मंगलवार, 17 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 11

 मन का महाभारत


 सद्भावे साधुभावे च सदित्येतगयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्‍छब्द: पार्थ युज्यते।। 26।।

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सीदति चौच्‍यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिप्रीयते ।। 27।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्‍प्रेत्य नौ इह ।। 28।।


और सत्— ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

तथा यज्ञ तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है।

और हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है वह समस्त असत् है ऐसे कहा जाता है। इसीलिए वह न तो हम लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे ही।


और सत्, ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसा कहा जाता है।

हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् है, ऐसा कहा जाता है इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे उस दूसरे लोक में।

ओम तत् सत्। इन तीन शब्दों में सभी कुछ आ जाता है।

ओम शब्द नहीं है, ध्वनि है। इसका कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि सभी अर्थ मनुष्यों के दिए हुए हैं। यह अर्थातीत ध्वनि है। जैसे नदी में कल—कल नाद होता है। क्या अर्थ है कल—कल का? कोई अर्थ नहीं है। हवाएं वृक्षों से गुजरती हैं, सरसराहट होती है। क्या अर्थ है सरसराहट का? कोई अर्थ नहीं है। आकाश में मेघ गरजते हैं।
क्या अर्थ है उस गर्जना में? कोई भी अर्थ नहीं है। अर्थ तो आदमी के दिए हुए हैं।

ओंकार मौलिक ध्वनि है, जिससे सब विस्तार हुआ है। उस ध्वनि के ही अलग— अलग सघन रूप अलग—अलग ढंग से प्रकट हुए हैं।

उस ओंकार में कोई भी अर्थ नहीं है। तुम चाहो तो उसे अर्थहीन कह सकते हो, और चाहो तो अर्थातीत कह सकते हो। एक बात पक्की है कि वहा कोई अर्थ नहीं है। अर्थ हो नहीं सकता, क्योंकि उसके पूर्व कोई मनुष्य नहीं है।

इसलिए हमने ओंकार को परमात्मा का प्रतीक बना लिया, क्योंकि परमात्मा कोई तुम्हारा दिया हुआ अर्थ नहीं है। परमात्मा तुम से पहले है और तुम से बाद में है। तुम में भी है, तुम से पहले भी है, तुम से बाद में भी है।

परमात्मा तुम से विराट है। तुम छोटी तरंग की तरह हो, वह सागर है। तरंग कैसे सागर को अर्थ दे पाएगी? और तरंग का दिया हुआ अर्थ क्या अर्थ रखेगा?

इसलिए हमने ओम परमात्मा का प्रतीकवाची शब्द चुना है। इसका हिंदुओं से कुछ लेना—देना नहीं है। अर्थ होता, तो हिंदुओं से कुछ लेना—देना होता। इसलिए यह अकेला शब्द है.। भारत में तीन धर्म पैदा हुए, चार धर्म कहना चाहिए, जैन, बौद्ध, हिंदू और सिक्ख। इनमें बड़े मतभेद हैं, बडी दार्शनिक झंझटें हैं, झगडे हैं। लेकिन ओंकार के संबंध में कोई मतभेद नहीं है।

नानक कहते हैं, इक ओंकार सतनाम। ओम तत् सत्, इसका ही वह रूप है। जैन ओम का प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के। बौद्ध प्रयोग करते हैं बिना किसी अड़चन के।

यह एक शब्द गैर—सांप्रदायिक मालूम पड़ता है। बाकी सब पर झगड़ा है। ब्रह्म शब्द का उपयोग जैन न करेंगे। आत्मा शब्द का उपयोग बुद्ध न करेंगे। लेकिन ओम के साथ कोई झगड़ा नहीं है। और ईसाई, इस्लाम, यहूदी, तीन धर्म जो भारत के बाहर पैदा हुए, उनके पास भी ओंकार की ध्वनि है, उसे वे ठीक से पकड़ नहीं पाए। कहीं कुछ भूल हो गई। वे उसे कहते हैं, ओमीन, आमीन। हर प्रार्थना के बाद मुसलमान कहता है, आमीन। वह ओंकार की ही ध्वनि है : वह ओम का ही रूप है।

इसलिए यह एक ही अर्थहीन शब्द है, जो सारे धर्मों को अनुस्थूत किए हुए है। अगर दुनिया में हम कोई एक शब्द खोजना चाहें जो गैर—सांप्रदायिक है, जिसके लिए सभी धर्मों के लोग राजी हो जाएंगे, तो वह ओम है।

यह बड़ा अदभुत है। सभी ने इसकी प्रतिध्वनि सुनी है। जो भी भीतर गए हैं, उन्होंने ओंकार को सुना है। लेकिन ओंकार को सुनकर बाहर उसकी खबर देने में थोड़े— थोड़े भेद पड़ गए हैं, पड़ ही जाएंगे।

तुमने कभी गौर किया, ट्रेन में बैठे हो, ट्रेन चलती है। अब वह किस तरह की आवाज हो रही है? झक—झक, छक—छक, भक— भक? तुम जैसा सुनना चाहो, वैसा सुन ले सकते हो। और एक दफे तुम्हें पकड़ जाए एक बात कि यह झक—झक हो रहा है, या भक— भक हो रहा है, फिर मुश्किल है; फिर वह पैटर्न पकड़ गया, फिर वह ढाचा पकड़ गया, फिर तुम्हें वही सुनाई पड़ेगा। फिर लाख तुम्हें कोई दूसरा समझाए कि नहीं, यह ठीक नहीं है, तो भी तुम्हें वही सुनाई पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे मन ने एक ढाचा पकड़ लिया।

ओम की शुद्धतम ध्वनि अलग—अलग लोगों ने अलग— अलग तरह से सुन ली होगी। किसी ने आमीन की तरह सुन ली, वह संभव है। लेकिन इस संबंध में कोई विवाद नहीं है।

यह एकमात्र शब्द है, जो सारे धर्मों को जोड़े हुए है। यह शिखर शब्द है। जैसे मंदिर के खंभे अलग— अलग खड़े हैं, लेकिन मंदिर का शिखर एक है।

अगर हम धर्म का कोई मंदिर बनाएं और हर संप्रदाय के लिए एक—एक खंभा बना दें, तो शिखर पर हमें ओंकार को रखना पड़ेगा। ओम तत् सत्। ओम, तत् यानी वह, सत् यानी है। तत् के संबंध में हमने कल बात की कि हम क्यों उसे तत् कहते हैं, क्यों कहते हैं वह, दैट।

हम उसे तू नहीं कहते। तू कहने से हमारा मैं निर्मित होता है, बनता है। और तू कहने से हम परमात्मा को थोड़ा नीचे लाते हैं उसके तत् रूप से, उसकी दैटनेस से। वह इतना पार। उसे हम खींचकर अपने घर के पास ले आते हैं। तब वह हमारा प्रेमी हो जाता है, पिता हो जाता है, पत्नी हो जाता है, प्रेयसी हो जाता है। फिर हम उससे एक संबंध बना लेते हैं।

जैसे ही हमने परमात्मा को तू कहा, हम परमात्मा को खींचकर संसार में ले आते हैं। इसलिए भक्त तू के पार जाने में मुश्किल पाता है। क्योंकि फिर संबंध छूट जाएगा।

भक्ति संबंध है, ज्ञान असंबंध है। भक्ति तो संबंध है, ज्ञान असंबंध है। भक्ति में तुम कितने ही करीब आ जाओ, लेकिन फिर भी दूरी रहती है। ज्ञान में तुम एक ही हो जाते हो। इसलिए ज्ञानियों ने उसे तत् कहा है, वह। एक तटस्थ शब्द, जिसमें हमारा कोई भी राग—रंग नहीं जुड़ता।

और तीसरा शब्द है, सत्।

इन तीन में सारे भारत का वेदांत, सारा सार, सारी भारत की आत्मा समाई है। सब बुद्ध, सब महावीर, सब कृष्ण इन तीन शब्दों में समाए हैं।

सत् का अर्थ है, जो है। वृक्ष भी है, पहाड़ भी है, तुम भी हो, मैं भी हूं। लेकिन परमात्मा का होना, इस होने से भिन्न है। क्योंकि वृक्ष कल नहीं हो जाएगा; मैं आज हूं, कल नहीं होऊंगा, पहाड़ अभी है, कल मिट जाएगा। बड़े से बड़ा पहाड़ भी मिट जाएगा।

वैज्ञानिक कहते हैं, जब आर्य भारत आए, आज से कोई तीस—पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, तो हिमालय था ही नहीं। हिमालय बाद में पैदा हुआ। और हिमालय है भी बचकाना अभी भी। वह बड़ा बहुत है, जैसे कोई छोटा बच्चा बाप से बड़ा हो जाए, लंबा हो जाए, ऐसा हिमालय बड़ा बहुत है, ऊंचाई उसकी कोई नहीं छू सकता, लेकिन वह बिलकुल नया है, बच्चा है। अभी भी बढ़ रहा है। हर वर्ष कोई चार इंच बढ़ जाता है। अभी भी बढ़ती जारी है। अभी भी प्रौढ़ नहीं हुआ है, बढ़ती रुकी नहीं।

विंध्याचल सब से पुराना पहाड़ है। उसकी कमर झुक गई है, बूढ़ा है। विंध्याचल के आस—पास की जो भूमि है, वह संसार की सबसे पुरानी भूमि है। नर्मदा की खूबी उस भूमि में बहना है, जो सर्वाधिक प्राचीन है, जो सबसे पहले सागर के बाहर आई।

हिमालय बच्चा है; कभी पैदा हुआ, कभी नहीं था और कभी एक दिन विलीन हो जाएगा। पहाड़ भी बनते हैं, समाप्त हो जाते हैं।
 हमारा होना एक तथ्य है, फैक्ट, कभी था, कभी फिर नहीं हो जाएगा। दो तरफ न—होने की खाई और बीच में होने की छोटी—सी ऊंचाई। जैसे एक पक्षी कमरे में चला आए तुम्हारे, क्षणभर तड़फड़ाए; एक खिड़की से प्रवेश करे, दूसरी खिड़की से निकल जाए। ऐसा क्षणभर को हमारा होना है, फिर गहन न—होना हो जाता है।

परमात्मा सदा है। सत् का अर्थ है, जो सदा है, जिसके न—होने का उपाय नहीं है। इसलिए तुम तो मिटोगे, तुम्हारे भीतर का परमात्मा कभी नहीं मिटता है। और जब तक तुमने अपने मिटने वाले स्वरूप के साथ अपने को एक समझा, तभी तक तुम भटकोगे, तब तक तुम दुखी रहोगे, तब तक मौत तुम्हें डरायेगी। लेकिन जिस दिन तुम्हारी नजर बदली और तुमने अपने भीतर उसको पहचान लिया, जो सत् है, जो न कभी मिटता, न कभी पैदा होता; जो बस है।




इसलिए परमात्मा है, ऐसा कहना पुनरुक्ति है, गॉड इज, ऐसा कहना पुनरुक्ति है। वृक्ष है, यह कहना तो ठीक है। क्योंकि वृक्ष कभी नहीं भी हो जाएगा। परमात्मा है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि है का क्या मतलब? परमात्मा है, इसका तो मतलब हुआ कि जो है वह है; यह तो पुनरुक्ति है। इसलिए हमने परमात्मा को सत् कहा है। हमने कहा कि वह है—पन है। उसको मत कहो कि परमात्मा है।

इसलिए उपनिषद को, वेदांत को नास्तिक भी इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि वेदांत दावा ही नहीं करता कि परमात्मा है। इसलिए तुम कैसे खंडन करोगे! कैसे सिद्ध करोगे कि वह नहीं है!
यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। वेदांत यह नहीं कहता कि परमात्मा है। वेदांत यह कहता है, जो है, वही परमात्मा है। है—पन, होना मात्र परमात्मा है।

इसलिए भारत में नास्तिक पनप नहीं सके, क्योंकि हमारा दावा ही बड़ा अनूठा है। पश्चिम में नास्तिक पनपे। और ईसाई धार्मिक गुरु नास्तिकों को कभी भी समझा नहीं पाया। क्योंकि तुम कहते हो, ईश्वर है, जैसे वृक्ष है, पहाड़ है। और नास्तिक कहते हैं कि नहीं है। जो है, उसे सिद्ध किया जा सकता है कि वह नहीं है।

इसलिए नीत्से का बहुत प्रसिद्ध वचन है, जिसमें उसने कहा, गॉड इज डेड। ईसाइयत से इसका कोई विरोध नहीं है। क्योंकि अगर तुम कहते हो कि परमात्मा भी वैसा ही है, जैसे और चीजें हैं, तो जैसे और चीजें मरती हैं, वैसे ईश्वर भी मर सकता है।
तो नीत्से ठीक कहता है कि ईश्वर मर गया है। अब तुम व्यर्थ पूजा कर रहे हो चर्चों में। बंद करो, ईश्वर मर चुका; तुम किस की पूजा कर रहे हो? अब वह नहीं है।

जो है, वह नहीं है हो सकता है। लेकिन हमारी घोषणा ही भिन्न है। हम कहते हैं, वह सत्। सत् उसका स्वरूप है, उसका गुण नहीं। यह थोड़ी सूक्ष्म बात है।

गुण कभी खो सकता है, स्वरूप कभी खोता नहीं। तुम्हारा होना गुण है, स्वरूप नहीं। परमात्मा का होना स्वरूप है, गुण नहीं। वह सदा है। उचित तो यही होगा कि हम कहें, जो सदा है, उसी का एक नाम परमात्मा है।

इसलिए ओम तत् सत्, इन तीन में सब आ जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने ये तीन शब्द एक बार पढ़ लिए कहीं किसी शास्त्र में। और यह भी पढ़ लिया कि इन तीन शब्दों से जो भी तादात्म्य बना ले, जो भी इन तीन को समझ ले, इसकी गहराई में उतर जाए, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। वह बड़ा खुश और प्रसन्नचित्त घर लौटा। और उसने अपनी पत्नी से कहा कि सुनो, एक बड़ा हीरा हाथ लग गया है, राम रतन धन पायो।
पत्नी तो ऐसे कई हीरे उसके हाथ लगते पहले ही देख चुकी थी। पत्नी कहीं किसी पति को मानती है कि इनके हाथ और हीरा लग सकता है! हीरा भी लग जाए, तो समझेगी कि कहीं का कंकड़—पत्थर उठा लाए हैं। तुम्हारे हाथ और हीरा लग जाए! इतनी तुम्हारी योग्यता! कोई पत्नी पति की मानती ही नहीं। सारी दुनिया पति को मानने लगे, लेकिन पत्नी को संदेह बना रहता है कि यह आदमी इतना प्रसिद्ध कैसे होता जा रहा है? यह आदमी में है तो कुछ भी नहीं।

पत्नी ने कहा कि छोडो बकवास, कहां का हीरा? देखें! उसने कहा, यह हीरा बड़ा भीतरी है। पत्नी ने कहा, हम पहले ही समझ गए थे कि हीरा भीतरी ही होगा, जिसमें कि बताने की जरूरत ही न रहे। नसरुद्दीन ने कहा, मजाक की बात नहीं है। मैंने तीन शब्द पढ़े, और शास्त्र कहता है कि इन तीन शब्दों को जो जान ले, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।

पत्नी ने कहा कि तुम बेकार, व्यर्थ ही, नाहक ही मेहनत किए। हमसे पूछ लेते तीन शब्द। हम ही बता देते। नसरुद्दीन ने कहा, बोलो। उसने कहा, फांसी लगा लो। हैं तीन शब्द, मुक्ति हो जाएगी। लेकिन अगर बहुत गौर से देखो, तो इन तीन शब्दों से फांसी लगती है। इसे तुम मजाक मत समझना। ओम तत् सत् यानी फांसी लगा लो। मैं भी इनका यही अर्थ करता हूं।

तुम मिटोगे, तो ही ओम तत् सत् सत्य हो पाएगा। तुम मरोगे, तुम खो जाओगे, विलीन हो जाओगे, तो ही परमात्मा के होने की प्रगाढता का तुम्हें अनुभव होगा।

तुम ही बंधन हो। तुम बंधे हो, ऐसा नहीं, तुम ही बंधन हो। तुम मुक्त हो जाओगे, ऐसा भी नहीं; तुमसे ही मुक्ति चाहिए। जिस दिन तुम न रहोगे, उस दिन जो शेष रह जाता है, ओम तत् सत्।

कृष्ण कहते हैं, सत्, ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्य— भाव में और श्रेष्ठ— भाव में प्रयोग किया जाता है। तथा हे पार्थ, उत्तम कर्म में भी सत् शब्द प्रयोग किया जाता है।

और जहां—जहां अहंकारशून्य होकर कुछ भी होगा, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। उस कर्म को हम सत् कर्म कहते हैं, जो निरअहंकार भाव से किया जाए। इस परिभाषा को ठीक से याद रख लेना।

सत् कर्म का अर्थ है, जिसे तुमने न किया हो, तुम्हारे द्वारा परमात्मा से हुआ हो। सत् कर्म का कोई अर्थ नहीं है दूसरा, कि तुमने दक्षिणा दी, दान दिया, सेवा की। कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने अगर सेवा की और तुमने ही की, तो वह सत् कर्म नहीं है। तुम से अगर सेवा हुई और परमात्मा ने की, तो वह सत् कर्म है।

अगर दान देते वक्त अहंकार खड़ा हो गया, तो वह असत् कर्म हो गया। अगर दान देते वक्त तुमने अपना हाथ परमात्मा के हाथ में दे दिया और उसने ही दान दिया, तुम सिर्फ उपकरण रहे, निमित्त मात्र, तो सत् कर्म हो गया।

सत् कर्म की यह व्याख्या अनूठी है। इसमें कुछ संबंध नहीं है दूसरे से। इसमें अच्छे कर्म का सवाल नहीं है। इसमें सवाल है निरअंहकारिता का। परमात्मा से हो, तो सत् हो जाता है कृत्य। तुम से हो, तो असत् हो जाता है कृत्य।

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है। और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है।

कृष्ण यह कह रहे हैं, अर्जुन, युद्ध न तो सत् है और न असत्। कैसे तू करता है, इस पर सब निर्भर है। तो तू यह मत कह कि युद्ध असत् है, हिंसक है, बुरा है, दुष्कर्म है; मैं न करूंगा; पाप है। कृष्ण पूरी व्याख्या को बड़ी गहराई पर ले जा रहे हैं। वे कह रहे हैं, सवाल युद्ध का नहीं है; सवाल करने वाले का है। अगर तू ऐसे युद्ध में उतरता, तू ही नहीं, परमात्मा ही तेरे द्वारा जो करवा रहा है, वह हो रहा है, तू बीच से हट जाए, तो सत् कर्म है। तो युद्ध भी धर्म—युद्ध हो जाता है। और अगर तू युद्ध कर रहा है और परमात्मा को तू पीछे हटा लेता है, खुद आगे आ जाता है, तो वह असत् हो जाता है।

इसका यह अर्थ हुआ कि कर्मों से कोई संबंध नहीं है सत् और असत् होने का। एक वेश्या भी सत् को उपलब्ध हो सकती है, एक चोर भी, एक हत्यारा भी, अगर उसने अपना अहंकार छोड दिया और परमात्मा ने जो करवाया वह निमित्त मात्र हो गया।

बस, तब गीत जो भी हो, वह सत् हो जाएगा। और चाहे तुम दान करो, तप करो, यज्ञ करो, लेकिन अहंकार के ही आभूषण जोड़ रहे हो, तो कृत्य अच्छे दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सत् नहीं हैं।
परमात्मा के हाथ की छाप जिस पर पड़ जाए, वही कृत्य सत् है, क्योंकि परमात्मा सत् है।

हे अर्जुन, बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन तथा दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया जाए, वह कर्म असत् है, ऐसा कहा जाता है।

श्रद्धा का अर्थ है, समर्पण। श्रद्धा का अर्थ है, निमित्त हो जाना। श्रद्धा का अर्थ है, मैं नहीं हूं तू है। श्रद्धा का अर्थ है, मैं हटा, तू आ और विराजमान हो जा। श्रद्धा का अर्थ है, मैं सिंहासन छोड़ता हूं तेरे लिए। श्रद्धा का अर्थ है, अब मैं ऐसे जीऊंगा, जैसे तू जिलाएगा; अब मेरी कोई मरजी नहीं, अब तेरी मरजी ही मेरी मरजी है। श्रद्धा का अर्थ है, फांसी। श्रद्धा का अर्थ है, मैं मरा, अब तू मुझसे जी। जिस क्षण तुम शववत हो जाते हो, उसी क्षण तुम शिववत हो जाते हो। जिस क्षण तुम मुरदे की भांति हो जाते हो, उसी क्षण परमात्मा का शिवत्व तुम्हारे भीतर से अहर्निश बहने लगता है। फिर तप करो, न करो, करने वाला न रहा, कोई फल की आकांक्षा न रही, तुम उसके हाथ की लकड़ी हो गए। फिर न तो तुम्हें पाप लगते, न पुण्य लगता। फिर कर्म के सारे जाल तुम्हें नहीं छूते। तुम फिर कमलवत इस संसार में रह सकते हो, अस्पर्शित।
और वह सब असत् है, जो बिना श्रद्धा के किया जाता है। इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे है।
उसके धोखे में मत पड़ना।

सूत्र रूप में, सार रूप में एक आखिरी बात स्मरण रखना कि जो भी तुमसे हो, वह अधर्म है। जो तुम करो, वह अधर्म है। जो अहंकार से बहे, वह पवित्र गंगा नहीं है। उस किनारे तीर्थ न बनेंगे। जो निरअहंकार से आए!

एक ही यश है, तुम्हारा जल जाना। नाहक घी मत जलाओ; घी की वैसे ही कमी है। नाहक अनाज मत फेंको; अनाज वैसे ही बहुत कम है। मूढ़ताएं मत करो।

एक ही तप है। धूप में मत खड़े रहो, क्योंकि उस धूप में तुम्हारा अहंकार ही और अकड़ेगा, भरेगा। व्यर्थ अपने को भूखा मत मारो, क्योंकि उस भूखे मरने में तुम्हारा अहंकार और सघन होगा। एक ही तप है कि तुम मिटो। एक ही यज्ञ है कि तुम मिटो। एक ही दान है कि तुम अपने को दे डालो। फिर जो बच रहता है, लहर के खो जाने पर जो बच रहता है सागर, उसका ही नाम है, ओम तत् सत्।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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