बुधवार, 25 मई 2022

समस्या

 एक सूफी फकीर के आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये चार स्त्रियां पहुंचीं। उनकी बड़ी जिद थी, बड़ा आग्रह था। ऐसे सूफी उन्हें टालता रहा, लेकिन एक सीमा आई कि टालना भी असंभव हो गया। सूफी को दया आने लगी, क्योंकि वे द्वार पर बैठी ही रहीं--भूखी और प्यासी; और उनकी प्रार्थना जारी रही कि उन्हें प्रवेश चाहिए।

उनकी खोज प्रामाणिक मालूम हुई तो सूफी झुका। और उसने उन चारों की परीक्षा ली। उसने पहली स्त्री को बुलाया और उससे पूछा, "एक सवाल है। तुम्हारे जवाब पर निर्भर करेगा कि तुम आश्रम में प्रवेश पा सकोगी या नहीं। इसलिए बहुत सोच कर जवाब देना।'

सवाल सीधा-साफ था। उसने कहा कि एक नाव डूब गई है; उसमें तुम भी थीं और पचास थे। पचास पुरुष और तुम एक निर्जन द्वीप पर लग गये हो। तुम उन पचास पुरुषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी? यह समस्या है।

एक स्त्री और पचास पुरुष और निर्जन एकांत! वह स्त्री कुंआरी थी। अभी उसका विवाह भी न हुआ था। अभी उसने पुरुष को जाना भी न था। वह घबड़ा गई। और उसने कहा, कि अगर ऐसा होगा तो मैं किनारे लगूंगी ही नहीं; मैं तैरती रहूंगी। मैं और समुद्र्र में गहरे चली जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी, लेकिन इस द्वीप पर कदम न रखूंगी।

फकीर हंसा, उसने उस स्त्री को विदा दे दी और कहा, कि मर जाना समस्या का समाधान नहीं है। नहीं तो आत्मघात सभी समस्याओं का समाधान हो जाता।

यह पहला वर्ग है, जो आत्मघात को समस्या को समाधान मानता है। तुम चकित होओगे, कि तुममें से अधिक लोग इसी वर्ग में हैं। हर बार जीवन में वही समस्याएं हैं, वही उलझने हैं, और हर बार तुम्हारा जो हल है, वह यह है कि किसी तरह जी लेना और मर जाना। फिर तुम पैदा हो जाते हो।

इस संसार में मरने से तो कुछ हल होता ही नहीं। फिर तुम पैदा हो जाते हो, फिर वही उलझन, फिर वही रूप, फिर वही झंझट, फिर वही संसार; यह पुनरुक्ति चलती रहती है। यह चाक घूमता रहता है। तुम्हारे मरने से कुछ हल न होगा। तुम्हारे बदलने से हल हो सकता है। मरने से हल नहीं हो सकता। मर कर भी तुम, तुम ही रहोगे। फिर तुम लौट आओगे।

और अगर एक बार आत्मघात समस्या का समाधान मालूम हो गया तो तुम हर बार यही करोगे। तुम्हारे मन में भी अनेक बार किसी समस्या को जूझते समय जब उलझन दिखाई पड़ती है और रास्ता नहीं मिलता, तो मन होता है, मर ही जाओ। आत्महत्या ही कर लो। यह तुम्हारे जन्मों-जन्मों का निचोड़ है। पर इससे कुछ हल नहीं होता। समस्या अपनी जगह खड़ी रहती है।

दूसरी स्त्री बुलाई गई। वह दूसरी स्त्री विवाहित थी, उसका पति था। यही सवाल उससे भी पूछा गया, कि पचास व्यक्ति हैं, तू है; नाव डूब गई है सागर में, पचास व्यक्ति और तू एक निर्जन द्वीप लग गये हैं। तू अपनी रक्षा कैसे करेगी?

उस स्त्री ने कहा, इसमें बड़ी कठिनाई क्या है? उन पचास में जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होगा, मैं उससे विवाह कर लूंगी। वह एक, बाकी उनचास से मेरी रक्षा करेगा।

यह उसका बंधा हुआ अनुभव है। लेकिन उसे पता नहीं, कि परिस्थिति बिलकुल भिन्न है। उसके देश में यह होता रहा होगा, कि उसने विवाह कर लिया और एक व्यक्ति ने बाकी से रक्षा की। लेकिन एक व्यक्ति बाकी से रक्षा नहीं कर सकता। एक व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली हो, पचास से ज्यादा शक्तिशाली थोड़े ही होगा। रक्षा असल में एक पति थोड़े ही करता है स्त्री की! जो पचास की पत्नियां हैं, वह उन पचास को सीमा के बाहर नहीं जाने देतीं।

इसलिए वह जो उसका अनुभव है, इस नई परिस्थिति में काम न आयेगा। वह एक आदमी मार डाला जायेगा, वह कितना ही शक्तिशाली हो। उसका कोई अर्थ नहीं है। पचास के सामने वह कैसे टिकेगा?

पुराना अनुभव हम नई परिस्थिति में भी खींच लेते हैं। हम पुराने अनुभव के आधार पर ही चलते जाते हैं, बिना यह देखे कि परिस्थिति बदल गई है और यह उत्तर कारगर न होगा।

फकीर ने उस स्त्री को विदा कर दिया और उससे कहा, कि तुझे अभी बहुत सीखना पड़ेगा, इसके पहले कि तू स्वीकृत हो सके। तूने एक बात नहीं सीखी है अभी, कि परिस्थिति के बदलने पर समस्या ऊपर से चाहे पुरानी दिखाई पड़े, भीतर से नई हो जाती है। और नया समाधान चाहिये।

लेकिन अनुभव की एक खराबी है, कि जितने अनुभवी लोग होते हैं, उनके पास नया समाधान कभी नहीं होता। छोटे बच्चे से तो नया समाधान मिल भी जाये, बूढ़े से नया समाधान नहीं मिल सकता। उसका अनुभव मजबूत हो चुका होता है। वह अपने अनुभव को ही दोहराये चला जाता है। वह कहता है, मैं जानता हूं, जीया हूं, बहुत अनुभव किये हैं; यह उसका सारा निचोड़ है। उसका मस्तिष्क पुराना, जरा-जीर्ण हो जाता है, बासा हो जाता है।

यह स्त्री बासी हो चुकी थी। इसके उत्तर खंडहर हो चुके थे। इसको यह बोध भी न रहा था, कि हर पल जीवन नई समस्या खड़ी करता है। और हर पल चेतना को नया समाधान खोजना पड़ता है। इसलिए बंधे हुए समाधान, लकीरें, और लकीरों पर चलनेवाले फकीर काम के नहीं हैं। रूढ़िबद्ध उत्तर काम नहीं देंगे। यहां तो सजगता चाहिये। सजगता ही उत्तर हो सकती है। वह स्त्री भी अस्वीकार दी गई।

तीसरी स्त्री बुलाई गई, वह एक वेश्या थी। और जब फकीर ने उसे समस्या बताई कि समस्या यह है, कि पचास आदमी हैं, तुम हो, नाव डूब गई, एकांत निर्जन द्वीप होगा, तुम अकेली स्त्री होओगी। समस्या कठिन है; तुम क्या करोगी?

वह वेश्या हंसने लगी। उसने कहा, मेरी समझ में आता है कि नाव है, पचास आदमी हैं, एक स्त्री मैं हूं। फिर नाव डूब गई है, पचास आदमी और मैं किनारे लग गये, निर्जन द्वीप है, समझ में आता; लेकिन समस्या क्या है? वेश्या के लिये समस्या हो ही नहीं सकती! इसमें समस्या कहां है, यह मेरी समझ में नहीं आता। और जब समस्या ही न हो, तो समाधान का सवाल ही नहीं उठता।

वेश्या भी विदा कर दी गई। क्योंकि जिसके लिए समस्या ही नहीं है, उसे समाधान की यात्रा पर कैसे भेजा जा सकता है?

चौथी स्त्री के सामने भी वही सवाल फकीर ने रखा। उस स्त्री ने सवाल सुना, आंखें बंद कीं, आंखें खोलीं और कहा, "मुझे कुछ पता नहीं। मैं निपट अज्ञानी हूं।'

वह चौथी स्त्री स्वीकार कर ली गई।

ज्ञान के मार्ग पर वही चल   सकता है, जो अज्ञान को स्वीकार ले।

स्वाभाविक है यह बात। क्योंकि अगर तुम्हारे पास उत्तर है ही, तो फिर किसी उत्तर की कोई जरूरत न रही। उत्तर है ही, इसका अर्थ है तुम स्वयं ही अपने गुरु हो; किसी गुरु का कोई सवाल न रहा। गुरु की खोज वही कर पाता है, जिसके पास कोई उत्तर नहीं है।





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