बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 21

 परमात्‍मा को झेलने का पात्रता


 संजय उवाच:

ड़त्यहं वासुदेवस्य यार्थस्य च महात्मन:।

संवादभिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।

व्याक्यसादाच्‍छूतवानेतदगह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्‍साक्षाक्कथयत स्वयम्।। 75।।

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:।। 76।।

तव्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूयमत्यद्भुतं हरे:।

विस्मयो मे महान् राजन्हष्यामि च युन: पुन:।। 77।।

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पाथों धनर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिमर्तिर्मम।। 78।।


इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्‍य—दृष्टि के द्वारा मैने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।

इसीलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्तु कल्याण् कारक और अदभुत संवाद को पुनः—पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

तथा हे राजन, श्री हरि के उस अति अदभुत रूप को भी पुन—पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान विस्मय होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वही पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।


इसके उपरात संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत, रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।

थोड़ा जीवंत, थोड़ा प्राणवान चैतन्य हो, तो सुनकर भी द्वार खुलने लगेंगे। बात संजय से कही न गयी थी। संजय तो केवल एक गवाह है। कही थी किसी और ने, कही थी किसी और के लिए। संजय तो एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह है, एक चश्मदीद गवाह है। संजय तो सिर्फ एक साक्षी है। उसने वही दोहरा दिया है अंधे धृतराष्ट्र के सामने, जो घटा था। संजय तो एक रिपोर्टर है, एक अखबारनवीस। लेकिन उसके जीवन में भी कुछ घटने लगा।

सत्य की महिमा ऐसी है कि तुम उसके निकट जाओगे, तो वह तुम्हें छू ही लेगा। तुम शायद गवाही की तरह ही गए थे, या तुम सिर्फ एक दर्शक की भांति गुजरे थे, लेकिन सत्य की महिमा ऐसी है, उसका रहस्य ऐसा है कि तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम दर्शक की भांति गए हो, लेकिन दर्शक की भांति वापस न लौट सकोगे।

कभी दर्शक भी कभी कुतूहलवशात आ जाए सत्य के करीब, तो उसके हृदय में भी रोमाच हो जाता है।

इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना। मेरा भी रोमांच हो गया है! मैं भी आपूरित हो गया हूं! सुन—सुनकर मैं भी और हो गया!


और संजय कहता है, महात्मा अर्जुन!

उसने एक अपूर्व जन्म देखा है। वह एक ऐसे जन्म की घटना का गवाह रहा है कि कोई दूसरा गवाह खोजना मुश्किल है। जिसने संदेह को समर्पण बनते देखा, जिसने अहंकार को विसर्जित होते देखा; जिसने योद्धा को संन्यासी बनते देखा; जिसने क्षत्रिय के अहंकार को ब्राह्मण की विनम्रता बनते देखा; जिसने अर्जुन का नया जन्म देखा। शुरू से लेकर, आखिर तक, पूरी जीवन—यात्रा देखी। वह कहता है, महात्मा अर्जुन! अब साधारण अर्जुन कहना ठीक न होगा।

श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य—दृष्टि द्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।

इसलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अदभुत संवाद को पुन: —पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।

जैसे एक झरना भीतर कलकलित हो रहा है, जैसे भीतर एक फुहार पडी जाती है, बार—बार मेघ घिर आते हैं, बार—बार वर्षा हो जाती है!

बारंबार हर्षित होता हूं स्मरण कर—करके!

जो देखा है, वह अपूर्व है। जैसा आंखों से देखा नहीं जाता, ऐसा देखा है! जो कभी सुना नहीं, ऐसा सुना है! और जो घटना देखी है, भरोसे के योग्य नहीं है!

अहंकार समर्पण बन जाए, इससे ज्यादा रहस्ययुक्त घटना इस संसार में दूसरी नहीं है। इससे बड़ी कोई रोमांचकारी घटना नहीं है। यह अपूर्व है। यह असाधारण से भी असाधारण बात है।

और व्यक्ति तब तक साधारण ही रहता है, जब तक अहंकार में रहता है। जिस दिन अहंकार समर्पण बनता है, उस दिन व्यक्ति भी असाधारण हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ते हैं, वहा मंदिर हो जाते हैं। वह मिट्टी छूता है और स्वर्ण हो जाती है। उसकी हवा में काव्य होता है। उसके स्पर्श से सोए लोग जाग जाते हैं, मृत जीवित हो जाते हैं।

मरे हुए अर्जुन को पुन: जीवित होते देखा है। हाथ—पांव शिथिल हो गए थे, गांडीव छूट गया था, उदास, थका—मादा अर्जुन बैठ गया था। विषाद की कथा को आनंद तक पहुंचते देखा है! नर्क से स्वर्ग तक की पूरी की पूरी सोपान—सीढ़ियां देखी हैं!

पुन: स्मरण करके बारंबार हर्षित होता हूं।

तथा हे राजन, श्री हरि के उस अदभुत रूप को भी पुन: —पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है.......।

कितनी करुणा! कितनी बार अर्जुन छूटा; भागा; फिर—फिर खींचकर उसे ले आए। जरा भी नाराज न हुए! एक बार भी उदासी न दिखाई! कितना अर्जुन ने पूछा, थका डाला पूछ—पूछकर वही—वही बात। लेकिन कृष्ण उदास न हुए; वे फिर—फिर वही कहने लगे, फिर—फिर नए द्वारों से कहने लगे, नए शब्दों में कहने लगे!

कृष्ण पराजित न हुए! अर्जुन का संदेह पराजित हुआ, कृष्ण की करुणा पराजित न हुई। अर्जुन का अज्ञान पराजित हुआ, ज्ञान कृष्ण का पराजित न हुआ।

महान आश्चर्य होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।



संजय कुछ कह नहीं पा रहा; बार—बार कहता है, बस हर्षित हो रहा हूं। एक गीत बज रहा है भीतर। नाचने का मन हो रहा है। और उसे कुछ भी नहीं हुआ है। वह दूर खड़ा दर्शक है।

धन्यभागी हैं वे भी, जो धर्म के दर्शक बन जाएं। धन्यभागी हैं वे भी, जो मंदिर के पास से गुजर जाएं और जिनके कानों में मंदिर की घंटियों का नाद भी पड़ जाए! क्योंकि वह भी हर्षित करेगा।

हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर विजय है, श्री है, विभूति है, अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।

और वह यह कह रहा है कि माना कि आपके पुत्र विपरीत खड़े हैं और आपका पिता का हृदय चाहेगा कि वे जीत जाएं, लेकिन यह असंभव है। क्योंकि जहां कृष्ण भगवान हैं और जहां महात्मा अर्जुन है, वहीं होगी नीति, वहीं होगा सत्य, वहीं होगी श्री, वहीं होगी संपदा, वहीं आएगी विजय। सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं।

तो संजय कहता है, माना, आपके पिता के हृदय को मैं समझता हूं कि आप चाहेंगे कि आपके बेटे जीत जाएं, लेकिन यह हो नहीं सकता। यह असंभव है। सत्य ही जीतेगा। सत्य ही जीतना भी चाहिए।

विषाद से शुरू होने वाली यह गीता, सत्य की विजय पर पूरी हो जाती है। विषाद में तुम हो। गीता के इशारे तुम्हारे काम पड़ जाएं, तो सत्य की विजय—यात्रा तुम्हारी भी पूरी हो सकती है।

कोई भी कारण नहीं है, जो अर्जुन को हुआ, वह सभी को हो सकता है। कोई भी बाधा नहीं है। जितनी बाधाएं अर्जुन को थीं, उससे ज्यादा तुमको नहीं हैं। जितना अज्ञान अर्जुन का था, उससे ज्यादा तुम्हारा नहीं है।

इसलिए अगर तुम राजी हो, जैसा अर्जुन राजी था, संदेह के बावजूद भी राजी था; संदेह के बावजूद भी कृष्ण के साथ चलने को राजी था; संदेह के बावजूद भी खोजने की उत्सुकता थी, तो पहुंच गया मंजिल पर। प्रत्येक व्यक्ति पहुंच सकता है। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की स्वभाव—सिद्ध संभावना है।


गीता के ये सारे वचन हजार—हजार बार मैंने दोहराकर तुमसे कहे, इस आशा में ही कि किसी क्षण में, किसी मनोभाव की दशा में चोट पड़ जाएगी, तीर लग जाएगा।

तीर लगा हो, तो उसे सम्हालना। उसकी पीड़ा अमृतदायी है। उस पीड़ा को सींचना। संसार में मिला सुख भी असार है। परमात्मा के मार्ग पर मिला दुख भी अहोभाग्य है।

उसे पाने में कितनी ही कठिनाई हो, जिस दिन तुम पाओगे, उस दिन जानोगे, कठिनाई कुछ भी न थी। क्योंकि जो मिलेगा, वह अमूल्य है। तुम किसी भी मूल्य से उसे कूत नहीं सकते। जब तक नहीं मिला है, तब तक भला लगे किं बड़ी कठिनाई है; जिस दिन मिलेगा, उस दिन तुम भी कहोगे, तेरे प्रसाद से!

गीता समाप्त हो जाती है, लेकिन तुम्हारी यात्रा शुरू होती है! और सम्हलकर चले, होशपूर्वक चले, तो एक दिन जरूर वह अहोभाग्य की घड़ी आएगी, जब तुम्हारी स्मृति जगेगी; तुम्हें अपना स्मरण आएगा; भूला विस्मरण, भूला—बिसरा अपना स्वरूप याद आएगा; तुम्हारी प्रज्ञा थिर होगी!

और उसी दिन इस जगत के सारे रहस्य तुम्हारे लिए खुल जाएंगे! तुम फिर याद कर—करके ही आनंदित होओगे, आह्लादित होओगे! फिर तुम्हारा रोआं —रोआं पुलकित होगा! तुम्हारी धड़कन— धड़कन स्वर्ग के सुख से भर जाएगी!

जब तक तुम्हें स्मरण नहीं आया अपना, तब तक दुख है, तब तक महा अंधकारपूर्ण रात्रि है जीवन, अमावस है। जैसे ही स्मरण आया, फिर कोई रात्रि होती ही नहीं। फिर दिवस ही दिवस है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 20

मनन और निदिध्‍यासन


कच्चिदेतव्छ्रुतं पार्थ त्‍वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिमानसंमोह: मनष्टस्ते धनंजय।। 72।।


अर्जन उवाच:

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्‍धा त्‍वत्ससादान्मयाव्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्‍ये वचनं तव।। 73।।


इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?

इस प्रकार भगवान के पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्‍युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पाल करूंगा।

इस प्रकार गीता का माहात्म्‍य कहकर भगवान कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?

पूछने को ही पूछ रहे हैं। जांच के लिए पूछ रहे हैं। इसलिए पूछ रहे हैं कि अर्जुन को खबर मिली या नहीं! जो हुआ है, उसकी खबर कृष्ण को तो मिल गई है।

कृष्ण को पता तो चल गया है, इसीलिए माहात्म्य कहा है। नहीं तो माहात्म्य कहने की कोई जरूरत न थी। अब तक नहीं कहा; अठारह अध्याय बीत गए। अचानक माहात्म्य कहा है। अचानक यह बताया कि कौन पात्र है, किसको कहना। अचानक यह कहा है कि कहने का कितना मूल्य है। बिन कहे मत रह जाना।

पता चल गया है, लेकिन पूछते हैं माहात्म्य कहकर, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? तूने सुना, क्या कहा मैंने? ले समझा, क्या कहा मैंने? तू जागा? तूने देखा, कौन हूं मैं? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?

वे यह कह रहे हैं, अब भीतर जरा टटोलकर देख, कहां है तेरा मोह? कहा हैं वे बातें तेरे भीतर कि ये मेरे अपने प्रियजन खड़े हैं, इनको मैं कैसे काटू? अब जरा पीछे मुड़, खोज। कहां गए वे प्रश्न, संदेह—शंकाएं? वे सारी चित्त की विचलित दशाएं कहां हैं अब? तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?

भगवान के ऐसा पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्‍यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पालन करूंगा।

एक—एक शब्‍द बहुमूल्‍य है। सारी गीता की चेष्‍टा इन थोड़े—से शब्दों के लिए थी कि अर्जुन के भीतर ये थोड़े—से शब्द प्रकट हो सकें। यह कृष्ण का पूरा आयोजन, इतनी—इतनी बार अर्जुन को समझाना, बार—बार अर्जुन का छिटक—छिटक जाना, कृष्ण का फिर—फिर उठाना, यह इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए था।

सारे गुरुओं की चेष्टाएं शिष्य से इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए हैं, कि किसी दिन वह घड़ी आएगी सौभाग्य की और शिष्य का हृदय अहोभाव से भरकर कहेगा, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे स्मृति प्राप्त हुई, संशयरहित हुआ मैं स्थित हूं और आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा है।

हे अच्‍यूत.....।

अच्‍यूत का अर्थ होता है, जो कभी डिगाया न जा सके। अर्जुन ने बहुत डिगाने की कोशिश की कृष्ण को। कितने संदेह उठाए! कितने प्रश्न पूछे! कोई भी थक जाता। कोई भी कहता कि बस, बहुत हुआ। अब मेरा सिर मत खा। लेकिन बार—बार कृष्ण फिर अनुकंपा से भरे अपना हाथ बढ़ा देते हैं।

तो अर्जुन कहता है, हे अच्‍यूत, तुम जो कि डिगाए नहीं जा सके।

और वही गुरु तो तुम्हें थिर कर सकेगा, जिसे तुम डिगा न सको। जो गुरु तुम से डिग जाए, वह तुम्हें कैसे अनडिगा बना सकेगा? वह तो असंभव है।

कृष्ण न तो नाराज हुए, न परेशान हुए, न चिंतित हुए, न निराश हुए। जरा भी डिगे नहीं।

तो अर्जुन कहता है, हे अच्‍यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ। तुम्हारे प्रसाद से....।

यह बहुत बहुमूल्य बात है। वह सीधा भी कह सकता था, मेरा मोह नष्ट हुआ। लेकिन तब भूल हो जाती। तब गीता अभी समाप्त नहीं हो सकती थी। यात्रा और चलती।

अगर वह कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ, तो मेरा अभी भी महत्वपूर्ण था। मोह नष्ट हो गया, इसको भी वह मेरे का ही आभूषण बना लेता। अभी भी वह अकड़ से कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ। तो कृष्ण को फिर चेष्टा करनी पड़ती।

नहीं; पहली बार उसने कहा है, आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ। मेरे प्रयास से नहीं, तुम्हारे अनुग्रह से। तुम बरसे मेरे ऊपर—अकारण। मेरी कोई पात्रता न थी; मेरा कोई पुण्य का उदय भी न था। मैं खो जाता अंधकार में, तो शिकायत करने का कोई उपाय न था। लेकिन तुम बरसे, तुम औघड़दानी, तुमने बिना मेरी पात्रता की फिक्र किए मेरे ऊपर खूब बरसा की, खूब अमृत बरसाया। तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ।

जब भी मैं नष्ट होता है, तो वह परमात्मा के प्रसाद से नष्ट होता है। अगर तुम यह कहो कि मेरे ही प्रयास से नष्ट हुआ, मेरी साधना से, मेरे तप से, तो वह अभी नष्ट हुआ ही नहीं। अभी तपस्वी के भीतर तप में तपा हुआ अहंकार खड़ा ही रहेगा। यह खतरनाक अहंकार है। यह पवित्र अहंकार है। यह साधारण आदमी के अहंकार से भी ज्यादा उपद्रव से भरा हुआ रोग है। 

साधारण आदमी का अहंकार तो रोगग्रस्त है, अपवित्र है। उसे भी लगता है कि यह बीमारी जैसा है, छोड़ना है। नहीं छूटता, मजबूरी है। पर छोड़ने की आकांक्षा है।

पवित्र अहंकार वह साधु पुरुषों को उपलब्ध होता है। तप किया, ध्यान किया, धारणा की, समाधि को पाया, चेष्टा से उत्पन्न हुआ, श्रम से पाया, अपने ही प्रयास से पाया, तो बड़ा सघन और सूक्ष्म अहंकार निर्मित होता है।

अगर कृष्ण जरा—सा शब्दों में फर्क पाते, अगर अर्जुन जरा बदलकर बात कहता, जमीन— आसमान का अंतर हो जाता। अगर उसने इतना ही कहा होता, मेरा मोह नष्ट हो गया, तो अभी और चेष्टा करनी जरूरी थी। अभी मोह भला नष्ट हो गया हो, लेकिन अब इस नष्ट हुए मोह ने एक और नया अहंकार खड़ा कर दिया, कि मेरा मोह नष्ट हो गया।

आपकी कृपा से, तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया हे अच्‍यूत, और मुझे मेरी स्मृति प्राप्त हुई।

वह यह नहीं कहता कि मुझे कुछ नया मिल गया। जो मिला है, वह केवल स्मृति है, वह स्मरण है। जो मिला है, वह केवल याददाश्त है। जिसे मैं भूल गया था, जो मेरे भीतर था और जिसकी तरफ मेरी नजर न रही थी, तुमने मेरी दृष्टि को फेर दिया। तुमने मुझे याद दिला दी। तुमने मुझे मुझसे ही मुलाकात करवा दी, मुझे मुझसे ही मिला दिया।

पर तुम्हारे प्रसाद से हुआ है। अपने हाथ से तो मैं कभी भी यहां न पहुंच पाता। शायद जितनी मैं चेष्टा करता, उतनी ही स्मृति मुश्किल होती चली जाती।

 अर्जुन कहता है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई। अब मैं पहचान गया अपने को। अब मुझे याद आ गई मेरे होने की। अपने ही अस्तित्व से मुलाकात हो गई। अब मैं अपने आमने—सामने खड़ा हूं।

और इसलिए अब मैं संशयरहित स्थित हूं......।

जिस दिन भी तुम्हें स्मरण आ जाता है कि तुम कौन हो, उसी क्षण सब संशय गिर जाते हैं। विस्मरण की अंधेरी रात में ही संशयों की बाढ़ उपजती है। स्मरण के प्रकाश में सब संशय ऐसे ही खो जाते हैं, जैसे दीया जल जाए, तो अंधेरा खो जाता है। सुबह सूरज उग आए, तो रात विदा हो जाती है, रात के तारे विदा हो जाते हैं। संशयरहित हुआ स्थित हूं..।

और अब मुझे कुछ करना नहीं पड़ रहा है स्थिर होने के लिए। अचानक मैं पाता हूं हे अच्युत, कि स्मृति क्या आ गई, मैं स्थित हो गया हूं। मेरी प्रज्ञा ठहर गई। अब दीए की लौ हिलता नहीं। तूफान आएं, आंधिया उठें, मेरे भीतर कोई कंपन नहीं हो रहा है। स्थित हुआ मैं अपने भीतर ठहर गया हूं।

यह गीता का लक्ष्य है, स्थितप्रज्ञ की अवस्था। जब चेतना थिर हो जाए; जैसे कोई दीए की लौ हो, और हवा के झोंके उसे कंपान सकें; थिर रहे, अकंप, निष्कंप।

और अब आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता हूं।

अब तक वह कहता था, मैं ऐसा करना चाहता हूं वैसा करना चाहता हूं। ये मेरे प्रियजन हैं, इन्हें मैं मारना नहीं चाहता। मैं त्याग करना चाहता हूं। मैं संन्यास लेना चाहता हूं। पहली बार उसने कहा कि अब मैं थिर हुआ; स्मृति मुझे आ गई, अच्‍यूत; अब तुम्हारी आज्ञा। अब तुम्हारी मर्जी। अब तुम जो कहो। अब मुझे रत्तीभर भी प्रश्न नहीं है। तुम जो कहोगे, वह ठीक है या गलत, यह सवाल नहीं है। अब तुम जो कहोगे, वह ठीक ही है।


यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। जब तक ऐसी दशा न आ जाए तब तक गुरु से मिलन नहीं। जब तुम ऐसा न कह सको कि अब तुम जो कहोगे, वही ठीक है; अब ठीक और गलत का कोई मापदंड तुम पर हम् लगा न करेंगे, अब तुम्हारा कहना ठीक, तुम्हारा न कहना गलत। तुम जो न कहो, वह गलत, तुम जो कहो, वह ठीक। तुम जो छोड़ दो, वह गलत, तुम जो इशारा करो, वह सही। अब तुम्हारा होना पर्याप्त है।

पर यह तभी होता है, जब स्वयं का स्मरण आ जाए। स्वयं की पहचान के साथ ही गुरु के भीतर की पहचान भी होती है।

अभी तक कृष्ण सखा थे, साथी थे, सारथी थे, हितेच्छु थे, मंगलकामी थे। मित्र थे और कल्याण चाहते थे। इस क्षण गुरु हुए।

इस घड़ी आकर अर्जुन शिष्य हो गया, इस घड़ी आकर रथ ही अर्जुन ने कृष्ण के हाथों में नहीं छोड़ा, अपने को भी छोड़ दिया, कि अब तुम मेरे भी सारथी हो गए। तुम मेरे घोड़ों को ही मत सम्हालो, अब मुझे भी सम्हालो। अब तुम मेरे रथ की ही लगाम मत पकडो, मेरी लगाम भी पकड़ लो।

अब मैं थिर हुआ। स्मरण को उपलब्ध हुआ। तुम्हें पहचान पाता हूं। तुम्हारी महिमा को देख पाता हूं तुम कौन हो। यह अपने को पहचानकर मैं तुम्हें भी पहचान गया हूं। अब मुझे कोई संशय नहीं है। अब तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा है।

जिस दिन शिष्य आज्ञा की प्रतीक्षा करता है, समर्पण हो गया। शिष्य उसी दिन शिष्य बनता है, और उसी दिन उसे गुरु में परमात्मा के दर्शन होते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 19

 गीता—ज्ञान—यज्ञ

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट स्‍यामिति मे मति:।। 70।।

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादीय यो नर:।

सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राम्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।। 71।।


तथा हे अर्जुन, जो पुरूष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद— रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान— यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

तथा जो पुरूष श्रद्धायुक्त और दोष— दृष्टि से रहित हुआ इस गीता का श्रवण— मात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्‍त हुआ पुण्य करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।


तथा हे अर्जुन, जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान—यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

हे अर्जुन, जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को पढेगा.....।

जिस संवाद की मैंने बात कही, वही कृष्ण कह रहे हैं, इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप....।

एक तो विवाद है, जहां जो भी तुमसे कहा जाता है, तुम उसके विपरीत सोचते हो। एक संवाद है, जहां तुमसे जो भी कहा जाता है, तुम उसके अनुकूल सोचते हो, सामंजस्य का अनुभव करते हो। तुम्हारा हृदय उसके साथ—साथ धड़कता है, विपरीत नहीं। एक गहन सहयोग होता है।

तो कृष्ण कहते हैं, इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को जो भी पढेगा...।

एक संवाद घटित हुआ है, एक अनूठी घटना घटी है। दो व्यक्तियों ने एक—दूसरे को अपने में उंडेला है, एक—दूसरे में डूबे हैं। इस अनूठी घटना को कृष्ण धर्ममय कहते हैं। यही धर्म की घटना है, जहां दो चेतनाएं इतने अपूर्व रूप से एक—दूसरे में डूब जाती हैं कि कोई अस्मिता और अहंकार की घोषणा नहीं रह जाती कि हम अलग— अलग हैं; अपनी कोई सुरक्षा की आकांक्षा नहीं रह जाती। बूंद जैसे सागर में डूब जाए, सरिता जैसे सागर में कूद जाए!

इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को जो पढेगा, नित्य पाठ करेगा…..।





नित्य पाठ एक अनूठी बात है, जो पूरब में ही विकसित हुई। पश्चिम में नित्य पाठ जैसी कोई चीज नहीं है। पश्चिम में लोग किताबें पढ़ते हैं, पाठ नहीं करते। किताब पढ़ने का अर्थ है, पढ़ ली एक बार, खतम हो गई बात; अब उसे दुबारा क्या पढ़ना? जो पढ़ ही ली, उसे दुबारा क्या पढ़ना? एक फिल्म एक बार देख ली, बात खतम हो गई, दुबारा क्या देखने को बचता है? एक उपन्यास एक बार पढ़ लिया, बात खतम हो गई। फिर दुबारा उसे वही पढेगा, जो मंदबुद्धि हो, जिसकी अकल में कुछ भी न आया हो। दुबारा कोई क्यों पढेगा?

लेकिन पाठ का अर्थ है, करोड़ों बार पढ़ना, रोज पढ़ना, जीवनभर पढ़ना।

नित्य पाठ का क्या अर्थ है फिर? यह साधारण पढ़ना नहीं है। नित्य पाठ का अर्थ है, धर्म के वचन ऐसे वचन हैं कि तुम एक बार उन्हें पढ़ लो, तो यह मत समझना कि तुमने पढ़ लिया। उनमें पर्त दर पर्त अर्थ हैं। उनमें गहरे—गहरे अर्थ हैं। तुम जैसे—जैसे गहरे उतरोगे, वैसे—वैसे नए अर्थ प्रकट होंगे। जैसे—जैसे तुम उनमें प्रवेश करोगे, वैसे—वैसे पाओगे, और नए द्वार खुलते जाते हैं।
गीता को तुम जितनी बार पढ़ोगे, उतने ही अर्थ हो जाएंगे। बहुआयामी है प्रत्येक शब्द धर्म का। और तुम्हारी जितनी प्रज्ञा विकसित होगी, उतनी ही ज्यादा तुम्हें अर्थ की अभिव्यंजना होने लगेगी। कृष्ण का ठीक—ठीक अर्थ जानते—जानते तो तुम कृष्ण ही हो जाओगे, तभी जान पाओगे, उसके पहले न जान पाओगे।
ऐसा समझो कि जब तुम गीता शुरू करोगे, तो तुम ऐसे पढ़ोगे, जैसा अर्जुन है, और जब गीता पूरी होगी, तो तुम ऐसे पढ़ोगे, जैसे कृष्ण हैं। और बीच में हजारों सीढ़ियां होंगी।

बहुत बार, बहुत बार तुम्हें लगेगा, इतनी बार पढने के बाद भी यह अर्थ इसके पहले क्यों नहीं दिखाई पड़ा? यह शब्द कितनी बार मैं पढ़ गया हूं लेकिन इस शब्द ने कभी ऐसी धुन नहीं बजाई मेरे भीतर! आज क्या हुआ?

आज भाव—दशा और थी। आज तुम्हारा चित्त शांत था, तुम आनंदित थे, तुम प्रफुल्लित थे, तुम थोड़े ज्यादा मौन थे, नया अर्थ प्रकट हो गया। कल तुम परेशान थे, मन उपद्रव से भरा था, यही शब्द तुम्हारी आंख के सामने से गुजरा था, लेकिन हृदय पर इसका कोई अंकुरण नहीं हुआ था, कोई छाप नहीं छोड़ सका था, कोई संस्कार नहीं बना सका था।

ऐसे बहुत—बहुत भाव—दशाओं में, बहुत—बहुत चेतना की स्थितियों में तुम गीता का पाठ करते रहना, बहुत—बहुत तरफ से गीता को देखते रहना, तुम्हें नए—नए अर्थ मिलते चले जाएंगे।
हम धर्मग्रंथ उसी को कहते हैं, जो पढ़ने से न पढ़ा जा सके, जो केवल पाठ से पढ़ा जा सके। इसलिए हर किताब का पाठ नहीं किया जाता, सिर्फ धर्मग्रंथ का पाठ किया जाता है।

असल में जिसका पाठ किया जा सकता है, वही धर्मग्रंथ है। जिसमें रोज—रोज नए—नए अर्थ की कलमें लगती जाएं, नए फूल खिलते जाएं; तुम हैरान ही हो जाओ कि तुम जितने भीतर जाते हो, और नए रहस्य खुलते चले जाते हैं, इनका कोई अंत नहीं मालूम होता, तभी तुम धर्मग्रंथ पढ़ रहे हो। इसे तुम्हें रोज ही पढ़ना होगा। यह तुम्हें तब तक पढ़ना होगा, जब तक कि आखिरी अर्थ प्रकट न हो जाए, जब तक कि कृष्ण का अर्थ प्रकट न हो जाए।
जैसे हम प्याज को छीलते हैं, ऐसे गीता को रोज छीलते चले जाना। एक पर्त उघाड़ोगे, नयी ताजी पर्त प्रकट होगी। वह पहले से ज्यादा ताजी होगी, नयी होगी, गहरी होगी। उसे भी उघाड़ोगे, और भी नयी पर्त मिलेगी। ऐसे उघाडते जाओगे, उघाडते जाओगे, एक दिन सब पर्तें खो जाएंगी, भीतर का शून्य प्रकट होगा।

वही शून्य कृष्ण का अर्थ है। उस शून्य में ही समर्पण हो जाता है, उस शून्य में ही कोई डूब जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो हम दोनों के इस धर्ममय संवाद—रूप गीता को पढेगा, नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान—यज्ञ से सुसज्जित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

उसे कोई और यज्ञ करने की जरूरत नहीं, उसने रोज ज्ञान—यज्ञ कर लिया। जितनी बार उसने मेरे शब्दों को, तुझसे कहे शब्दों को अर्जुन, बड़े प्रेम और श्रद्धा और आस्था से पढ़ा; और जितनी बार इस गीत का उसके भीतर भी थोड़ा— थोड़ा उदय हुआ; वह भी नाचा और डोला और मतवाला हुआ; उसने भी यह शराब पी, जो हम दोनों के बीच घटी है, वह भी इसी मस्ती में मस्त हुआ, जिसमें हम दोनों डोलते गए हैं और डूबते गए हैं, उतनी ही बार उसने ज्ञान—यज्ञ किया, ऐसा मेरा मत है। उसे किसी और यज्ञ की कोई जरूरत भी नहीं है।

तथा जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोष—दृष्टि से रहित इस गीता का श्रवण—मात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त हुआ पुण्य कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।

और जो पुरुष श्रद्धायुक्त।

बड़े प्रीतिभाव से, अनन्य श्रद्धा से। संदेह की एक रेखा भी न उठती हो।

दोष—दृष्टि से रहित.....।

दोष न खोजने को तैयार हो। क्योंकि दोष जो खोजने को तैयार है, उसे मिल ही जाएंगे। लेकिन इन दोषों के मिल जाने से किसी और की कोई हानि नहीं है, उसकी ही हानि है। तुम अगर गुलाब के पौधे के पास जाओगे और कांटे ही खोजना चाहते हो, तो मिल ही जाएंगे। वे वहां हैं, काफी हैं। मगर इससे सिर्फ तुम्हारी हानि हुई। जो गुलाब के फूल का दर्शन हो सकता था, और जो दर्शन तुम्हारे जीवन को रूपांतरित कर देता, उससे तुम वंचित हो गए।

जो दोष—दृष्टि से रहित, श्रद्धाभाव से......।

कांटों को नहीं गिनेगा जो, फूलों को छुएगा जो, फूलों की गंध को अपने भीतर ले जाएगा। अपने द्वार खोलेगा। भयभीत नहीं, संदिग्ध नहीं, असंशय, आस्था से भरा हुआ।

वह श्रवण—मात्र से भी...!

क्योंकि ऐसी घड़ी में, ऐसी भाव—दशा में श्रवण भी काफी है। ऐसा सुन लिया, तो सुनने से भी पार हो जाता है। क्योंकि ऐसा सुना हुआ तीर की तरह प्राणों के प्राण तक उतर जाता है।
श्रवण—मात्र भी करेगा, वह पापों से मुक्त हुआ पुण्य कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त हो जाएगा।

मात्र श्रवण से भी!

बुद्ध ने बड़ा जोर दिया है, सम्यक श्रवण। महावीर ने कहा है कि मेरा एक घाट श्रावक का है। जिसने ठीक से सुन लिया, वह भी नाव पर सवार हो गया, वह भी उस पार पहुंच जाएगा। कृष्णमूर्ति राइट लिसनिंग पर रोज—रोज समझाते हैं, ठीक से सुन लो।
जानने का अर्थ सिर्फ ठीक से सुन लेना है। लेकिन ठीक से सुन लेना बड़ी मुश्किल से घटता है। क्योंकि हजार बाधाएं हैं, आलोचक की दृष्टि है, दोष देखने का भाव है, निंदा का रस है। उसमें तुम काटो में उलझ जाते हो।

कांटे हैं। मेरे पास तुम सुन रहे हो; अगर दोष देखने की दृष्टि हो, दोष मिल जाएंगे। इस पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जहां कांटे न हों। क्योंकि कांटे फूलों की रक्षा के लिए हैं। कांटे फूलों के दुश्मन नहीं हैं, विपरीत भी नहीं हैं। वे फूलों की रक्षा के लिए हैं; वे फूलों के पहरेदार हैं; उनके बिना फूल नहीं हो सकते। और जितना सुगंधयुक्त गुलाब होगा, उतने ही बड़े काटे होंगे। जितना बड़ा गुलाब का फूल होगा, उतने ही बड़े काटे होंगे। वे रक्षा कर रहे हैं। तो तुम्हें कीटों से उलझने की कोई जरूरत नहीं है। कांटे हैं; तुम फूल को देखो।

और एक मजे की बात है। अगर तुमने फूल को ठीक से देखा, जीया, अपने भीतर जाने दिया, तो तुम एक दिन पाओगे कि सब कांटे फूल हो गए। तुम्हारी दृष्टि फूल की हो गयी, अब तुम्हें कांटे दिखायी ही नहीं पड़ते। और अगर तुमने कांटों को ही गिना और उनको ही चुभा—चुभाकर देखा, घाव बनाए, तो तुम फूल से भी डर जाओगे; फूल से भी ऐसे डरोगे, जैसे फूल भी कांटा है। एक दिन तुम पाओगे, फूल बचे ही नहीं तुम्हारे लिए, कांटे ही कांटे हो गए। तुम्हारी दृष्टि ही अंततः तुम्हारा जीवन बन जाती है।

तो जिसने श्रद्धा से, प्रेम से, अहोभाव से, दोष—दृष्टि से नहीं, सत्य की आकांक्षा—अभीप्सा से मात्र सुना भी, वह भी मुक्त हो जाता है।

इससे बड़ी भूल पैदा हुई। कृष्ण के इन वचनों से वही हुआ जिसका डर था। लोगों ने समझा, तो फिर ठीक है, गीता सुन लेने से सब हो जाता है। मगर वे भूल गए कि शर्तें हैं. श्रद्धायुक्त, दोष—दृष्टि से रहित......।

इसका मतलब यह नहीं कि सोए—सोए सुन लेना। सोए रहोगे, न संदेह उठेगा, न दोष—दृष्टि होगी; आंख बंद किए झपकी लेते रहना। धार्मिक सभाओं में लोग सोए रहते हैं। इसका मतलब सोए—सोए सुनना नहीं है, इसका मतलब है, बहुत जागरूक होकर सुनना, ताकि दोष—दृष्टि प्रविष्ट न हो जाए। दोष—दृष्टि नींद का हिस्सा है, मूर्च्छा का हिस्सा है।

बहुत अनन्य जागरूक, चैतन्य होकर सुनना, ताकि श्रद्धा का आविर्भाव हो जाए। तो ही सुनने से भी कोई पार हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 18

 आध्‍यात्‍मिक संप्रेषण संप्रेषण की गोपनीयता


हदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्‍यसूयीत।। 67।।

य इमं परमं गुह्मं मद्भक्तेम्बीभधास्यति।

भक्‍ति मयि परां कृत्या मामैवैष्यत्यसंशय:।। 68।।

न च तस्मान्मनुष्येधु कीश्चन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।। 69।।


हे अर्जुन, इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहीत के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चाहिए; एवं जो मेरी निंदा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए।

 जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम गुह्म रहस्य गीता को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।

और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है, और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा।


हे अर्जुन, इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चाहिए; एवं जो मेरी निंदा करे, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए।

समझने की कोशिश करो।

इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को......।

यह अत्यंत गुह्य और गोपनीय है। इससे जीवन के आत्यंतिक द्वार खुलते हैं। यह कुंजी बहुत बहुमूल्य है। यह हर किसी को मत दे देना। ये मोती हैं, ये पारखियों को देना। ये हीरे हैं, ये जौहरियों को देना।

तो कृष्ण कहते हैं

  इस परम रहस्य को भी किसी भी काल में तपरहित मनुष्य के प्रति नहीं कहना चाहिए.......।

तपस्वी कौन है? तपस्वी का अर्थ है, जिसने सत्य को पाने के लिए अथक चेष्टा की, अपने को जलाया, तपाया। जो कुतूहलवश नहीं आ गया है सत्य को पूछने। जिसने सत्य को अपने को समर्पित किया है, जो सत्य के लिए मिटने को तैयार है। अगर जीवन की भी आहुति देनी पड़े, तो वह तैयार है। वह एक हाथ में अपने जीवन को लेकर आया है, यह रहा जीवन, सत्य मुझे मिल जाए, तो मैं जीवन देने को तैयार हूं।

तपस्वी का अर्थ है, जो सत्य को जीवन के ऊपर रखता है। जो कहता है, जीवन चला जाए, हर्जा नहीं; सत्य खरीद लेना है। जीवन दो कौड़ी का है जिसके लिए सत्य के मुकाबले।
भोगी का अर्थ है, जो जीवन को किसी भी हालत में खोने को तैयार नहीं है। जिसके लिए जीवन से ऊपर कुछ भी नहीं है। त्यागी का अर्थ है, जिसके लिए जीवन से भी ऊपर कुछ है। जो जीवन को भी कुछ पाने के लिए साधन बना लेता है।

तो तपस्वी को कहना चाहिए। कुतूहलवश कोई आया हो, उसको नहीं; जिज्ञासा मात्र से कोई आया हो, उसको नहीं। मुमुक्षा से आया हो! जो अपने जीवन को मोक्ष बनाने के लिए तत्पर हो। जो कहता हो, जान भी देनी पड़े, तो यह रही गरदन।

तपरहित मनुष्य के प्रति नहीं कहना, न भक्तिरहित के प्रति कहना

क्योंकि जो भक्ति ही न हो, तो गोपनीय बात नहीं कही जा सकती। अत्यंत निकटता चाहिए।

पुराना शब्द है कि जब गुरु मंत्र देता है शिष्य को, तो हम कहते हैं, कान फूंकता है। उसका मतलब क्या है? उसका मतलब है, इतनी गुप्त है बात कि कान में ही कहता है। कोई और सुन न ले! वह गुफ्तगू है; वह बड़ी हृदय से हृदय में कही गई है बात। कान फूंकना तो प्रतीक है।

कान फूंकना प्रतीक है, उसका अर्थ है, कानों—कान कहना। कोई दूसरे के कान में न पड़ जाए। अत्यंत निकटता में कहना, सामीप्य में कहना।

जिसकी मुमुक्षा है, वह ही यहां तक पहुंच पाएगा। जिसका प्रेम है, वह सब सहकर यहां तक पहुंच जाएगा।

प्रेम कोई बाधाएं नहीं मानता। प्रेम कोई सीमाएं नहीं मानता। प्रेम बड़ी से बड़ी दीवालें लांघ जाता है।

तो कृष्ण कहते हैं, भक्तिरहित के प्रति मत कहना......।

क्योंकि तुम तो कह दोगे, लेकिन जिसने भक्ति से सुना ही नहीं, वह समझेगा ही नहीं। तो क्यों अपनी श्वास खराब करनी! और डर यह है कि अगर वह बुद्धि से समझेगा। क्योंकि दो ही जगह हैं समझने की, या तो हृदय या बुद्धि। अगर भक्ति है, तो हृदय से समझेगा। वही समझने का ठीक केंद्र है। अगर भक्ति नहीं है, तो बुद्धि से समझेगा। वह तुमने जो कहा है, उसका तर्क बनाएगा, शास्त्र बनाएगा, सिद्धात बनाएगा, उसमें वह भटक जाएगा।

बुद्धि का तो जंगल है, वहा कोई खुले स्थान नहीं हैं। हृदय का खुला आकाश है। हृदय में कोई कभी भटका नहीं, बुद्धि में लोग सदा भटके हैं।

तो बुद्धि वाला आदमी तो वैसे ही भटका है, उसको और यह गोपनीय बात कहकर और न भटका देना, और उसका जंगल बड़ा मत कर देना। वह वैसे ही उलझा है।

और न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना।

और जो सुनने को इच्छुक ही न हो, आतुर न हो, अभीप्‍सु न हो, उससे मत कहना। उसके तो कान पर भी न पहुंचेगा। और खतरा एक है कि जब सुनने की इच्छा न हो, तब अगर कोई कुछ कह दे, तो ऊब पैदा होती है। और उस ऊब के कारण वह सदा के लिए अनुत्सुक हो जाएगा।

बहुत बच्चे धर्म से इसीलिए अनुत्सुक हो जाते हैं। जब उनकी तैयारी नहीं होती सुनने की, तब मां—बाप उनको गीता सुना रहे हैं! मंदिर ले जा रहे हैं! वे घसिटे जा रहे हैं। उनको फिल्म जाना है, पिक्चर देखना है। बाजार में मदारी आया है। और ये कहां के कृष्ण और गीता को लगाए हुए हैं!

और जो मेरी निंदा करता हो, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए। 
क्योंकि जहां मन निंदा से भरा हो, विरोध से भरा हो, वहा तुम कुछ भी कहो, अनर्थ होगा। तुम जो भी कहोगे, उससे उलटा अर्थ निकाला जाएगा। जब निंदा भीतर हो, तो तुम अपनी निंदा को हर चीज पर टांग दोगे। तुम्हारी निंदा तुम्हारी आंखों पर छाई होगी। तुम उसी के माध्यम से देखोगे। हर चीज निंदा के ही रंग में रंग जाएगी। कोई जरूरत नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।

क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम गुह्य रहस्य को, गीता को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी पर दूसरा कोई होवेगा।


भगवद्गीता भगवान का गीत है। अर्जुन के बहाने स्वर्ग की गंगा को पृथ्वी पर उतारा है। उस गंगा को उन्हीं के पास ले जाना, जिनके हृदय में स्वर्ग की गंगा की प्यास उठ गई है।

जो अभी इसी पृथ्वी के जल से तृप्त हैं, उन्हें व्यर्थ परेशान मत करना। अभी यही जल उनके लिए काफी है। एक दिन आएगा कि वे पाएंगे, इस जल से किसी की प्यास बुझती नहीं, तभी वे तलाश करेंगे उस जल की जो भगवान का है।

भगवद्गीता एक दिव्य गीत है। सभी न सुन पाएंगे। संगीत को, उस संगीत को सुनने के लिए बड़ी अहर्निश तैयारी चाहिए; बड़ा श्रद्धा— भाव से भरा मन चाहिए। नाचता, उत्सव करता हुआ, एक अहोभाव चाहिए, तभी उस गीत की कड़ियां सुनाई पड़ेगी। और तब वे गीत की कड़ियां साधारण न होंगी। वह गीत की कड़ियां भगवत्ता से भरी होंगी। उनका स्वाद इस पृथ्वी का नहीं है, उनका स्वाद परलोक का है।

उस स्वाद के लिए तैयार हो जाए कोई, तो कृष्ण कहते हैं, उससे जरूर कहना। और जो ऐसे प्यासे व्यक्ति को मेरा गीत पिला देता है, उससे ज्यादा प्यारा मेरा कोई भी नहीं है।

क्योंकि इसका अर्थ हुआ कि वह एक व्यक्ति को और भगवान में वापस बुला लेता है। इसका अर्थ हुआ कि एक हृदय को और उसने भगवत्ता में डुबा दिया। इसका अर्थ हुआ, एक बटोही भटका था, वह वापस लौट आया, उसे अपना घर मिल गया। इसका अर्थ हुआ, अस्तित्व का एक खंड शांत हुआ, आनंदित हुआ, निर्वाण को उपलब्ध हुआ, निस्संशय हुआ। यात्रा एक खंड की पूरी हुई। अस्तित्व का एक टुकड़ा स्वर्ग को, शांति को, महासुख को, सच्चिदानंद को उपलब्ध हुआ।

स्वभावत:, जो भगवान के गीत में लोगों को डुबा देता है, उससे ज्यादा प्यारा भगवान का और कौन होगा!

कृष्ण कहते हैं, वह मेरे भक्तों में मुझे परम प्रिय है। वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। वह मेरे साथ एकरूप हो जाता है।

कृष्ण के गीत को गाते—गाते व्यक्ति कृष्ण हो जाता है। भगवद्गीता को सुनते—सुनते, कहते—कहते, अगर ताल—मेल बैठ जाए, अगर सुर बैठ जाए, साज बैठ जाए, तो व्यक्ति कृष्णमय हो जाता है।

लेकिन घृणा से भरा हो, निंदा से भरा हो, विरोध से भरा हो, तो यह नहीं हो पाएगा। उत्सुक न हो, अनुत्सुक हो, जबरदस्ती कहा जा रहा हो उसे, तो यह न होगा। अभी उसकी मुमुक्षा ही न हो, अभी वह धन चाहता हो, तुम धर्म की बात करते हो, तो तीर स्थान पर न लगेंगे। अभी वह पद चाहता हो, तुम परमात्मा की पुकार उठाते हो, उसे सिर्फ व्याघात मालूम होगा कि तुम व्यर्थ का उपद्रव कर रहे हो।

व्यक्ति की आकांक्षा के विपरीत उसे परमात्मा में भी वापस नहीं पहुंचाया जा सकता है। स्वतंत्रता परम है, आखिरी है। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही स्वतंत्रता से जीता है। हम सहारा दे सकते हैं। बुद्ध पुरुष इशारा कर सकते हैं, चलना तो प्रत्येक को ही पड़ता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 17

 समर्पण का राज-


सर्वगुह्मतमं भूय: श्रृणु मे परमं वचः।

हष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।। 64।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामैवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। 65।।

सर्वधर्मान्परित्‍यज्य मामेकं शरणं ब्रज।

अहं त्वा सर्वपापेध्यो मीक्षयिष्यामि मा शुचः।। 66।।


इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण श्रीकृष्ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, संपूर्ण गोपनीयों से भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन, क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, हमसे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिए कहूंगा।

हे अर्जुन, तू केवल मुझ परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य— निरंतर अचल मन वाला हो और मुझ पश्मेश्वर को ही अतिशय श्रद्धा— भक्‍ति सहित निरंतर भजने वाला हो तथा मन, वाणी और शरीर द्वारा सर्वस्व अर्पण करके मेरा पूजन करने वाला हो और सर्वगुण— संपन्‍न हो सके आश्रयरूप वासुदेव को नमस्कार कर; ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय सखा है।

इसलिए सब धर्मों की अर्थात संपूर्ण कर्मो के आश्रय को त्यागकर केवल एक मुझ सव्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो? मैं तेरे को संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा; तू शोक मत कर।


इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण कृष्ण फिर बोले कि हे अर्जुन, संपूर्ण गोपनीयों से भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन, क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं फिर तेरे लिए कहूंगा।

अर्जुन चुप होकर बैठ गया, सोचने लगा, क्या करूं, क्या न करूं! खोजने लगा, क्या है मेरी इच्छा!

उतर गया पहाड से फिर नीचे। चढ़ने में वर्षों लग जाते हैं, उतरने में क्षणभर लगता है। बनाने में वर्षों लग जाते हैं, गिरने में वर्षों नहीं लगते, मिटाने में वर्षों नहीं लगते।

और यह जीवन की तो इतनी बारीक यात्रा है, इतनी सूक्ष्म यात्रा है, कि तुम पहुंचते तो इंच—इंच मुश्किल से हो, यात्रा करते हो। और जब खोता है, तो मीलों खो जाते हैं, एक साथ खो जाते हैं। क्योंकि नीचे उतरना सुगम है, ऊपर जाना दूभर है।

इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर न मिलने के कारण......।

कृष्ण ने कहा कि तू अब कह; तेरी जो मर्जी हो, तू बोल दे। अब तुझे जो करना हो, चुन ले।

अगर अर्जुन समझ गया होता, वह हंसता और कहता कि अब बस खेल बंद करो। मुझे पक्का पता है, तुम पुराने खिलाड़ी हो, पर अब बहुत हो गया। अब मुझे और न भरमाओ, और न भटकाओ। अब मेरी क्या मर्जी? अब उसकी मर्जी।

कृष्ण ने प्रतीक्षा की होगी कि वह उत्तर दे, लेकिन वह सोचने लगा। और सोचने से कहीं उत्तर आया है! सोचने से ही उत्तर आता होता, तो बुद्ध पुरुष पागल थे कि न सोचने की शिक्षा देते! वह विचार में पड़ गया। वह चूक गया, वह फिर उलझ गया जाल में। कृष्ण देखते रहे होंगे, प्रतीक्षा की होगी।

इतना कहने पर भी जब कोई उत्तर न मिला और अर्जुन फिर खो गया विचारों के जाल में, तो उन्होंने फिर से कहा कि हे अर्जुन.......!




यह गीता की पूरी कथा गुरु के अथक होने की कथा है। शिष्य थक— थक जाए, गुरु नहीं थकता। वह बार—बार चूक जाए, गुरु उसे फिर—फिर बुलाने लगता है। क्योंकि गुरु इस बात को भलीभांति जानता है, यह स्वाभाविक है। बहुत बार भटक जाना स्वाभाविक है। अनंत बार भी कोई भटककर अंततः वापस आ जाए मार्ग पर, तो भी जल्दी आ गया।

कृष्ण बोले, हे अर्जुन, फिर से तुझ से कहूंगा। गोपनीयों में भी गोपनीय परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर से सुन।

फिर उसे जगाया, फिर सीढ़ी पकडाई।

क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है।

यह क्यों कृष्ण बार—बार अर्जुन को दोहराते हैं कि तू मेरा अतिशय प्रिय है? यह कृष्ण बार—बार अर्जुन को अपने प्रेम के प्रति सचेत क्यों करते हैं? ताकि उसका प्रेम आविर्भूत हो सके। वे अपने प्रेम को उससे बार—बार कहते हैं, ताकि उसके भीतर भी श्रद्धा का ऐसा ही जन्म हो सके।

गुरु की तरफ से शिष्य के लिए जो प्रेम है, शिष्य की तरफ से गुरु के प्रति वही श्रद्धा है। गुरु प्रेम के बीज बोता है शिष्य के हृदय में, ताकि शिष्य श्रद्धा की फसल काट सके।

इसलिए कृष्ण बार—बार यह बात डाले जाते हैं, मौके—बेमौके, जब भी उन्हें अवसर मिलता है वह कहते हैं, क्योंकि तू मेरा अतिशय !? प्रिय है। प्रेम को दोहराते हैं, ताकि अर्जुन को भरोसा आ जाए।

प्रेम ही भरोसा ला सकता है। प्रेम ही श्रद्धा को जन्मा सकता है। और प्रेम ही समर्पण की संभावना खोल सकता है।

इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिए कहूंगा......।

तुम ऐसा मत सोचना, जैसा कि भूल शिष्यों को अक्सर हो जाती है, कि ऐसा कृष्ण अर्जुन से ही कह रहे हैं। उनके और शिष्य रहे होंगे, तो सब से उन्होंने यही कहा होगा कि तू मेरा अतिशय प्रिय है। यह परम हितकारक वचन मैं तुझ से फिर—फिर कह रहा हूं क्योंकि मेरा प्रेम तेरे प्रति गहन है, न चुकने वाला है।

यह गुरु हर शिष्य को यही कहता है। इससे तुम यह मत समझ लेना कि गुरु किसी एक शिष्य को विशेष प्रेम करता है और किसी दूसरे शिष्य को कम विशेष प्रेम करता है। किसी को ज्यादा, किसी को कम, ऐसा सवाल नहीं है। लेकिन गुरु हर शिष्य से यही कहता है कि तुझ से मेरा प्रेम अतिशय है। क्योंकि जब तक शिष्य को ऐसा भरोसा न आ जाए कि प्रेम गुरु का अतिशय है, असाधारण है, बस उसके प्रति है, तब तक उसके भीतर की श्रद्धा का उभार न आ पाएगा, तब तक उसकी श्रद्धा दबी पड़ी रहेगी। वह अतिशय और असाधारण प्रेम में ही उठ सकती है।

हे अर्जुन, तू केवल मुझ परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य——निरंतर अचल मन वाला हो और मुझ परमेश्वर को ही अतिशय श्रद्धा— भक्ति सहित निरंतर भजने वाला हो तथा मन, वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके मेरा पूजन करने वाला हो और मुझ सर्वगुण—संपन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को नमस्कार कर, ऐसा करने से तू मुझ को ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय सखा है।

 अर्जुन फिर सोचने लगा। समर्पण कहीं सोचा जाता है! किया जाता है। सोचना तो होशियारी है। सोचने में तो भरोसा तुम्हारा अपने ही ऊपर है।

सोचकर भी समर्पण करोगे, वह समर्पण होगा? अगर सोचकर किया, तो तुमने समर्पण किया ही नहीं। क्योंकि सोच—सोचकर पाया कि ठीक है। यह ठीक तुमने पाया, इसलिए समर्पण किया। लेकिन अंततः निर्णायक तुम ही रहे; अहंकार ही अंततः निर्णायक रहा।

और समर्पण को तुम किसी दिन वापस लेना चाहो, तो वापस भी ले लोगे। तुम जाकर कहोगे कि बस, समर्पण समाप्त। अब मुझे नहीं करना है। क्योंकि तुम बच ही रहे थे। पहले ही दिन बच गए थे। तुम समर्पण के पीछे खड़े रहे थे। तुमने समर्पण किया था, वह तुम्हारा कृत्य था, कर्ता तो पीछे खड़ा रहा था।

और समर्पण तो तभी होता है, जब कर्ता मिट जाए। इसलिए समर्पण को वापस नहीं ले सकते हो। अगर वापस ले लिया, वह कोई समर्पण है! समर्पण से पीछे नहीं लौट सकते हो। वह कमिटमेंट, वह प्रतिबद्धता आखिरी है। उससे कैसे वापस लौटोगे? कौन वापस लौटेगा? क्योंकि जो वापस लौट सकता था, उसे तो तुमने समर्पित कर दिया।

जब अर्जुन फिर सोचने लगा, कृष्ण के मन में बड़ी दया और करुणा उपजी होगी, कि यह पागल फिर विचार करने लगा! यह फिर चूक गया! एक अवसर दिया था कि बिना सोचे कह देता अब कि बस ठीक है, अब सोच लिया बहुत। सोच—सोचकर तो विषाद में पड़ा हूं। अब और मत भरमाओ मुझे। अब जो तुम्हारी मर्जी। तुम्हारे शरण आया हूं अनन्य भाव से आया हूं अब तुम ही मेरे प्राण हो; तुम ही मेरी आत्मा हो। तुम ही जहां चलाओगे, चलूंगा; न चलाओगे, न चलूंगा।

समर्पण तो अहंकार की आत्मघात अवस्था है। जैसे कोई अपनी गरदन काट दे। फिर जोड्ने का उपाय नहीं।

नहीं, लेकिन अर्जुन को सोचते देखकर कृष्ण को फिर कहना पड़ा, मन, वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व को तू मुझमें अर्पण कर दे, ऐसा करने से तू मुझ को प्राप्त होगा..।

और कोई उपाय नहीं है। नदी गिरे सागर में, तो ही सागर हो सकती है। बीज टूटे भूमि में, तो ही अंकुरित होगा।

यह मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करता हूं.....।

गुरु को ऐसी बातें भी शिष्य से कहनी पड़ती हैं, जिन्हें कहने की कोई जरूरत न थी। लेकिन शिष्य की अपनी दुनिया है। गुरु को शिष्य की भाषा में बोलना पड़ता है। कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी प्रतिज्ञा करनी पड़ती है शिष्य के सामने, कि मैं प्रतिज्ञा करता हूं। क्योंकि तुम केवल इसी तरह की बातें समझ सकते हो।

भरोसा तुम्हें नहीं है। अन्यथा प्रतिज्ञा करवाते? अन्यथा तुम कृष्ण को यह कहने का मौका दिलवाते कि मैं तुझे आश्वासन देता हूं? तुम्हारा बस चले, तो तुम जाकर कृष्ण को रजिस्ट्री आफिस में दस्तखत करवा लो स्टैम्प पर, कि लिख दो इस पर कि अगर न किया पूरा, तो अदालत से हरजाना वसूल कर लूंगा।

मैं तेरे लिए सत्य प्रतिज्ञा करता हूं......।

महाकरुणा तुम्हारी भूल के कारण, तुम्हारी नासमझी के कारण, तुम्हें खोजने के लिए तुम्हारे अंधेरे में भी उतरती है। तुम्हारी भाषा का भी सहारा लेती है। तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करती है। तुम्हें पाने के लिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को तुम्हारी जगह आना पड़ता है, ताकि तुम्हें ले जाया जा सके।

इसलिए सब धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तेरे को संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा; तू शोक मत कर।

अर्जुन सोचने लगा, फिर शोकग्रस्त हो गया। सोचने से विषाद आ जाता है। न सोचने से आनंद की वर्षा होती है, सोचने से विषाद घिर जाता है। सोचना ही विषाद है।

वह फिर विचार करने लगा, फिर शोक चारों तरफ छा गया, पाप का भय, पुण्य का लोभ, आकांक्षा। मारूं, न मारूं! करूं, न करूं! अपने हैं, पराए हैं! सब जाल फिर से खड़ा हो गया।

अंत— अंत तक, जब तक कि तुम छलांग ही नहीं ले लेते, संसार तुम्हें आखिरी दम तक पकड़ता चला जाता है। अठारहवां अध्याय आ गया। गीता का अंत करीब है। और थोड़े—से सूत्र बचे हैं। और अर्जुन अभी भी चूकता चला जा रहा है!

मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर। तू विषाद में मत उलझ, तू चिंता मत कर। तू सब धर्मों को छोड्कर, सब कर्मों के आश्रय को छोड्कर, सब धारणाएं छोड्कर, अनन्य भाव से मेरी शरण आ जा।

कृष्ण का निमंत्रण समर्पण का निमंत्रण है; मिटने की, पूरी तरह मिट जाने की, सब भांति खो जाने की पुकार है।

जब तक तू है, तब तक संसार है। जब तक तू है, तब तक मेरा है, पराया है। जब तक तू है, तब तक जन्म है, मृत्यु है। जब तक तू है, तब तक पाप और पुण्य है। वहां भीतर टूट गया मैं, तू मिटा; फिर न कोई पाप है, न कोई पुण्य है।

इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, ठीक ही कहते हैं। इससे तुम यह मतलब मत समझ लेना जो लोगों ने समझा है। लोग हमेशा गलत ही समझते हैं। लोगों ने यह समझा है कि बिलकुल ठीक। तो हम कृष्ण का नाम गुणगान करते रहें, वे सब पापों से हमें मुक्त कर देंगे। और पाप भी किए चले जाएं, क्योंकि जब मुक्त करने वाला ही मिल गया, तो अब पाप से क्या बचना!

तुम चालबाजी कर रहे हो; तुम कृष्ण का अर्थ ही न समझे। कृष्ण का कुल अर्थ इतना है कि अगर समर्पण पूरा है, तो पाप मिट गए; कोई मिटाता थोड़े ही है। वह तो तुम्हारी भाषा के कारण कहना पड़ रहा है कि मैं तुम्हारे पापों को मिटा दूंगा, तू शोक मत कर। कोई और ढंग कहने का नहीं है। अन्यथा कोई पाप मिटाता है! पाप बचते ही नहीं।

अहंकार के जाते ही पाप भी गए। वे तो अहंकार के ही संगी—साथी हैं, अहंकार के बिना बच ही नहीं सकते। और अहंकार के जाते ही सारा संसार रूपांतरित हो जाता है। वहां फिर एक ही बचता है। कौन करेगा पाप? किसके साथ करेगा पाप? वही मारने वाला, वही जिलाने वाला। वही मरने वाले में बैठा है, वही मारने वाले में बैठा है। सब हाथ उसके हैं। जिस हाथ में तलवार है, वह भी हाथ उसका है। और जिस गरदन पर तलवार गिरती है, वह गरदन भी उसकी है। फिर कैसा पाप? कैसा पुण्य?

एक मैं के जाते ही सब खो जाती है वह पुरानी शब्दों की दुनिया—पाप की, पुण्य की, विभाजन की, द्वंद्व की, अच्छे की, बुरे की, शुभ की, अशुभ की—सब खो जाती है। निर्द्वंद्व भाव उत्पन्न होता है।

यह अर्थ है कृष्ण का कि मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा। इसका यह मतलब नहीं है कि तू मजे से पाप कर, मैं तुझे मुक्त कर दूंगा! इसका कुल मतलब इतना ही है कि तू मैं को छोड़ दे, तू पाएगा कि पाप बचे ही नहीं। तभी तू समझ पाएगा कि न तो कोई माफ करता है, न कोई मिटाता है। पाप थे ही नहीं; तुम्हारी भ्रांति में तुमने उन्हें माना था कि वे हैं।

अहंकार छोड़ते ही कोई पाप कर ही नहीं सकता। सब पाप अहंकार से पैदा होते हैं। अहंकार छूटा, पाप की जड़ कट गयी। फिर कोई पाप के वृक्ष में न फल लगते हैं, न पत्ते लगते हैं, न फूल लगते हैं।

और अलग—अलग पत्तों को तोड्ने जो गए, वे नाहक भटके हैं। क्योंकि जड़ बनी रहती है, नए पत्ते निकल आते हैं। एक तोड़ो, दस निकल आते हैं। वृक्ष समझता है, तुम कलम कर रहे हो। वृक्ष और घना होता जाता है।

कृत्यों को, एक—एक कृत्य को काटने जाओगे—बुरे को काटू अच्छे को करूं—तुम भटकते ही रहोगे। जड़ को ही काट दो। जिसने जड़ को काटा, उसने अचानक पाया, पूरा वृक्ष ही गिर गया। अहंकार जड़ है, समर्पण उस जड़ को काट देना है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 16

 संसार ही मोक्ष बन जाए


   यदहंकारमाश्रित्य न योत्‍स्‍य इति मन्यसे।

मिथ्‍यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्थ्यां नियोक्ष्यति।। 59।।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छीस यन्महात् कीरष्यवशेउपि तत्।। 60।।

र्इश्वर: सर्वभूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। 61।।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्‍प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्‍स्‍यसि शाश्वतम।। 62।।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्माशह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्‍छसि तथा कुरु।। 63।।


और जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है, क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा। और हे अर्जुन, जिस कर्म को तू मोह से नहीं करना चाहता है उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा।

क्योंकि है अर्जुन, शारीररूप यंत्र में आरूढ़ हुए, अंपूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से, उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ, सब भूत—प्राणियों के ह्रदय में स्थित है।

इसलिए हे भारत, सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो? उस परमात्मा कीं कृपा से ही परम शांति को और सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

इस प्रकार यह गोयनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैने तेरे लिए कहा।  इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से अच्छी प्रकार विचार करके, फिर तू जैसा चाहता है? वैसा ही कर।



और जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो अर्जुन, यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

मनुष्य के सभी निश्चय मिथ्या हैं। तुम निश्चय कैसे करोगे? तुमने अपने जन्म का निश्चय नहीं किया, जीवन का निश्चय नहीं किया, तुमने अपनी मृत्यु का निश्चय नहीं किया। तुम हो, अपने निश्चय से नहीं। तुम हो विराट की लीला के एक अंग। तुम हो उस सागर की एक ऊर्मि, एक लहर। तुम्हारे सभी निश्चय मिथ्या हैं। कृष्ण ने कहा कि जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसा मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा...........।

ध्यान रखना, सवाल युद्ध का नहीं है, सवाल मैं का है—मैं युद्ध नहीं करूंगा। युद्ध कर या न कर, यह कृष्ण का जोर ही नहीं है। मैं को कृपा कर बीच में मत ला।

मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा।

तेरा होने का ढंग क्षत्रिय का है। तेरा शिक्षण, तेरे संस्कार, तेरी वृत्तियां, तेरे मनोभाव क्षत्रिय के हैं। लडना ही तू जानता है और भागने की कला तूने कभी सीखी भी नहीं है। तू भागेगा, तो बड़ा बेहूदा लगेगा।

अगर यह अर्जुन भाग ही जाता समझ लो, न सुनता कृष्ण की, वह तो सुन लिया, अधिकतर अर्जुन तो सुनते नहीं। अगर यह भाग ही जाता, तो क्या तुम सोचते हो, यह संन्यस्त हो जाता!

यह असंभव था। यह ध्यान भी लगाकर बैठता और इसे एक शेर आता हुआ दिखाई पड़ता, यह उठा लेता गांडीव अपना। यह भूल जाता कि यह संन्यस्त है, इसको गाडीव नहीं उठाना है। यह बैठा होता ध्यान करने और कोई चुनौती दे देता। कोई पास से निकल जाता। यह उबल पड़ता।

कृष्ण यह कह रहे हैं, तेरा सारा ढांचा युद्ध के लिए तैयार किया गया है। उसने तैयार किया है। तुझे गहन से गहन युद्ध की शिक्षा दी गयी है। तेरा रोआं—रोआं लड़ने में कुशल है। तू लड़ने के सिवाय कुछ जानता नहीं है। अगर तू शांत भी होकर बैठेगा, तो शांति के लिए युद्ध करेगा, लेकिन युद्ध करेगा। युद्ध करना तेरी नियति है।

इसलिए तू यह मत सोच कि मैं युद्ध न करूगा। यह तेरा मैं तेरे युद्ध का ही हिस्सा है।

अहंकार युद्ध का स्रोत है। यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

और हे अर्जुन, जिस कर्म को तू मोह से नहीं करना चाहता है, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा।

यह तेरा सिर्फ मोह है, जो तू कहता है कि मेरे प्रियजन खड़े हैं चारों तरफ। इस तरफ, उस तरफ, मेरे गुरु हैं, मेरे दादा हैं, मेरे भाई हैं, मेरे चचेरे भाई हैं, मेरे मित्र हैं, यह सब मेरे ही परिवार का फैलाव खड़ा है। यह तू मोहग्रस्त है। अगर सोच ले, इसमें तेरे परिवार के लोग न होते, उस तरफ गुरु न होते, भीष्म न होते, तेरे चचेरे भाई न होते; तेरा सारा परिवार तेरी तरफ होता और उस तरफ विपरीत लोग होते जिन से तेरा कोई सम्बन्ध नहीं होता, तो तू उन्हें ऐसे काट देता जैसे लोग मूलियों को काट देते हैं। तेरे मन में जरा भी सवाल न उठता हिंसा, अहिंसा का। वह तेरा सवाल भी नहीं है।

यह मोह है। तू कुछ अहिंसक नहीं हो गया है। तू यह कह रहा है, ये मेरे हैं, इन्हें कैसे काटू? काटने से तुझे कोई विरोध नहीं है। मेरे, ममत्व का आग्रह है, जो तू डांवाडोल हो रहा है। यह तेरे मन में कोई अहिंसा का उदय नहीं हुआ है जैसे बुद्ध और महावीर के मन में हुआ था। तेरे मन में कोई महाकरुणा नहीं आ गयी है। तेरे भीतर सिर्फ मोह पैदा हुआ है कि मेरे कट जाएंगे, अपने कट जाएंगे। इनसे क्या लड़ना। भोग लेने दो इन्हीं को, मैं जंगल चला जाता हू। लेकिन तू जा न पाएगा। तू जंगल में भी जाएगा, तो तू क्षत्रिय ही रहेगा।

मोह से कहीं कोई मोक्ष को उपलब्ध हुआ है? और मोह से कहीं कोई संन्यस्त हुआ है? मोह ही तो संसार है। तो तू उलटी बातें कर रहा है। तू गंगा को उलटी बहाने की कोशिश कर रहा है। यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

क्योंकि हे अर्जुन, शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए, संपूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से, उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ, सब भूत—प्राणियों के हृदय में स्थित है।

यह तू बात ही मत उठा, मेरे और तेरे की। एक ही उपस्थित है, तेरे में भी और उनमें भी। मेरा और तेरा सब झूठ है, मिथ्या है। एक ही मौजूद है। सारा खेल उसका है। वह लड़ाना चाहता है, तो लड़ाएगा। उसकी मर्जी होगी इस युद्ध से कुछ फलित करने की। वह बचाना चाहता है, तो बचाएगा। तू उस पर छोड़ दे।

हे भारत, सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से ही परम शांति को, सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

अहंकार से, मोह से, मिथ्या से कभी कोई उस शांति को उपलब्ध नहीं हुआ, न उस परम धाम को किसी ने पाया है। अपने को हटा ले, तू ही अड़चन है। तेरे कारण ही तेरे मन में अशांति है। युद्ध के कारण नहीं है अशांति, तेरे कारण है।

यह भीतर मैं है, जो कहता है, बाहर जो हैं, वे मेरे हैं। अगर मैं भीतर गिर जाए, तो कौन मेरा है! कौन तेरा है! फिर सभी उसके हैं। यह भी कहना ठीक नहीं कि सभी उसके हैं, सभी वही है।

इस प्रकार यह गोपनीय से अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिए कहा। इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से अच्छी प्रकार विचार करके, फिर तू जैसे चाहता है, वैसे ही कर।

कृष्ण कहते हैं, गोपनीय से अति गोपनीय........।

यह अत्यंत गुप्त है। जो साधारणत: कहा नहीं जाता, क्योंकि साधारणत: इसे समझना बहुत मुश्किल है।

जो बातें कही जाती हैं, वे हैं, या तो संसार में रहो—नास्तिक समझाते हैं, अधार्मिक समझाते हैं। या संन्यस्त हो जाओ—धार्मिक समझाते हैं, आस्तिक समझाते हैं। वह साधारण धर्म है। वह बातचीत समझ में आती है। वह तर्क सीधा—सीधा है।

मैंने तुझे गोपनीय बात कही, बड़ी गुह्य, गुप्त, इसोटेरिक। ऐसी बात कही, जो अत्यंत आत्मीयता में ही कही जा सकती है। जहां गुरु और शिष्य का हार्दिक मिलन होता है, वहीं कही जा सकती है। मैंने तुझसे उपनिषद कहा।

उपनिषद का अर्थ होता है, गुप्त ज्ञान। इसलिए गीता का हर अध्याय अंत में कहता है, गीता का अठारहवां संवाद उपनिषद समाप्त। उपनिषद का अर्थ होता है, जहां गुरु और शिष्य इतने आत्मीय हैं कि दो नहीं हैं, जहां एक ही चेतना दोनों में बहती है। वहीं जीवन की गुह्यतम बातें कही जा सकती हैं।

गहन श्रद्धा और प्रेम में मैंने तुझसे गोपनीय से गोपनीय ज्ञान कहा। इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से.......।

इसमें जल्दी मत करना। और जो मैंने कहा है, उसे उसकी समग्रता में देखना। कोई एक हिस्सा मत चुन लेना, जो कि हमारे मन की आदत है।

तुम्हें जो ठीक लगता है, वह चुन लेते हो; जो ठीक नहीं लगता, वह छोड़ देते हो। तब भ्रांति होगी, मिथ्या हो जाएगा निर्णय।

जो मैंने कहा है, उसको उसकी पूरी समग्रता में, अच्छी प्रकार से विचारकर, फिर तू जैसा चाहता है, वैसा ही कर।

कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि जो मैं कहता हूं वह तू कर। कोई गुरु नहीं कहता। सारा नक्शा साफ कर दिया है। पर कृष्ण कहते हैं, ठीक से विचार करके! क्योंकि बहुत संभावना यह है कि तू बिना विचार किए जो तू कहे चला जा रहा है, बिना सोचे, बिना मनन किए, बिना ध्यान किए, अगर तूने उस पर ही आग्रह रखा, तो तू पूरी दृष्टि को न फैला सकेगा और स्थिति को उसकी समग्रता में न देख सकेगा। सारी बात मैंने तुझसे कह दी, अब तू पूरी बात को ठीक से विचार कर ले।

यह बड़ा मजेदार शब्द है, विचार। जब मन में बहुत विचार होते हैं, तब तुम विचार कर ही नहीं सकते। जब मन में कोई विचार नहीं होता, तभी विचार कर सकते हो। जब मन में ही विचार होते हैं, तो विचार कैसे करोगे? यह तो ऐसा हुआ कि दर्पण में बहुत—से चित्र पहले से ही बने हैं, और तुम भी उसमें खड़े हो गए। सब अस्तव्यस्त, अराजक होगा। दर्पण खाली है, तुम सामने खड़े हुए, प्रतिबिंब बनता है।

विचार की दशा विचारों की दशा नहीं है। विचार की दशा ध्यान की दशा है। विचारों की दशा तो तरंगों की दशा है। झील पर तरंगें ही तरंगें हैं, चांद टूट—टूट जाता है, प्रतिबिंब बनता नहीं। हजार चांद होकर बिखर जाते हैं। चांदी फैल जाती है पूरी झील पर। लेकिन चांद कहीं दिखाई नहीं पड़ता।

फिर तरंगें सो गयीं, लहरें खो गयीं, हवाएं बद हो गयीं, झील मौन हुई, चांदी सिकुड़ने लगी चांद की, खंड जुड्ने लगे। एक प्रतिबिंब रह गया। झील दर्पण बन गयी।

विचार तो तभी संभव है, जब सारे विचार खो जाएं। यह बड़ी उलटी बात लगेगी सुनकर। क्योंकि तुम सोचते हो, बहुत विचार हों, तभी विचार होता है।





बहुत विचारों के कारण ही विचार नहीं होता। विचार की अवस्था विचारों की दशा नहीं है। विचार की अवस्था निर्विचार अवस्था है। तब अंतर्दृष्टि होती है, तब दर्शन होता है, दिखाई पड़ता है।

तो कृष्ण ने कहा कि सब मैंने तुझसे कह दिया। कुछ कहने से बचाया नहीं, मुट्ठी पूरी खोल दी है। जो नहीं कहा जाना चाहिए, वह भी कहा है।

क्यों ऐसा कृष्ण कहते हैं कि गुप्त है यह ज्ञान? यह नहीं कहा जाना चाहिए, ऐसा ज्ञान है। क्योंकि इसमें खतरे हैं।

खतरे ये हैं कि आदमी संसार में रहे, हो संसारी ही, और समझने लगे कि मैं संन्यासी हो गया। करे तो कर्म वासना से, लेकिन अपने को धोखा दे कि मेरी कोई फलाकांक्षा नहीं है। हत्या तो करे खुद, कहे, परमात्मा ने करवाई! चोरी करने खुद जाए; और कहे, मैं क्या करूं; सब उसी पर छोड़ दिया है। अब वह जो करवाता है!

इसलिए यह ज्ञान गुप्त है और नहीं कहने योग्य है। वह भी मैंने तुझसे कहा, ताकि सारी स्थिति तुझे साफ हो जाए। फिर तू विचार से देख ले। फिर तू ध्यान से देख ले। और फिर तू जैसा चाहे, वैसा कर। गुरु तो सारी बात स्पष्ट कर देता है और हट जाता है। असदगुरु, स्पष्ट तो कुछ नहीं करता, छाती पर सवार हो जाता है। सदगुरु सारी बातें साफ कर देता है, फिर हट जाता है। फिर कोई सवाल न रहा। अब तेरे पास आंख दे दी, देखने का ढंग दे दिया, अब तू देख ले। और उस देखने से, उस दृष्टि से ही जो तेरे भीतर आविर्भूत हो जाए, उसके अनुसार चल।

लोग सोचते हैं, कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में उतरवा दिया; गलत  बात है। लोग सोचते हैं, कृष्ण ने समझा—समझाकर युद्ध में डलवा दिया; गलत बात है। कृष्ण ने तो सिर्फ स्थिति साफ कर दी। दोनों मुट्ठिया खुली खोल दीं; कुछ छिपाया नहीं। और फिर अर्जुन को परिपूर्ण रूप से स्वतंत्र कर दिया कि अब तू निर्णय कर ले।

अगर अर्जुन यह तय करता कि मैं युद्ध से जाता हूं तो भी कृष्ण प्रसन्न होते। अर्जुन ने अगर यह तय किया कि मैं युद्ध करता हूं तो भी कृष्ण प्रसन्न हैं। कृष्ण की प्रसन्नता इसमें है कि अर्जुन ने देखने की क्षमता पा ली।

और जब अर्जुन ने गौर से देखा होगा, तो पाया होगा, अपने किए कुछ भी तो नहीं होता। कभी नहीं हुआ है। वह बड़ी से बड़ी भ्रांति है कि मेरे किए कुछ होता है। सब बिना किए हो रहा है, समग्र के किए हो रहा है। जैसे यह देखा होगा, यह दृष्टि उठी होगी, फिर अर्जुन ने कहा, अब जो हो तेरी मर्जी।

मर्जी युद्ध की थी, युद्ध हुआ। मर्जी युद्ध की न होती, अर्जुन संन्यस्त हो जाता। लेकिन अर्जुन की मर्जी से नहीं हुआ, अर्जुन मुक्त है। अर्जुन ने उसकी मर्जी पर अपने को छोड़ दिया। यही उसका संन्यास है।

संन्यास यानी परमात्मा के प्रति समर्पण। वह संसार में रखे, तो संसार ही संन्यास। वह संसार से हटा दे, तो हट जाना संन्यास। उसके साथ कोई ऐसे चलने लगे, जैसे नदी में कोई बहने लगे, तेरे न। किसी घाट पर पहुंचने की आकांक्षा न रही। जहां पहुंचा दे। पहुंचा दे, तो वही घाट। मझधार में डुबा दे, तो वही मंजिल। पूर्ण समर्पण  संन्यास है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 15

 गीता—पाठ और कृष्‍ण–पूजा


ब्रह्मभूत: प्रसन्‍नत्‍मा न शोचिई न काङ्क्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते यराम्।। 54।।

भक्त्‍या मामीभजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत:।

ततो मां तत्‍वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।

सर्क्कर्माण्यीप सदा कुर्वाणो मद्व्ययाश्रय:।

मत्प्रसादादवानोति शाश्वतं पदमध्ययम्।। 56।।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍पर:।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्‍चित्त: सततं भव।। 57।।

मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तश्ष्यिसि।

अथ चेत्त्वमहंकारान्‍न श्रोष्यीस विनङ्क्ष्‍यसि।। 58।।


फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्‍ति को प्राप्त होता है।

और उस परा— भक्‍ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा उस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे मे प्रविष्ट हो जाता है।

और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों की सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।

इसिलए है अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को आलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।

इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्‍यु आदि सब सकंटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।



फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्ति को प्राप्त होता है।

परा—भक्ति

भक्ति की ऐसी अवस्था है, जहा कुछ भी मांगने को शेष न रह जाए। जहा भक्ति ही अपने आप में अपना आनंद हो, जहा भक्ति साधन न हो, साध्य हो जाए वहा परा— भक्ति हो जाती है। अगर तुम कुछ भी मांगते हो, तो भक्ति अभी परा— भक्ति नहीं है। अगर तुमने कहा, मोक्ष मिल जाए; तुमने अगर इतना भी कहा कि आनंद मिल जाए, सत्य मिल जाए, तो भी अभी भक्ति परा— भक्ति नहीं है। अभी मांग जारी है। अभी तुम भिखारी की तरह ही भगवान के द्वार पर आए हो।

और वहा तो स्वागत उन्हीं का है, जो सम्राट की तरह आते हों, कुछ भी न मांगते हों। वह इतना ही है कि बस, भक्ति करने का अवसर मिल जाए, काफी है। भक्ति ही अपने आप में इतना महाआनंद है, इतना बड़ा सत्य है, कि कुछ और चाह नहीं; तब परा— भक्ति।

उस परा— भक्ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा जिस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।

और परा— भक्ति के क्षण में भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्ति में अलग रहते हैं। भक्ति में भक्त भक्त है, भगवान भगवान है। भक्त की आकांक्षा है कुछ अभी। और आकांक्षा ही दोनों को विभाजित करती है।

अभी भक्त पूरा नहीं खुला है, अभी अपनी मांग है। अभी अपने मन की कोई सूक्ष्म रेखा शेष रह गयी है। अभी कोई अपनी आकांक्षा का बारीक बीज बचा है, जल नहीं गया है। अभी भगवान मिल जाए...... अगर तुम अपने से पूछो, अभी भगवान मिल जाए, तो तुम उससे क्या मांगोगे? क्या कहोगे? अगर तुम गौर से देखोगे, तुम्हारी सब वासनाओं के बीज उभरने लगेंगे। मन कहने लगेगा, यह मांग लेंगे, वह मांग लेंगे। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। हजार बातें मन मांगने लगेगा।

तो अभी तो भक्ति भी पैदा नहीं हुई। भक्ति तब पैदा होती है, जब मन मुक्ति मांगें, कि इस संसार से ऊब गया, थक गया। अब और जन्म, जीवन नहीं चाहता। अब परम विश्राम में लीन हो जाना चाहता हूं मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति; तब भक्ति।

लेकिन मांग अभी है। जब यह मांग भी खो जाती है, जब तुम मुक्ति भी नहीं मांगते। जब तुम कहते हो, जो है बिलकुल ठीक है, जैसा है बिलकुल ठीक है। तुम्हारे मन में अस्वीकार की कोई रेखा भी नहीं रही। इस क्षण तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। ऐसी परम तृप्ति का क्षण परा— भक्ति है।

उस क्षण परमात्मा और भक्त में कोई फासला नहीं रह जाता। सब सीमाएं टूट जाती हैं। उसकी तरफ से तो कोई सीमा कभी है ही नहीं। तुम्हारी तरफ से थी, वह तुमने हटा ली।

ऐसे क्षण में मेरे में तत्‍क्षण प्रवेश कर जाता है।

एक क्षण भी नहीं खोता।

और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त होता है।

कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, कोई कर्म त्यागना नहीं पड़ता। सब करते हुए! और यही सौंदर्य है कि सब करते हुए मुक्त हो जाओ। भागकर मुक्त हुए, वह कायर की मुक्ति है, डरे हुए की मुक्ति है, भयभीत की मुक्ति है। और भागकर मुक्त हुए, तो पूरे मुक्त कभी भी न हो पाओगे। जिससे तुम भागे हो, उससे थोड़ा बंधन बना ही रहेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिसने जीवन में भक्ति के सूत्र को समझ लिया और मेरे ऊपर सब छोड़ दिया, वह सब कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त हो जाता है। उसे कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, उससे सब छूट जाता है।

छोड़ना और छूट जाना, बड़ा फासला है दोनों में। छोड़ने में तो तुम होते हो, छूट जाने में तुम नहीं होते। और जहां तुम होते हो, वहां अहंकार निर्मित होता ही रहेगा। त्यागी हो जाओगे, तो त्याग का अहंकार आ जाता है।



इसलिए हे अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को अवलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।

इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।

एक ही कारण है न सुनने का, बहरा होने का, वह अहंकार है। अगर तुम्हें यह पहले से ही पता है कि तुम जानते हो, तो फिर तुम सुन नहीं सकते। तुम ज्ञानी हो, सुन नहीं सकते।

अहंकार बहरापन है। वह एकमात्र बधिरता है। बहरे भी सुन लें, अहंकारी नहीं सुन सकता। कोई बहरा हो, तो जरा जोर से बोलकर बोल दो, चिल्लाकर बोल दो। लेकिन अहंकारी की बधिरता ऐसी है कि कोई भी चीज प्रवेश नहीं कर सकती। अहंकार लौह—कवच है। तो कृष्ण कहते हैं, अगर तू केवल अहंकार में घिरा रहा, समर्पण न कर सका, और मेरी बात तुझे सुनायी न पड़ी, तो तू नष्ट हो जाएगा।

नष्ट होने का इतना ही अर्थ है, यह जीवन फिर व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे बहुत जीवन व्यर्थ और नष्ट हुए। अगर इस बार तू सुन ले, तो यह जीवन सार्थक हो जाए, सुकृत हो जाए, नष्ट न हो।

जिस दिन भी तुम अहंकार को छोड्कर देख पाओ, सुन पाओ, हो पाओ, उसी दिन जीवन सार्थक हो जाता है। उसी दिन तुम्हें जीवन का शास्त्र समझ में आ जाता है। फिर गीता पढ़ी हो, न पढ़ी हो; कुरान सुना हो, न सुना हो; कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर ही वह भगवद्गीता का नाद शुरू हो जाता है।

कृष्ण तुम्हारे भीतर हैं। वहा से अभी गीता फिर पैदा हो सकती है। सिर्फ तुम्हारे अहंकार के टूटने की बात है।

समर्पण सूत्र है, अहंकार बाधा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 14

 पात्रता और प्रसाद


अमक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यतिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगव्छीत।। 49।।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाम्नोति निबोध मे।

समामेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या पर।।। 50।।

बुद्धया विशुद्धया युक्‍तो धृत्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्त्रिषयांस्‍त्‍यक्‍त्‍वा राग्द्धेशै व्युदस्य च।। 51।।

विविक्तसेवी लथ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगयरो नित्यं वैराग्य समुपाश्रित:।। 52।।

अहंकार बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुव्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 53।।


तथा हे अर्जुन, सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्‍पृहारहित और जीते हुए अंतकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात क्रियारहित हुआ शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा की प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसलिए हे कुंतीपुत्र, अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सच्चिदानंदधन ब्रह्म को प्राप्त होता है तथा जो तत्वज्ञान की परा— निष्ठा है, उसको भी तू मेरे से संक्षेय में जान।

हे अर्जुन, विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला तथा मिताहारी जीते हुए मन, वाणी व शरीर वाला और दृढ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान— योग के परायण हुआ सात्‍विक धारणा से अंतःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग—द्वेष की नष्ट करके तथा अहंकार, बल घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह, को त्यागकर ममता रहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।


तथा हे अर्जुन, आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात क्रियारहित हुआ शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा की प्राप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

कृष्ण को सभी स्वीकार है। उनके स्वीकार पर कोई शर्त और सीमा नहीं है। वे बड़े बेशर्त आदमी हैं। वे कहते हैं, संन्यास की कोई जरूरत नहीं है अर्जुन। तू जहां है, वहीं कर्म को करते हुए, फलाकांक्षा के त्याग से त्याग सिद्ध हो जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जो संन्यास ले लेते हैं, दूर हिमालय में खो जाते हैं, स्वर्ग में चले जाते हैं, उन्हें परमात्मा नहीं मिलता।

हम जल्दी ही धारणाएं खड़ी कर लेते हैं। एक तरफ लोग हैं, जो कहते हैं, जब तक संन्यस्त होकर सब न छोड़ दोगे, तब तक मोक्ष न मिलेगा। इनके विपरीत दूसरी तरफ लोग हैं, वे कहते हैं, संन्यस्त का सवाल ही क्या है! संसार में ही रहना है। कर्म करना है, परमात्मा पर कर्ता — भाव छोड़ देना है। बस, मोक्ष मिल जाएगा।

जो दूसरी बात मानते हैं, उनको संन्यासी गलत मालूम होता है। जो पहली बात मानते हैं, उनको दूसरा आदमी गलत मालूम होता है। कृष्ण का कोई भी पक्षपात नहीं है। कृष्ण कहते हैं, कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जिनसे परमात्मा संन्यास ही करवाना चाहता है। 

तो कृष्ण कहते हैं, संन्यासी भी उपलब्ध हो जाता है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तू ऐसा मत सोच लेना कि संन्यासी उपलब्ध होता ही नहीं। उपलब्ध होने का सूत्र न तो संन्यास है, न गृहस्थ है। उपलब्ध होने का सूत्र फलाकांक्षा का त्याग है। फिर चाहे तुम घर में फलाकांक्षा का त्याग कर दो, अगर तुम्हें घर मौजूं आए।

कुछ लोग हैं, जिन्हें बेघर होना ही मौजूं आता है। वह उनके स्वभाव में है। वह उनका स्वधर्म है। उनको भी रोकना उचित नहीं है। वे जब तक बेघर न हो जाएं, तब तक उन्हें ठीक ही न लगेगा। वे स्वभाव से बेघर, स्वभाव से परिव्राजक, भटकने वाले हैं। उनको घर में बांध दोगे, तो मौत हो जाएगी। उनके लिए घर कारागृह मालूम होगा।

जैसे संसार में स्त्रियां हैं और पुरुष हैं; दोनों विपरीत हैं, दोनों भिन्न हैं, दोनों के जीवन—कोण और मनस अलग—अलग हैं। ऐसे ही जीवन में हर पहलू पर विपरीत लोग हैं। कुछ हैं, जो गृहस्थ हैं। कुछ हैं, जो संन्यस्त हैं। वह उनके स्वभाव में है।

तो सारे लोगों को जबरदस्ती संन्यासी बना दो, तो उपद्रव होगा, क्योंकि उसमें कई गृहस्थ फंस जाएंगे। अगर गृहस्थ को तुमने संन्यासी बना दिया, वह जल्दी ही संन्यास में भी गृहस्थ— धर्म को उपलब्ध हो जाएगा। वह जल्दी ही अपने संन्यास को भी घर बना लेगा। वहां भी सारी दुनिया धीरे— धीरे, धीरे— धीरे आ जाएगी; बच न सकेगा। उसका कोई उपाय नहीं है। उसके गृहस्थ का सूत्र उसके भीतर है। बचने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम उसे जहां बैठा दोगे, वहीं वह अपना काम शुरू कर देगा।

संसार में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनको हम गृहस्थ कहें; और एक, जिनको हम संन्यस्त। वे स्त्री—पुरुषों जैसे ही हैं। उन दोनों का तालमेल है।

और संन्यस्त को भी अगर जीना हो, तो उसको भी कुछ गृहस्थ चाहिए। 

मेरे देखे, संसार में दो तरह के लोग हैं, संन्यस्त और गृहस्थ। अगर तुम संन्यासी को घर में भी रख दो, तो थोडे दिन में घर आश्रम जैसा हो जाएगा। क्योंकि वह ज्यादा धन कमा नहीं सकता; वह दौड़ ही उसके भीतर नहीं है, वह स्पृहा नहीं है। कुछ मिल भी जाएगा, तो बांट आएगा। बांटने में ज्यादा रस है, इकट्ठा करने में रस कम। संन्यासी को घर में रख दो, तो घर थोड़े दिनों में आश्रम और धर्मशाला की शक्ल ले लेगा। गृहस्थ को तुम मंदिर में बिठा दो, थोड़े दिन में पाओगे, मंदिर दुकान हो गया। क्योंकि हमारे भीतर बीज हैं।

और बड़ी कठिनाई यह है कि अक्सर विपरीत में आकर्षण होता है। जो गृहस्थ है, उसको आकर्षक लगता है संन्यासी। जो संन्यस्त है, उसको आकर्षक लगता है गृहस्थ। और यह विपरीत का आकर्षण भटका देता है। अपने को ठीक से पहचानना जरूरी है कि मेरी वृत्ति क्या है, मेरा स्वभाव क्या है, मेरा गुणधर्म क्या है।

इसको ही कृष्ण स्वधर्म की पहचान कहते हैं। वे कहते हैं, स्वधर्मे निधन श्रेय: —अपने धर्म में मर जाना बेहतर है।

इसका यह मतलब मत समझना कि हिंदू रहकर मर जाना बेहतर, कि मुसलमान रहकर मर जाना बेहतर। इससे इन धर्मों का कोई संबंध नहीं है। स्वधर्म का अर्थ है जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी प्रकृति है, उसमें मर जाना भी बेहतर है। क्योंकि प्रकृति को तृप्त करते अगर तुम मरे, तो मृत्यु भी महाशांति और महासंतोष और समाधि बन जाती है।

और परधर्म बहुत भयावह है, कृष्ण कहते हैं, कि दूसरे धर्म में चाहे कितना ही आकर्षण मालूम पड़े, वह तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे स्वभाव से मेल नहीं खाता। उसमें उलझना मत, अन्यथा तुम अड़चन में पड़ जाओगे। तब तो जीए भी, तो भी कष्ट ही रहेगा। पूरा जीवन नर्क हो जाएगा।

लेकिन कृष्ण पक्षपाती नहीं हैं। वे कहते हैं, जहां तुम हो, जैसा तुम्हारा भाव है; अगर तुम कर्म में रहना सरल पाते हो, सुगम पाते हो, तो फलाकांक्षा छोड़ दो, काफी है। अगर तुम कर्म का त्याग ही सुगम पाते हो, तो कर्म का त्याग भी कर दो, लेकिन ध्यान रखना, कर्म के त्याग में भी फलाकांक्षा पैदा न हो, क्योंकि मूल बात फलाकांक्षा है।

कहीं संसार को त्यागकर मत बैठ जाना। कि अब मोक्ष मिला, अब मोक्ष मिला, अब मिलना चाहिए! फल मिलने में देर हो रही है! परमात्मा अभी तक क्यों द्वार पर नहीं आया! मैं इतना सब त्याग करके चला आया हूं!

सूत्र है, फलाकांक्षा का त्याग। चाहे घर में, चाहे संन्यास में, चाहे कर्म में, चाहे अकर्म में; चाहे बाजार में, चाहे हिमालय में, एक बात ध्यान रखना कि फलाकांक्षा छूट जाए, कर्ता का भाव छूट जाए।

हे अर्जुन, आसक्तिरहित, स्पृहारहित, जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है।

हे कुंतीपुत्र, अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होता है तथा जो तत्वज्ञान की परा—निष्ठा है, उसको भी तू मुझसे जान।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, मिताहारी, जीते हुए मन, वाणी व शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान—योग के परायण हुआ सात्विक धारणा से अंतःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग—द्वेषों को नष्ट करके, अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह को त्यागकर ममतारहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य होता है।

बहुत—सी बातें कृष्ण इस सूत्र में कहे हैं। जो आधारभूत हैं, उन्हें खयाल ले लें।

स्पृहारहित.......।

जिसकी दूसरे से कोई ईर्ष्या नहीं है। जब तक तुम्हारी दूसरे से कोई स्पृहा है, प्रतिस्पर्धा है, तब तक तुम इसी संसार की किसी चीज की खोज कर रहे हो। क्योंकि इस संसार मे चीजें कम हैं, चाहने वाले ज्यादा हैं। इसलिए हर चीज पर संघर्ष है।

परमात्मा में संघर्ष की कोई जरूरत नहीं है। चाहने वाले हैं ही नहीं; और परमात्मा बहुत है। और परमात्मा को एक चाहे, हजार चाहें, इससे परमात्मा खंडित नहीं होता। इसलिए स्पृहा की वहां कोई भी जरूरत नहीं है।

जहां तक स्पृहा है, वहां तक संसार है। तुम परमात्मा को सीधा ही चाहना। किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा का कोई प्रश्न मत उठाना। वहां इतना है कि सभी चाहें, तो भी पूरा न होगा।

उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। कितना ही उसमें से लेते जाओ, चुकेगा नहीं। इसलिए घबड़ाना मत और स्पृहा मत करना।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त......।

विचार से भरी बुद्धि अशुद्ध बुद्धि है। बुद्धि तो है, लेकिन धुएं से दबी है। जैसे ज्योति जलती हो दीए की, और धुएं में घिरी हो। विशुद्ध बुद्धि का अर्थ है, जहां धुआं खो गया, विचार न रहे। सिर्फ ज्योति रह गई, सिर्फ बुद्धि का शुद्ध स्वरूप रह गया।

एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला.........।

और जैसे—जैसे व्यक्ति कर्ता का भाव छोड़ता है, विचार छोड़ता है, वैसे—वैसे उसके भीतर एकांत का उदय होता है।

अभी तो तुम सदा चाहते हो, दूसरा, भीड़, समाज। अकेले हुए कि डरे। अकेले हुए कि लगता है, क्या करें, क्या न करें! अकेले में ऊब आती है। अपने से साथ होने को तुम राजी ही नहीं हो। और जो अपने साथ होने को राजी नहीं है, वह परमात्मा के साथ न हो सकेगा। क्योंकि अंततः अपने साथ होना ही परमात्मा के साथ होना है। क्योंकि वह तुम्हारे आत्यंतिक जीवन का सारभूत अंग है। वह तुम्हारा केंद्र है।

एकांत, शुद्ध देश का सेवन करने वाला, मिताहारी, जीते हुए मन, वाणी और शरीर वाला, दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष........।

क्या है दृढ़ वैराग्य? कच्चा वैराग्य ऐसा वैराग्य है कि अभी तुमने राग की पीड़ा भी न पाई थी और छोड़ दिया संसार। जरा—सी कुछ अड़चन हुई और भाग खड़े हुए संसार से। यह कच्चा वैराग्य काम न आएगा। तुम वापस लौट आओगे। संसार तुम्हें बुलाता रहेगा। जीवन को ठीक से जान लेना, उसकी पीड़ा को पूरा ही भोग लेना, उसके दुख को रोएं—रोएं में उतर जाने देना, ताकि उसकी आकांक्षा शून्य हो जाए। जब कोई ठीक से जल जाता है संसार में, तभी परमात्मा के योग्य होता है।

दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान—योग के परायण हुआ......।

और करो तुम कुछ भी—उठो, बैठो, सोओ, चलो, चुप रहो, बोलो—पर ध्यान की सतत धारा भीतर बहती रहे, होश बना रहे। भोजन करो तो होशपूर्वक, राह पर चलो तो होशपूर्वक। ऐसे शराबी की तरह तुम्हारा जीवन न हो, मूर्च्छा न हो, जागा हुआ हो, जो भी तुम करो। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य के मनके में ध्यान समा जाए, ध्यान का धागा पिरो जाए। तो ही वह जो तत्वज्ञान की परा—निष्ठा है सच्चिदानंदघन ब्रह्म, वह उपलब्ध होता है।

अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह को त्यागकर ममतारहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य होता है।

परमात्मा तो इसी क्षण मिल सकता है; तुम तैयार नहीं हो।

लोग मुझसे पूछते हैं, परमात्मा को कैसे पाएं? मैं उनसे कहता हूं यह पूछो ही मत। तुम इतना ही पूछो कि हम परमात्मा के योग्य कैसे बनें। तुम जिस क्षण योग्य हो जाओगे, वह मिला ही हुआ है। लेकिन यह कोई पूछता ही नहीं कि हम परमात्मा के कैसे योग्य बनें। ऐसा तो हम मानकर ही चलते हैं कि हम तो योग्य ही हैं; परमात्मा कैसे मिले! और अगर नहीं मिलता, तो हम कहते हैं, परमात्मा है ही नहीं। होता तो मिलता।

परमात्मा के न मिलने से हमें यह बोध नहीं होता कि हो सकता है, हम पात्र न हों, योग्य न हों। अंधा कहता है, प्रकाश होगा ही नहीं, इसलिए मुझे दिखाई नहीं पड़ता। बहरा कहता है, शब्द होते ही न होंगे, संगीत है ही नहीं, इसीलिए तो मुझे सुनाई नहीं पड़ता।

तुम भी कहते हो, परमात्मा होगा ही नहीं, इसीलिए तो मुझे मिलता नहीं। अपने को तो तुम मान ही लेते हो कि आंख वाले हो, कान वाले हो, पात्र हो। वहीं भूल हो जाती है।

अगर परमात्मा न मिले, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं। अगर आनंद न मिले, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं। अगर जीवन में अमृत का स्वाद न आए, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं।

यहीं से फर्क हो जाता है दर्शन और धर्म का। दार्शनिक खोज में निकल जाता है, परमात्मा है या नहीं। और धार्मिक अपनी पात्रता को निर्मित करने लगता है कि मैं पात्र हूं या नहीं। और दार्शनिक खोजता ही रहता है, कभी पाता नहीं; धार्मिक पा लेता है।

तुम्हारी पात्रता ही अंततः परमात्मा का मिलन बनेगी। वह तो मौजूद ही है। शायद तुम्हारी आंख के सामने, आंख के पीछे, आस—पास, सब तरफ उसने ही तुम्हें घेरा हुआ है।

कबीर ने कहा है कि मुझे बड़ी हंसी आती है यह देखकर कि मछली पानी में प्यासी है। चारों तरफ पानी ने घेरा हुआ है, फिर भी मछली प्यासी है।





तुम्हारे चारों तरफ वही है, जिसको तुम खोज रहे हो। तुम हाथ हिलाते हो, तो उसी में। तुम बोलते हो, तो उसी में। तुम चलते हो, तो उसी में। तुम सोते हो, तो उसी में। तुम उसी से आए हो, उसी में खो जाओगे। और पूछते हो, वह कहां है?

निश्चित ही, तुम्हारे पास वह संवेदनशील हृदय नहीं है, जो उसे पहचान ले, वह संवेदनशील आंख नहीं है, जो उसे देख ले, वह संवेदनशील हाथ नहीं है, जो उसे छू ले।

इसलिए तुम परमात्मा के संबंध में प्रश्न ही मत उठाना, अपनी पात्रता के संबंध में ही प्रश्न उठाना। और जिसने भी अपनी पात्रता के संबंध में प्रश्न उठाया, वह एक दिन परमात्मा को पाने वाला हो ही गया। और जो परमात्मा के संबंध में पूछता रहा, एक न एक दिन उसे यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि परमात्मा नहीं है। क्योंकि जब तुम खोजोगे, न पाओगे; खोजोगे, न पाओगे; हर तरह से उपाय करोगे, न पाओगे; अंततः नास्तिकता हाथ लगेगी। ईश्वर पर ध्यान दिया, तो नास्तिक हो जाओगे। अपने पर ध्यान दिया, तो आस्तिक होना सुनिश्चित है।

इसलिए कुछ ऐसे भी आस्तिक पृथ्वी पर हुए, जिन्होंने ईश्वर की बात ही न की; बुद्ध और महावीर ने चर्चा ही नहीं उठाई। उसकी कोई बात उठानी ही बेकार है। उन्होंने तो सिर्फ अपनी ही बात की। अपने को शुद्ध किया, निर्विकार किया, अपने भीतरी कुंवारेपन को उपलब्ध किया। उसी क्षण सब मिल गया।

बुद्ध से जब भी कोई पूछता है ईश्वर के संबंध में, वे कहते हैं, व्यर्थ के प्रश्न मत उठाओ। यह बकवास छोड़ो। यह बात करने की ही नहीं है। तुम तो अपनी बात करो। तुम्हारे पात्र को कैसे शुद्ध किया जाए, यही काफी है।

यहां पात्र तैयार हुआ नहीं, कि वहां घन घिरे नहीं, वर्षा हुई नहीं। क्षणभर की भी देरी नहीं होती।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 13

 स्‍वधर्म, स्‍वकर्म और वर्ण

 स्‍वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तव्छृणु।। 45।।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमथ्यर्ब्य सिद्धिं विन्दति मानव:।। 46।।

श्रेयाक्यधर्मा विगुणः परधर्माफ्लनुष्ठितात्।

स्वभावनिक्तं कर्म कुर्वब्रानोति किल्‍बिषम्।। 47।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोश्मीय न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। 48।।


एवं इस अपने—अपने स्वाभाविकि कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्‍तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन। हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसलिए अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।

अतएव हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।


एवं इस अपने—अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्पाप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन।

हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। तुम्हारी जीवन— धारा ही तुम्हारी पूजा हो। उससे अन्यथा पूजा की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम जो कर रहे हो, उसके ही फूल तुम उसके चरणों में चढ़ा दो। किन्हीं और फूलों को तोड़कर लाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारा कर्म ही तुम्हारा अर्ध्य, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अर्चना हो जाए।

हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। इसलिए कर्मों को बदलने की व्यर्थ की झंझट में मत पड़ना। जो करते हो, उस करने को ही उसके चरणों में चढ़ा देना। कह देना कि अब तू ही कर, मैं तेरा उपकरण हुआ। अब मेरे हाथ में तेरे हाथ हों, मेरी आंख में तेरी आंख हो, मेरे हृदय में तू धड़क।वही धड़क रहा है। तुमने नाहक की नासमझी कर ली है। तुम बीच में अकारण आ गए हो।


 इसलिए अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। और कृष्ण कहते हैं, दूर के ढोल सुहावने हैं, उनसे बचना। यह सदा होता है कि दूसरा तुम्हें ज्यादा ठीक स्थिति में मालूम पड़ता है। ऐसा है नहीं कि वह ठीक स्थिति में है, मालूम पड़ता है। उसके कारण हैं। क्योंकि दूसरे के भीतर को तो तुम देख नहीं पाते, न उसकी पीड़ा को, न उसके दंश को, न उसके नर्क को। तुम देख पाते हो उसके ऊपर के व्यवहार को, उसकी परिधि को, उसके आवरण को।

मुस्कुराता हुआ देखते हो तुम अपने पड़ोसी को, तुम सोचते हो, पता नहीं कितने आनंद में है! वह भी तुम्हें मुस्कुराता हुआ देखता है बाहर खड़ा हुआ। वह भी सोचता है, पता नहीं तुम कितने आनंद में हो! ऐसा धोखा चलता है। न तुम आनंद में हो, न वह आनंद में है। हर आदमी को ऐसा ही लग रहा है कि सारी दुनिया सुखी मालूम पड़ती है एक मुझको छोड्कर। हे परमात्मा, मुझ ही को क्यों दुख दिए चला जाता है! क्योंकि तुम्हें अपने भीतर की पीड़ा दिखाई पड़ती है और दूसरे का बाहर का रूप दिखाई पड़ता है।

बाहर तो सभी सज—संवरकर चल रहे हैं। तुम भी चल रहे हो। तुम भी किसी की शादी में जाते हो, तो जाकर रोती शक्ल नहीं ले जाते, हंसते, मुस्कुराते, सजकर, नहा धोकर, कपड़े पहनकर पहुंच जाते हो। वहां एक रौनक है। और ऐसा लगता है कि सारी दुनिया प्रसन्न है।

सड़कों पर चलते लोगों को देखो सांझ, सब हंसी—खुशी मालूम पड़ती है। लेकिन लोगों के जीवन में भीतर झांको, और दुख ही दुख है। जितने भीतर जाओगे, उतना दुख पाओगे।

इसलिए किसी के ऊपर के रूप और आवरण को देखकर मत भटक जाना। और यह मत सोचने लगना कि अच्छा होता कि मैं ब्राह्मण होता, कि देखो ब्राह्मण कितने मजे में रह रहा है! कि अच्छा होता मैं क्षत्रिय होता, कि क्षत्रिय कितने मजे में रह रहा है!

अब यह बहुत हैरानी की बात है कि सम्राट भी ईर्ष्या से भर जाते हैं साधारण आदमियों को देखकर। क्योंकि उनको लगता है, साधारण आदमी बड़े मजे में रह रहे हैं।




सम्राट भी राह पर चलते मस्त फकीर को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं कि काश! इसकी मस्ती हमारे पास होती! अपने महल में रात उदास, विषाद से भरे हुए, बाहर किसी भिखमंगे का गीत सुनने लगते हैं और प्राणों में ऐसा होने लगता है, काश, हम भी इतने स्वतंत्र होते और इस तरह राह पर गीत गाते और कोई चिंता न होती और वृक्ष के तले सो जाते!

कृष्ण कहते हैं, दूसरे से बहुत प्रलोभित मत हो जाना। और अगर तुम अपने ही नियत कर्म में, जो तुमने जन्मों—जन्मों में अर्जित किया है, जिसके लिए तुम्हारे संस्कार तैयार हैं, वहां तुम दुखी हो, तो अपरिचित कर्म में तो तुम और भी दुखी हो जाओगे, तुम और भी कष्ट पाओगे, क्योंकि उसके तो तुम आदी भी नहीं हो। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्म और आचरण में रहते हुए, उस कर्म को नियत मानकर करते हुए, परमात्मा की मर्जी है ऐसा जानते हुए, व्यक्ति स्वधर्म को प्राप्त हो जाता है, पाप से मुक्त हो जाता है। अतएव हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए.......।

और कभी ऐसा भी लगे कि यह कर्म तो दोषयुक्त है, तो भी इसे मत त्यागना।

क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।

यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। तुम ऐसा तो कोई कर्म खोज ही न सकोगे, जिसमें दोष न हो। अगर तुम दोष ही खोजने गए, तो तुम कुछ भी न कर पाओगे। तुम दोष भी न खोज पाओगे, क्योंकि उस खोज में भी कई दोष होंगे। श्वास लेने तक में हिंसा हो रही है। तो करोगे क्या?

कृष्ण कहते हैं, अगर तुम बधिक के घर में पैदा हुए हो और हत्या ही तुम्हारा काम है, तो भी तुम मत घबड़ाना; तुम इसको भी परमात्मा की मर्जी मानना। तुम चुपचाप किए जाना उसको ही सौंपकर, तुम अपने ऊपर जिम्मा ही मत लेना। तुम कर्ता मत बनना, फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं घेरता है।

और तुम यह मत सोचना कि यह पापपूर्ण कर्म है, इसे छोडूं। कोई ऐसा पुण्य कर्म करूं, जिसमें पाप न हो।

ऐसा कोई कर्म नहीं है। क्या कर्म करोगे, जिसमें पाप न हो? यहां तो हाथ हिलाते भी पाप हो जाता है, श्वास लेते भी प्राणी मर जाते हैं। तुम जीओगे, तो पाप होगा; चलोगे, तो पाप होगा; उठोगे—बैठोगे, तो पाप होगा। और अगर इस सबसे तुम सिकुड़ने लगे, तो तुम पाओगे कि जीवन एक बड़ी दुविधा हो गई।

जैसे पोस्टमैन आता है चिट्ठी लेकर। अब किसी ने गाली लिख दी चिट्ठी में, इसलिए पोस्टमैन जिम्मेवार नहीं। कि तुम उससे लड़ने लगते हो, कि उठा लेते हो लट्ठ कि खड़ा रह, कहां जाता है! तू यह चिट्ठी यहां क्यों लेकर आया! या कोई प्रेम—पत्र ले आया, तो तुम उसे कोई गले लगाकर और नाचने नहीं लगते हो। तुम जानते हो कि यह तो पोस्टमैन है। चिट्ठी कोई और भेज रहा है। यह तो सिर्फ बेचारा बोझा ढोता है। ले आता है, घर तक पहुंचा देता है।

परमात्मा कर्ता हो जाए और तुम केवल उसके उपकरण। इसलिए फिर जो भी कर्म नियति से, प्रकृति से, स्वभाव से, संयोग से तुम्हें मिल गया है, तुम चुपचाप उसे किए चले जाओ, कर्ता— भाव छोड़ दो, जहां भी हो, वहीं कर्ता— भाव छोड़ दो।

कृष्ण का सारा जोर है कर्ता— भाव छोड़ देने पर, कर्म को छोड़ने पर नहीं। क्योंकि छोड़—छोड़कर भी कहां जाओगे! जहां जाओगे कर्म तुम्हें घेरे ही रहेगा।

हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्मों को त्यागना नहीं, क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 12

 गुणातीत है आनंद


ब्रह्यणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतय।

कर्माणि प्रीवभक्तानि स्वभाअभवैर्गुणै।। 41।।

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42।।

शौर्य तेजी धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्‍यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 43।।

कृषिगौरमवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्क्कं कर्म शूद्रस्‍यापि स्वभावजम्।। 44।।


इसलिए हे परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के आधार पर विभक्त किए गए हैं।

शम अर्थात अंतःकरण का निग्रह, दम अर्थात इंद्रियों का दमन, शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि, तप अधर्म धर्म के लिए कष्ट सहन करना, क्षांति अर्थात क्षमा— भाव एवं आर्जव अर्थात मन, इंद्रिय और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान, ये तो ब्रह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। और शौर्य, तेज, धृति अर्थात धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामी— भाव, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

तथा खेती, गौपालन और क्रय— विक्रय रूप सत्य व्‍यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। और सब वर्णो की सेवा करना, यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।


इसलिए हे परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं।

 शम—अंतःकरण का निग्रह, दम—इद्रियों का निग्रह, शौच—बाहर— भीतर की शुद्धि, तप, क्षांति, क्षमा— भाव एवं आर्जव अर्थात मन, इंद्रिय और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, शान और विज्ञान, ये तो ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

और शौर्य, तेज, धृति अर्थात धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामी— भाव, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

तथा खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार वैश्य के और सब वर्णों की सेवा करना, यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। पहली बात। अगर संसार में लोग ठीक—ठीक गुणों में विभाजित होते, तो तीन ही वर्ण होने चाहिए, चार नहीं—ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र। अगर लोग ठीक—ठीक विभाजित हों, तो तीन ही वर्ण होंगे। चौथा वर्ण भी है, क्योंकि लोग ठीक—ठीक विभाजित नहीं हैं।

वैश्य वस्तुत: कोई वर्ण नहीं है, सभी वर्णों का बाजार है। शूद्र और क्षत्रिय के बीच में जो हैं, क्षत्रिय और ब्राह्मण के बीच में जो हैं, शूद्र और ब्राह्मण के बीच में जो हैं, वह जो—जो बीच में हैं, उन सबका इकट्ठा समूह वैश्य है। वैश्य कोई वर्ण नहीं है; मिश्रण है, खिचड़ी है।

लेकिन उसकी भी जरूरत है, वह चौराहा है। वहां से एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण में प्रवेश करता है। वहां से एक गुण का व्यक्ति दूसरे गुण में प्रवेश करता है। तीन तो यात्रा—पथ हैं, चौथा चौराहा है।

इसलिए वैश्य बडे से बड़ा वर्ण है। होना नहीं चाहिए। अगर प्रकृति बिलकुल नियम से चलती हो और सब चीजें बंटी हो, जैसी कि हम गणित और तर्क में बांट लेते हैं, विभाजन साफ हो, तो वैश्य खो जाएगा। तब तीन ही रह जाएंगे।

तमस से भरे हुए व्यक्ति का नाम शूद्र है, सोया, मूर्च्छित। रजस से भरे हुए, तीव्र त्वरा और कर्म से भरे हुए व्यक्ति का नाम क्षत्रिय है। सत्व, शांति, पवित्रता से भरे हुए व्यक्ति का नाम ब्राह्मण है। ये तीन तो गणित के विभाजन हैं, लेकिन जीवन गणित को नहीं मानता। तो जीवन में ब्राह्मण तो मुश्किल से मिलेगा, शूद्र भी मुश्किल से मिलेगा, क्षत्रिय भी मुश्किल से मिलेगा। जहां जाओगे, वहां वैश्य मिलेगा। क्योंकि तुम पाओगे, ब्राह्मण भी धंधा कर रहा है। चाहे वह धंधा यज्ञ का हो, पूजा—पाठ का हो, पुरोहित का हो, धंधा कर रहा है। धंधा कर रहा है, तो वैश्य है।

तुम पाओगे, शूद्र भी सेवा कहां कर रहा है, वह भी धंधा कर रहा है। चाहे जूता बना रहा हो, चाहे मालिश कर रहा हो, चाहे बुहारी लगा रहा हो, वह भी धंधा कर रहा है, वह भी वैश्य है। और क्षत्रिय तुम कहां पाओगे? वे भी धंधा ही करने वाले लोग हैं। वे अपनी जान बेच रहे हैं। मरने—मारने के लिए वे तैयार हैं, क्योंकि कुछ रुपए महीना तनख्वाह मिलती है! वे भी वैश्य हैं।

तीन तो होते, अगर जीवन बिलकुल गणित से चलता। लेकिन जीवन गणित से चलता ही नहीं। तो तुम तो इन तीनों का संगम पाओगे। गंगा, यमुना, सरस्वती, तीनों को तुम प्रयाग में मिलता पाओगे। वैश्य तीर्थ बन गया है। वह सब उसमें गड्डमगड्ड है। वह सबसे बड़ा वर्ण बन गया है, जो होना ही नहीं चाहिए।

और दूसरी बात ध्यान रखो कि इनका जन्म से कोई भी संबंध नहीं है। जन्म से तुम ब्राह्मण के घर में पैदा हो सकते हो, इससे तुम्हारे ब्राह्मण होने का कोई संबंध नहीं है। जन्म से तुम क्षत्रिय के घर में पैदा हो सकते हो, लेकिन इससे तुम्हारे क्षत्रिय होने का कोई संबंध नहीं है। तुम डरपोक क्षत्रियों को खोज ही लोगे। और ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्रह्मज्ञान को थोड़े ही उपलब्ध हो जाता है। और शूद्र के घर में पैदा होने से ही कोई शूद्र थोड़े ही होता है।

जीवन का कोई संबंध जन्म से बहुत ज्यादा नहीं है। जन्म से तो केवल संभावना मिलती है।

कोई शूद्र के घर में पैदा होने से शूद्र नहीं हो जाता। हमारी मुल्क की परंपरा तो यह है कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। क्योंकि सभी आलस्य से पैदा होते हैं, गहन तमस से आते हैं।

मां के पेट में नौ महीने बच्चा सोया रहता है। अब इससे बड़ा और आलस्य कुछ खोजोगे! नौ महीने पड़ा ही रहता है तमस, अंधकार में। सभी अंधकार में से आते हैं, आलस्य और तमस से पैदा होते हैं। सभी शूद्र हैं।

सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्राह्मण की तरह मरने चाहिए। यह तो जीवन की कला होगी। लेकिन जिसने ब्राह्मण के घर में पैदा होकर समझ लिया, मैं ब्राह्मण हो गया, वह चूक जाएगा। वह नाम—मात्र का ब्राह्मण था। उसने लेबल को असलियत समझ लिया। क्षत्रिय के घर में पैदा होने से कोई क्षत्रिय नहीं होता। समझने की कोशिश करें उन तीनों के लक्षण।

शम अर्थात अंतःकरण का निग्रह........।

जिसके भीतर एक गहरी शांति की अवस्था आ गयी है, जिसके भीतर कोई उत्तेजित लहरें नहीं हैं, अंतःकरण विक्षिप्त नहीं रहा, मौन हो गया है। आंख बंद कर लो, तो भीतर सन्नाटा, और सन्नाटा, और सन्नाटा खुलता जाता है। स्वर की व्यर्थ गुंज नहीं होती; शब्द अकारण नहीं तिरते; विचार यों ही नहीं घूमते रहते। भीतर एक परम शांति है। अंतःकरण निगृहीत हो गया। अब अंतःकरण पागल की तरह नहीं दौड़ रहा है। जब जरूरत होती है, तब चलता है; जब जरूरत नहीं होती, तब विश्राम करता है। तुम मालिक हो गए हो अपने अंतःकरण के।

दम.......।

जिसकी इंद्रियां अब मालिक नहीं रहीं; जिसका होश मालिक हो गया है।

तुम्हें तो इंद्रियां चलाए जाती हैं। सुंदर स्त्री जा रही है, तुम ध्यान करने बैठे थे और आंख कहती हैं, देखो, सुंदर स्त्री जाती है। तुम मालिक नहीं हो। आंख मजबूर कर देती है; तुम्हें देखना पड़ता है; आंख उठानी पड़ती है। आंख उठाकर पछताते हो कि क्या होगा देखे लेने से भी! और सौंदर्य में देखने योग्य भी क्या है! हवा में खिंची लकीरें हैं; थोड़ी अनुपातपूर्ण होंगी। हड्डी—मांस—मज्जा पर चढ़ी हुई लकीरें हैं; थोड़ी अनुपातपूर्ण होंगी। लेकिन क्या होगा? पर नहीं। ध्यान टूट गया, श्रृंखला मिट गयी। आंख ने पुकार लिया। आंख ने पकड़ लिया।

इंद्रियां जिसकी वश में आ गयी हैं।

शौच—बाहर— भीतर की शुद्धि........।

जो सदा नहाया हुआ है; जिसके भीतर विकार की धूल नहीं उठती।

तप.......।

जो जीवन में दुख झेलने को तैयार है, अगर उस दुख से शुद्धि होती हो। दुख झेलने को तैयार है, अगर उस दुख से शांति आती हो। दुख झेलने को तैयार है, उससे अगर सत्य की खोज होती है। जो सुख का आकांक्षी नहीं है; सुख से बड़ी आकांक्षा का जिसके भीतर आविर्भाव हुआ है। जो सत्य का खोजी है।

क्षमा— भाव.......।

जिसको भी शांति पैदा होगी, क्षमा— भाव पैदा होगा ही। अगर क्षमा— भाव पैदा न हो, तो तुम शांत कभी हो नहीं सकते। इतना बड़ा संसार है, चारों तरफ चल रहा है। हजारों तरह के काम हो रहे हैं, लोग हजारों तरह की बातें कह रहे हैं, पक्ष में, विपक्ष में। अगर तुम एक—एक की बात पर विचार करो, चोट पाओ, घाव बनाओ, क्षमा न कर सको, माफ न कर सको, भूल न सको, तुम कहीं शांत हो सकोगे! तुम पागल हो जाओगे। तो जिसके भीतर शांति पैदा हुई है, जो क्षमा— भाव को उपलब्ध हुआ है।

आर्जव......।

जिसका मन, इंद्रिय और शरीर सरल हो गए हैं, नैसर्गिक हो गए हैं। जो छोटे बच्चे की तरह जीता है।

आस्तिक बुद्धि।

जिसके भीतर से हां तो सरलता से आता है, मुश्किल से आता है। हां जिसका स्वभाव हो गया है, आस्तिक बुद्धि।

तुमने देखा होगा,ऐसे लोगों को  तुम जानते भी होगे, हां कहने वाले लोग और न कहने वाले लोग। ऐसे लोग हैं, जिनके भीतर से न ही आता है। ऐसे कामों में भी न आता है, जहां कि कोई जरूरत ही न थी। नहीं उनके लिए स्वाभाविक है। वह पहला उनका उत्तर है। तुम कुछ कहो,  नहीं पहले उनके भीतर उठेगा। वे नास्तिक बुद्धि हैं, जिनके भी जीवन में निषेध है, जो इनकार से चलते हैं।

आस्तिक बुद्धि का अर्थ है, जिसके भीतर हां है, आस्था है।

 ज्ञान और विज्ञान......।

पुराने शास्त्रों में, गीता में भी, ज्ञान का अर्थ तो साधारण ज्ञान होता है—संसार का, पदार्थ का। जिसको हम आज विज्ञान कहते हैं, साइंस कहते हैं, उसको गीता ज्ञान कहती है।

और उन दिनों, कृष्ण के दिनों में, विज्ञान कहते थे उस विशेष ज्ञान को जिससे स्वयं जाना जाता है। साधारण ज्ञान और विशेष ज्ञान। जिससे और सब जाना जाता है, वह ज्ञान; और जिससे स्वयं जाना जाता है, वह विज्ञान।

ये ब्राह्मण के स्वाभाविक लक्षण हैं। यही उसका स्वभाव है।

 शौर्य, वीरता, साहस, तेज, एक अदम्य ऊर्जा, शक्ति, धृति, धैर्य, चतुरता.......।

एक जीवन में संघर्ष की कुशलता।

युद्ध में भी न भागने का स्वभाव.......।

चाहे मौत ही क्यों न आ जाए, लेकिन क्षत्रिय पीठ दिखाना पसंद न करेगा। मौत वरणीय है, पीठ दिखाना वरणीय नहीं है।

दान.......।

कुछ भी न हो उसके पास और अगर कोई मांगे, तो वह इनकार न कर सकेगा। देना उसके लिए स्वाभाविक है।

और स्वामी— भाव.........।

और वह मालिक है। वह अकड़ भी उसके लिए स्वाभाविक है। वह अहंकार भी उसके लिए स्वाभाविक है। क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। वे राजस के कर्म हैं, साहस, न भागने की वृत्ति, देने की सहज स्वाभाविकता, मांगने से बचने की चेष्टा।

क्षत्रिय मांग न सकेगा। तुम उसे मांगता हुआ न पाओगे। ब्राह्मण मांग सकता है।

अब यह थोड़ा समझने जैसा है। ब्राह्मण मांग सकता है, क्योंकि उसके पास कोई अहंकार नहीं है। क्षत्रिय मांग नहीं सकता। अहंकार ही तो उसके जीवन की रीढ़ है; मांगा कि गया। दे सकता है।

तो क्षत्रिय महादानी होगा। ब्राह्मण महाभिक्षु होगा। लेकिन हमने ब्राह्मण को क्षत्रिय से ऊपर रखा है। हमने दानी से भिक्षु को ऊपर रखा है। क्योंकि दानी में भी अकड़ है।

क्षत्रिय होने तक तो कोई गलती नहीं है, लेकिन अगर ब्राह्मण होना हो, तो महा गलती है। यह देने का भाव बुरा नहीं है, लेकिन इस देने से भी अहंकार ही सघन होगा, मजबूत होगा, विनम्रता न आएगी।

स्वामी— भाव......।

कुछ भी न रह जाए क्षत्रिय के पास, तो भी स्वामी— भाव बना रहता है। कुछ भी न हो, तो भी वह मूंछ पर अकड़ देकर चलता हुआ दिखायी पड़ेगा। वह उसका स्वाभाविक गुण है।


और खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।

सत्य व्यवहार.......।

वह जो भी करे, उसमें सच्चाई हो, ईमानदारी हो।

हमने एक अनूठी ही अर्थशास्त्र की धारणा खोजी थी। उस धारणा में, उस अर्थशास्त्र में, अर्थ कम था, नीति ज्यादा थी। अर्थ कम था, धर्म ज्यादा था। और हमने चाहा था कि वैश्य भी व्यापार भला करे, लेकिन व्यापार अधर्म आधारित न हो; उसके पीछे भी सत्य की खोज चलती रहे। वह जो भी करे, उसमें से उतना ही ले, जितना जरूरी है। वह ज्यादा न चूस ले।

खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। इसलिए जो वैश्य सचमुच वैश्य थे, उनके लिए हमने जो नाम दिया है, वह है, सेठ। मूल शब्द उसका है श्रेष्ठ, जिसका वह अपभ्रंश है। जिसने जीवन के उलझे हुए व्यापार में सत्यता को साधा है, वह श्रेष्ठ है ही। श्रेष्ठ का ही विकृत रूप सेठ हो गया। वह बड़ा सम्मानित शब्द था कृष्ण के समय में, श्रेष्ठी। क्योंकि व्यापार में और ईमानदारी साधने से ज्यादा कठिन कोई बात नहीं हो सकती। ब्राह्मण ईमानदार हो सकता है, क्योंकि कोई व्यवसाय नहीं कर रहा है। क्षत्रिय ईमानदार हो सकता है, क्योंकि सीधा तलवार का ही काम है। लेकिन वैश्य? वहां तो सारा धंधा ही उपद्रव का है। वहां तो सब चोरी, षड्यंत्र, धन की दौड़, महत्वाकांक्षा, मिलावट, सब वहां है। वह बीच बाजार में खड़ा है।

इसलिए हमने ब्राह्मणों तक को श्रेष्ठी नहीं कहा, क्षत्रियों को श्रेष्ठी नहीं कहा; और वैश्य को श्रेष्ठी कहा। क्योंकि वहां जिसने साध लिया, उसने निश्चित ही कुछ गजब की बात साध ली है।

और सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।

ये स्वाभाविक कर्म कृष्ण कह रहे हैं। इनको तुम अगर ढंग से न करो, तो तुम विकृत हो जाओगे।

शूद्र सेवा करे, क्योंकि वह ज्यादा से ज्यादा सेवा ही कर सकेगा। लेकिन उसमें भी भाव सेवा का हो। आलसी है, तामसी है, इससे ज्यादा उससे न हो सकेगा। थोड़ा—बहुत काम कर लेगा, बस इतना काफी है। रोटी—रोजी कमा ले, इतना उसे मिल जाए। लेकिन उसकी भाव—दशा सेवा की हो।





अब भी वैश्य वैश्य है, लेकिन सत्य व्यवहार नहीं है उसका। अब तो वैश्य बिलकुल ही असत्य पर खड़ा है। झूठ ही उसके धंधे का आधार है—बेईमानी, अप्रामाणिकता।

क्षत्रिय अब भी है, लेकिन शौर्य जा चुका है। अकड़ भला रह गयी हो, अकड़ ही रह गयी है। अकड़ के पीछे अब कोई कारण नहीं रह गया है। कभी कारण था। अकड़ माफ की जा सकती थी, क्योंकि खूबियां थीं।

अगर कर्ण अकड़ता क्षत्रिय की तरह, तो हम माफ कर सकते थे, क्योंकि दान की बात थी। अपने कान भी काटकर दे दिए। अब तो राख रह गयी है, रस्सी रह गयी है जल गयी। रस्सी में अकड़ के निशान रह गए हैं।

ब्राह्मण भी नाम का ब्राह्मण है। पोथी—पंडित है, तोते की भांति है। शास्त्र कंठस्थ हैं। अब शास्त्र उसके भीतर से पैदा नहीं होते। जमाने हुए तब से उसकी भीतर की धारा सूख गयी है, रस—स्रोत विलीन हो गए हैं। अब वह उधार है। वह पुरानी बाप—दादों की संपत्ति को दोहराए चला जाता है। उसके होंठों पर भी वे शब्द सच्चे नहीं मालूम होते, क्योंकि उनके भीतर प्राणों का कोई सहयोग नहीं है।

सब विकृत हो गया है। लेकिन अगर सुकृत सब हो, तो शूद्र धीरे— धीरे सेवा से ऊपर उठेगा। क्योंकि सेवा अंततः सत्य में ले जाएगी, सत्य व्यवहार में ले जाएगी।

सत्य का व्यवहार करने वाला व्यक्ति धीरे— धीरे व्यवसाय से उठकर दान में जाएगा। श्रेष्ठी कभी न कभी दानी हो जाएगा। जिस दिन दानी हो गया, वह क्षत्रिय के जगत में प्रवेश कर गया।

और अकड़े तुम कब तक रहोगे? अगर ठीक—ठीक क्षत्रिय का व्यवहार रहा, जीवन से भागने की वृत्ति न रही, तो तुम जीवन को समझ ही लोगे। और जीवन की समझ ही तुम्हें ब्राह्मण की तरफ ले जाएगी, ज्ञान की तरफ ले जाएगी।

और जो ब्राह्मण है, वह सत्व से कभी न कभी ऊब ही जाएगा। सत्व बहुत सुख देता है, लेकिन आनंद नहीं। वह एक दिन गुणातीत होने की चेष्टा करेगा।

ऐसी अगर सुकृत व्यवस्था हो, तो! तो शूद्र भी ब्राह्मण हो जाएगा और ब्राह्मण भी गुणातीत होने की तरफ यात्रा करेगा। अगर सुकृत व्यवस्था न हो, तो सारा समाज धीरे— धीरे गड्डमड्ड हो जाएगा। और अगर तीनों वर्ण खो जाएं, तो वैश्य का अकेला वर्ण रह जाएगा, जैसा कि हुआ है।

आज अगर गौर से देखो, तो वैश्य का वर्ण ही रह गया है, बाकी सब वर्ण उसमें खो गए, गड्डमड्ड हो गए। यह एक बड़ी विकृत स्थिति है, रुग्ण स्थिति है। इसका गहन इलाज होना जरूरी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...