शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

भगवान को पाने का मार्ग

 भगवान को पाने का मार्ग कष्ट मय जरा भी नहीं है। और न ही कठिन है। मार्ग तो अति सुगम है, सरल है, और आनंदपूर्ण है। लेकिन हम जैसे हैं, उसके कारण कठिनाई पैदा होती है। कठिनाई मार्ग के कारण पैदा नहीं होती। कठिनाई हमारे कारण पैदा होती है। और अगर प्रभु का रास्ता लगता है कि अति कष्टों से भरा है, तो रास्ता कष्टों से भरा है इसलिए नहीं, हम जिन बीमारियों से भरे हैं, उनको छोड़ने में कष्ट होता है।

अड़चन हमारी है। जटिलता हमारी है। रास्ता तो बिलकुल सुगम है। आप अगर सरल हो जाएं, तो रास्ता बिलकुल सरल है। आप अगर जटिल है, तो रास्ता बिलकुल जटिल है। क्योंकि आप ही हैं रास्ता। आपको अपने से ही गुजरकर पहुंचना है। और आपको पहुंचना है, इसलिए आपको बदलना भी होगा।

अब जैसे एक आदमी चोर है, तो चोरी छोड़े बिना एक इंच भी वह प्रार्थना के मार्ग पर न बढ सकेगा। लेकिन चोरी में रस है। चोरी का अभ्यास है। चोरी का लाभ दिखाई पड़ता है, तो छोड़ना मुश्किल मालूम होता है।

और परमात्मा तो दूर का लाभ है; चोरी का लाभ अभी और यहीं दिखाई पड़ता है। और परमात्मा है भी या नहीं, यह भी संदेह बना रहता है। चोरी में जो लाभ खो जाएगा, वह प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है; और परमात्मा में जो आनंद मिलेगा, वह बहुत दूर की कल्पना मालूम पड़ती है, सपना मालूम पड़ता है।

तो चोरी छोड़नी कठिन हो जाती है, हिंसा छोड़नी कठिन हो जाती है, क्रोध छोड़ना कठिन हो जाता है। परमात्मा के कारण ये कठिनाइयां नहीं हैं। ये कठिनाइयां हमारे कारण हैं।

अगर आप सरल हो जाएं, तो रास्ता ही नहीं बचता। इतनी भी कठिनाई नहीं रह जाती कि रास्ते को पार करना हो। अगर आप सरल हो जाएं, तो आप पाते हैं कि परमात्मा सदा से आपके पास ही मौजूद था, आपकी कठिनाई के कारण दिखाई नहीं पड़ता था। रास्ता होगा, तो थोड़ा तो कठिन होगा ही। चलना पड़ेगा। लेकिन इतना भी फासला नहीं है मनुष्य में और परमात्मा में कि चलने की जरूरत हो। लेकिन हम बड़े जटिल हैं, बड़े उलझे हुए हैं।

मैंने सुना है कि एक आदमी भागा हुआ चला जा रहा था एक राजधानी के पास। राह के किनारे बैठे एक आदमी से उसने पूछा कि मैं राजधानी जाना चाहता हूं कितनी दूर होगी? तो उस आदमी ने कहा, इसके पहले कि मैं जवाब दूं दो सवाल तुमसे पूछने जरूरी हैं। पहला तो यह कि तुम जिस तरफ जा रहे हो, अगर इसी तरफ तुम्हें राजधानी तक पहुंचना है, तो जितनी जमीन की परिधि है, उतनी ही दूर होगी, क्योंकि राजधानी पीछे छूट गई है। अगर तुम इसी तरफ खोजने का इरादा रखते हो, तो पूरी जमीन घूमकर जब तुम लौटोगे, तो राजधानी आ पाएगी। अगर तुम लौटने को तैयार हो, तो राजधानी बिलकुल तुम्हारे पीछे है।

तो एक तो यह पूछना चाहता हूं कि किस तरफ जाकर राजधानी खोजनी है? और दूसरा यह पूछना चाहता हूं कि किस चाल से खोजनी है? क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करेगी। अगर चींटी की चाल चलना हो, तो पीछे की राजधानी भी बहुत दूर है। तो तुम्हारी चाल और तुम्हारी दिशा, इस पर राजधानी की दूरी निर्भर करेगी। परमात्मा कितना दूर है, यह आप पर निर्भर करेगा कि आप किस दिशा में खोज रहे हैं, और इस पर निर्भर करेगा कि आपकी गति क्या है। अगर आप गलत दिशा में खोज रहे हैं, तो बहुत कठिन है। और हम सब गलत दिशा में खोज रहे हैं।

मजा तो यह है कि यहां नास्तिक भी परमात्मा को ही खोज रहा है। परमात्मा का अर्थ है परम आनंद को, अंतिम जीवन के अर्थ को, प्रयोजन को, सार्थकता को, क्या है अभिप्राय जीवन का, इसको नास्तिक भी खोज रहा है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो परमात्मा को न खोज रहा हो।

हां, कोई गलत रास्ते पर खोज रहा हो, गलत दिशा में खोज रहा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा को खोज ही न रहा हो, यह नहीं हो सकता। हो सकता है, अपनी खोज को वह परमात्मा का नाम भी न देता हो। लेकिन सभी खोज उसी के लिए है। आनंद की खोज, अभिप्राय की खोज, अर्थ की खोज, उसकी ही खोज है। अपनी खोज उसकी ही खोज है। अस्तित्व की खोज उसकी ही खोज है। नाम हम क्या देते हैं, यह हम पर निर्भर है।

लेकिन आप सूरज को खोजने चल सकते हैं और सूरज की तरफ पीठ करके चल सकते हैं। तो आप हजारों मील चलते रहेंगे और सूरज दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक मजे की बात है कि आप हजारों मील चल चुके हों, और आप पीठ फेर लें, उलटे खड़े हो जाएं, तो सूरज अभी आपको दिखाई पड़ जाएगा।

इससे एक बात खयाल में ले लें। अगर सूरज की तरफ पीठ करके आप हजार मील चले गए हैं, तो आप यह मत समझना कि जब सूरज की तरफ मुंह करके आप हजार मील चलेंगे, तब सूरज दिखाई पड़ेगा। सूरज तो इसी वक्त मुंह फेरते ही दिखाई पड़ जाएगा।

तो परमात्मा से आप कितने दूर चले गए हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप पीठ फेरने को राजी हों, तो इसी वक्त परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। उसके बीच और आपके बीच दूरी वास्तविक नहीं है, केवल आपके पीठ के फेरने की है, सिर्फ दिशा की है। वह आपके साथ ही खड़ा। वह आपके भीतर ही छिपा।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि कठिनाई रास्ते की नहीं है। इसलिए सरल रास्ते की खोज मत करें। सरल होने की खोज करें। बहुत—से लोग सरल रास्ते की खोज में होते हैं। वे कहते हैं, कोई शार्टकट? उसमें वे बहुत धोखे में पड़ते हैं, क्योंकि परमात्मा तक पहुंचने का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। क्योंकि पीठ ही फेरनी है, अब इसमें और क्या शार्टकट होगा? अगर सिर्फ पीठ फेरनी है और परमात्मा सामने आ जाएगा, तो इससे संक्षिप्त अब और क्या करिएगा? इससे और संक्षिप्त नहीं हो सकता।

लेकिन हम खोज में रहते हैं संक्षिप्त रास्ते की। वह क्यों? वह हम इसलिए खोज में रहते हैं कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए जो सरल हो। उसका मतलब क्या? उसका मतलब, जो मुझे न बदले। जब हम पूछते हैं सरल रास्ता, तो हम यह पूछते हैं कि कुछ ऐसी बात बताओ कि जैसा मैं हूं, वैसा ही परमात्मा से मिलन हो जाए; मुझे कुछ भी न करना पड़े। सरल का मतलब है, परमात्मा मुफ्त में मिल जाए। मुझे कुछ भी छोड़ना, तोड़ना, बदलना न पड़े। मैं जैसा हूं ऐसे को ही मिल जाए, यह आपकी आकांक्षा है भीतरी।

यह कभी भी नहीं होगा। अगर यह होने वाला होता, तो बहुत पहले हो गया होता। आप बहुत जन्मों से यह कर रहे हैं। यह कोई आपकी नई तलाश नहीं है। काफी, लाखों साल की तलाश है। और भूल उसमें वही है कि आप सरल रास्ता खोजते हैं, सरल व्यक्तित्व नहीं खोजते। आप सरल हो जाएं, रास्ता सरल है। और इसकी फिक्र में लगें कि मैं कैसे सरल हो जाऊं।

और जीवन—क्रांति की कोई भी प्रक्रिया शार्टकट नहीं होती। क्योंकि जो हमने अपने को उलटा करने के लिए किया है, उतना तो करना ही पड़ेगा सीधा होने के लिए। इसलिए वह बात ही छोड़ दें सरल की, और ध्यान करें अपनी जटिलता पर।

आपकी जटिलता को समझने की कोशिश करें और आपकी जटिलता कैसे खुलेगी, एक—एक गांठ, उसको खोलने की कोशिश करें। जैसे—जैसे आप खुलते जाएंगे, आप पाएंगे कि परमात्मा आपके लिए खुलता जा रहा है। इधर भीतर आप खुलते हैं, उधर बाहर परमात्मा खुलने लगता है। जिस दिन आप भीतर बिलकुल खुल गए होते हैं, परमात्मा सामने होता है।

बुद्ध ने कहा है.। जब उन्हें ज्ञान हुआ, और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला है? तो बुद्ध ने कहा, मुझे मिला कुछ भी नहीं है। सिर्फ उसको ही जान लिया है, जो सदा से मिला हुआ था। कोई नई चीज मुझे नहीं मिल गई है। मगर जो मेरे पास ही थी और मुझे दिखाई नहीं पड़ती थी, उसका ही दर्शन हो गया है।

तो बुद्ध ने कहा है कि यह मत पूछो कि मुझे क्या मिला। ज्यादा अच्छा हो कि मुझसे पूछो कि क्या खोया। क्योंकि मैंने खोया जरूर है कुछ, पाया कुछ भी नहीं है। खोया है मैंने अपना अशान। खोई है मैंने अपनी नासमझी, खोई है मैंने गलत चलने की दिशा और गलत ढंग। खोया है मैंने गलत जीवन। पाया है, कहना ठीक नहीं, क्योंकि जो पाया है, वह था ही। अब जानकर मैं कहता हूं कि यह तो सदा से मेरे पास था। सिर्फ मैं गलत था, इसलिए इससे मेरी पहचान नहीं हो पाती थी। जो मेरे भीतर ही छिपा था, उस तक भी मैं नहीं पहुंच पाता था, क्योंकि मैं कहीं और उसे खोज रहा था।

सूफी फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा कि वह रास्ते पर सांझ के अंधेरे में कुछ खोजती है। तो लोगों ने पूछा, क्या खोजती है? तो उसने कहा, मेरी सुई खो गई है। तो दूसरे लोग भी खोजने में लग गए कि बूढ़ी की सुई मिल जाए। तब एक आदमी को खयाल आया कि सूरज ढलता जाता है, अंधेरा होता जाता है। तो उस आदमी ने कहा कि तेरी सुई बड़ी छोटी चीज है और रास्ता बड़ा है। आखिर खोई कहां है? ठीक जगह कहां गिरी है, तो हम खोज भी लें; नहीं तो सूरज ढल रहा है।

तो राबिया ने कहा, यह सवाल ही मत उठाओ, क्योंकि सुई तो मेरे घर में गिरी है, घर के भीतर गिरी है। तो वे सारे लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा, पागल औरत, अगर घर के भीतर सुई गिरी है, तो यहां बाहर क्यों खोजती है? तो उसने कहा, घर में प्रकाश नहीं है, बाहर प्रकाश है। और बिना प्रकाश के खोजूं कैसे? इसलिए यहां खोजती हूं।

आप भी खोज रहे हैं, लेकिन आपको इसका भी खयाल नहीं है कि खोया कहां है। और जब तक इसका ठीक पता न हो कि परमात्मा को खोया कहां है, खोया भी है या नहीं; या खोया है, तो भीतर या बाहर, तब तक खोज आपकी भटकन ही होगी।

लेकिन आप भी राबिया की तरह हैं। राबिया भी उन लोगों से मजाक कर रही थी। और जब वे सब हंसने लगे और कहने लगे, पागल औरत, जब घर के भीतर सुई खोई है, तो वहीं खोज। और अगर प्रकाश नहीं है, तो प्रकाश वहा ले जा, बजाय इसके कि प्रकाश में खोज। क्योंकि जब उसे खोया ही नहीं, तो प्रकाश पैदा तो नहीं कर देगा! प्रकाश तो केवल बता सकता है, जो मौजूद हो। तो तू प्रकाश भीतर ले जा।

तो राबिया ने कहा कि तुम सब मुझ पर हंसते हो, लेकिन मैं तो दुनिया की रीत से चल रही थी। मैंने सभी लोगों को बाहर खोजते देखा है। और बाहर खोया किसी ने भी नहीं है। मैंने सोचा कि यही उचित है, दुनिया की रीत से ही चलना।

आप कहां खोज रहे हैं? आनंद कहां खोज रहे हैं आप? कोई धन में खोज रहा है, कोई मित्र में, कोई प्रेम में, कोई यश में, कोई प्रतिष्ठा में। वह सारी खोज बाहर है। लेकिन आपको पक्का है कि आपने आनंद कभी बाहर खोया है? और आप आनंद क्यों खोज रहे हैं, अगर आपको आनंद का पहले कोई पता ही नहीं है तो?

यह जरा सोचने जैसी बात है। उस चीज की खोज नहीं हो सकती, जिसका हमें कोई पूर्व—अनुभव न हो। खोजेंगे कैसे?

सबको लगता है कि आनंद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है, आपको किसी न किसी गहराई के तल पर यह पता है कि आनंद क्या है। नहीं तो आनंद नहीं है, यह कैसे कहते हैं आप? दुख है, यह कैसे कहते हैं? क्योंकि जिसने कभी अंधेरा न देखा हो, वह प्रकाश को भी नहीं जान सकता। और जिसने कभी प्रकाश न देखा हो, वह यह भी नहीं पहचान सकता कि यह अंधेरा है। अंधेरे की पहचान के लिए प्रकाश का अनुभव चाहिए।

अगर आपको लगता है, यह दुख है, तो आपको कुछ न कुछ आनंद की खबर है। तभी तो आप सोच पाते हैं कि यह वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिए। आनंद नहीं है, पीड़ा है, दुख है।

सभी को दुख का अनुभव होता है। इससे अध्यात्म की एक मौलिक धारणा पैदा होती है और वह यह कि सभी को जाने—अनजाने आनंद का अनुभव है। शायद आपको भी पता नहीं है, लेकिन आपके प्रायों की गहराई में आनंद की कोई प्रतीति है अभी भी। उसी से आप तोलते हैं, और पाते हैं कि नहीं, अनुकूल नहीं है, और उसी को आप खोज रहे हैं।

जो आपकी गहराइयों में छिपा है, उसको ही आप खोज रहे हैं। लेकिन खोज रहे हैं बाहर। जहां वह छिपा है, वहां नहीं खोज रहे हैं। लेकिन बाहर खोजने का कारण वही है, जो राबिया का था। वह कारण यही है कि आंखें बाहर खुलती हैं। इसलिए रोशनी बाहर है। हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं; सारी इंद्रियां बाहर खुलती हैं। इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है, इसलिए हम बाहर खोज रहे हैं।

हम भीतर हैं और इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। इसलिए इंद्रियों के द्वारा जो भी खोज है, वह आपको कहीं भी न ले जाएगी। इंद्रियां बाहर की तरफ जाती हैं और आप भीतर की तरफ हैं। आप इंद्रियों के पीछे छिपे हैं। आपकी संपदा पीछे छिपी है, और इंद्रियां बाहर जाती हैं। इंद्रियों का उपयोग यही है। इंद्रियां संसार से जुड्ने का मार्ग हैं। इसलिए बाहर की तरफ जाती हैं।

भीतर तो आंखों की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भीतर तो बिना आंखों के देखा जा सकता है। भीतर कान की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना कान के भीतर सुना जा सकता है। भीतर हाथों की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना हाथों के भीतर स्पर्श हो जाता है। इसलिए इंद्रियों की भीतर की तरफ कोई जरूरत नहीं है। भीतर का सब अनुभव अतींद्रिय है, इंद्रिय के बिना हो जाता है।

इंद्रियों की जरूरत संसार के लिए है। वे इंस्ट्रमेंट्स हैं, साधन हैं, संसार से जुड्ने के। तो जितना संसार से जुड़ना हो, उतनी सबल इंद्रिय चाहिए।

वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की सारी खोज इंद्रियों को सबल बनाने से ज्यादा नहीं है। आपकी आंख देख सकती है थोड़ी दूर तक। दूरबीन है, वह मीलों तक देख सकती है। फिर और बड़ी दूरबीनें हैं, वे आकाश के तारों को देख सकती हैं। लेकिन आप कर क्या रहे हैं? जो तारा खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, वह दूरबीन से दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि दूरबीन बड़ा सबल यंत्र है। दूर तक उसका सेतु बन जाता है। दूर तक उसका संबंध बन जाता है। खाली आंख से उतना संबंध नहीं बनता।

कान से आप सुनते हैं। रेडियो भी सुनता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। आंख से आप देखते हैं। टेलीविजन भी देखता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। सारी वैज्ञानिक खोजें इंद्रियों का परिष्कार हैं। विज्ञान का जगत इंद्रियों का जगत है। सारा संसार इंद्रियों से जुड़ा हुआ है।

लेकिन इससे एक उपद्रव पैदा होता है कि आप परमात्मा को भी खोजने इन्हीं इंद्रियों के रास्ते से चले जाते हैं। यह गलती वैसे ही है, जैसे कोई आदमी आंखों से संगीत सुनने की कोशिश करने लगे। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। और कितनी ही सबल आंख हो, तो भी नहीं सुन सकती। सुनने का काम आंख से नहीं हो सकता। सुनने का काम कान से होगा। और कान अगर देखने की कोशिश करने लगे, तो फिर मुसीबत होगी, पागलपन पैदा होगा।

इंद्रिया बाहर का मार्ग हैं, उनसे भीतर की खोज नहीं हो सकती। इंद्रिया पदार्थ से जोड़ देती हैं, उनका परमात्मा से जुड़ना नहीं हो सकता। यह उनकी सीमा है। जैसे आंख देखती है, यह उसकी सीमा है। इसमें कोई कसूर नहीं है।

इंद्रियां बाह्य ज्ञान के साधन हैं। और वह जो छिपा है, वह जो आप हैं, वह भीतर है। उसे खोजना हो, तो इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर डूब जाना होगा। इंद्रियों के सेतु छोड़ देने होंगे। इंद्रियों के रास्तों से लौटकर अपने भीतर ही खड़े हो जाना होगा।

इस भीतर खड़े हो जाने का नाम अध्यात्म है। और भीतर जो खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि जिसे मैंने कभी न खोया था, उसे मैं खोज रहा था। जिससे मेरा कभी बिछुड़ना न हुआ था, उसके मिलन के लिए मैं परेशान हो रहा था। जो सदा ही पास था, उसे मैं दूर—दूर तलाश रहा था। और दूर—दूर तलाशने की वजह से उसे नहीं पा रहा था। नहीं पा रहा था, तो और परेशान हो रहा था। और परेशान हो रहा था, तो और दूर खोज रहा था। ऐसे खोज एक विशियस सर्किल, एक दुष्टचक्र बन जाती है।

सरल है बहुत, क्योंकि परमात्मा आपके इतने निकट है कि उसे निकट कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि निकटता में भी थोड़ी—सी दूरी होती है। परमात्मा आपकी श्वास—श्वास में है, रोएं—रोएं में है। ठीक से समझें तो आप परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...