गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4भाग 39

  

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।। 41।।


हे धनंजय, समत्वबुद्धिरूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।



संशयरहित जो हो गया, कर्म जिसने अपने समर्पित कर दिए प्रभु को, बेशर्त दान है जिसका स्वयं का समग्र को; अपनी तरफ जो शून्य हो रहा; कह दिया प्रभु को पूर्ण जिसने; ऐसे पुरुष को--समर्पित, शून्य हुए, विनम्र, निःसंशय, भगवत्प्रेम से भरे हुए--ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।

कृष्ण बार-बार अर्जुन को हजार-हजार मार्गों से कह रहे हैं कि अर्जुन, तू वह राज समझ ले, जिससे कर्म करते हुए भी बंधन नहीं बनता है।




समर्पण कर दिए जिसने सब कर्म प्रभु को, उसे बंधन नहीं होता है। फिर बंधेगा, तो प्रभु; खुलेगा, तो प्रभु। अपनी तरफ से उसने सारा बोझ उसे दे दिया है।

समर्पण ही लेकिन कठिनाई है। अहंकार बाधा है। अहंकार कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है, मैं सब कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं। और अहंकार इतना चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके, इतनी महीन हैं तरकीबें उसकी; इतने होशियार, इतने गणित का खेल है उसका, कि जब अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है, मैं कुछ हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी अहंकार खड़ा हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।

रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को समझाने को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। खटखटाया द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है, अपेक्षाओं से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी खटखटाहट को भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी मेरी, तो जरूर मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा होगा मुझे, तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी आवाज; सिर्फ द्वार खटखटाया।

भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर! प्रेमी को दुख हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं बहुत, उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर, तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी खुल जाने थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती हूं। लेकिन भीतर से पूछती है, कौन हो?

दुखी हुआ मन। कहा, मैं हूं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा, जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।

प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि अहंकार प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले हुए द्वार नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार समझा, वह पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, तब उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।

सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया।

पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग का होता, बहुत उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस तरह के प्रेमी ने लिखी, जो प्रभु के द्वार की बात कर रहा है।

लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने चांद पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही अहंकार को मिटाना लंबी यात्रा है; आर्डूअस है; तपश्चर्यापूर्ण है।

फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी न रहा कि कितना समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए। फिर वही आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है--द्वार खुल गए। समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के द्वार खुले।

लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो द्वार खुल जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा उससे कहता कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी भी पूरी नहीं करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू है, तो प्रेयसी ने कहा, लौट जाओ फिर, और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने की खबर है; अन्यथा तू का भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता, तो लौटा देता।

समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू कहने की भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर की हुई यह बात। पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! फिर हम तू से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी मुक्ति को कुछ भी नहीं छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा उसमें, जलकर राख हो जाता है।

अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा ही क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका क्वांरापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख; अग्नि क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है--शुद्ध, ताजी।

जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता, वह अग्नि की तरह क्वांरा और ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं। इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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