मौन के उस पार
अध्याय 1 : खोया हुआ मन
सचिन को यह एहसास सबसे पहले उसकी चुप्पी से हुआ।
वह पहले भी कम बोलता था, पर अब उसकी ख़ामोशी में विचार नहीं, थकान थी।
ऐसी थकान, जो शब्दों से नहीं उतरती।
परिवार वालों ने इसे समय की मार समझा।
किसी ने उसके भीतर झाँकने की कोशिश नहीं की—
सबने बस यही चाहा कि उसकी ज़िंदगी फिर से “सामान्य” हो जाए।
यही सोच भावना को लेकर आई।
भावना पहली नज़र में किसी कहानी की नायिका नहीं लगती थी—
न असाधारण सुंदरता,
न बनावटी मुस्कान।
पर उसकी आँखों में एक ठहराव था,
जैसे उसने जीवन को देखा हो, जिया हो, और उससे कुछ सीख भी ली हो।
पहली मुलाक़ात में दोनों ने ज़्यादा बात नहीं की।
सचिन ने सवाल नहीं पूछे,
भावना ने खुद को सिद्ध करने की कोशिश नहीं की।
यह रिश्ता जल्दबाज़ी में नहीं बना।
धीरे-धीरे, बातचीत के छोटे-छोटे क्षणों में
एक सहमति पनपी—
कि दोनों एक-दूसरे से झूठ नहीं बोलेंगे।
एक शाम, जब बातचीत सामान्य थी,
भावना ने अचानक कहा—
“सचिन, एक बात है जो मुझे साफ़ करनी चाहिए।”
सचिन ने उसकी ओर देखा।
उस नज़र में जिज्ञासा नहीं थी,
सिर्फ़ तैयारी थी—
सच सुनने की।
भावना ने बताया कि उसके जीवन में पहले कोई था।
एक गहरा रिश्ता।
जो सामाजिक स्वीकृति के अभाव में टूट गया।
उसने यह भी स्वीकार किया
कि कुछ भावनाएँ पूरी तरह समाप्त नहीं होतीं—
वे बस दब जाती हैं।
कमरे में एक लंबा मौन छा गया।
सचिन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
न आश्चर्य,
न निर्णय।
फिर उसने कहा—
“हर इंसान का कोई न कोई अतीत होता है।
मुद्दा यह नहीं कि वह था क्या,
मुद्दा यह है कि आज तुम कहाँ खड़ी हो।”
भावना ने राहत की साँस ली।
शायद पहली बार
किसी ने उसे उसके अतीत के कारण नहीं,
उसके वर्तमान के कारण देखा था।
यहीं से
यह कहानी शुरू होती है।
यह प्रेम की कहानी नहीं है—
यह आकर्षण, स्वीकृति और आत्मसंघर्ष की कहानी है।
यह उस मन की कहानी है
जो सब कुछ पाकर भी
कभी-कभी किसी और दिशा में खिंच जाता है।
और यह उस व्यक्ति की कहानी है
जो प्यार को अधिकार नहीं,
जिम्मेदारी मानता है।
सचिन नहीं जानता था
कि आने वाला समय
उसकी समझ,
उसके प्रेम
और उसके आत्मसम्मान—
तीनों की परीक्षा लेने वाला है।
पर एक बात वह साफ़ जानता था—
अगर वह किसी के साथ चलेगा,
तो अँधेरे में नहीं।