसी में से रामायण के अनेक करुण प्रसङ्ग निकले। माया-मारीच की 'हा लक्ष्मण की छल भरी आवाज से श्री सीता जी भ्रम मे पड़ गयी कि रामजी सङ्कट में है और उससे वे बहुत व्याकुल हो गयीं। अतिव्याकुलता में उन्होंने लक्ष्मणजी से बहुत कर्कश वचन कहे और उसमें से ही करुण प्रसंगों की परम्परा उठ खड़ी हुई ।


कर्कश वाणी तो विष है। शिवजी ने विष गलेमें रखा है। जहर गले में ही रख लेना उचित है । उसको न बाहर आने दिया जाय और न पेट में उतरने दिया जाय। कोई कड़वा शब्द मुखसे बाहर निकलने मत दो और कोई कड़वाहट पेट में रखो नही। कोई निन्दा करे, द्वेष करे तो प्रतिकार करो नहीं, न उसको पेट में रखो। उसको याद नही रखो, सहन कर लो और उसे भूल जाओ। हृदय में हरि को रखना हो तो उसमे विष रखो नही ।

निश्चय करो कि मुझे मधुर बोलना है। बोलो तो ऐसा बोलो कि सुननेवाले का मन झूमने लगे। किसी का दिल दुखे, ऐसा बोलो नही । लकड़ी की मार भुलायी जा सकती है, परन्तु शब्द की मार भूलते नहीं। काम करते हुए किसी की भूल हो जाय तो मधुर वाणी से इशारा करो। वाणी मधुर होनी चाहिए, आनन्द उपजावे, ऐसी होनी चाहिये । शब्द ब्रह्म का स्वरूप है। जो सर्वकाल में मधुर बोलता है उसे रोग नही होता। जो मधुर बोलता है उसका कोई शत्रु नही होता। जो मधुर बोलता है वही परमात्मा को अच्छा लगता है। तुम जानते हो, श्री कृष्ण प्रभु ने हाथ में बाँसुरी किसलिए रखी है ? बांसुरी अतिशय मधुर बोलती है। बांसुरी सज्जन अथवा दुर्जन, सबके साथ मधुर ही बोलती है। बांसुरी का नाद सुनकर हिरण भी दौड़ते है और विषधर नाग भी दौड़ते है। कस्तूरी मृग सज्जन का स्वरूप है, और विषधर नाग दुर्जन का | बाँसुरीका शब्द सुनकर सज्जन-दुर्जन सबको आनन्द होता है। वाँसुरी कभी भी कड़वा शब्द बोल ही सकती नही, कठोरता से बोलती नहीं। इसी कारण से तो यह परमात्माके अधरामृतकी अधिकारिणी बनी है ।

जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ तो लोग बहुत ही मधुर बोलते है। स्वार्थ में मधुर बोलना - यह मिठास सच्ची नहीं। हृदय में मिठास हो तो ही वाणी में सच्ची मिठास आती है। परमात्मा ने हृदय दिया है मिठास भरने के लिये, और जीभ दी है मधुर बोलने के लिए । कुछ भी क्यों न हो जाय, तुम्हारा कोई अपमान करे अथवा घर में नुकसान हो जाय, तुम कभी ऊँचे स्वर से बोलना नही । कर्केश वाणीमें से ही कलियुगका जन्म हुआ है।

श्री सीता माँ अति मधुर बोलती है। रामायण में वर्णन आता है कि प्रभु ने  शिवजी के धनुषका खण्डन किया और पीछे जनकराज ने सुवर्णाक्षरोमें कुंकुम-पत्रिका  लिखी । दूत को वह पत्रिका देकर कहा- 'तू दौड़ता हुआ अयोध्या में जा और दशरथ महाराज को यह पत्रिका देकर कहना कि प्रभुने धनुष को भंग किया है, श्री सीता जी ने रामजीको विजय माला अर्पण की है। आप अयोध्याकी प्रजाको साथ लेकर जल्दीसे लग्न महोत्सवमें पधारे।'

पत्रिका लेकर दौड़ता हुआ अयोध्या मे आता है। दशरथ महाराजका दरबार भरा हुआ है। सिपाही दशरथ महाराजको पत्रिका देता है। श्री विश्वामित्र के साथ श्रीराम-लक्ष्मणके जानेके पश्चात् दशरथ महाराजको आज दिन तक कोई खबर मिली नही। वे चिन्ता करते थे कि मेरा राम कहाँ होगा ? एक ऋषिके पीछे-पीछे गया है, बहुत समयसे इनकी कोई खैर-खबर नहीं। आज जनक राजाका पत्र आया उसमें श्रीराम लक्ष्मणका बहुत वर्णन किया है। राजा दशरथ वह पत्र पढ़कर अतिशय प्रसन्न हुए कि रावण जैसा वीर पुरुष जिस धनुष को उठा नही सका, उसको मेरे रामने भंग किया है। श्रीसीताजीने जयमाल अर्पण की है। दशरथ महाराजने सीताजीकी पहलेसे ही बहुत प्रशंसा सुनी थी। वही सीताजी पुत्रवधू बने इससे बड़ा क्या फल मिल सकता था । राजा दशरथ की आँखें हर्षसे गीली हुईं। उन्होंने दूतसे कहा- 'मेरे रामकी लग्नकी बधाई तूने दी है तुझको मैं क्या दूं ?" महाराजके गलेमें नवरत्नका एक अमूल्य हार था। महाराजने वह उतारकर दूतको दिया। दूतने हाथ जोड़े परन्तु हार लिया नहीं । दशरथजी ने आग्रह किया कि अपने रामके लग्नकी वार्ता सुनकर मैं बहुत आनन्दित हुआ हूँ। यह मैं तुमको बख्शीश देता हूँ। आज तो तुमको यह लेनी चाहिये ।

दूतने हाथ जोड़कर कहा कि महाराज ! आप जो कहते हो वह ठीक है परन्तु मै तो कन्या पक्ष का हूँ। आपके घरका पानी भी हमको ग्राह्य नहीं। आपका हार हमारे द्वारा लेने योग्य नही ।


महाराज दशरथको आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा कि यह तो जनक महाराजकी कन्या है और तुम तो सेवक हो । सेवक को लेनेमें तनिक भी बाधा नहीं। तुमको तो लेना ही चाहिए । मैं बहुत खुश होकर तुमको दे रहा हूँ।

दूत को श्रीसीताजीका स्मरण हुआ। उसकी आँखे नम हो गयी। हृदय पिघल गया। उसने हाथ जोड़कर कहा- 'महाराज नौकर हूँ, यह तो बात सच है परन्तु मैं आपसे अधिक क्या कहूँ ? श्रीसीताजीने मुझे घरमे नौकर की तरह रखा नही। मैं उमर में बड़ा हूँ न, इसलिए उन्होंने मुझे पिताके समान माना है। श्रीसीताजी राज-कन्या हैं परन्तु घरके नौकरोंके साथ उनका ऐसा शुद्ध प्रेम है। महाराज ! वे हमारी पुत्री है। अपनी कन्याकी मैं क्या प्रशंसा करूं ? यह तो आपके घर आनेके पश्चात् आपको विदित होगा। आप सबको वे बहुत सुखी करेगी। वे बहुत लायक है ।'

घरके दास-दासियोंके साथ भी सीताजीका व्यवहार बहुत प्रेममय है। नौकरोंका तिरस्कार कभी करना नहीं। रामायणमें लिखा है कि सीताजी जनकपुर छोड़कर अयोध्या जाने लगी तो घरके दास दासी भी रोने लग गये। पशु-पक्षी तक भी रोए थे। श्रीसीताजीका वियोग घरके दास-दासियों से क्या, अरे, पशु-पक्षियोंसे भी सहन हुआ नही। श्रीसीताजीका सबके साथ ऐसा प्रेम था ।





बुधवार, 25 मई 2022

आशा

 देवता नाराज हो गए एक व्यक्ति पर। उसका नाम था प्रोमोथियस। वे उस पर नाराज हो गए, क्योंकि उसने देवताओं के जगत से अग्नि चुरा ली और आदमियों के जगत में पहुंचा दी।

और अग्नि के साथ आदमी बड़ा शक्तिशाली हो गया। उसका भय कम हो गया, उसका भोजन पकने लगा, उसके घर में गर्मी आ गई, जंगली जानवरों से रक्षा होने लगी। और जितना आदमी मजबूत हो गया, उतनी उसने देवताओं की फिक्र करना बंद कर दी। प्रार्थना, पूजा क्षीण हो गयी।

प्रोमोथियस पहला वैज्ञानिक रहा होगा, जो अग्नि को पैदा किया। देवता बहुत नाराज हो गए, क्योंकि उनकी पूजा-पत्री में बड़ा भग्न हो गया। सारी व्यवस्था टूट गयी। आदमी डरे न, कंपे न। उसके पास अपनी आग हो गई बचाने के लिए।

तुम सोच भी नहीं सकते कि आदमी आग के बिना कैसा रहा होगा। बड़ा भयभीत! रात सो नहीं सकता था क्योंकि जंगली जानवर! रात भयंकर अंधकार था। सिवाय भय के और कुछ भी नहीं। रात में ही बच्चे जंगली जानवर ले जाते, आदमियों को ले जाते, पत्नियों को ले जाते; सुबह पता चलता। रात बड़ी भयंकर थी।

उसका भय अभी भी आदमी के मन में मौजूद रह गया है। करोड़ों साल बीत गए, लेकिन भय अभी रात में सरकने लगता है फिर से। तुम्हारे अचेतन मन में तुम अब भी वही आदमी हो, जिसके पास अग्नि न थी।

फिर अग्नि ने बड़ी सुरक्षा दी। अग्नि सबसे बड़ी खोज है। अभी तक भी अग्नि से बड़ी खोज नहीं हो पाई। एटम बम भी उतनी बड़ी खोज नहीं है।

प्रोमोथियस पर देवता नाराज हुए। उन्होंने उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, जमीन पर भेज दिया। फिर उसे कष्ट देने के लिए, उसे पीड़ा में डालने के लिए उन्होंने एक स्त्री रची। पिंडोरा उस स्त्री का नाम है। उसको उन्होंने बड़ा सुंदर रचा। सौंदर्य के देवता ने उसको सौंदर्य दिया, बुद्धि के देवता ने उसे प्रतिभा दी, नृत्य के देवता ने उसको पदों में नृत्य भरा, संगीत के देवता ने उसके कंठ को संगीत से सजाया; ऐसे सारे देवताओं ने मिलकर पिंडोरा बनाई। पिंडोरा जैसी कोई सुंदर स्त्री नहीं हो सकती; क्योंकि सारे देवताओं की सारी सृजनशक्ति उस पर लग गई।

वह प्रोमोथियस को भ्रष्ट करने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर भेजी। और उसके साथ चलते वक्त उन्होंने एक पेटी दे दी--एक संदूकची, जो बड़ी प्रसिद्ध है: "पिंडोरा की मंजूषा' और कहा, कि इसे खोलना मत। कभी भूलकर मत खोलना।

देवता चाहते थे, कि वह खोले। इसलिए उन्होंने कहा कि इसको खोलना मत, भूलकर मत खोलना। इसको खोलना ही नहीं है, चाहे कुछ भी हो जाये! स्वभावतः देवता कुशल हैं, चालाक हैं, जिस चीज को खुलवाना हो, उसके लिए यह जिज्ञासा भर देनी, कि खोलना मत, उचित है। अगर वे कुछ न कहते तो शायद पिंडोरा भूल भी जाती उस संदूकची को। लेकिन उस दिन से उसको दिन रात एक ही लगा रहता मन में, कि उस संदूक में क्या है?

बड़ी सुंदर संदूक थी, हीरे-ज़वाहरातों से जड़ी थी। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। आधी रात में उठकर उसने संदूक खोलकर देख ली।

संदूक खोलते ही वह घबड़ा गई। उसमें से भयंकर मनुष्य जाति के दुश्मन निकले--क्रोध, लोभ, मोह, काम, भय,र् ईष्या, जलन! एकदम पिंडोरा की संदूकची खुल गई और उसमें से निकले ये सारे भूत-प्रेत और सारी पृथ्वी पर फैल गए। घबड़ाहट में उसने संदूकची बंद कर दी, लेकिन तब तक देर हो चूकी थी। सब निकल चुके थे, संदूकची में जो-जो थे, सिर्फ एक तत्व रह गया; उस तत्व का नाम है: आशा। बाकी सब निकल गए, संदूक बंद हो गई। सिर्फ आशा, होप भीतर रह गई।

कहानी का अर्थ है, कि लोभ, काम, क्रोध सब तुम्हें बाहर से सताते हैं। आशा तुम्हें भीतर से सताती है।

आशा यानी कल्पना! सपना! इंद्रधनुष! जैसा है नहीं, उसकी कामना। उसका भरोसा, जैसा कभी नहीं होगा। तुम भी अपने यथार्थ क्षणों में जानते हो, ऐसा कभी नहीं होगा, लेकिन सपना तुम्हें पकड़ता है तो तुम भी मानने लगते हो, कि ऐसा ही होगा। वह पिंडोरा की संदूकची में आशा भीतर बंद है--कल्पना, आशा का जाल।

संसार एक भ्रम है

अगर आपके  सभी सगे संबंधियों ने आपका साथ छोड़ दिया है तो इसका अर्थ है शनिदेव आपको संसार की कड़वी सत्यता से साक्षात्कार करवा रहे है। यह भाग्यशाली व्यक्ति के साथ होता है वो जान जाता है सत्य क्या है। ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें। ईश्वर आपको मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर कर रहे है।यहाँ सभी संबंध नश्वर है सिवा उस परमपिता के कोई संबंध सच्चा नही ।सब नाते झूठे है।

आपके साथ भी ऐसा होने लगे तो आप समझ जाएं कि अब आप ईश्वर के करीब जाने वाले वाले है। आप आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होने वाले हैं।


विचलित न हों। संसार एक भ्रम है, माया है और यहाँ कोई किसी के साथ नही सबको जाना ही है कोई पहले जाता है कोई बाद में। किंतु जब कोई आपको इस नश्वर देह में रहते हुए साथ छोड़ रहा है तो आप जान लें कि अब ईश्वर आपसे प्रेम करने लगे है, स्वार्थ के इस संसार में आप उन सब बँधनों से मुक्त हो रहे है जिनसे आपके कर्म बँधन बँधे थे। आप उनके ऋणों से अब उऋण होने के मार्ग पर अग्रसर हो रहे है। आप मुक्ति के मार्ग पर चलने वाले है। अब आप परमपिता के साथ बँधने वाले है वो बँधन जो सच्चा है, वो बँधन जो अनश्वर है, वो बँधन जो अनंत है। ईश्वर को इसके लिये कोटि कोटि धन्यवाद दे। स्वयं को श्री चरणों में समर्पित कर दें।



समस्या

 एक सूफी फकीर के आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये चार स्त्रियां पहुंचीं। उनकी बड़ी जिद थी, बड़ा आग्रह था। ऐसे सूफी उन्हें टालता रहा, लेकिन एक सीमा आई कि टालना भी असंभव हो गया। सूफी को दया आने लगी, क्योंकि वे द्वार पर बैठी ही रहीं--भूखी और प्यासी; और उनकी प्रार्थना जारी रही कि उन्हें प्रवेश चाहिए।

उनकी खोज प्रामाणिक मालूम हुई तो सूफी झुका। और उसने उन चारों की परीक्षा ली। उसने पहली स्त्री को बुलाया और उससे पूछा, "एक सवाल है। तुम्हारे जवाब पर निर्भर करेगा कि तुम आश्रम में प्रवेश पा सकोगी या नहीं। इसलिए बहुत सोच कर जवाब देना।'

सवाल सीधा-साफ था। उसने कहा कि एक नाव डूब गई है; उसमें तुम भी थीं और पचास थे। पचास पुरुष और तुम एक निर्जन द्वीप पर लग गये हो। तुम उन पचास पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी? यह समस्या है।

एक स्त्री और पचास पुरुष और निर्जन एकांत! वह स्त्री कुंआरी थी। अभी उसका विवाह भी न हुआ था। अभी उसने पुरुष को जाना भी न था। वह घबड़ा गई। और उसने कहा, कि अगर ऐसा होगा तो मैं किनारे लगूंगी ही नहीं; मैं तैरती रहूंगी। मैं और समुद्र्र में गहरे चली जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी, लेकिन इस द्वीप पर कदम न रखूंगी।

फकीर हंसा, उसने उस स्त्री को विदा दे दी और कहा, कि मर जाना समस्या का समाधान नहीं है। नहीं तो आत्मघात सभी समस्याओं का समाधान हो जाता।

यह पहला वर्ग है, जो आत्मघात को समस्या को समाधान मानता है। तुम चकित होओगे, कि तुममें से अधिक लोग इसी वर्ग में हैं। हर बार जीवन में वही समस्याएं हैं, वही उलझने हैं, और हर बार तुम्हारा जो हल है, वह यह है कि किसी तरह जी लेना और मर जाना। फिर तुम पैदा हो जाते हो।

इस संसार में मरने से तो कुछ हल होता ही नहीं। फिर तुम पैदा हो जाते हो, फिर वही उलझन, फिर वही रूप, फिर वही झंझट, फिर वही संसार; यह पुनरुक्ति चलती रहती है। यह चाक घूमता रहता है। तुम्हारे मरने से कुछ हल न होगा। तुम्हारे बदलने से हल हो सकता है। मरने से हल नहीं हो सकता। मर कर भी तुम, तुम ही रहोगे। फिर तुम लौट आओगे।

और अगर एक बार आत्मघात समस्या का समाधान मालूम हो गया तो तुम हर बार यही करोगे। तुम्हारे मन में भी अनेक बार किसी समस्या को जूझते समय जब उलझन दिखाई पड़ती है और रास्ता नहीं मिलता, तो मन होता है, मर ही जाओ। आत्महत्या ही कर लो। यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का निचोड़ है। पर इससे कुछ हल नहीं होता। समस्या अपनी जगह खड़ी रहती है।

दूसरी स्त्री बुलाई गई। वह दूसरी स्त्री विवाहित थी, उसका पति था। यही सवाल उससे भी पूछा गया, कि पचास व्यक्ति हैं, तू है; नाव डूब गई है सागर में, पचास व्यक्ति और तू एक निर्जन द्वीप लग गये हैं। तू अपनी रक्षा कैसे करेगी?

उस स्त्री ने कहा, इसमें बड़ी कठिनाई क्या है? उन पचास में जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होगा, मैं उससे विवाह कर लूंगी। वह एक, बाकी उनचास से मेरी रक्षा करेगा।

यह उसका बंधा हुआ अनुभव है। लेकिन उसे पता नहीं, कि परिस्थिति बिलकुल भिन्न है। उसके देश में यह होता रहा होगा, कि उसने विवाह कर लिया और एक व्यक्ति ने बाकी से रक्षा की। लेकिन एक व्यक्ति बाकी से रक्षा नहीं कर सकता। एक व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली हो, पचास से ज्यादा शक्तिशाली थोड़े ही होगा। रक्षा असल में एक पति थोड़े ही करता है स्त्री की! जो पचास की पत्नियां हैं, वह उन पचास को सीमा के बाहर नहीं जाने देतीं।

इसलिए वह जो उसका अनुभव है, इस नई परिस्थिति में काम न आयेगा। वह एक आदमी मार डाला जायेगा, वह कितना ही शक्तिशाली हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। पचास के सामने वह कैसे टिकेगा?

पुराना अनुभव हम नई परिस्थिति में भी खींच लेते हैं। हम पुराने अनुभव के आधार पर ही चलते जाते हैं, बिना यह देखे कि परिस्थिति बदल गई है और यह उत्तर कारगर न होगा।

फकीर ने उस स्त्री को विदा कर दिया और उससे कहा, कि तुझे अभी बहुत सीखना पड़ेगा, इसके पहले कि तू स्वीकृत हो सके। तूने एक बात नहीं सीखी है अभी, कि परिस्थिति के बदलने पर समस्या ऊपर से चाहे पुरानी दिखाई पड़े, भीतर से नई हो जाती है। और नया समाधान चाहिये।

लेकिन अनुभव की एक खराबी है, कि जितने अनुभवी लोग होते हैं, उनके पास नया समाधान कभी नहीं होता। छोटे बच्चे से तो नया समाधान मिल भी जाये, बूढ़े से नया समाधान नहीं मिल सकता। उसका अनुभव मजबूत हो चुका होता है। वह अपने अनुभव को ही दोहराये चला जाता है। वह कहता है, मैं जानता हूं, जीया हूं, बहुत अनुभव किये हैं; यह उसका सारा निचोड़ है। उसका मस्तिष्क पुराना, जरा-जीर्ण हो जाता है, बासा हो जाता है।

यह स्त्री बासी हो चुकी थी। इसके उत्तर खंडहर हो चुके थे। इसको यह बोध भी न रहा था, कि हर पल जीवन नई समस्या खड़ी करता है। और हर पल चेतना को नया समाधान खोजना पड़ता है। इसलिए बंधे हुए समाधान, लकीरें, और लकीरों पर चलनेवाले फकीर काम के नहीं हैं। रूढ़िबद्ध उत्तर काम नहीं देंगे। यहां तो सजगता चाहिये। सजगता ही उत्तर हो सकती है। वह स्त्री भी अस्वीकार दी गई।

तीसरी स्त्री बुलाई गई, वह एक वेश्या थी। और जब फकीर ने उसे समस्या बताई कि समस्या यह है, कि पचास आदमी हैं, तुम हो, नाव डूब गई, एकांत निर्जन द्वीप होगा, तुम अकेली स्त्री होओगी। समस्या कठिन है; तुम क्या करोगी?

वह वेश्या हंसने लगी। उसने कहा, मेरी समझ में आता है कि नाव है, पचास आदमी हैं, एक स्त्री मैं हूं। फिर नाव डूब गई है, पचास आदमी और मैं किनारे लग गये, निर्जन द्वीप है, समझ में आता; लेकिन समस्या क्या है? वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती! इसमें समस्या कहां है, यह मेरी समझ में नहीं आता। और जब समस्या ही न हो, तो समाधान का सवाल ही नहीं उठता।

वेश्या भी विदा कर दी गई। क्योंकि जिसके लिए समस्या ही नहीं है, उसे समाधान की यात्रा पर कैसे भेजा जा सकता है?

चौथी स्त्री के सामने भी वही सवाल फकीर ने रखा। उस स्त्री ने सवाल सुना, आंखें बंद कीं, आंखें खोलीं और कहा, "मुझे कुछ पता नहीं। मैं निपट अज्ञानी हूं।'

वह चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई।

ज्ञान के मार्ग पर वही चल   सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले।

स्वाभाविक है यह बात। क्योंकि अगर तुम्हारे पास उत्तर है ही, तो फिर किसी उत्तर की कोई जरूरत न रही। उत्तर है ही, इसका अर्थ है तुम स्वयं ही अपने गुरु हो; किसी गुरु का कोई सवाल न रहा। गुरु की खोज वही कर पाता है, जिसके पास कोई उत्तर नहीं है।





मंगलवार, 24 मई 2022

स्त्री

 निर्वाह के निमित्त व्यवहार करते हुए पुरुष से जाने-अनजाने में पाप हो जाते हैं। यह पाप उसको अकेले ही भोगने पड़ते है। शास्त्र में तो यहाँ तक लिखा है कि पैसा कमाते हुआ पुरुष जो कोई पाप करता है, उसमें स्त्री का भाग नही होता परन्तु पति पुण्य करें उसमें स्त्री को भाग मिलता है। जो स्त्री पतिव्रता है, जो स्त्री पति में ईश्वर की भावना रखकर उसकी सेवा करती है, उस स्त्री को ही पति के पुण्य में भाग मिलता है। पतिदेव का कहना न माने, पति का दिल दुखावे, ऐसी स्त्री को पति का पुण्य मिलता नही। पति में ईश्वर-भाव नही रखें, उस स्त्री के यह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते है ।पति की सेवा करना, यह स्त्री का धर्म है। पति क्रोधी हो, रोगी हो, अशक्त हो तो भी उसमें ईश्वर की भावना रखकर उस की सेवा करने से स्त्री को मुक्ति मिलती है। रामायण में श्री सीता जी ने कहा है। स्त्री के लिए पति की सेवा ही तप है। पतिव्रता स्त्री तो परमात्मा की भी माँ बन सकती है। स्त्री में ऐसी शक्ति है कि भगवान को बालक बना सकती हैं। पति की सेवा से चित्त शुद्धि और चित्त शुद्धि से परमात्मा की प्राप्ति होती है। ऐसी स्त्रियोंको मन्दिरमें भी जाने की जरूरत नहीं है ।स्त्री घरमें एक-एक जीवमे ईश्वरका भाव रखती है, सबकी सेवामें शरीर घिसती है । लायक स्त्री घरमें सबको सुखी करती है और अपने बालकों को धर्म का शिक्षण देती है । यह इसकी बड़ी से बड़ी सेवा है। घर के लोग मेरी कद्र करेगे- ऐसी तनिक भी अपेक्षा रखती नही । कद्र तो ऊपर जाने के बाद होती है। कितने ही लोग काम खूब करते हैं, परन्तु घर मे इन से बहुत सम्मान से न बोला जाय तो इनका हृदय पीड़ित होता है कि मैंने इतना अधिक काम किया फिर भी इस तरह बोलते हैं। इस जीव को सम्मान करना आता ही नही। कोई मनुष्य मेरा सम्मान करे, ऐसी अपेक्षा रखना ही नहीं। कोई भी काम करो, परमात्मा को नजर मे रखकर, प्रभु का स्मरण करते-करते करो तो हृदय पीड़ित होने का प्रसंग ही नही आवेगा । तुम्हारे काम की लोग प्रशंसा करे इसलिए नही, परन्तु उसके ऊपर प्रभु नजर करे, उससे परमात्मा राजी हों, ऐसी अपेक्षा से काम करोगे तो कभी निराश होने का अवसर नही आयेगा। परमात्मा को राजी करने के लिए तुम अपना कर्त्तव्य सदैव निर्वाह करो, स्वधर्म का पालन करो। कोई मनुष्य राजी हो या न हो इससे क्या ? यह राजी हो जाने से तुमको क्या दे देता है और नाराज हो तो तुम्हारा क्या बिगाड़ने वाला है ? मनमे सदैव स्मरण रखो कि मेरा सम्बन्ध ईश्वरके साथ है। 




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...