मंगलवार, 17 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 10

 क्रांति की कीमिया: स्‍वीकार


ओम तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा ।। 23।।

तस्मादोमित्युदह्रत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।

प्रवर्तन्ते विधानोक्‍ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। 24।।

तदित्यनीभसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।

दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्तेमोक्षकांक्षिभि:।। 25।।


और हे अर्जुन, ओम तत् सत— ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं। इसलिए ब्रह्मवादिन पुरुषों की शास्त्र— विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप— रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे हम परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं। और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ तय— रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की इच्‍छा वाले पुरूषों द्वारा की जाती हैं।

हे अर्जून, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है। उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए हैं।

इसलिए ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।

और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही सब है, ऐसे इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।

समझें।

हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन रूप ब्रह्म का नाम कहा है..।

तत् का अर्थ होता है, वह, दैट। भक्त भगवान को कहता है तू वह नहीं। क्योंकि भक्त कहता है, वह तो बड़ा बेजान शब्द है। इसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। बड़ी दूरी मालूम पड़ती है। तू में निकटता है, आत्मीयता है, अपनापन है, सामीप्य है। वह, रेगिस्तान जैसा सूखा है। जहां जल की जरा भी धार नहीं मालूम होती, जहां कोई मरूद्यान दिखाई नहीं पड़ता; जहां हरियाली का कोई पता नहीं चलता।

वह शब्द बड़ा तटस्थ शब्द है, तत्, इसमें कोई भाव नहीं है, बड़ा अनासक्त, रूखा—सूखा, संगीत—शून्य। जैसे हमारा कोई संबंध नहीं है, कोई निकटता नहीं है। इसलिए भक्त तो तू का उपयोग करते रहे हैं, लेकिन ज्ञानी तत् का उपयोग करते हैं।

तू तो कितना ही निकट मालूम पड़े, उसमें मैं थोड़ा—सा मौजूद रहता है। क्योंकि बिना मैं के तू कैसे अर्थपूर्ण होगा? जब हम कहते हैं तू तो मैं भी हूं। कौन कहेगा तू? मैं तो बना ही रहेगा। कितनी ही फीकी हो जाए रेखा, कितना ही छिप जाए, लेकिन छिपा हुआ भी तो होगा। अन्यथा कौन कहेगा तू? तू में तो मैं मिला ही हुआ है।

तू बहुत सामीप्य है, सुंदर है  प्रेमपूर्ण है, भक्त के भाव को प्रकट करता है, निकटता की सूचना देता है, आर्द्र है, हृदय से भरा है, धड़कता है। वह, निर्जीव लगता है। लेकिन वह की अपनी खूबी है। वह तू से आगे जाता है। और वह में भी रस है। लेकिन वह तभी तुम्हें दिखाई पड़ेगा, जब तुम मैं और तू से आगे गए। उसके। पहले नहीं दिखाई पड़ेगा।

उसके पहले तो हम वृक्षों को कहते हैं वह। तुम वृक्ष को तो तू नहीं कहते? पत्थर को कहते हैं वह। पत्थर को तो तुम तू नहीं कहते? तुम्हें पता ही नहीं है।

इसीलिए तुम जब ब्रह्म को भी वह कहोगे, तत्, तब तुम्हें लगेगा कि यह तो ज्ञानियों की बड़ी सूखी बात हो गई। इसमें हृदय में कहीं धड़कन नहीं होती, वीणा कहीं बजती नहीं भीतर की। यह तो कुछ बुद्धिगत, बौद्धिक मालूम होती है बात। भक्त को आप्लावित नहीं करती, नचाती नहीं।

वह के आस—पास नाचना बड़ा मुश्किल है। कृष्ण की गोपियां तू के आस—पास नाच रही हैं। वह के आस—पास कैसे नाचोगे? नाच बंद हो जाएगा। तार हाथ से छूट जाएंगे। गीत अवरुद्ध हो जाएगा। तो सारे भक्तों ने—यहूदी, इस्लाम, हिंदू जहां—जहां भक्ति पैदा हुई—उन्होंने ओम तत् सत् को इनकार किया है। उन्होंने वह परमात्मा है, ऐसी बात नहीं कही। तू परमात्मा है, ऐसी बात कही है।। लेकिन कृष्ण कहते हैं, ओम तत् सत्। वह ओंकार—स्वरूप है, वह—स्वरूप है और सत्य है।

इसे ठीक से समझ लें। इसका अनुभव तुम्हें नहीं है, वह के आनंद का, इसलिए सूखा लगता है। अन्यथा वह जैसे बादल कभी घिरते ही नहीं। और जैसी वर्षा उनसे होती है, तू से क्या खाक होगी! क्योंकि तू में तुम तो रहोगे मौजूद। मैं भी मौजूद रहेगा। और उतनी ही अड़चन रहेगी। तुम परमात्मा के निकट भला पहुंच जाओ, परमात्मा न हो सकोगे।

और जितनी निकटता बढ़ती है, उतनी ही दूरी खलती है। जितने—जितने पास आते हो, उतना ही लगता है, कब एक हो जाएं! छलांग हो जाए! उतना ही विरह का ज्वार पैदा होता है। सिर्फ वह की घड़ी ही तुम्हें एक कर पाएगी।

वह के दो हिस्से हैं, एक है, ओम तत् सत्। परमात्मा वह—स्वरूप है, दैटनेस। और दूसरा सूत्र है उपनिषदों का, जो इसे पूरा करता है, तत्वमसि श्वेतकेतु—वह तू ही है श्वेतकेतु, वह कोई अलग नहीं है। तो इसे कैसे तुम अनुभव करोगे?। वह की थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। वृक्ष के पास बैठो, शांत होकर बैठो। कोई शब्द, विचार न उठे मन में। सिर्फ बैठो। वृक्ष को छुओ भला, बोलो मत, सोचो मत; वृक्ष को आलिंगन कर लो, इस बात की प्रतीति करो तुम्हारे और वृक्ष के बीच में कोई शब्द न रह जाए।

अचानक तुम पाओगे, तुम वृक्ष हो गए, वृक्ष तुम हो गया। अचानक सीमा टूट गई। बीच में कुछ बहने लगा। दोनों के बीच कोई सेतु बन गया, कोई सागर लहराने लगा। वृक्ष तुम्हारे पास आने लगा। तुम वृक्ष के भीतर, वृक्ष तुम्हारे भीतर। वृक्ष की हरियाली तुम्हें हरा करने लगी। तुम्हारा चैतन्य वृक्ष को चेतन बनाने लगा। तब तुम्हें थोड़ी—सी प्रतीति वह की होगी। न तुम रहे, न वृक्ष रहा।

वृक्ष के साथ शायद कठिन हो। जिसे तुम प्रेम करते हो—पत्नी को, प्रेयसी को, मित्र को—कभी उसका हाथ हाथ में लेकर बैठ जाओ। और एक ही प्रयोग करो कि दोनों के चित्त में कोई विचार न हो। वहां जरा थोड़ी कठिनाई है वृक्ष से, क्योंकि वहा दूसरे के भी विचार बाधा बनेंगे। इसलिए मैंने पहले वृक्ष को कहा।

दोनों शांत बैठ जाओ। देखते रहो आकाश में उगे चांद को पूर्णिमा की रात में। शांत बैठे रहो, मौन। प्रेम को ध्यान बनाओ। थोड़ी ही देर में तुम कभी—कभी झलक पाओगे, एकाध क्षण को तुम दोनों के विचार जब बंद हो जाएंगे, ऐसा मेल जब बैठ जाएगा संयोग से, तो तुम अचानक पाओगे, किसी विराट ऊर्जा ने तुम्हें घेर लिया, वह ने तुम्हें घेर लिया। तुम दोनों एक हो गए। और उस एकता के क्षण में न तो मैं था, और न तू था।

ऐसी ही अनुभूति की अंतिम सीमा है, ओम तत् सत्। जब कोई व्यक्ति इस पूरे अस्तित्व के साथ एकता का अनुभव करता है, कोई भेद नहीं रह जाता; अंश अंशी के साथ मिल जाता है, लहर सागर में खो जाती है।

हे अर्जुन, ओम तत् सत्, ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है.....।

इसलिए हिंदुओं की जो परम प्रज्ञा है, उसने परमात्मा को वह कहा है। वह कोरा शब्द नहीं है, न रूखा शब्द है। हां, तुम्हें रूखा मालूम पड़ता है, क्योंकि तुमने उसका स्वाद कभी लिया नहीं। जिन्होंने उसका स्वाद लिया, उनके लिए मैं और तू शब्द बिलकुल फीके हो गए। उन्होंने असली को जान लिया, तो मैं और तू छायाएं मालूम पड़ने लगे।

कितनी ही सुंदर हो छाया, चित्र कितना ही प्यारा हो, मूल के साथ एक—सा तो नहीं हो सकता। और कितना ही प्यारा हो, मूल तो नहीं हो सकता। वह मूल है। वह दो में टूट गया है, मैं और तू। और जब तक मैं और तू न मिल जाएं, तब तक तुम्हें उसका कोई अनुभव न होगा। 'और ओम उसका नाम है।

ओम तीन मात्राओं से बना है, अ उ म, ए यू एम। यहां कृष्ण त्रिगुण की ही चर्चा किए चले जा रहे हैं। वे सब दिशाओं से अर्जुन को कह रहे हैं, सारा अस्तित्व तीन से बना है। ओम भी तीन से बना है।

ओम कोई शब्द नहीं है। उसका कोई भाषा कोश अंतर्गत अर्थ नहीं है। वह ध्वनि है। और बड़ी अदभुत ध्वनि है। और वह ध्वनि मनुष्य निर्मित नहीं है। वह ध्वनि तब उपलब्ध होती है, जब तुम्हारे सब विचार शून्य हो जाते हैं। जब तुम्हारी मनुष्यता खो जाती है, सभ्यता, संस्कृति सब खो जाती है। जब तुम कोरे आकाश जैसे खाली रह जाते हो, कोरे कागज जैसे, तब तुम्हारे भीतर एक नाद का आविर्भाव होता है।

आविर्भाव होता है, कहना ठीक नहीं। नाद तो बज ही रहा था, तुम खाली न थे, इसलिए सुन न पाते थे। अब तुम सुन रहे हो। खाली हो गए हो, अब बाजार का कोलाहल बंद हो गया, अब मन की बकवास बंद हो गई, अब तुम सुन पाते हो।

तुम्हारे भीतर जो नाद अहर्निश चल रहा था, उस अहर्निश नाद का ढंग ओम है। वह ओंकार जैसा मालूम होता है, जैसे भीतर कोई ओम, ओम, ओम की अहर्निश ध्वनि किए जा रहा है। तुम नहीं कर रहे हो, तुम तो चुप हो, तुम तो हो ही नहीं; तुम तो खो गए हो, ओंकार गूंज रहा है।

इसलिए मैं कहता हूं अपने साधकों को कि तुम ओंकार को साधना मत। नहीं तो तुम्हारा सधा हुआ ओंकार तुम्हें कभी उस ओंकार को न जानने देगा, उस ओंकार से तुम्हें वंचित रखेगा, जो अनाहत है।

अनाहत का अर्थ ही होता है कि जो तुम्हारे द्वारा पैदा नहीं हुआ; जो किसी से पैदा नहीं हुआ।

अब इसे थोड़ा समझ लो।

तुम ओंकार से पैदा हुए हो; ओंकार तुमसे पैदा नहीं हुआ। ओंकार तुमसे पूर्व है। तुम ओंकार का ही सघन रूप हो। ओंकार मूल तत्व है। ओंकार का मतलब है, वह नाद, जो सारे अस्तित्व में चल रहा है। उस नाद के अलग— अलग रूप अलग—अलग ढंग हैं। तुम जब बिलकुल शांत हो जाओगे, तुम उसे बजता हुआ पाओगे। बड़ी कठिनाई है। अगर तुमने ओम का रटन शुरू कर दिया, और तुमने इसका मंत्र बना लिया, और तुम ओम— ओम जपते रहे, तो तुम जो ओम सुनोगे, वह मन का ही नाद होगा। वह तुम्हारा ही ओम है। तुमसे पैदा हुआ है, झूठा है। वह वह ओंकार नहीं है, जिसकी कृष्ण अर्जुन से बात कर रहे हैं।

ओम तत् सत्, ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानंदघन ब्रह्म का नाम कहा है।

यह सच्चिदानंद भी तीन शब्दों से बना है, सत् चित् आनंद। अ उ म, अ सत् का प्रतीक है, उ चित् का, म आनंद का। ओम प्रतीक है सच्चिदानंद का।

जब उस ओंकार की ध्वनि तुम्हारे भीतर बजेगी, तब तुम तीन चीजें अपने भीतर पाओगे। पाओगे कि तुम हो, तुम्हारा होना। तुम नहीं, होना। मैं नहीं, अस्तित्व। हम कहते हैं, मैं हूं। उसमें से मैं तो कट जाएगा, हूं बचेगा। हूं — भाव सत् है।

और दूसरी चीज तुम पाओगे चित्, चैतन्य, कि तुम परम चैतन्य से भरे हो, होश, जागृति। दिन हो गया, रात कट गई। मूर्च्छा गई, प्रमाद टूटा। दीया जल रहा है, अकंप उसकी लौ है।

और आनंद। और तुम अपने को आनंद से घिरे हुए पाओगे; जैसे आनंद के बादल तुम पर बरस रहे हों।

ये तीन उसके लक्षण हैं, उसके मंदिर के करीब पहुंचने के। और ओंकार उसका नाद है।

उसी से सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गए......।

फिर तीन ब्राह्मण, वेद और यज्ञ। यह बड़ा सारपूर्ण वचन है। उसी ओंकार से, उसी वह से सब जन्मा है। जन्म को तीन हिस्सों में बांट रहे हैं कृष्ण।

ब्राह्मण। ब्राह्मण का अर्थ है वह, जिसने उसे जान लिया। ब्राह्मण का अर्थ है, ज्ञानी। ब्राह्मण का अर्थ है, ब्रह्म को उपलब्ध। ब्राह्मण का अर्थ है, जो ब्रह्म—स्वरूप हो गया, जिसने अपने भीतर अहर्निश अनाहत नाद को सुन लिया। जो सच्चिदानंदघन रूप हो गया, वह ब्राह्मण।

इसका क्या मतलब हुआ कि आदि में उससे ही ब्राह्मण पैदा होते हैं? इसका अर्थ हुआ कि जब भी कोई ब्रह्म को जानता है  तो अपने द्वारा नहीं जानता, ब्रह्म के द्वारा ही जानता है। खुद को तो मिटा लेता है। बस, इतना ही तुम्हें करना है कि तुम मिट जाओ, खाली जगह हो जाओ, सिंहासन से उतर जाओ। और ब्रह्म सिंहासन पर उतर आता है। ब्राह्मण तुम अपनी चेष्टा से नहीं हो सकते।

बड़ी पुरानी कथा है कि विश्वामित्र क्षत्रिय घर में पैदा हुए और ब्राह्मण होना चाहते थे। लेकिन कोई कैसे अपनी चेष्टा से ब्राह्मण हो सकता है? उन्होंने बड़ी चेष्टा की, बड़ा तप किया।

वशिष्ठ उन दिनों ब्रह्मज्ञानी थे। और जब तक वशिष्ठ न कह दें कि तुम ब्राह्मण हो गए, तब तक स्वीकृति न थी। बड़ी तपश्चर्या की, बड़ी कोशिश की। लेकिन वशिष्ठ ने न कहा, न कहा।

यह कथा कोई वर्ण—व्यवस्था की कथा नहीं है। यह चेष्टा और प्रसाद की कथा है। लोगों ने यही समझा है कि वर्ण—व्यवस्था की कथा है कि क्षत्रिय कैसे ब्राह्मण हो सकता है! क्योंकि वर्ण तो जन्म से है।

नहीं, इस कथा से वर्ण का कोई संबंध नहीं है। कथा चेष्टा और प्रसाद की है। कोई चेष्टा से कैसे ब्राह्मण हो सकता है? परमात्मा के प्रसाद से होता है। और विश्वामित्र तो क्षत्रिय थे। क्षत्रिय तो चेष्टा से जीता है। वही तो फर्क है।

राजस व्यक्ति चेष्टा से जीता है। सात्विक व्यक्ति प्रसाद से जीता है। आलसी व्यक्ति न तो चेष्टा से जीता है, न प्रसाद से जीता है, वह तो मुरदे की तरह पड़ा रहता है। ऐसे ही घसिटता है, जीता ही नहीं।

क्षत्रिय ने बड़ी चेष्टा की। महान तप किया। वर्षों बीत गए। लेकिन वशिष्ठ के मुंह से न निकली यह बात कि विश्वामित्र ब्राह्मण हैं। क्षत्रिय तो क्षत्रिय। और वशिष्ठ के मुंह से न निकली, कारण भी यही था कि अभी भी क्षत्रिय मौजूद था, अभी भी चेष्टा मौजूद थी। अहंकार मौजूद था कि मैं ब्राह्मण होकर रहूंगा! क्योंकि अगर ब्राह्मण जो कर सकता है, सब मैं कर रहा हूं। ब्राह्मण को जो शुद्धि चाहिए, सब मुझ में हो गई है। मंदिर पूरा तैयार है।

लेकिन मंदिर के पूरे तैयार होने से कोई परमात्मा की प्रतिष्ठा थोड़े ही हो जाती है। मंदिर बिलकुल तैयार है। सब ठीक है। लेकिन मंदिर में मूर्ति नहीं है। मूर्ति तुम न ला सकोगे। तुम तो मंदिर तैयार कर सकते हो। प्रार्थना कर सकते हो कि आओ, उतरी। आह्वान कर सकते हो। उतर आए परमात्मा, उतर आए। न उतरे, तुम क्या करोगे!

हमेशा उतर आता है, जब तुम खाली होते हो, जब मंदिर तैयार होता है। लेकिन थोड़ी अड़चन थी, विश्वामित्र खाली न थे, अहंकार से भरे थे, चेष्टा से भरे थे।

वर्षों बीत गए, बुढ़ापा करीब आने लगा। और विश्वामित्र......। एक दिन शिष्यों ने कहा कि हम फिर गए थे पूछने। और वशिष्ठ को पूछा; उन्होंने कहा कि विश्वामित्र और ब्राह्मण? कभी नहीं। क्षत्रिय है और क्षत्रिय ही है।

क्रोध आ गया; उठा ली तलवार। क्षत्रिय ही थे, भूल गए वे तप, तपश्चर्या, सब तंत्र—मंत्र। सब बंद। खींच ली तलवार, एक क्षण में वर्षों की तपश्चर्या खो गई। वर्षों का ब्राह्मण का जो रूप था, खो गया।

रूप का कोई मूल्य नहीं है, अंतरात्मा चाहिए। अंतसात्मा क्षत्रिय की थी, चेष्टा, संकल्प। ब्राह्मण है समर्पण। क्षत्रिय है संकल्प, विल पावर। खींच ली तलवार, भागे।

पूरे चांद की रात थी। वशिष्ठ अपने झोपड़े के बाहर अपने शिष्यों से कुछ ब्रह्मचर्चा करते थे। मौका ठीक नहीं था, इस समय बीच में कूद पड़ना उचित न था। बहुत लोग थे। तो विश्वामित्र छिप गए एक झाड़ी के पीछे कि जब लोग विदा हो जाएंगे और वशिष्ठ अकेले रह जाएंगे, तो आज इसको खतम ही कर देना है। मैं और ब्राह्मण नहीं?

झाड़ी के पीछे छिपे बैठे सुनते रहे। चर्चा चलती थी, किसी शिष्य ने वशिष्ठ को पूछा कि आप विश्वामित्र को कब ब्राह्मण कहेंगे? उसकी पीड़ा को समझें! उसकी तपश्चर्या को देखें!

वशिष्ठ ने कहा, सब पूरा हो गया है। किसी भी क्षण कहने को मैं राजी हूं अब। जरा—सी कमी रह गई है। अहंकार शुद्ध हो गया है, लेकिन मैं मौजूद है अभी। मैं ब्राह्मण कहने को तैयार हूं किसी भी क्षण। जरा—सी कमी है; एक बारीक रेखा अहंकार की रह गई है,। बस। जिस क्षण पूरी हो जाए। विश्वामित्र करीब—करीब ब्राह्मण हैं। तुम से ज्यादा ब्राह्मण हैं।

वे जन्मजात ब्राह्मण थे, जो पूछ रहे थे। कहा, तुमसे ज्यादा ब्राह्मण हैं। लेकिन अगर इसी तरह का ब्राह्मण उनको बनना हो, तो मैं कहने को राजी हूं, इसमें क्या अड़चन है! मगर विश्वामित्र से बड़ी आशा है। बड़ी संभावना छिपी है उस आदमी के भीतर। और इसलिए मैं रोक रहा हूं रोक रहा हूं, रोक रहा हूं। मैं उसी दिन कहूंगा, जिस दिन बात बिलकुल पूरी हो जाए। उसके पहले कहने से रुकावट पड़ेगी।

सुना विश्वामित्र ने छिपे हुए झाड़ी में। फेंक दी तलवार, भागे। वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। वशिष्ठ ने कहा, ब्राह्मण, उठो!

ब्राह्मण हो गए, एक क्षण में। हाथ में तलवार थी, क्षत्रिय था, राजस था। एक क्षण में तलवार गिरी, संकल्प गिरा, समर्पण हुआ, पैर छू लिए, विनम्र हो गए। ब्राह्मण हो गए। ब्रह्म उतर आया। ब्राह्मण का अर्थ है, जिसमें ब्रह्म उतर आया।

कृष्ण कहते हैं, पहली चीज ब्राह्मण परमात्मा ने बनाई। फिर ब्राह्मण ने जो कहा, ब्रह्म को जानकर जो कहा, उससे वेद निर्मित हुए। वे परमात्मा से जरा दूर हैं; जरा—सी दूरी है। ब्राह्मण बीच में खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी '

ब्रह्मज्ञानी परमात्मा के निकटतम है। फिर ब्रह्मज्ञानी ने जो कहा। वह भी परमात्मा ही बोल रहा है, क्योंकि अब ब्रह्मज्ञानी है नहीं, अब तो ब्रह्म ही है, वही बोल रहा है। लेकिन एक सीढ़ी का फासला है। बीच में गुरु खड़ा है, ब्रह्मज्ञानी खड़ा है, ब्राह्मण खड़ा है।

ब्राह्मण ने जो बोला, वे वेद। और वेद को मानकर जो किया जा सकता है, वह यज्ञादि।

और एक कदम का फासला हो गया। वेद को मानकर जो कृत्य किए जा सकते हैं, कर्म—कांड, वह यज्ञ इत्यादि। परमात्मा, ब्राह्मण, वेद, यज्ञ।

जो तमस प्रकृति का व्यक्ति है, वह यज्ञादिको को चुनेगा। जो रजस प्रकृति का व्यक्ति है, वह वेद आदि को चुनेगा। जो सत्व प्रकृति का व्यक्ति है, वह गुरु, ब्राह्मण, सदगुरु को चुनेगा।

अगर ब्राह्मण उपलब्ध हो, तो वेद को मत चुनना। क्योंकि क्या फायदा सेकेंड हैंड, बासे शब्दों में! जब ब्राह्मण उपलब्ध हो, जहां से कि ताजी सरिता अभी वेद की पैदा हो रही हो, तो वेद को मत चुनना। अगर गुरु उपलब्ध हो, तो शास्त्र व्यर्थ। अगर गुरु उपलब्ध न हो, तो शास्त्र को चुनना, क्रिया—कांड को मत चुनना। शास्त्र को समझना। शास्त्र समझने के लिए है, करने के लिए नहीं। समझ से मुक्ति होती है। समझ पर्याप्त है।

जो शास्त्र के रहते क्रिया—कांड चुन लेता है, वह निपट मूढ़ है। लेकिन अगर शास्त्र भी उपलब्ध न हो, तब क्रिया—कांड ही शेष रह। जाता है। क्रिया—कांड  आखिरी प्रतिध्वनि है परमात्मा की।

एक आदमी मंदिर में थाली लेकर पूजा कर रहा है। यह आखिरी ध्वनि है परमात्मा की। फिर एक आदमी गीता का अध्ययन कर रहा है, स्वाध्याय कर रहा है, समझने की कोशिश कर रहा है। यह जरा निकट है। यह मंदिर में आरती उतारने से ज्यादा निकट है। यह आग जलाकर, उसमें घी फेंकने से ज्यादा निकट है। यह क्रिया—कांड से ज्यादा गहरी है, क्योंकि यह चैतन्य में प्रवेश करेगी।

फिर एक आदमी गुरु के पास बैठा है, कुछ भी नहीं कर रहा है।

न क्रिया—कांड है गुरु के पास, न शास्त्र का अध्ययन है। सामीप्य है, सत्संग है। गुरु के पास बैठा है। सिर्फ पास होना है, निकटता है, कुछ घट रहा है।

तीन ही तरह के व्यक्ति हैं और तीन ही परमात्मा के कदम हैं। यज्ञदिकों से बचा जा सकता है, तो बचना। शास्त्रों से बचा जा सके, बचना। अगर गुरु खोज सको जीवित, ब्राह्मण खोज सको जीवित, तो वहां से ब्रह्म का सीधा, निकटतम द्वार है।

यह भी संभव है कि बिना गुरु के भी ब्रह्म मिल जाए। अगर वह भी संभव हो सके, तो गुरु से भी बचना। लेकिन वह अति कठिन है। कठिन तो है यज्ञ से ही बचना। फिर और कठिन है शास्त्र से बचना। फिर अति कठिन है गुरु से बचना। अपनी जीवन—स्थिति को सोचकर अपने कदम को चुनना।

ब्राह्मण, वेद तथा यज्ञादिक रचे......।

ब्रह्मवादिन श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र—विधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप—रूप क्रियाएं सदा ओम, ऐसे परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।

सारे शास्त्र भारत के ओंकार से शुरू होते हैं, ओंकार पर पूर्ण होते हैं। यह प्रतीक है। यह प्रतीक है कि परमात्मा ही प्रारंभ है और परमात्मा ही अंत है। वहीं से तुम आते हो, वहीं लौट जाते हो। वहां वर्तुल पूरा होता है। वही पहला कदम, वही आखिरी कदम। वही जन्म, वही मृत्यु। इसलिए ओम से शुरू होते हैं, ओम पर पूर्ण होते हैं।

और ऐसा ही तुम्हारा जीवन होना चाहिए; ओम से शुरू हुआ है, ओम पर ही पूर्ण हो। शुरू तो ओम से ही हुआ है, तुम्हें चाहे पता भी न हो। तुम्हें पता भी नहीं हो सकता, जब तक ओम पर पूर्ण न हो। जिस दिन ओम पर पूर्ण होगा, उस दिन तुम जानोगे कि ओम से ही शुरू हुआ, ओम में ही चला, ओम में ही पूरा हुआ।

जैसे मछली सागर में पैदा होती है, सागर में ही जीती, सागर में ही लीन हो जाती। ऐसे ही, शास्त्रों में प्रतीक है, कि ओम से शुरू होता, ओम पर पूर्ण होता। ऐसा ही तुम्हारा जीवन भी हो। तुम्हारा प्रत्येक कृत्य ओम से शुरू हो और ओम पर पूरा हो।

थोड़ा खयाल करो। तुम दुकान पर बैठो, ओम से ही दुकान खोलो। यह ओम कई तरह का हो सकता है। यह ओम सिर्फ यज्ञादिक हो सकता है। तब करीब—करीब व्यर्थ है। तुमने कह दिया, लेकिन कुछ प्रयोजन नहीं है। आदत है, एक औपचारिकता है, पूरा कर दिया।

लेकिन यह भाव का भी हो सकता है। यह गहरा भी हो सकता है। तुमने पूरे हृदय से कहा, तो तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया में अंतर पड़ जाएंगे। तो तुम दुकान पर बैठोगे, लेकिन तुम वही न हो पाओगे, जो कल तक थे। और जब ग्राहक आएगा और तुम कुछ बेचना शुरू करोगे, अगर ओम से ही शुरू किया, तो तुम ग्राहक को उस आसानी से न लूट पाओगे, जिस आसानी से तुम लूट लेते। थोड़ी करुणा होगी, थोड़ी दया होगी, थोड़ा सदभाव होगा।

प्रत्येक कृत्य को ओम से शुरू करने की अगर दृष्टि आ जाए भाव से, तो तुम पाओगे, एक छोटी—सी घटना तुम्हारे पूरे जीवन को बदल देती है। लेकिन उपचार हो, तो कोई सार नहीं।


नहीं, ओम के भी तीन रूप हैं। एक—यज्ञादिक, कर रहे हैं। दूसरा—वेद से, बोध से, अध्ययन से, स्वाध्याय से, मनन से, चिंतन से। और तीसरा—ब्राह्मण जैसा, भाव से, अंतर्भाव से!

और तत् अर्थात तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप—रूप क्रियाएं तथा दान—रूप क्रियाएं मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।

इस वचन में एक बड़ा गहरा विरोधाभास है। तुम्हें अड़चन मालूम होगी! क्योंकि यह कहता है कि ऐसा यह सब उसी का है, ऐसे भाव से फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा वाले पुरुषों द्वारा।

तो मोक्ष की आकांक्षा तो फल की चाह है। तो यह सूत्र तो बडी उलझन में डालने वाला है। मगर कोई उलझन है नहीं, अगर समझ लो, तो बात सीधी—सीधी है।

मोक्ष की आकांक्षा पहले पैदा होती है। तुमने संसार की आकांक्षा की है। स्वभावत:, तुम आकांक्षा करने में कुशल हो गए हो। तुम कुछ और कर भी नहीं सकते। तुम अचानक अनाकांक्षा कैसे करोगे? अचाह कैसे करोगे? तुम्हें पहले तो संसार की आकांक्षा की जगह मोक्ष की आकांक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन जैसे ही तुमने मोक्ष की आकांक्षा की, तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है, मोक्ष की आकांक्षा से मोक्ष नहीं मिलता। इसे तुम थोड़ा ठीक से समझ लो। संसार की आकांक्षा से संसार मिल जाता है। अगर तुम ठीक से दौड— धूप करोगे, तो धन कमा ही लोगे, इसमें ऐसी क्या अड़चन है? अगर न कमा पाओ, तो दौड़— धूप ठीक से नहीं की, इतना ही सिद्ध होता है।

अगर तुम पद पर पहुंचना चाहते हो, तो पहुंच ही जाओगे। गधे पहुंच गए हैं, तो तुम्हें क्या अड़चन है! कोई भी पहुंच सकता है। सिर्फ एक पागलपन चाहिए दौड़ने का। और फिर किसी की सुनने की बुद्धि नहीं चाहिए, बुद्धि चाहिए ही नहीं पद पर पहुंचने के लिए। बुद्धि अड़चन बन जाती है। तुमने किसी की सुनी, तो दूसरा निकल जाएगा आगे उतनी देर में! तुम सुनना ही मत!

तो अगर पद चाहिए और तुम चूक जाओ, तो उसका कुल मतलब इतना ही है कि तुम जरा सज्जनता का व्यवहार कर रहे थे, और कुछ मामला नहीं है। 




संसार में तो आकांक्षा पूरी हो जाती है। आकांक्षा और संसार का कोई विरोध नहीं है। क्योंकि क्षुद्र की आकांक्षा है। क्षुद्र तो आकांक्षा से मिट जाता है, विराट नहीं मिलता।

अब यहां तुम बड़ी अड़चन पाओगे। तुम्हें धर्मगुरु समझाते हैं कि आकांक्षा से संसार में कुछ न मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं आकांक्षा से सब मिल जाता है। जिनको नहीं मिलता, उन्होंने ठीक से नहीं की। या की, तो कुनकुनी! पूरी उबली नहीं; पूरे प्राण न लगाए। या प्राण भी लगाए, तो मोक्ष को भी बचाने की चेष्टा साथ में जारी रखी कि धन भी कमा लें और ईमानदारी भी बची रहे।

अब ऐसा कहीं हो सकता है! धन कमाना है, तो बेईमानी रास्ता है। वह तो उसका गणित है। धन कमाना है, तो बेईमान होने को राजी हो जाओ। फिर मोक्ष की फिक्र छोड़ दो। फिर धर्म और धन दोनों को सम्हाला, तो दो नावों पर सवार रहे; कहीं न पहुंचोगे।

तो जिसको जाना है संसार में, वह निश्चित पहुंच जाता है। धर्मगुरु तुमसे ठीक नहीं कहते। वे तुमसे कहते हैं, परमात्मा की आकांक्षा करो; क्या संसार की आकांक्षा कर रहे हो! और मैं तुमसे कहता हूं, यह बात ही उलटी है। संसार की आकांक्षा करने वाला तो संसार को पा ही लेता है। सिकंदर सिकंदर हो जाते हैं। नेपोलियन नेपोलियन हो जाते हैं। मिल जाता है।

परमात्मा की आकांक्षा असंभव आकांक्षा है। वह आकांक्षा से मिलता ही नहीं। लेकिन पहला कदम यही होगा कि संसार को चाह—चाहकर तुमने कुछ सार न पाया......।

दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जिन्होंने पा लिया सब कुछ जो चाहते थे, लेकिन पाकर भी सार न पाया। क्योंकि सार तो यहां है नहीं। सार तो परमात्मा है। और दूसरे, जिन्होंने पाने की ठीक से कोशिश न की, इसलिए आकांक्षा में जले पड़े रहे।

पहले लोग ही ठीक अर्थों में धार्मिक हो सकते हैं। दूसरे तरह के लोग ठीक अर्थों में धार्मिक नहीं हो सकते। धार्मिक होने के लिए संसार की दौड़ असार सिद्ध हो जानी चाहिए; तब नई दौड़ शुरू होती है। तब तुम पूरे प्राणपण से नई दौड़ में लगते हो। तब तुम परमात्मा को चाहते हो, मोक्ष चाहते हो, सत्य चाहते हो। एक आकांक्षा पैदा होती है, मोक्ष की आकांक्षा!

लेकिन जब मोक्ष की आकांक्षा में तुम दौड़ोगे, तब तुम्हें धीरे— धीरे पता चलेगा कि मोक्ष की आकांक्षा करना मोक्ष से बचने का उपाय है। यहां तो आकांक्षा गिर जाए, तो मोक्ष मिलता है। क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही आकांक्षा से मुक्त हो जाना है; कोई और अर्थ नहीं है। परमात्मा को पाने का अर्थ ही यह है कि जहां पाने की कोई चाह न रही, वहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए विपरीत शब्दों का उपयोग कृष्ण ने किया है।

वे कहते हैं, फल को न चाहकर मोक्ष की आकांक्षा करने वाले पुरुषों द्वारा.......।

मोक्ष की आकांक्षा पैराडाक्सिकल है, विरोधाभासी है। वहा आकांक्षा बाधा है।

शुरू आकांक्षा से करोगे, अंत निराकांक्षा पर होगा। चढ़ोगे चाह से; धीरे— धीरे अनुभव बताएगा कि चाह पहुंचाती नहीं, भटकाती है। तब एक दिन चाह गिर जाएगी। और जहां तुम अचाह हुए, वहीं उपलब्धि है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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