सोमवार, 6 सितंबर 2021

प्रार्थना

 जहां मांग है, वहा प्रार्थना नहीं है। और मांग ही प्रार्थना को असफल कर देती है। प्रार्थना इसलिए असफल गई कि आपको प्राप्ति हुई, नहीं हुई—ऐसा नहीं। प्रार्थना तो उसी क्षण असफल हो गई, जब आपने मांगा। जो परमात्मा के द्वार पर मांगने जाता है, वह खाली हाथ लौटेगा। जो वहा खाली हाथ खड़ा हो जाता है बिना किसी मांग के, वही केवल भरा हुआ लौटता है।

परमात्मा से कुछ मांगने का अर्थ क्या होता है? पहला तो अर्थ यह होता है कि शिकायत है हमें। शिकायत नास्तिकता है। शिकायत का अर्थ है कि जैसी स्थिति है, उससे हम नाराज हैं। जो परमात्मा ने दिया है, उससे हम अप्रसन्न हैं। जैसा हम चाहते हैं, वैसा नहीं है। और जैसा है, वैसा हम नहीं चाहते हैं।

शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा बुद्धिमान मानते हैं। वह जो कर रहा है, गलत कर रहा है। हमारी सलाह मानकर उसे करना चाहिए वही ठीक होगा। जैसे कि हमें पता है कि क्या है जो ठीक है हमारे लिए।

अगर हम बीमार हैं, तो हम स्वास्थ्य मांगते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि बीमारी गलत ही हो। और बहुत बार तो स्वास्थ्य भी वह नहीं दे पाता, जो बीमारी दे जाती है।


 हम दुखी हैं, तो सुख मांगते हैं। पर जरूरी नहीं कि सुख सुख ही लाए। अक्सर तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख ले आता है। दुख भी मांजता है, दुख भी निखारता है, दुख भी समझ देता है। हो सकता है, दुख के मार्ग से निखरकर ही आप जीवन के सत्य को पा सकें और सुख आपके लिए महंगा सौदा हो जाए।

इसलिए क्या ठीक है, यह जो परमात्मा पर छोड़ देता है, वही प्रार्थना कर रहा है। जो कहता है कि यह है ठीक और तू पूरा कर, वह प्रार्थना नहीं कर रहा है, वह परमात्मा को सलाह दे रहा है।  आपकी सलाह का कितना मूल्य हो सकता है? काश, आपको यह पता होता कि क्या आपके हित में है! वह आपको बिलकुल पता नहीं है। आपको यह भी पता नहीं है कि वस्तुत: आप क्या चाहते हैं! क्योंकि जो आप सुबह चाहते हैं, दोपहर इनकार करने लगते हैं। और जो आपने आज सांझ चाहा है, जरूरी नहीं है कि कल सुबह भी आप वही चाहें।

पीछे लौटकर अपनी चाहो को देखें। वे रोज बदल जाती हैं; प्रतिपल बदल जाती हैं। और यह भी देखें कि जो चाहें पूरी हो जाती हैं, उनके पूरे होने से क्या पूरा हुआ है? वे न भी पूरी होतीं, तो कौन—सी कमी रह जाती? ठीक हमें पता ही नहीं है। हम क्या मांग रहे हैं पुन क्यों मांग रहे हैं? क्या उसका परिणाम होगा?

सुना है मैंने कि एक मन्दिर में,  एक बुजुर्ग प्रार्थना कर रहा था। और वह परमात्मा से कह रहा था कि अन्याय की भी एक हद होती है! सत्तर साल से निरंतर, जब से मैंने होश सम्हाला है—उस बुजुर्ग की उम्र होगी कोई पचासी वर्ष—जब से मैंने होश सम्हाला है, सत्तर वर्ष से तेरी प्रार्थना कर रहा हूं। दिन में तीन बार प्रार्थनागृह में आता हूं। बच्चे का जन्म हो, कि लड़की की शादी हो, कि घर में सुख हो कि दुख हो, कि यात्रा पर जाऊं या वापस लौटु कि नया धंधा शुरू करूं, कि पुराना बंद करूं, ऐसा कोई भी एक काम जीवन में नहीं किया, जो मैंने तेरी प्रार्थना के साथ शुरू न किया हो। जैसा आदेश है धर्मशास्त्रों में, वैसा जीवन जीया हूं। परस्त्री को कभी बुरी नजर से नहीं देखा। दूसरे के धन पर लालच नहीं की। चोरी नहीं की। झूठ नहीं बोला।। बेईमानी नहीं की। परिणाम क्या है? और मेरा साझीदार है, स्त्रियों के पीछे भटककर जिंदगीभर उसने खराब की है। तेरी प्रार्थना कभी उसे करते नहीं देखा। चोरी, बेईमानी, झूठ, सब उसे सरल है। जुआड़ी है, शराब पीता है। लेकिन दिन दूनी रात चौगुनी उसकी स्थिति अच्छी होती गई है। अभी भी स्वस्थ है। मैं बीमार हूं। धन का एक टुकड़ा हाथ में न रहा। सिवाय दुख के मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा है। कारण क्या है? और मैं यह नहीं कहता हूं कि तू मेरे साझीदार को दंड दे। सिर्फ इतना ही पूछता हूं कि मेरा कसूर क्या है? इतना अन्याय मेरे साथ क्यों? यह कैसे न्याय की व्यवस्था है?

मन्दिर में परमात्मा की आवाज गंजी कि सिर्फ छोटा सा कारण है। बिकाज यू हैव बीन नैगिंग मी डे इन डे आउट लाइक एन आथेंटिक वाइफ। एक प्रामाणिक पत्नी की तरह तुम मेरा सिर खा रहे हो जिंदगीभर से, यही कारण है, और कुछ भी नहीं। तुम तीन दफे प्रार्थना क्या करते हो, तीन दफे मेरा सिर खाते हो!

आपकी प्रार्थना से अगर परमात्मा तक को अशांति होती हो, तो आप ध्यान रखना कि आपको शाति न होगी। आपकी प्रार्थनाएं क्या हैं? नैगिंग। आप सिर खा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं आपकी आस्तिकता का सबूत नहीं हैं, और न आपकी प्रार्थना का। और न आपका हार्दिक इन मांगों से कोई संबंध है। ये सब आपकी वासनाएं हैं। लेकिन हमारी तकलीफ ऐसी है। बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, वे सभी कहते हैं; मोहम्मद हों या क्राइस्ट हों, वे सभी कहते हैं कि तुम्हारी सब मांगें पूरी हो जाएंगी, लेकिन तुम उसके द्वार पर मांग छोड़कर जाना। यही हमारी मुसीबत है। फिर हम उसके द्वार पर जाएंगे ही क्यों?

हमारी तकलीफ यह है कि हम उसके द्वार पर ही इसीलिए जाना चाहते हैं कि हमारी मांगें हैं और मांगें पूरी हो जाएं। और ये सब शिक्षक बड़ी उलटी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि तुम अपनी मागें छोड़ दो, तो ही उसके द्वार पर जा सकोगे। और फिर तुम्हारी सब मांगें भी पूरी हो जाएंगी। कुछ मांगने को न बचेगा; सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन वह जो शर्त है, वह हमसे पूरी नहीं होती।


हमारी सारी हालत ऐसी है। हम तो परमात्मा के द्वार पर इसलिए जाते हैं कि कोई क्षुद्र मांग पूरी हो जाए। और ये सारे शिक्षक हमसे कहते हैं कि तुम मांग छोड़कर वहां जाना, तो ही उसके द्वार में प्रवेश पा सकोगे, तो ही उसके कान तक तुम्हारी आवाज पहुंचेगी। लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि तब हम आवाज ही क्यों पहुंचाना चाहेंगे? हम उसके द्वार पर ही क्यों जाएंगे? हम उसके द्वार पर दस्तक ही क्यों देंगे? हम तो वहां जाते इसलिए हैं कि कोई मांग पूरी करना चाहते हैं।

लेकिन जो माग पूरी करना चाहता है, वह उसके द्वार पर जाता ही नहीं। वह मंदिर के द्वार पर जा सकता है, मस्जिद के द्वार पर जा सकता है, उसके द्वार पर नहीं जा सकता। क्योंकि उसका द्वार तो दिखाई ही तब पड़ता है, जब चित्त से मांग विसर्जित हो जाती है। उसका द्वार वहां किसी मकान में बना हुआ नहीं है। उसका द्वार तो उस चित्त में है, जहां मांग नहीं है, जहां कोई वासना नहीं है, जहां स्वीकार का भाव है। जहां परमात्मा जो कर रहा है, उसकी मर्जी के प्रति पूरी स्वीकृति है, समर्पण है, उस हृदय में ही द्वार खुलता है।

मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो वासना सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवाल है। वह दीवाल हट जाए, तो द्वार खुल जाए।

तो ऐसा मत पूछें कि आपकी प्रार्थनाएं, आपका भजन, आपका ध्यान, आपकी मांग को पूरा क्यों नहीं करवाता! आपकी मांग के कारण भजन ही नहीं होता, ध्यान ही नहीं होता, प्रार्थना ही नहीं होती। इसलिए पूरे होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। जो चीज शुरू ही नहीं हुई, वह पूरी कैसे होगी? आप यह मत सोचें कि आखिरी चीज खो रही है। पहली ही चीज खो रही है। पहला कदम ही वहा नहीं है। आखिरी कदम का तो कोई सवाल ही नहीं है।

प्रेम मांगशून्य है। प्रेम बेशर्त है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं, तो आप कुछ मांगते हैं? आपकी कोई शर्त है? प्रेम ही आनंद है। प्रार्थना परम प्रेम है। अगर प्रार्थना ही आपका आनंद हो, आनंद प्रार्थना के बाहर न जाता हो, कोई मांग न हो पीछे जो पूरी हो जाए। तो आनंद मिलेगा, प्रार्थना करने में ही आनंद मिलता हो, तो ही प्रार्थना हो पाती है। तो जब प्रार्थना करने जाएं तो प्रार्थना को ही आनंद समझें। उसके पार कोई और आनंद नहीं है।

सुना है मैंने कि एक फकीर ने रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। और वहां उसने देखा मीरा को, कबीर को, चैतन्य को नाचते, गीत गाते, तो बहुत हैरान हुआ। उसने पास खड़े एक देवदूत से पूछा कि ये लोग यहां भी नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं! हम तो सोचे थे कि अब ये स्वर्ग पहुंच गए, तो अब यह उपद्रव बंद हो गया होगा। ये तो जमीन पर भी यही कर रहे थे। इस चैतन्य को हमने जमीन पर भी ऐसे ही नाचते और गाते देखा। इस मीरा को हमने ऐसे ही कीर्तन करते देखा। यह कबीर यही तो जमीन पर कर रहा था। और अगर स्वर्ग में भी यही हो रहा है, स्वर्ग में आकर भी अगर यही होना है, तो फिर जमीन में और स्वर्ग में फर्क क्या है?

तो उस देवदूत ने कहा कि तुम थोड़ी—सी भूल कर रहे हो। तुम समझ रहे हो कि ये कबीर, चैतन्य और मीरा स्वर्ग में आ गए हैं। तुम समझ रहे हो कि संत स्वर्ग में आते हैं। बस, यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। संत स्वर्ग में नहीं आते। स्वर्ग संतों में होता है। इसलिए संत जहां होंगे, वहीं स्वर्ग होगा। तुम यह मत समझो कि ये संत स्वर्ग में आ गए हैं। ये यहां गा रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं, इसलिए यहां स्वर्ग है। ये जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग होगा। और स्वर्ग मिल जाए, इसलिए इन्होंने कभी नाचा नहीं था। इन्होंने तो नाचने में ही स्वर्ग पा लिया था। इसलिए अब इस नृत्य का, इस आनंद का कहीं अंत नहीं है। अब ये जहां भी होंगे, यह आनंद वहीं होगा। इन संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है।

आप आमतौर से सोचते होंगे कि संत स्वर्ग में जाते हैं। संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। संत जहां होंगे, स्वर्ग में होंगे। क्योंकि संत का हृदय स्वर्ग है।

प्रार्थना जब आ जाएगी आपको, तो आप यह पूछेंगे ही नहीं कि प्रार्थना पूरी नहीं हुई! प्रार्थना का आ जाना ही उसका पूरा हो जाना है। उसके बाद कुछ बचता नहीं है। अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ बच जाता है, तो फिर प्रार्थना से बड़ी चीज भी जमीन पर है। और अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ पाने को शेष रह जाता है, तो फिर आपको, प्रार्थना क्या है, इसका ही कोई पता नहीं है।

प्रार्थना अंत है, प्रार्थनापूर्ण हृदय इस जगत का अंतिम खिला हुआ फूल है। वह आखिरी ऊंचाई है, जो मनुष्य पा सकता है। वह अंतिम शिखर है। उसके पार, उसके पार कुछ है नहीं।

पर आपकी प्रार्थना के पार तो बड़ी क्षुद्र चीजें होती हैं। आपकी प्रार्थना के पार कहीं नौकरी का पाना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं बच्चे का पैदा होना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं कोई मुकदमे का जीतना होता है।

इन प्रार्थनाओं को आप प्रार्थना मत समझना, अन्यथा असली प्रार्थना से आप वंचित ही रह जाएंगे। असली प्रार्थना का अर्थ है, अस्तित्व का उत्सव। असली प्रार्थना का अर्थ है, मैं हूं, इसका धन्यवाद। मेरा होना परमात्मा की इतनी बड़ी कृपा है कि उसके लिए मैं धन्यवाद देता हूं। एक श्वास भी आती है और जाती है.......।

कभी आपने सोचा कि आपकी अस्तित्व को क्या जरूरत है? आप न होते, तो क्या हर्ज हो जाता? कभी आपने सोचा कि अस्तित्व को आपकी क्या आवश्यकता है? आप नहीं होंगे, तो क्या मिट जाएगा? और आप नहीं थे, तो कौन—सी कमी थी? आप अगर न होते, कभी न होते, तो क्या अस्तित्व की कोई जगह खाली रह जाती? आपके होने का कुछ भी तो अर्थ, कुछ भी तो आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती। फिर भी आप हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मेरे होने का कोई भी तो कारण नहीं है, और परमात्मा मुझे सहे, इसकी कोई भी तो जरूरत नहीं है; फिर भी मैं हूं फिर भी मेरा होना है, फिर भी मेरा जीवन है।

यह जो अहोभाव है, इस अहोभाव से जो नृत्य पैदा हो जाता है, जो गीत पैदा हो जाता है, यह जो जीवन का उत्सव है, यह जो परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का बोध है कि मैं बिलकुल भी तो किसी उपयोग का नहीं हूं, फिर भी तेरा इतना प्रेम कि मैं हूं। फिर भी तू मुझे सहता है और झेलता है। शायद मैं तेरी पृथ्वी को थोड़ा गंदा ही करता हूं। और शायद तेरे अस्तित्व को थोड़ा—सा उदास और रुग्ण करता हूं। शायद मेरे होने से अड़चन ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। तेरे संगीत में थोड़ी बाधा पडती है। तेरी धारा में मैं एक पत्थर की तरह अवरोध हो जाता हूं। फिर भी मैं हूं। और तू मुझे ऐसे सम्हाले हुए है, जैसे मेरे बिना यह अस्तित्व न हो सकेगा।

यह जो अहोभाव है, यह जो ग्रेटिटयूड है, इस अहोभाव, इस धन्यता से जो गीत, जो सिर झुक जाता है, वह जो नाच पैदा हो जाता है, वह जो आनंद की एक लहर जग जाती है, उसका नाम प्रार्थना है। जरूरी नहीं है कि वह शब्दों में हो।

शब्दों में तो जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि जीवन से हमें कहने की कला नहीं आती। नहीं तो प्रार्थना मौन होगी। शब्द तो सिक्खड़ के लिए हैं। वे तो प्राथमिक, जिसको अभी कुछ पता नहीं है, उसके लिए हैं। जो जान लेगा कला, उसका तो पूरा अस्तित्व ही अहोभाव का नृत्य हो जाता है।

एक गरीब फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना कर रहा था। उसके पास ही एक बहुत बुद्धिमान, शास्त्रों का बड़ा जानकार, वह भी प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा.....।

पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है।

तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी कीं-असंस्कृत-इसकी प्रार्थना कहां परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया हूं; और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है! वह धीरे- धीरे गुनगुना रहा था।

वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले।

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हद की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी। तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी!

वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है!

सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई।

प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है; उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव-दशा प्रार्थना है।




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