गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 19

  

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।। २५।।


इसलिए हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान (भी) लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे।



कर्म में आसक्त अज्ञानीजन जैसा कर्म करते हैं, ठीक वैसा ही अनासक्त व्यक्ति भी कर्म करे। कर्म में जो आसक्त है, वह तो करता ही है, लेकिन करता है आसक्ति के कारण। इसीलिए हमें कठिन होती है यह बात समझनी कि अनासक्त होकर कर्म कैसे करेंगे! फिर कारण क्या होगा? अभी तो धन इकट्ठा करना है। आनंद मालूम होता है धन में, इसलिए धन इकट्ठा करते हैं, अभी तो बड़ा मकान अहंकार को तृप्ति देता है, इसलिए बड़ा मकान बनाते हैं। अभी तो दौड़ते हैं, धूपते हैं, विक्षिप्त होकर श्रम करते हैं, क्योंकि आसक्ति है भीतर। लेकिन अनासक्त हो जाएंगे, आसक्ति नहीं होगी, तो फिर कैसे दौड़ेंगे? फिर कैसे भागेंगे? फिर कैसे श्रम करेंगे?

तो कृष्ण यहां दो बातें कहते हैं। एक तो वे यह कहते हैं कि ठीक वैसा ही कर्म करें, जैसा आसक्त व्यक्ति कर्म करता है। अंतर कर्म में न करें, अंतर आसक्ति में करें। क्या होगा इससे? इससे जीवन एक अभिनय हो जाएगा। एक अभिनेता भी तो कर्म करता है।

राम की सीता खो जाती है। राम जंगल में चिल्लाते हैं, रोते हैं, पुकारते हैं, सीता! सीता कहां है? वृक्षों को पकड़कर सिर पीटते हैं, सीता कहां है? फिर रामलीला में बना हुआ राम भी, सीता खो जाती है, तो चिल्लाता है। राम से जरा ज्यादा ही आवाज में चिल्लाता है! क्योंकि राम के लिए कोई आडिएंस वहां नहीं थी, कोई देखने वाला, सुनने वाला नहीं था। धीमे चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा; जोर से चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा। लेकिन अभिनेता जोर से चिल्लाता है। राम एक-दो दफे ही कहे होंगे, तो भी चल गया होगा। अभिनेता को बहुत बार चिल्लाना पड़ता है, पूरी प्रक्रिया करनी पड़ती है। अगर एक कोने में राम और एक कोने में अभिनेता खड़ा किया जाए, तो शायद अभिनेता ही प्रतियोगिता में जीत जाए! उसके भी कारण हैं, क्योंकि राम को तो एक ही दफे, बिना रिहर्सल के, ऐसा मौका आया। अभिनेता के लिए रिहर्सल के काफी मौके मिले। फिर अभिनेता वर्षों से कर रहा है राम का पार्ट अदा। लेकिन अभिनेता और राम में वही फर्क है, जो कृष्ण कह रहे हैं। अभिनेता कर्म तो पूरा कर रहा है, लेकिन आसक्ति कोई भी नहीं है।


कर्म हो सकता है बिना आसक्ति के। अभिनय से समझें। इसलिए हम कृष्ण के जीवन को लीला कहते हैं और राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन लीला नहीं है। राम बहुत गंभीर हैं, बहुत सीरियस हैं। एक-एक चीज तौलते हैं, नापते हैं। खेल नहीं है जिंदगी; जिंदगी एक काम है, वहां रत्ती-रत्ती हिसाब है। कृष्ण की जिंदगी एक अभिनय है, वहां कुछ हिसाब नहीं है। वहां खेल है। वहां जो वे कर रहे हैं, कर रहे हैं पूरी तरह, और फिर भी भीतर जैसे कोई दूर, अलघ खड़ा हुआ है। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम कहते हैं लीला, चरित्र नहीं। चरित्र में बड़ा गंभीर होना पड़ता है। चरित्र में जो हम कर रहे हैं, उससे संयुक्त होना पड़ता है। लीला में जो हम कर रहे हैं, उससे वियुक्त होना पड़ता है। कृष्ण अगर रोएं भी, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण अगर हंसें भी, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण प्रेम भी करें, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण सुदर्शन लेकर लड़ने भी खड़े हो जाएं, तो भरोसा मत करना। क्योंकि यह आदमी सब कृत्यों के बाहर ही खड़ा है। इसके लिए पूरी पृथ्वी एक नाटक के मंच से ज्यादा नहीं है।

वही वे अर्जुन से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर तो तू ठीक वैसा ही, पूरी कुशलता से, जैसा अज्ञानीजन आसक्त होकर कर्म करते हैं। लेकिन हो अनासक्त। अर्थात तू अभिनय कर। तू यह मत सोच कि तू युद्ध कर रहा है। तू यही सोच कि अभिनय कर रहा है। तू यह मत सोच कि तू लोगों को मार रहा है और लोग मर रहे हैं। तू यही सोच कि तू अभिनय कर रहा है। लेकिन हम अभिनय में भी कभी-कभी इतने उलझ जाते हैं--अभिनय में भी--कि वह भी कर्म मालूम पड़ने लगता है।

अज्ञानीजन आसक्त होकर, मोहग्रस्त होकर, जैसे कर्म में डूबे हुए दिखाई पड़ते हैं, कृष्ण कहते हैं, तू भी उसी तरह डूब। फर्क डूबने में मत कर, फर्क डूबने वाले में कर। फर्क कर्म में मत कर, फर्क कर्ता में कर। फर्क बाहर मत कर, फर्क भीतर कर।

कृष्ण का सारा जोर, वह जो भीतर का सत्य है, उसको रूपांतरित करने का है। उसको बदल डाल! वहां तू बस अभिनेता हो जा। लेकिन अर्जुन तो पूछेगा न, कि अभिनेता भी क्यों हो जाऊं? क्योंकि अभिनेता अभी अर्जुन हो नहीं गया। इसलिए बेचारे कृष्ण को मजबूरी में,  एक कारण बताना पड़ता है। और वह कारण यह कि लोकमंगल के कारण, लोक के मंगल के लिए।

वस्तुतः इस कारण की भी कोई जरूरत नहीं है। और अगर कृष्ण कृष्ण की ही हैसियत से बात करते होते, दूसरा आदमी भी कृष्ण की हैसियत का आदमी होता, तो यह शर्त न जोड़ी गई होती। क्योंकि अनासक्त व्यक्ति का कर्म अनकंडीशनल है। जब सारा लोक ही लीला है, तो लोकमंगल की बात भी बेमानी है। लेकिन कृष्ण को जोड़नी पड़ती है यह शर्त। जिससे वे बात कर रहे हैं, वह पूछेगा, फिर भी कोई कारण तो हो? कि अभिनय भी बेकार करें? जहां कोई देखने ही न आया हो, वहां अभिनय क्या करें? तो कृष्ण कहते हैं, दर्शकों के आनंद के लिए तू अभिनय कर।

यह जो दूसरी बात वे कह रहे हैं कि लोकमंगल के लिए, इस बात को कृष्ण बहुत मजबूरी में कह रहे हैं। यह मजबूरी अर्जुन की समझ के कारण पैदा हुई है। अर्जुन समझ ही नहीं सकता कि बिना कारण भी कोई कर्म हो सकता है, अकारण भी, अनकाज्ड, अनकंडीशनल, बेशर्त। कि जहां कोई वजह नहीं है, तो वहां क्यों काम करूं? हम भी पूछेंगे, हम भी कहेंगे कि यह तो बिलकुल पागल का काम हो जाएगा। जब कोई भी कारण नहीं है, तो काम करें ही क्यों? हमारा वही आसक्त मन पूछ रहा है। आसक्त मन कहता है, कारण हो, तो काम करो। कारण न हो, तो मत करो। यह हमारे आसक्त मन की शर्त है। यह हमारा आसक्त मन या तो कहता है कि लोभ हो, तो काम करो; लोभ न हो, तो मत करो, विश्राम करो। यह आसक्त मन का तर्क है।

अर्जुन तो आसक्त है। अभी वह अनासक्त हुआ नहीं। कृष्ण को उसको ध्यान में रखकर एक बात और कहनी पड़ती है। अन्यथा इतना कहना काफी है कि जैसे अज्ञानी आसक्तजन कर्म करते हैं, ऐसा ही तू अनासक्त होकर कर। अभिनेता हो जा। लेकिन इतना अर्जुन के लिए काफी नहीं होगा। अर्जुन के लिए थोड़ा-सा कारण चाहिए। तो कृष्ण कहते हैं, दूसरों के हित के लिए! दूसरों के हित के लिए तू कर। क्यों? इतना झूठ भी क्यों? है वह झूठ। झूठ इस अर्थों में--ऐसा नहीं है कि दूसरों का हित नहीं होगा; ध्यान रखें, दूसरों का हित होगा, उस अर्थ में झूठ नहीं है--झूठ इस अर्थों में कि अनासक्त कर्म के लिए इतनी शर्त भी उचित नहीं है।

इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा कि कृष्ण, बुद्ध और महावीर के सभी वचन पूर्ण सत्य नहीं हैं; उनमें थोड़ा असत्य आता है। उनके कारण, जिनसे वे बोले गए हैं। क्योंकि पूर्ण सत्य अर्जुन नहीं समझ सकता। पूर्ण सत्य बुद्ध के सुनने वाले नहीं समझ सकते। पूर्ण सत्य बोलना हो, तो असत्य मिश्रित होता है। और अगर पूर्ण सत्य ही बोलना हो और असत्य मिश्रित न करना हो, तो चुप रह जाना पड़ता है, बोलना नहीं पड़ता। इन दो के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।

इस दूसरे हिस्से में अर्जुन को कारण बताया जा रहा है। वह कारण वैसे ही है जैसे हम मछलियों के लिए, पकड़ने के लिए आटा और आटे के भीतर कांटा लगाकर डाल देते हैं। मछली कांटा नहीं पकड़ेगी, भाग खड़ी होगी। अर्जुन भी शुद्ध अनासक्त कर्म नहीं पकड़ सकता। वह कहेगा, फिर करें ही क्यों? यही तो मैं कह रहा हूं माधव! वह कहेगा, यही तो मैं कह रहा हूं कृष्ण! कि जब अनासक्ति ही है, तो मैं जाता हूं। कर्म क्यों करूं? यही तो मैं कह रहा हूं! आप भी यही कह रहे हैं, तो मुझे जाने दें। इस युद्ध से बचाएं, इस भयंकर कर्म में मुझे न जोतें।

कृष्ण को उस कांटे पर थोड़ा आटा भी लगाना पड़ता है। वह आटा लोकमंगल का है। तो शायद अर्जुन लोकमंगल के लिए...। क्यों? लेकिन अगर अर्जुन की जगह ब्राह्मण होता, तो लोकमंगल काम नहीं करता शब्द। क्षत्रिय को काम कर सकता है। क्षत्रिय को काम कर सकता है। अगर बुद्ध से कृष्ण ने कहा होता कि लोकमंगल के लिए रुके रहो राजमहल में, वे कहते, कोई लोकमंगल नहीं है। जब तक आत्मा का मंगल नहीं हुआ, तब तक लोकमंगल हो कैसे सकता है? बुद्ध स्पष्ट कह देते कि बंद करो गीता, हम जाते हैं!

वह आदमी ब्राह्मण है। उस आदमी पर कृष्ण की गीता काम न करती उस तरह से, जिस तरह से अर्जुन पर काम कर सकती है। असल में कृष्ण ने फिर यह गीता कही ही न होती। यह गीता सम्बोधित है। यह अर्जुन के लिए, क्षत्रिय व्यक्तित्व के लिए है। इस पर पता लिखा है। इसलिए वे कहते हैं, लोकमंगल के लिए। क्योंकि क्षत्रिय के मन में, लोग क्या कहते हैं, इसका बड़ा भाव है। शक्ति के आकांक्षी के मन में, लोग क्या कहते हैं, लोगों का क्या होता है, इसका बड़ा भाव है। क्षत्रिय अपने पर पीछे, लोगों की आंखों में पहले देखता है। लोगों की आंखों में देखकर ही वह अपनी चमक पहचानता है।

इसलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को कहते हैं, लोकमंगल के लिए। ऐसा नहीं है कि लोकमंगल नहीं होगा, लोकमंगल होगा। लेकिन वह गौण है, वह हो जाएगा; वह बाइप्रोडक्ट है। लेकिन कृष्ण को जोर देना पड़ता है लोकमंगल के लिए, क्योंकि वे जानते हैं, सामने जो बैठा है, शायद लोगों के मंगल के लिए ही रुक जाए। शायद लोगों की आंखों में उसके लिए जो भाव बनेगा, उसके लिए रुक जाए। क्षत्रिय है। यद्यपि रुक जाए, तो कृष्ण धीरे-धीरे उसे उस अनासक्ति पर ले जाएंगे, जहां आटा निकल जाता है और कांटा ही रह जाता है। एक-एक कदम, एक-एक कदम बढ़ना होगा। और कृष्ण एक-एक कदम ही बढ़ रहे हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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