गुरुवार, 26 मई 2022

सीता जी मधुरता

 श्री सीताजी ने जगत को स्त्री धर्मं समझाया है। श्री सीता जी मे सब ही सद्गुण एकत्रित हुए है। रामायण में लिखा है कि रामजी को कभी-कभी क्रोध आ जाता है । राक्षसों के साथ रामजी युद्ध करते है, उस समय उनकी आँखे लाल हो जाती है परन्तु सीता माँ को जीवनमे कभी भी क्रोध आया नही। श्रीसीताजी जीवनमें कभी भी ऊंचे स्वरसे बोली नही। श्रीसीताजी अतिशय मधुर बोलती है। इनको कर्कश बोलना आता ही नहीं।

तुम्हारे घर कलह न हो, ऐसी इच्छा रखते हो तो भले ही कुछ भी हो जाय, कभी ऊँचे स्वर से बोलना नही। कर्कश वाणी से कलह का जन्म होता है। क्रोध की बुरी उक्ति-यही कर्कश वाणी है। कर्कश वाणी मे से विवाद उठता है और वाद-विवाद में फिर मारा-मारी होती है। सब पापों की मूल वाणी हैं। शरीरमे सब ठिकाने हाड़ है, एक जीभ मे ही हड्डी नहीं है। यह जीभ कहलाती तो 'लूली' है, परन्तु यह 'लूली' अर्थात् यह लँगड़ी तूफान बहुत करती है। आड़ी-तिरछी बोल देती है। इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के समय द्रौपदी ने अन्धे का पुत्र अन्धा कहकर दुर्योधन का अपमान किया। उसमे से महाभारत के युद्ध का जन्म हुआ। श्री सीता जी जीवन मे एक ही समय कर्कश वाणी बोली थी, और उसी में से रामायण के अनेक करुण प्रसङ्ग निकले। माया-मारीच की 'हा लक्ष्मण की छल भरी आवाज से श्री सीता जी भ्रम मे पड़ गयी कि रामजी सङ्कट में है और उससे वे बहुत व्याकुल हो गयीं। अतिव्याकुलता में उन्होंने लक्ष्मणजी से बहुत कर्कश वचन कहे और उसमें से ही करुण प्रसंगों की परम्परा उठ खड़ी हुई ।


कर्कश वाणी तो विष है। शिवजी ने विष गलेमें रखा है। जहर गले में ही रख लेना उचित है । उसको न बाहर आने दिया जाय और न पेट में उतरने दिया जाय। कोई कड़वा शब्द मुखसे बाहर निकलने मत दो और कोई कड़वाहट पेट में रखो नही। कोई निन्दा करे, द्वेष करे तो प्रतिकार करो नहीं, न उसको पेट में रखो। उसको याद नही रखो, सहन कर लो और उसे भूल जाओ। हृदय में हरि को रखना हो तो उसमे विष रखो नही ।

निश्चय करो कि मुझे मधुर बोलना है। बोलो तो ऐसा बोलो कि सुननेवाले का मन झूमने लगे। किसी का दिल दुखे, ऐसा बोलो नही । लकड़ी की मार भुलायी जा सकती है, परन्तु शब्द की मार भूलते नहीं। काम करते हुए किसी की भूल हो जाय तो मधुर वाणी से इशारा करो। वाणी मधुर होनी चाहिए, आनन्द उपजावे, ऐसी होनी चाहिये । शब्द ब्रह्म का स्वरूप है। जो सर्वकाल में मधुर बोलता है उसे रोग नही होता। जो मधुर बोलता है उसका कोई शत्रु नही होता। जो मधुर बोलता है वही परमात्मा को अच्छा लगता है। तुम जानते हो, श्री कृष्ण प्रभु ने हाथ में बाँसुरी किसलिए रखी है ? बांसुरी अतिशय मधुर बोलती है। बांसुरी सज्जन अथवा दुर्जन, सबके साथ मधुर ही बोलती है। बांसुरी का नाद सुनकर हिरण भी दौड़ते है और विषधर नाग भी दौड़ते है। कस्तूरी मृग सज्जन का स्वरूप है, और विषधर नाग दुर्जन का | बाँसुरीका शब्द सुनकर सज्जन-दुर्जन सबको आनन्द होता है। वाँसुरी कभी भी कड़वा शब्द बोल ही सकती नही, कठोरता से बोलती नहीं। इसी कारण से तो यह परमात्माके अधरामृतकी अधिकारिणी बनी है ।

जहाँ स्वार्थ होता है वहाँ तो लोग बहुत ही मधुर बोलते है। स्वार्थ में मधुर बोलना - यह मिठास सच्ची नहीं। हृदय में मिठास हो तो ही वाणी में सच्ची मिठास आती है। परमात्मा ने हृदय दिया है मिठास भरने के लिये, और जीभ दी है मधुर बोलने के लिए । कुछ भी क्यों न हो जाय, तुम्हारा कोई अपमान करे अथवा घर में नुकसान हो जाय, तुम कभी ऊँचे स्वर से बोलना नही । कर्केश वाणीमें से ही कलियुगका जन्म हुआ है।

श्री सीता माँ अति मधुर बोलती है। रामायण में वर्णन आता है कि प्रभु ने  शिवजी के धनुषका खण्डन किया और पीछे जनकराज ने सुवर्णाक्षरोमें कुंकुम-पत्रिका  लिखी । दूत को वह पत्रिका देकर कहा- 'तू दौड़ता हुआ अयोध्या में जा और दशरथ महाराज को यह पत्रिका देकर कहना कि प्रभुने धनुष को भंग किया है, श्री सीता जी ने रामजीको विजय माला अर्पण की है। आप अयोध्याकी प्रजाको साथ लेकर जल्दीसे लग्न महोत्सवमें पधारे।'

पत्रिका लेकर दौड़ता हुआ अयोध्या मे आता है। दशरथ महाराजका दरबार भरा हुआ है। सिपाही दशरथ महाराजको पत्रिका देता है। श्री विश्वामित्र के साथ श्रीराम-लक्ष्मणके जानेके पश्चात् दशरथ महाराजको आज दिन तक कोई खबर मिली नही। वे चिन्ता करते थे कि मेरा राम कहाँ होगा ? एक ऋषिके पीछे-पीछे गया है, बहुत समयसे इनकी कोई खैर-खबर नहीं। आज जनक राजाका पत्र आया उसमें श्रीराम लक्ष्मणका बहुत वर्णन किया है। राजा दशरथ वह पत्र पढ़कर अतिशय प्रसन्न हुए कि रावण जैसा वीर पुरुष जिस धनुष को उठा नही सका, उसको मेरे रामने भंग किया है। श्रीसीताजीने जयमाल अर्पण की है। दशरथ महाराजने सीताजीकी पहलेसे ही बहुत प्रशंसा सुनी थी। वही सीताजी पुत्रवधू बने इससे बड़ा क्या फल मिल सकता था । राजा दशरथ की आँखें हर्षसे गीली हुईं। उन्होंने दूतसे कहा- 'मेरे रामकी लग्नकी बधाई तूने दी है तुझको मैं क्या दूं ?" महाराजके गलेमें नवरत्नका एक अमूल्य हार था। महाराजने वह उतारकर दूतको दिया। दूतने हाथ जोड़े परन्तु हार लिया नहीं । दशरथजी ने आग्रह किया कि अपने रामके लग्नकी वार्ता सुनकर मैं बहुत आनन्दित हुआ हूँ। यह मैं तुमको बख्शीश देता हूँ। आज तो तुमको यह लेनी चाहिये ।

दूतने हाथ जोड़कर कहा कि महाराज ! आप जो कहते हो वह ठीक है परन्तु मै तो कन्या पक्ष का हूँ। आपके घरका पानी भी हमको ग्राह्य नहीं। आपका हार हमारे द्वारा लेने योग्य नही ।


महाराज दशरथको आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा कि यह तो जनक महाराजकी कन्या है और तुम तो सेवक हो । सेवक को लेनेमें तनिक भी बाधा नहीं। तुमको तो लेना ही चाहिए । मैं बहुत खुश होकर तुमको दे रहा हूँ।

दूत को श्रीसीताजीका स्मरण हुआ। उसकी आँखे नम हो गयी। हृदय पिघल गया। उसने हाथ जोड़कर कहा- 'महाराज नौकर हूँ, यह तो बात सच है परन्तु मैं आपसे अधिक क्या कहूँ ? श्रीसीताजीने मुझे घरमे नौकर की तरह रखा नही। मैं उमर में बड़ा हूँ न, इसलिए उन्होंने मुझे पिताके समान माना है। श्रीसीताजी राज-कन्या हैं परन्तु घरके नौकरोंके साथ उनका ऐसा शुद्ध प्रेम है। महाराज ! वे हमारी पुत्री है। अपनी कन्याकी मैं क्या प्रशंसा करूं ? यह तो आपके घर आनेके पश्चात् आपको विदित होगा। आप सबको वे बहुत सुखी करेगी। वे बहुत लायक है ।'

घरके दास-दासियोंके साथ भी सीताजीका व्यवहार बहुत प्रेममय है। नौकरोंका तिरस्कार कभी करना नहीं। रामायणमें लिखा है कि सीताजी जनकपुर छोड़कर अयोध्या जाने लगी तो घरके दास दासी भी रोने लग गये। पशु-पक्षी तक भी रोए थे। श्रीसीताजीका वियोग घरके दास-दासियों से क्या, अरे, पशु-पक्षियोंसे भी सहन हुआ नही। श्रीसीताजीका सबके साथ ऐसा प्रेम था ।





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