निर्वाह के निमित्त व्यवहार करते हुए पुरुष से जाने-अनजाने में पाप हो जाते हैं। यह पाप उसको अकेले ही भोगने पड़ते है। शास्त्र में तो यहाँ तक लिखा है कि पैसा कमाते हुआ पुरुष जो कोई पाप करता है, उसमें स्त्री का भाग नही होता परन्तु पति पुण्य करें उसमें स्त्री को भाग मिलता है। जो स्त्री पतिव्रता है, जो स्त्री पति में ईश्वर की भावना रखकर उसकी सेवा करती है, उस स्त्री को ही पति के पुण्य में भाग मिलता है। पतिदेव का कहना न माने, पति का दिल दुखावे, ऐसी स्त्री को पति का पुण्य मिलता नही। पति में ईश्वर-भाव नही रखें, उस स्त्री के यह लोक और परलोक दोनों बिगड़ते है ।पति की सेवा करना, यह स्त्री का धर्म है। पति क्रोधी हो, रोगी हो, अशक्त हो तो भी उसमें ईश्वर की भावना रखकर उस की सेवा करने से स्त्री को मुक्ति मिलती है। रामायण में श्री सीता जी ने कहा है। स्त्री के लिए पति की सेवा ही तप है। पतिव्रता स्त्री तो परमात्मा की भी माँ बन सकती है। स्त्री में ऐसी शक्ति है कि भगवान को बालक बना सकती हैं। पति की सेवा से चित्त शुद्धि और चित्त शुद्धि से परमात्मा की प्राप्ति होती है। ऐसी स्त्रियोंको मन्दिरमें भी जाने की जरूरत नहीं है ।स्त्री घरमें एक-एक जीवमे ईश्वरका भाव रखती है, सबकी सेवामें शरीर घिसती है । लायक स्त्री घरमें सबको सुखी करती है और अपने बालकों को धर्म का शिक्षण देती है । यह इसकी बड़ी से बड़ी सेवा है। घर के लोग मेरी कद्र करेगे- ऐसी तनिक भी अपेक्षा रखती नही । कद्र तो ऊपर जाने के बाद होती है। कितने ही लोग काम खूब करते हैं, परन्तु घर मे इन से बहुत सम्मान से न बोला जाय तो इनका हृदय पीड़ित होता है कि मैंने इतना अधिक काम किया फिर भी इस तरह बोलते हैं। इस जीव को सम्मान करना आता ही नही। कोई मनुष्य मेरा सम्मान करे, ऐसी अपेक्षा रखना ही नहीं। कोई भी काम करो, परमात्मा को नजर मे रखकर, प्रभु का स्मरण करते-करते करो तो हृदय पीड़ित होने का प्रसंग ही नही आवेगा । तुम्हारे काम की लोग प्रशंसा करे इसलिए नही, परन्तु उसके ऊपर प्रभु नजर करे, उससे परमात्मा राजी हों, ऐसी अपेक्षा से काम करोगे तो कभी निराश होने का अवसर नही आयेगा। परमात्मा को राजी करने के लिए तुम अपना कर्त्तव्य सदैव निर्वाह करो, स्वधर्म का पालन करो। कोई मनुष्य राजी हो या न हो इससे क्या ? यह राजी हो जाने से तुमको क्या दे देता है और नाराज हो तो तुम्हारा क्या बिगाड़ने वाला है ? मनमे सदैव स्मरण रखो कि मेरा सम्बन्ध ईश्वरके साथ है।
गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने में पूर्ण है। अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए--समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए, खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में--तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है।
मंगलवार, 24 मई 2022
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