शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

भगवान को पाने का मार्ग

 भगवान को पाने का मार्ग कष्ट मय जरा भी नहीं है। और न ही कठिन है। मार्ग तो अति सुगम है, सरल है, और आनंदपूर्ण है। लेकिन हम जैसे हैं, उसके कारण कठिनाई पैदा होती है। कठिनाई मार्ग के कारण पैदा नहीं होती। कठिनाई हमारे कारण पैदा होती है। और अगर प्रभु का रास्ता लगता है कि अति कष्टों से भरा है, तो रास्ता कष्टों से भरा है इसलिए नहीं, हम जिन बीमारियों से भरे हैं, उनको छोड़ने में कष्ट होता है।

अड़चन हमारी है। जटिलता हमारी है। रास्ता तो बिलकुल सुगम है। आप अगर सरल हो जाएं, तो रास्ता बिलकुल सरल है। आप अगर जटिल है, तो रास्ता बिलकुल जटिल है। क्योंकि आप ही हैं रास्ता। आपको अपने से ही गुजरकर पहुंचना है। और आपको पहुंचना है, इसलिए आपको बदलना भी होगा।

अब जैसे एक आदमी चोर है, तो चोरी छोड़े बिना एक इंच भी वह प्रार्थना के मार्ग पर न बढ सकेगा। लेकिन चोरी में रस है। चोरी का अभ्यास है। चोरी का लाभ दिखाई पड़ता है, तो छोड़ना मुश्किल मालूम होता है।

और परमात्मा तो दूर का लाभ है; चोरी का लाभ अभी और यहीं दिखाई पड़ता है। और परमात्मा है भी या नहीं, यह भी संदेह बना रहता है। चोरी में जो लाभ खो जाएगा, वह प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है; और परमात्मा में जो आनंद मिलेगा, वह बहुत दूर की कल्पना मालूम पड़ती है, सपना मालूम पड़ता है।

तो चोरी छोड़नी कठिन हो जाती है, हिंसा छोड़नी कठिन हो जाती है, क्रोध छोड़ना कठिन हो जाता है। परमात्मा के कारण ये कठिनाइयां नहीं हैं। ये कठिनाइयां हमारे कारण हैं।

अगर आप सरल हो जाएं, तो रास्ता ही नहीं बचता। इतनी भी कठिनाई नहीं रह जाती कि रास्ते को पार करना हो। अगर आप सरल हो जाएं, तो आप पाते हैं कि परमात्मा सदा से आपके पास ही मौजूद था, आपकी कठिनाई के कारण दिखाई नहीं पड़ता था। रास्ता होगा, तो थोड़ा तो कठिन होगा ही। चलना पड़ेगा। लेकिन इतना भी फासला नहीं है मनुष्य में और परमात्मा में कि चलने की जरूरत हो। लेकिन हम बड़े जटिल हैं, बड़े उलझे हुए हैं।

मैंने सुना है कि एक आदमी भागा हुआ चला जा रहा था एक राजधानी के पास। राह के किनारे बैठे एक आदमी से उसने पूछा कि मैं राजधानी जाना चाहता हूं कितनी दूर होगी? तो उस आदमी ने कहा, इसके पहले कि मैं जवाब दूं दो सवाल तुमसे पूछने जरूरी हैं। पहला तो यह कि तुम जिस तरफ जा रहे हो, अगर इसी तरफ तुम्हें राजधानी तक पहुंचना है, तो जितनी जमीन की परिधि है, उतनी ही दूर होगी, क्योंकि राजधानी पीछे छूट गई है। अगर तुम इसी तरफ खोजने का इरादा रखते हो, तो पूरी जमीन घूमकर जब तुम लौटोगे, तो राजधानी आ पाएगी। अगर तुम लौटने को तैयार हो, तो राजधानी बिलकुल तुम्हारे पीछे है।

तो एक तो यह पूछना चाहता हूं कि किस तरफ जाकर राजधानी खोजनी है? और दूसरा यह पूछना चाहता हूं कि किस चाल से खोजनी है? क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करेगी। अगर चींटी की चाल चलना हो, तो पीछे की राजधानी भी बहुत दूर है। तो तुम्हारी चाल और तुम्हारी दिशा, इस पर राजधानी की दूरी निर्भर करेगी। परमात्मा कितना दूर है, यह आप पर निर्भर करेगा कि आप किस दिशा में खोज रहे हैं, और इस पर निर्भर करेगा कि आपकी गति क्या है। अगर आप गलत दिशा में खोज रहे हैं, तो बहुत कठिन है। और हम सब गलत दिशा में खोज रहे हैं।

मजा तो यह है कि यहां नास्तिक भी परमात्मा को ही खोज रहा है। परमात्मा का अर्थ है परम आनंद को, अंतिम जीवन के अर्थ को, प्रयोजन को, सार्थकता को, क्या है अभिप्राय जीवन का, इसको नास्तिक भी खोज रहा है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो परमात्मा को न खोज रहा हो।

हां, कोई गलत रास्ते पर खोज रहा हो, गलत दिशा में खोज रहा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा को खोज ही न रहा हो, यह नहीं हो सकता। हो सकता है, अपनी खोज को वह परमात्मा का नाम भी न देता हो। लेकिन सभी खोज उसी के लिए है। आनंद की खोज, अभिप्राय की खोज, अर्थ की खोज, उसकी ही खोज है। अपनी खोज उसकी ही खोज है। अस्तित्व की खोज उसकी ही खोज है। नाम हम क्या देते हैं, यह हम पर निर्भर है।

लेकिन आप सूरज को खोजने चल सकते हैं और सूरज की तरफ पीठ करके चल सकते हैं। तो आप हजारों मील चलते रहेंगे और सूरज दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक मजे की बात है कि आप हजारों मील चल चुके हों, और आप पीठ फेर लें, उलटे खड़े हो जाएं, तो सूरज अभी आपको दिखाई पड़ जाएगा।

इससे एक बात खयाल में ले लें। अगर सूरज की तरफ पीठ करके आप हजार मील चले गए हैं, तो आप यह मत समझना कि जब सूरज की तरफ मुंह करके आप हजार मील चलेंगे, तब सूरज दिखाई पड़ेगा। सूरज तो इसी वक्त मुंह फेरते ही दिखाई पड़ जाएगा।

तो परमात्मा से आप कितने दूर चले गए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप पीठ फेरने को राजी हों, तो इसी वक्त परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। उसके बीच और आपके बीच दूरी वास्तविक नहीं है, केवल आपके पीठ के फेरने की है, सिर्फ दिशा की है। वह आपके साथ ही खड़ा। वह आपके भीतर ही छिपा।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि कठिनाई रास्ते की नहीं है। इसलिए सरल रास्ते की खोज मत करें। सरल होने की खोज करें। बहुत—से लोग सरल रास्ते की खोज में होते हैं। वे कहते हैं, कोई शार्टकट? उसमें वे बहुत धोखे में पड़ते हैं, क्योंकि परमात्मा तक पहुंचने का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। क्योंकि पीठ ही फेरनी है, अब इसमें और क्या शार्टकट होगा? अगर सिर्फ पीठ फेरनी है और परमात्मा सामने आ जाएगा, तो इससे संक्षिप्त अब और क्या करिएगा? इससे और संक्षिप्त नहीं हो सकता।

लेकिन हम खोज में रहते हैं संक्षिप्त रास्ते की। वह क्यों? वह हम इसलिए खोज में रहते हैं कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए जो सरल हो। उसका मतलब क्या? उसका मतलब, जो मुझे न बदले। जब हम पूछते हैं सरल रास्ता, तो हम यह पूछते हैं कि कुछ ऐसी बात बताओ कि जैसा मैं हूं, वैसा ही परमात्मा से मिलन हो जाए; मुझे कुछ भी न करना पड़े। सरल का मतलब है, परमात्मा मुफ्त में मिल जाए। मुझे कुछ भी छोड़ना, तोड़ना, बदलना न पड़े। मैं जैसा हूं ऐसे को ही मिल जाए, यह आपकी आकांक्षा है भीतरी।

यह कभी भी नहीं होगा। अगर यह होने वाला होता, तो बहुत पहले हो गया होता। आप बहुत जन्मों से यह कर रहे हैं। यह कोई आपकी नई तलाश नहीं है। काफी, लाखों साल की तलाश है। और भूल उसमें वही है कि आप सरल रास्ता खोजते हैं, सरल व्यक्तित्व नहीं खोजते। आप सरल हो जाएं, रास्ता सरल है। और इसकी फिक्र में लगें कि मैं कैसे सरल हो जाऊं।

और जीवन—क्रांति की कोई भी प्रक्रिया शार्टकट नहीं होती। क्योंकि जो हमने अपने को उलटा करने के लिए किया है, उतना तो करना ही पड़ेगा सीधा होने के लिए। इसलिए वह बात ही छोड़ दें सरल की, और ध्यान करें अपनी जटिलता पर।

आपकी जटिलता को समझने की कोशिश करें और आपकी जटिलता कैसे खुलेगी, एक—एक गांठ, उसको खोलने की कोशिश करें। जैसे—जैसे आप खुलते जाएंगे, आप पाएंगे कि परमात्मा आपके लिए खुलता जा रहा है। इधर भीतर आप खुलते हैं, उधर बाहर परमात्मा खुलने लगता है। जिस दिन आप भीतर बिलकुल खुल गए होते हैं, परमात्मा सामने होता है।

बुद्ध ने कहा है.। जब उन्हें ज्ञान हुआ, और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला है? तो बुद्ध ने कहा, मुझे मिला कुछ भी नहीं है। सिर्फ उसको ही जान लिया है, जो सदा से मिला हुआ था। कोई नई चीज मुझे नहीं मिल गई है। मगर जो मेरे पास ही थी और मुझे दिखाई नहीं पड़ती थी, उसका ही दर्शन हो गया है।

तो बुद्ध ने कहा है कि यह मत पूछो कि मुझे क्या मिला। ज्यादा अच्छा हो कि मुझसे पूछो कि क्या खोया। क्योंकि मैंने खोया जरूर है कुछ, पाया कुछ भी नहीं है। खोया है मैंने अपना अशान। खोई है मैंने अपनी नासमझी, खोई है मैंने गलत चलने की दिशा और गलत ढंग। खोया है मैंने गलत जीवन। पाया है, कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो पाया है, वह था ही। अब जानकर मैं कहता हूं कि यह तो सदा से मेरे पास था। सिर्फ मैं गलत था, इसलिए इससे मेरी पहचान नहीं हो पाती थी। जो मेरे भीतर ही छिपा था, उस तक भी मैं नहीं पहुंच पाता था, क्योंकि मैं कहीं और उसे खोज रहा था।

सूफी फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा कि वह रास्ते पर सांझ के अंधेरे में कुछ खोजती है। तो लोगों ने पूछा, क्या खोजती है? तो उसने कहा, मेरी सुई खो गई है। तो दूसरे लोग भी खोजने में लग गए कि बूढ़ी की सुई मिल जाए। तब एक आदमी को खयाल आया कि सूरज ढलता जाता है, अंधेरा होता जाता है। तो उस आदमी ने कहा कि तेरी सुई बड़ी छोटी चीज है और रास्ता बड़ा है। आखिर खोई कहां है? ठीक जगह कहां गिरी है, तो हम खोज भी लें; नहीं तो सूरज ढल रहा है।

तो राबिया ने कहा, यह सवाल ही मत उठाओ, क्योंकि सुई तो मेरे घर में गिरी है, घर के भीतर गिरी है। तो वे सारे लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा, पागल औरत, अगर घर के भीतर सुई गिरी है, तो यहां बाहर क्यों खोजती है? तो उसने कहा, घर में प्रकाश नहीं है, बाहर प्रकाश है। और बिना प्रकाश के खोजूं कैसे? इसलिए यहां खोजती हूं।

आप भी खोज रहे हैं, लेकिन आपको इसका भी खयाल नहीं है कि खोया कहां है। और जब तक इसका ठीक पता न हो कि परमात्मा को खोया कहां है, खोया भी है या नहीं; या खोया है, तो भीतर या बाहर, तब तक खोज आपकी भटकन ही होगी।

लेकिन आप भी राबिया की तरह हैं। राबिया भी उन लोगों से मजाक कर रही थी। और जब वे सब हंसने लगे और कहने लगे, पागल औरत, जब घर के भीतर सुई खोई है, तो वहीं खोज। और अगर प्रकाश नहीं है, तो प्रकाश वहा ले जा, बजाय इसके कि प्रकाश में खोज। क्योंकि जब उसे खोया ही नहीं, तो प्रकाश पैदा तो नहीं कर देगा! प्रकाश तो केवल बता सकता है, जो मौजूद हो। तो तू प्रकाश भीतर ले जा।

तो राबिया ने कहा कि तुम सब मुझ पर हंसते हो, लेकिन मैं तो दुनिया की रीत से चल रही थी। मैंने सभी लोगों को बाहर खोजते देखा है। और बाहर खोया किसी ने भी नहीं है। मैंने सोचा कि यही उचित है, दुनिया की रीत से ही चलना।

आप कहां खोज रहे हैं? आनंद कहां खोज रहे हैं आप? कोई धन में खोज रहा है, कोई मित्र में, कोई प्रेम में, कोई यश में, कोई प्रतिष्ठा में। वह सारी खोज बाहर है। लेकिन आपको पक्का है कि आपने आनंद कभी बाहर खोया है? और आप आनंद क्यों खोज रहे हैं, अगर आपको आनंद का पहले कोई पता ही नहीं है तो?

यह जरा सोचने जैसी बात है। उस चीज की खोज नहीं हो सकती, जिसका हमें कोई पूर्व—अनुभव न हो। खोजेंगे कैसे?

सबको लगता है कि आनंद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है, आपको किसी न किसी गहराई के तल पर यह पता है कि आनंद क्या है। नहीं तो आनंद नहीं है, यह कैसे कहते हैं आप? दुख है, यह कैसे कहते हैं? क्योंकि जिसने कभी अंधेरा न देखा हो, वह प्रकाश को भी नहीं जान सकता। और जिसने कभी प्रकाश न देखा हो, वह यह भी नहीं पहचान सकता कि यह अंधेरा है। अंधेरे की पहचान के लिए प्रकाश का अनुभव चाहिए।

अगर आपको लगता है, यह दुख है, तो आपको कुछ न कुछ आनंद की खबर है। तभी तो आप सोच पाते हैं कि यह वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिए। आनंद नहीं है, पीड़ा है, दुख है।

सभी को दुख का अनुभव होता है। इससे अध्यात्म की एक मौलिक धारणा पैदा होती है और वह यह कि सभी को जाने—अनजाने आनंद का अनुभव है। शायद आपको भी पता नहीं है, लेकिन आपके प्रायों की गहराई में आनंद की कोई प्रतीति है अभी भी। उसी से आप तोलते हैं, और पाते हैं कि नहीं, अनुकूल नहीं है, और उसी को आप खोज रहे हैं।

जो आपकी गहराइयों में छिपा है, उसको ही आप खोज रहे हैं। लेकिन खोज रहे हैं बाहर। जहां वह छिपा है, वहां नहीं खोज रहे हैं। लेकिन बाहर खोजने का कारण वही है, जो राबिया का था। वह कारण यही है कि आंखें बाहर खुलती हैं। इसलिए रोशनी बाहर है। हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं; सारी इंद्रियां बाहर खुलती हैं। इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है, इसलिए हम बाहर खोज रहे हैं।

हम भीतर हैं और इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। इसलिए इंद्रियों के द्वारा जो भी खोज है, वह आपको कहीं भी न ले जाएगी। इंद्रियां बाहर की तरफ जाती हैं और आप भीतर की तरफ हैं। आप इंद्रियों के पीछे छिपे हैं। आपकी संपदा पीछे छिपी है, और इंद्रियां बाहर जाती हैं। इंद्रियों का उपयोग यही है। इंद्रियां संसार से जुड्ने का मार्ग हैं। इसलिए बाहर की तरफ जाती हैं।

भीतर तो आंखों की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भीतर तो बिना आंखों के देखा जा सकता है। भीतर कान की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना कान के भीतर सुना जा सकता है। भीतर हाथों की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना हाथों के भीतर स्पर्श हो जाता है। इसलिए इंद्रियों की भीतर की तरफ कोई जरूरत नहीं है। भीतर का सब अनुभव अतींद्रिय है, इंद्रिय के बिना हो जाता है।

इंद्रियों की जरूरत संसार के लिए है। वे इंस्ट्रमेंट्स हैं, साधन हैं, संसार से जुड्ने के। तो जितना संसार से जुड़ना हो, उतनी सबल इंद्रिय चाहिए।

वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की सारी खोज इंद्रियों को सबल बनाने से ज्यादा नहीं है। आपकी आंख देख सकती है थोड़ी दूर तक। दूरबीन है, वह मीलों तक देख सकती है। फिर और बड़ी दूरबीनें हैं, वे आकाश के तारों को देख सकती हैं। लेकिन आप कर क्या रहे हैं? जो तारा खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, वह दूरबीन से दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि दूरबीन बड़ा सबल यंत्र है। दूर तक उसका सेतु बन जाता है। दूर तक उसका संबंध बन जाता है। खाली आंख से उतना संबंध नहीं बनता।

कान से आप सुनते हैं। रेडियो भी सुनता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। आंख से आप देखते हैं। टेलीविजन भी देखता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। सारी वैज्ञानिक खोजें इंद्रियों का परिष्कार हैं। विज्ञान का जगत इंद्रियों का जगत है। सारा संसार इंद्रियों से जुड़ा हुआ है।

लेकिन इससे एक उपद्रव पैदा होता है कि आप परमात्मा को भी खोजने इन्हीं इंद्रियों के रास्ते से चले जाते हैं। यह गलती वैसे ही है, जैसे कोई आदमी आंखों से संगीत सुनने की कोशिश करने लगे। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। और कितनी ही सबल आंख हो, तो भी नहीं सुन सकती। सुनने का काम आंख से नहीं हो सकता। सुनने का काम कान से होगा। और कान अगर देखने की कोशिश करने लगे, तो फिर मुसीबत होगी, पागलपन पैदा होगा।

इंद्रिया बाहर का मार्ग हैं, उनसे भीतर की खोज नहीं हो सकती। इंद्रिया पदार्थ से जोड़ देती हैं, उनका परमात्मा से जुड़ना नहीं हो सकता। यह उनकी सीमा है। जैसे आंख देखती है, यह उसकी सीमा है। इसमें कोई कसूर नहीं है।

इंद्रियां बाह्य ज्ञान के साधन हैं। और वह जो छिपा है, वह जो आप हैं, वह भीतर है। उसे खोजना हो, तो इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर डूब जाना होगा। इंद्रियों के सेतु छोड़ देने होंगे। इंद्रियों के रास्तों से लौटकर अपने भीतर ही खड़े हो जाना होगा।

इस भीतर खड़े हो जाने का नाम अध्यात्म है। और भीतर जो खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि जिसे मैंने कभी न खोया था, उसे मैं खोज रहा था। जिससे मेरा कभी बिछुड़ना न हुआ था, उसके मिलन के लिए मैं परेशान हो रहा था। जो सदा ही पास था, उसे मैं दूर—दूर तलाश रहा था। और दूर—दूर तलाशने की वजह से उसे नहीं पा रहा था। नहीं पा रहा था, तो और परेशान हो रहा था। और परेशान हो रहा था, तो और दूर खोज रहा था। ऐसे खोज एक विशियस सर्किल, एक दुष्टचक्र बन जाती है।

सरल है बहुत, क्योंकि परमात्मा आपके इतने निकट है कि उसे निकट कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि निकटता में भी थोड़ी—सी दूरी होती है। परमात्मा आपकी श्वास—श्वास में है, रोएं—रोएं में है। ठीक से समझें तो आप परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।


 😎               गणित के एक शिक्षक घूमने गए ! शाम के समय एक रेस्टोरेंट में पिज़्ज़ा खाने चले गए ! उन्होंने मेनू देखकर एक 9 इंच के पिज़्ज़ा का आर्डर दे दिया ! कुछ देर बाद  वेटर 5 - 5 इंच के दो गोल पिज़्ज़ा लेकर गुरूजी के सामने उपस्थित हुआ और कहा कि सर, 9 इंच का पिज़्ज़ा उपलब्ध नहीं है , इसलिए आपको 5 - 5 इंच के दो पिज़्ज़ा दिए जा रहे हैं , जिससे कि आपको 1 इंच पिज़्ज़ा  फ्री में मिल रहा है ! 

गुरू जी ने  वेटर  को घूर कर देखा और रेस्टोरेंट के मालिक को बुलाने के लिए कहा !जब रेस्टोरेन्ट का मालिक आया तो गुरूजी ने उससे बड़े स्नेह से पूछा कि आप कहाँ तक पढ़े हैं ?             मालिक ने बताया कि उसने बी एस सी किया है, - गणित आनर्स । तब गुरूजी ने कहा कि क्या आप मुझे बता सकते हैंं कि गणित में एक वृत्त का क्षेत्रफल निकालने का क्या फार्मूला है ?

मालिक ने कहा - जी, πr²

गुरू जी ने कहा - ठीक ।

आगे उन्होंने पूछा  - π = 3.142857 और r होगा वृत्त का रेडियस। है न ? मैंने आपको नौ इंच डायामीटर के पिज़्ज़ा का आर्डर दिया था , जिसका क्षेत्रफल फार्मूला के अनुसार 63.64 वर्ग इंच होता है ! ठीक ? मालिक ने कहा - जी ! बिलकुल सही हैं !अब गुरू जी ने आगे कहा कि आपने मुझे 5-5 इंच के दो पिज़्ज़ा ये कह कर दिए हैं कि आपको 1 इंच पिज़्ज़ा फ्री दिया जा रहा है , अब आप 5 इंच के एक पिज़्ज़ा का क्षेत्रफल निकालिये !

क्षेत्रफल निकला " 19.64 Square इंच ।"

यानी 2 पिज़्ज़ा का एरिया 39.28 वर्ग  इंच !

अब गुरू जी ने कहा कि अगर आप मुझे 5 इंच का एक तीसरा  पिज़्ज़ा और भी देते हैं , तब भी मैं घाटे में ही रहूँगा !और आप कह रहे हैं कि मुझे 1 इंच पिज़्ज़ा फ्री दिया जा रहा है!

रेस्टोरेंट का मालिक नि:शब्द !बेचारे से कोई उत्तर देते नहीं बना !

अंत में उसने गुरू जी को 5-5 इंच के 4 पिज़्ज़ा देकर अपनी जान छुड़ाई !!


*मारल आफ द स्टोरी  :- गुरू जी लोगों से कभी भी पंगा लेने का नहीं।*             


                                                          

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

 गणेश चतुर्थी 10 सितंबर 2021 को मनाई जाएगी। 11 दिन तक चलने वाले इस पर्व पर भक्त घर और मंडप में गणेश जी मूर्ति स्थापित कर 11 दिन तक उनकी सेवा करते हैं और अनंत चतुर्दशी के दिन मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। भगवान गणेश की मूर्ति जब घर में लाई जाती है, तो नियम और पूरी निष्ठा के साथ पूजा की जाती है। बप्पा का हर रूप मंगलकारी और विघ्ननाशक है। मूर्ति लेते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए जैसे कि गणेश जी की प्रतिमा में उनका वाहन मूषक जरूर होना चाहिए। गणेश जी आशीर्वाद मुद्रा में और उनके एक हाथ में मोदक भी होना चाहिए। गणेश जी की सूंड बाईं तरफ होनी चाहिए, ऐसी मूर्ति को वक्रतुंड कहा जाता है। गणेश जी सूंड उत्तर दिशा में होने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


जहां तक हो मिट्टी की मूर्ति ही घर में स्थापित करनी चाहिए। इस बार बाजार में आई अधिकांश मूर्तियां ईको फ्रेंडली हैं, इनसे पर्यावरण को कोई नुक्सान नहीं होता है, जो दस मिनट में ही पानी में घुल जाती है।


गणेश जी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा शुरू कर परिक्रमा की शुरुआत की थी। इसलिए सभी अनुष्ठानों में गणेश जी को सर्वप्रथम पूजा जाता है। उन्हें मोदक यानि लड्डू प्रिय हैं। शुभ अवसर पर मिठाई खिलाने की परम्परा आज भी है और पहले भी थी । मिठाई ज्यादा खाने से मधुमेह यानि डायबिटीज पहले भी होता था और आज भी होता है। मनुष्यों में ही नहीं, देवताओं को भी। गणेश जी पहले पूजेंगे, तो मिठाई भी पहले उन्हें ही मिलेगी। देवताओं में मधुमेह होने का पहला प्रमाण गणेश जी में ही मिलता है।


हमारी देव-स्तुतियों में औषधियों का जिक्र है। प्रथम मधुमेह के प्रमाण गणेश जी की स्तुति में मधुमेह की औषधि का जिक्र न हो। यह कैसे हो सकता है ?


गजाननं भूतगणाधिसेवितं कपित्थजम्बूफल चारुभक्षणमं उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजमं ।।


-- भूतों के समूहों द्वारा अत्याधिक सेवा किए, कैध और जामुन के फलों को रुचि पूर्वक खाने वाले, शोक का नाश करने वाले, विघ्नों को दूर करने वाले, उमा के पुत्र भगवान गणपति के चरणों में मैं प्रणाम करता हूं।


आप कितना भी मिष्ठान खाए, मधुमेह नहीं होगा। बशर्ते जामुन का फल खाते रहें। इसलिए गणेश जी खूब मोदक यानि लड्डू खाते हैं और कैथ एवं जामुन भी। कहते हैं कि गणेशजी के मधुमेह को कैथ और जामुन ने ही ठीक किया था।



सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रार्थना

 जहां मांग है, वहा प्रार्थना नहीं है। और मांग ही प्रार्थना को असफल कर देती है। प्रार्थना इसलिए असफल गई कि आपको प्राप्ति हुई, नहीं हुई—ऐसा नहीं। प्रार्थना तो उसी क्षण असफल हो गई, जब आपने मांगा। जो परमात्मा के द्वार पर मांगने जाता है, वह खाली हाथ लौटेगा। जो वहा खाली हाथ खड़ा हो जाता है बिना किसी मांग के, वही केवल भरा हुआ लौटता है।

परमात्मा से कुछ मांगने का अर्थ क्या होता है? पहला तो अर्थ यह होता है कि शिकायत है हमें। शिकायत नास्तिकता है। शिकायत का अर्थ है कि जैसी स्थिति है, उससे हम नाराज हैं। जो परमात्मा ने दिया है, उससे हम अप्रसन्न हैं। जैसा हम चाहते हैं, वैसा नहीं है। और जैसा है, वैसा हम नहीं चाहते हैं।

शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा बुद्धिमान मानते हैं। वह जो कर रहा है, गलत कर रहा है। हमारी सलाह मानकर उसे करना चाहिए वही ठीक होगा। जैसे कि हमें पता है कि क्या है जो ठीक है हमारे लिए।

अगर हम बीमार हैं, तो हम स्वास्थ्य मांगते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि बीमारी गलत ही हो। और बहुत बार तो स्वास्थ्य भी वह नहीं दे पाता, जो बीमारी दे जाती है।


 हम दुखी हैं, तो सुख मांगते हैं। पर जरूरी नहीं कि सुख सुख ही लाए। अक्सर तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख ले आता है। दुख भी मांजता है, दुख भी निखारता है, दुख भी समझ देता है। हो सकता है, दुख के मार्ग से निखरकर ही आप जीवन के सत्य को पा सकें और सुख आपके लिए महंगा सौदा हो जाए।

इसलिए क्या ठीक है, यह जो परमात्मा पर छोड़ देता है, वही प्रार्थना कर रहा है। जो कहता है कि यह है ठीक और तू पूरा कर, वह प्रार्थना नहीं कर रहा है, वह परमात्मा को सलाह दे रहा है।  आपकी सलाह का कितना मूल्य हो सकता है? काश, आपको यह पता होता कि क्या आपके हित में है! वह आपको बिलकुल पता नहीं है। आपको यह भी पता नहीं है कि वस्तुत: आप क्या चाहते हैं! क्योंकि जो आप सुबह चाहते हैं, दोपहर इनकार करने लगते हैं। और जो आपने आज सांझ चाहा है, जरूरी नहीं है कि कल सुबह भी आप वही चाहें।

पीछे लौटकर अपनी चाहो को देखें। वे रोज बदल जाती हैं; प्रतिपल बदल जाती हैं। और यह भी देखें कि जो चाहें पूरी हो जाती हैं, उनके पूरे होने से क्या पूरा हुआ है? वे न भी पूरी होतीं, तो कौन—सी कमी रह जाती? ठीक हमें पता ही नहीं है। हम क्या मांग रहे हैं पुन क्यों मांग रहे हैं? क्या उसका परिणाम होगा?

सुना है मैंने कि एक मन्दिर में,  एक बुजुर्ग प्रार्थना कर रहा था। और वह परमात्मा से कह रहा था कि अन्याय की भी एक हद होती है! सत्तर साल से निरंतर, जब से मैंने होश सम्हाला है—उस बुजुर्ग की उम्र होगी कोई पचासी वर्ष—जब से मैंने होश सम्हाला है, सत्तर वर्ष से तेरी प्रार्थना कर रहा हूं। दिन में तीन बार प्रार्थनागृह में आता हूं। बच्चे का जन्म हो, कि लड़की की शादी हो, कि घर में सुख हो कि दुख हो, कि यात्रा पर जाऊं या वापस लौटु कि नया धंधा शुरू करूं, कि पुराना बंद करूं, ऐसा कोई भी एक काम जीवन में नहीं किया, जो मैंने तेरी प्रार्थना के साथ शुरू न किया हो। जैसा आदेश है धर्मशास्त्रों में, वैसा जीवन जीया हूं। परस्त्री को कभी बुरी नजर से नहीं देखा। दूसरे के धन पर लालच नहीं की। चोरी नहीं की। झूठ नहीं बोला।। बेईमानी नहीं की। परिणाम क्या है? और मेरा साझीदार है, स्त्रियों के पीछे भटककर जिंदगीभर उसने खराब की है। तेरी प्रार्थना कभी उसे करते नहीं देखा। चोरी, बेईमानी, झूठ, सब उसे सरल है। जुआड़ी है, शराब पीता है। लेकिन दिन दूनी रात चौगुनी उसकी स्थिति अच्छी होती गई है। अभी भी स्वस्थ है। मैं बीमार हूं। धन का एक टुकड़ा हाथ में न रहा। सिवाय दुख के मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा है। कारण क्या है? और मैं यह नहीं कहता हूं कि तू मेरे साझीदार को दंड दे। सिर्फ इतना ही पूछता हूं कि मेरा कसूर क्या है? इतना अन्याय मेरे साथ क्यों? यह कैसे न्याय की व्यवस्था है?

मन्दिर में परमात्मा की आवाज गंजी कि सिर्फ छोटा सा कारण है। बिकाज यू हैव बीन नैगिंग मी डे इन डे आउट लाइक एन आथेंटिक वाइफ। एक प्रामाणिक पत्नी की तरह तुम मेरा सिर खा रहे हो जिंदगीभर से, यही कारण है, और कुछ भी नहीं। तुम तीन दफे प्रार्थना क्या करते हो, तीन दफे मेरा सिर खाते हो!

आपकी प्रार्थना से अगर परमात्मा तक को अशांति होती हो, तो आप ध्यान रखना कि आपको शाति न होगी। आपकी प्रार्थनाएं क्या हैं? नैगिंग। आप सिर खा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं आपकी आस्तिकता का सबूत नहीं हैं, और न आपकी प्रार्थना का। और न आपका हार्दिक इन मांगों से कोई संबंध है। ये सब आपकी वासनाएं हैं। लेकिन हमारी तकलीफ ऐसी है। बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, वे सभी कहते हैं; मोहम्मद हों या क्राइस्ट हों, वे सभी कहते हैं कि तुम्हारी सब मांगें पूरी हो जाएंगी, लेकिन तुम उसके द्वार पर मांग छोड़कर जाना। यही हमारी मुसीबत है। फिर हम उसके द्वार पर जाएंगे ही क्यों?

हमारी तकलीफ यह है कि हम उसके द्वार पर ही इसीलिए जाना चाहते हैं कि हमारी मांगें हैं और मांगें पूरी हो जाएं। और ये सब शिक्षक बड़ी उलटी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि तुम अपनी मागें छोड़ दो, तो ही उसके द्वार पर जा सकोगे। और फिर तुम्हारी सब मांगें भी पूरी हो जाएंगी। कुछ मांगने को न बचेगा; सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन वह जो शर्त है, वह हमसे पूरी नहीं होती।


हमारी सारी हालत ऐसी है। हम तो परमात्मा के द्वार पर इसलिए जाते हैं कि कोई क्षुद्र मांग पूरी हो जाए। और ये सारे शिक्षक हमसे कहते हैं कि तुम मांग छोड़कर वहां जाना, तो ही उसके द्वार में प्रवेश पा सकोगे, तो ही उसके कान तक तुम्हारी आवाज पहुंचेगी। लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि तब हम आवाज ही क्यों पहुंचाना चाहेंगे? हम उसके द्वार पर ही क्यों जाएंगे? हम उसके द्वार पर दस्तक ही क्यों देंगे? हम तो वहां जाते इसलिए हैं कि कोई मांग पूरी करना चाहते हैं।

लेकिन जो माग पूरी करना चाहता है, वह उसके द्वार पर जाता ही नहीं। वह मंदिर के द्वार पर जा सकता है, मस्जिद के द्वार पर जा सकता है, उसके द्वार पर नहीं जा सकता। क्योंकि उसका द्वार तो दिखाई ही तब पड़ता है, जब चित्त से मांग विसर्जित हो जाती है। उसका द्वार वहां किसी मकान में बना हुआ नहीं है। उसका द्वार तो उस चित्त में है, जहां मांग नहीं है, जहां कोई वासना नहीं है, जहां स्वीकार का भाव है। जहां परमात्मा जो कर रहा है, उसकी मर्जी के प्रति पूरी स्वीकृति है, समर्पण है, उस हृदय में ही द्वार खुलता है।

मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो वासना सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवाल है। वह दीवाल हट जाए, तो द्वार खुल जाए।

तो ऐसा मत पूछें कि आपकी प्रार्थनाएं, आपका भजन, आपका ध्यान, आपकी मांग को पूरा क्यों नहीं करवाता! आपकी मांग के कारण भजन ही नहीं होता, ध्यान ही नहीं होता, प्रार्थना ही नहीं होती। इसलिए पूरे होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। जो चीज शुरू ही नहीं हुई, वह पूरी कैसे होगी? आप यह मत सोचें कि आखिरी चीज खो रही है। पहली ही चीज खो रही है। पहला कदम ही वहा नहीं है। आखिरी कदम का तो कोई सवाल ही नहीं है।

प्रेम मांगशून्य है। प्रेम बेशर्त है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं, तो आप कुछ मांगते हैं? आपकी कोई शर्त है? प्रेम ही आनंद है। प्रार्थना परम प्रेम है। अगर प्रार्थना ही आपका आनंद हो, आनंद प्रार्थना के बाहर न जाता हो, कोई मांग न हो पीछे जो पूरी हो जाए। तो आनंद मिलेगा, प्रार्थना करने में ही आनंद मिलता हो, तो ही प्रार्थना हो पाती है। तो जब प्रार्थना करने जाएं तो प्रार्थना को ही आनंद समझें। उसके पार कोई और आनंद नहीं है।

सुना है मैंने कि एक फकीर ने रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। और वहां उसने देखा मीरा को, कबीर को, चैतन्य को नाचते, गीत गाते, तो बहुत हैरान हुआ। उसने पास खड़े एक देवदूत से पूछा कि ये लोग यहां भी नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं! हम तो सोचे थे कि अब ये स्वर्ग पहुंच गए, तो अब यह उपद्रव बंद हो गया होगा। ये तो जमीन पर भी यही कर रहे थे। इस चैतन्य को हमने जमीन पर भी ऐसे ही नाचते और गाते देखा। इस मीरा को हमने ऐसे ही कीर्तन करते देखा। यह कबीर यही तो जमीन पर कर रहा था। और अगर स्वर्ग में भी यही हो रहा है, स्वर्ग में आकर भी अगर यही होना है, तो फिर जमीन में और स्वर्ग में फर्क क्या है?

तो उस देवदूत ने कहा कि तुम थोड़ी—सी भूल कर रहे हो। तुम समझ रहे हो कि ये कबीर, चैतन्य और मीरा स्वर्ग में आ गए हैं। तुम समझ रहे हो कि संत स्वर्ग में आते हैं। बस, यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। संत स्वर्ग में नहीं आते। स्वर्ग संतों में होता है। इसलिए संत जहां होंगे, वहीं स्वर्ग होगा। तुम यह मत समझो कि ये संत स्वर्ग में आ गए हैं। ये यहां गा रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं, इसलिए यहां स्वर्ग है। ये जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग होगा। और स्वर्ग मिल जाए, इसलिए इन्होंने कभी नाचा नहीं था। इन्होंने तो नाचने में ही स्वर्ग पा लिया था। इसलिए अब इस नृत्य का, इस आनंद का कहीं अंत नहीं है। अब ये जहां भी होंगे, यह आनंद वहीं होगा। इन संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है।

आप आमतौर से सोचते होंगे कि संत स्वर्ग में जाते हैं। संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। संत जहां होंगे, स्वर्ग में होंगे। क्योंकि संत का हृदय स्वर्ग है।

प्रार्थना जब आ जाएगी आपको, तो आप यह पूछेंगे ही नहीं कि प्रार्थना पूरी नहीं हुई! प्रार्थना का आ जाना ही उसका पूरा हो जाना है। उसके बाद कुछ बचता नहीं है। अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ बच जाता है, तो फिर प्रार्थना से बड़ी चीज भी जमीन पर है। और अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ पाने को शेष रह जाता है, तो फिर आपको, प्रार्थना क्या है, इसका ही कोई पता नहीं है।

प्रार्थना अंत है, प्रार्थनापूर्ण हृदय इस जगत का अंतिम खिला हुआ फूल है। वह आखिरी ऊंचाई है, जो मनुष्य पा सकता है। वह अंतिम शिखर है। उसके पार, उसके पार कुछ है नहीं।

पर आपकी प्रार्थना के पार तो बड़ी क्षुद्र चीजें होती हैं। आपकी प्रार्थना के पार कहीं नौकरी का पाना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं बच्चे का पैदा होना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं कोई मुकदमे का जीतना होता है।

इन प्रार्थनाओं को आप प्रार्थना मत समझना, अन्यथा असली प्रार्थना से आप वंचित ही रह जाएंगे। असली प्रार्थना का अर्थ है, अस्तित्व का उत्सव। असली प्रार्थना का अर्थ है, मैं हूं, इसका धन्यवाद। मेरा होना परमात्मा की इतनी बड़ी कृपा है कि उसके लिए मैं धन्यवाद देता हूं। एक श्वास भी आती है और जाती है.......।

कभी आपने सोचा कि आपकी अस्तित्व को क्या जरूरत है? आप न होते, तो क्या हर्ज हो जाता? कभी आपने सोचा कि अस्तित्व को आपकी क्या आवश्यकता है? आप नहीं होंगे, तो क्या मिट जाएगा? और आप नहीं थे, तो कौन—सी कमी थी? आप अगर न होते, कभी न होते, तो क्या अस्तित्व की कोई जगह खाली रह जाती? आपके होने का कुछ भी तो अर्थ, कुछ भी तो आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती। फिर भी आप हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मेरे होने का कोई भी तो कारण नहीं है, और परमात्मा मुझे सहे, इसकी कोई भी तो जरूरत नहीं है; फिर भी मैं हूं फिर भी मेरा होना है, फिर भी मेरा जीवन है।

यह जो अहोभाव है, इस अहोभाव से जो नृत्य पैदा हो जाता है, जो गीत पैदा हो जाता है, यह जो जीवन का उत्सव है, यह जो परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का बोध है कि मैं बिलकुल भी तो किसी उपयोग का नहीं हूं, फिर भी तेरा इतना प्रेम कि मैं हूं। फिर भी तू मुझे सहता है और झेलता है। शायद मैं तेरी पृथ्वी को थोड़ा गंदा ही करता हूं। और शायद तेरे अस्तित्व को थोड़ा—सा उदास और रुग्ण करता हूं। शायद मेरे होने से अड़चन ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। तेरे संगीत में थोड़ी बाधा पडती है। तेरी धारा में मैं एक पत्थर की तरह अवरोध हो जाता हूं। फिर भी मैं हूं। और तू मुझे ऐसे सम्हाले हुए है, जैसे मेरे बिना यह अस्तित्व न हो सकेगा।

यह जो अहोभाव है, यह जो ग्रेटिटयूड है, इस अहोभाव, इस धन्यता से जो गीत, जो सिर झुक जाता है, वह जो नाच पैदा हो जाता है, वह जो आनंद की एक लहर जग जाती है, उसका नाम प्रार्थना है। जरूरी नहीं है कि वह शब्दों में हो।

शब्दों में तो जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि जीवन से हमें कहने की कला नहीं आती। नहीं तो प्रार्थना मौन होगी। शब्द तो सिक्खड़ के लिए हैं। वे तो प्राथमिक, जिसको अभी कुछ पता नहीं है, उसके लिए हैं। जो जान लेगा कला, उसका तो पूरा अस्तित्व ही अहोभाव का नृत्य हो जाता है।

एक गरीब फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना कर रहा था। उसके पास ही एक बहुत बुद्धिमान, शास्त्रों का बड़ा जानकार, वह भी प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा.....।

पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है।

तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी कीं-असंस्कृत-इसकी प्रार्थना कहां परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया हूं; और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है! वह धीरे- धीरे गुनगुना रहा था।

वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले।

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हद की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी। तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी!

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है!

सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई।

प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है; उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव-दशा प्रार्थना है।




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...