बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 15

 गीता—पाठ और कृष्‍ण–पूजा


ब्रह्मभूत: प्रसन्‍नत्‍मा न शोचिई न काङ्क्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते यराम्।। 54।।

भक्त्‍या मामीभजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वत:।

ततो मां तत्‍वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।

सर्क्कर्माण्यीप सदा कुर्वाणो मद्व्ययाश्रय:।

मत्प्रसादादवानोति शाश्वतं पदमध्ययम्।। 56।।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्‍पर:।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्‍चित्त: सततं भव।। 57।।

मच्चित: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तश्ष्यिसि।

अथ चेत्त्वमहंकारान्‍न श्रोष्यीस विनङ्क्ष्‍यसि।। 58।।


फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्‍ति को प्राप्त होता है।

और उस परा— भक्‍ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा उस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे मे प्रविष्ट हो जाता है।

और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों की सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है।

इसिलए है अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को आलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।

इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्‍यु आदि सब सकंटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।



फिर वह सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त वाला पुरुष न तो किसी वस्तु के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ मेरी परा— भक्ति को प्राप्त होता है।

परा—भक्ति

भक्ति की ऐसी अवस्था है, जहा कुछ भी मांगने को शेष न रह जाए। जहा भक्ति ही अपने आप में अपना आनंद हो, जहा भक्ति साधन न हो, साध्य हो जाए वहा परा— भक्ति हो जाती है। अगर तुम कुछ भी मांगते हो, तो भक्ति अभी परा— भक्ति नहीं है। अगर तुमने कहा, मोक्ष मिल जाए; तुमने अगर इतना भी कहा कि आनंद मिल जाए, सत्य मिल जाए, तो भी अभी भक्ति परा— भक्ति नहीं है। अभी मांग जारी है। अभी तुम भिखारी की तरह ही भगवान के द्वार पर आए हो।

और वहा तो स्वागत उन्हीं का है, जो सम्राट की तरह आते हों, कुछ भी न मांगते हों। वह इतना ही है कि बस, भक्ति करने का अवसर मिल जाए, काफी है। भक्ति ही अपने आप में इतना महाआनंद है, इतना बड़ा सत्य है, कि कुछ और चाह नहीं; तब परा— भक्ति।

उस परा— भक्ति के द्वारा मेरे को तत्व से भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाव वाला हूं तथा जिस भक्ति से मेरे को तत्व से जानकर तत्काल ही मेरे में प्रविष्ट हो जाता है।

और परा— भक्ति के क्षण में भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्ति में अलग रहते हैं। भक्ति में भक्त भक्त है, भगवान भगवान है। भक्त की आकांक्षा है कुछ अभी। और आकांक्षा ही दोनों को विभाजित करती है।

अभी भक्त पूरा नहीं खुला है, अभी अपनी मांग है। अभी अपने मन की कोई सूक्ष्म रेखा शेष रह गयी है। अभी कोई अपनी आकांक्षा का बारीक बीज बचा है, जल नहीं गया है। अभी भगवान मिल जाए...... अगर तुम अपने से पूछो, अभी भगवान मिल जाए, तो तुम उससे क्या मांगोगे? क्या कहोगे? अगर तुम गौर से देखोगे, तुम्हारी सब वासनाओं के बीज उभरने लगेंगे। मन कहने लगेगा, यह मांग लेंगे, वह मांग लेंगे। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। हजार बातें मन मांगने लगेगा।

तो अभी तो भक्ति भी पैदा नहीं हुई। भक्ति तब पैदा होती है, जब मन मुक्ति मांगें, कि इस संसार से ऊब गया, थक गया। अब और जन्म, जीवन नहीं चाहता। अब परम विश्राम में लीन हो जाना चाहता हूं मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति; तब भक्ति।

लेकिन मांग अभी है। जब यह मांग भी खो जाती है, जब तुम मुक्ति भी नहीं मांगते। जब तुम कहते हो, जो है बिलकुल ठीक है, जैसा है बिलकुल ठीक है। तुम्हारे मन में अस्वीकार की कोई रेखा भी नहीं रही। इस क्षण तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। ऐसी परम तृप्ति का क्षण परा— भक्ति है।

उस क्षण परमात्मा और भक्त में कोई फासला नहीं रह जाता। सब सीमाएं टूट जाती हैं। उसकी तरफ से तो कोई सीमा कभी है ही नहीं। तुम्हारी तरफ से थी, वह तुमने हटा ली।

ऐसे क्षण में मेरे में तत्‍क्षण प्रवेश कर जाता है।

एक क्षण भी नहीं खोता।

और मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त होता है।

कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, कोई कर्म त्यागना नहीं पड़ता। सब करते हुए! और यही सौंदर्य है कि सब करते हुए मुक्त हो जाओ। भागकर मुक्त हुए, वह कायर की मुक्ति है, डरे हुए की मुक्ति है, भयभीत की मुक्ति है। और भागकर मुक्त हुए, तो पूरे मुक्त कभी भी न हो पाओगे। जिससे तुम भागे हो, उससे थोड़ा बंधन बना ही रहेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिसने जीवन में भक्ति के सूत्र को समझ लिया और मेरे ऊपर सब छोड़ दिया, वह सब कर्म करता हुआ परम पद को प्राप्त हो जाता है। उसे कुछ छोड़ना नहीं पड़ता, उससे सब छूट जाता है।

छोड़ना और छूट जाना, बड़ा फासला है दोनों में। छोड़ने में तो तुम होते हो, छूट जाने में तुम नहीं होते। और जहां तुम होते हो, वहां अहंकार निर्मित होता ही रहेगा। त्यागी हो जाओगे, तो त्याग का अहंकार आ जाता है।



इसलिए हे अर्जुन, तू सब कर्मों को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग को अवलंबन करके निरंतर मेरे में चित्त वाला हो।

इस प्रकार तू मेरे में निरंतर मन वाला हुआ, मेरी कृपा से जन्म—मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जाएगा। और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा, तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा।

एक ही कारण है न सुनने का, बहरा होने का, वह अहंकार है। अगर तुम्हें यह पहले से ही पता है कि तुम जानते हो, तो फिर तुम सुन नहीं सकते। तुम ज्ञानी हो, सुन नहीं सकते।

अहंकार बहरापन है। वह एकमात्र बधिरता है। बहरे भी सुन लें, अहंकारी नहीं सुन सकता। कोई बहरा हो, तो जरा जोर से बोलकर बोल दो, चिल्लाकर बोल दो। लेकिन अहंकारी की बधिरता ऐसी है कि कोई भी चीज प्रवेश नहीं कर सकती। अहंकार लौह—कवच है। तो कृष्ण कहते हैं, अगर तू केवल अहंकार में घिरा रहा, समर्पण न कर सका, और मेरी बात तुझे सुनायी न पड़ी, तो तू नष्ट हो जाएगा।

नष्ट होने का इतना ही अर्थ है, यह जीवन फिर व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे बहुत जीवन व्यर्थ और नष्ट हुए। अगर इस बार तू सुन ले, तो यह जीवन सार्थक हो जाए, सुकृत हो जाए, नष्ट न हो।

जिस दिन भी तुम अहंकार को छोड्कर देख पाओ, सुन पाओ, हो पाओ, उसी दिन जीवन सार्थक हो जाता है। उसी दिन तुम्हें जीवन का शास्त्र समझ में आ जाता है। फिर गीता पढ़ी हो, न पढ़ी हो; कुरान सुना हो, न सुना हो; कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर ही वह भगवद्गीता का नाद शुरू हो जाता है।

कृष्ण तुम्हारे भीतर हैं। वहा से अभी गीता फिर पैदा हो सकती है। सिर्फ तुम्हारे अहंकार के टूटने की बात है।

समर्पण सूत्र है, अहंकार बाधा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...