सोमवार, 16 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 6

 तीन प्रकार के यज्ञ


  अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विभिदृष्टो य हज्यते।

यष्टध्यमेवेति मन: समाधाय अ सात्‍विक।। 11।।

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।

इज्‍यते भरतश्रेष्ठं तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।। 12।।

विधिहीनमसृष्‍टान्‍नं मंत्रहीनमदक्षईणम् ।

श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ।। 13।।


और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र— विधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरूषों द्वारा किया जाता है, यह यज्ञ तो सात्‍विक है।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ केवल दंभाचरण के ही लिए अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान।

तथा शास्त्र— विधि से हीन और अन्न— दान से रहित एवं बिना मंत्रों के बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।


और हे अर्जुन, जो यज्ञ शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ है तथा करना कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्विक है।

और हे अर्जुन, जो केवल दंभाचरण के लिए ही अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उसे तू राजस जान।

तथा शास्त्र—विधि से हीन, अन्न—दान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस कहते हैं।


 यज्ञ का अर्थ है, धर्म की समस्त प्रक्रियाएं। यज्ञ तो प्रतीक है। धर्म की समस्त प्रक्रियाएं तीन ढंग से की जा सकती हैं।

एक ढंग है सात्विक का। वह किसी फल की आकांक्षा से नहीं करता। उसकी कोई मांग नहीं है। वह यश करता है, तो कुछ मांगने के लिए नहीं, कुछ पाने के लिए नहीं। उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं। रजस शांत हो गया है। वह इसलिए भी यज्ञ नहीं करता कि जो मेरे पास है, वह बचा रहे। उसकी सुरक्षा रहे, उसे चोर चुरा न ले जाएं। उसे राज्य न छीन ले। वह मुझसे खो न जाए। नहीं, उसका तमस भी शांत हो गया है।

फिर यज्ञ वह करता क्यों है! सात्विक व्यक्ति क्यों यज्ञ करता है! तामसी मंदिर जाता है, समझ में आता है। राजसी भी जाता है, समझ में आता है। सात्विक क्यों जाता है? और वस्तुत: केवल सात्विक ही जाता है। बाकी कोई नहीं जाते। सात्विक सिर्फ अहोभाव प्रकट करने जाता है, आनंद भाव प्रकट करने जाता है, धन्यवाद देने जाता है, अनुग्रह के कारण जाता है।

वह अगर यज्ञ करता है, तो शास्त्र कहते हैं। शास्त्र का अर्थ है, शास्ताओं के वचन। जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है। वह अपनी बुद्धि को नहीं लगाता। निरअहंकार भाव से जानने वालों ने कहा है, ठीक कहा होगा। जानने वाले कहते हैं, ऐसा करने से लाभ है, ऐसा करना आनंद है, ऐसा करना कर्तव्य है, वह करता है। उसकी अपनी कोई मांग नहीं है। वह समर्पण भाव से करता है।

सदगुरु कहते हैं, इसलिए करता है। श्रद्धा से करता है। उसका अपना कुछ लेना—देना नहीं है। लेकिन जब जानने वाले कहते हैं, तो जरूर कोई राज होगा। जब जानने वाले कहते हैं, तो जरूर कोई रहस्य होगा। जो मुझे दिखाई नहीं पड़ता, उन्हें दिखाई पड़ता है। वे दूर तक देख सकते हैं, उनके पास दूरगामी दृष्टि है। वे ऊंचाई पर खड़े हैं, वहां से उन्हें सब दिखाई पड़ता है। मैं जमीन पर खड़ा हूं वहां से मुझे इतने दूर की चीजें दिखाई नहीं पड़ती। उनकी दृष्टि विहंगम है। वे पक्षी की तरह हैं। वे ऊपर से उड़कर देखते हैं। मैं तो जमीन पर खड़ा हूं मुझे विस्तार दिखाई नहीं पड़ता। थोड़ा—सा अपने आस—पास दिखाई पड़ता है। वे कहते हैं, ठीक कहते होंगे। वे कहते हैं, तो जरूर करने योग्य है, ऐसी श्रद्धा से करता है, वासना से नहीं, कामना से नहीं।

जो यज्ञ शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ है.।

वह बिलकुल शास्त्र के अनुसार करता है। वह कोई जबरदस्ती नहीं कर लेता कि किसी तरह निपटा दो।

तुम भी प्रार्थना करते हो, जल्दी निपटा देते हो। अगर अदालत जाना है, तो पांच मिनट में पूरी हो जाती है। ट्रेन पकड़ना है, तो एक ही मिनट में पूरी हो जाती है। और कोई काम नहीं है, रविवार का दिन है, तो एक घंटा चलती है; घंटी हिलाते रहते हो बैठकर।

तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी श्रद्धा और शास्त्र से नहीं निकलती। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे हिसाब से निकलती है। जब जैसी जरूरत पड़ी! कभी जरूरत पड़ी, तो एक दिन तुम दो दिन की भी कर लेते हो।

मैंने सुना है कि एक इफिशिएंसी एक्सपर्ट, जो लोगों को कैसे कम समय में ज्यादा काम करना, रोज अपने प्रार्थना के कमरे में जाकर कहता, डिट्टो! जस्ट एज लाइक दि अदर डे, वही जैसा कल। और बाहर निकल आता। परमात्मा इतना तो समझता ही है कि डिट्टो। अब इसमें रोज—रोज क्या दोहराना, घंटी बजाना, प्रार्थना, पूजा, चंदन—तिलक—घंटा खराब करना! भगवान क्या कोई नासमझ है?

शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ, शास्त्रोक्त, शास्ताओं द्वारा कहा हुआ, कर्तव्य है, करने जैसा है.......।

इसे समझ लो। तुम्हें बहुत बातें पता नहीं हैं। अगर तुम जिद करो कि जब हमें पता होंगी, तभी हम करेंगे, तो तुम कर ही न पाओगे। मैं तुम्हें कहता हूं ध्यान करो। तुम कहते हो, क्यों करें? इससे क्या लाभ? हमें कभी लाभ नहीं हुआ।

तुमने कभी किया नहीं; लाभ कैसे होगा? तुम कहते हो, बिना लाभ का पक्का हुए, हम करें क्यों? होगा, इसका आश्वासन क्या है? अगर न हुआ तो? अगर समय खराब गया तो? गारंटी है कोई।

तुम कैसे ध्यान कर सकते हो? तुम भरोसे से ध्यान करते हो। एक छोटा बेटा चलना शुरू करता है। अगर वह भरोसा न करे बाप पर...। बाप उससे कहता है कि तू भी मेरे जैसा चल सकेगा। मान तो नहीं सकता। क्योंकि बाप है छ: फीट का और वह इतना—सा। कैसे बाप जैसा हो सकता है? बाप को देखता है, तो टोपी गिर जाती है उसकी। बाप जैसा मैं कैसे हो सकता हूं? तुम इतने शक्तिशाली, लोग तुमसे डरते हैं। घर में आते हो, तो नौकर—चाकर घबड़ा जाते हैं। मुझसे कोई डरता ही नहीं। बल्कि जहां भी मैं जाता हूं नौकर—चाकर भी डरवाते हैं। यह हो नहीं सकता कि मैं तुम्हारे जैसा हूं। तुम चल सकते हो। मैं तो चार हाथ—पैर घुटनों पर ही घिसटूंगा।

नहीं, लेकिन बाप कहता है, भरोसा कर, तेरे पास मेरे जैसे पैर हैं। वह खड़ा भी होता है, गिर भी जाता है, चोट भी खाता है। फिर भी भरोसा नहीं छोड़ता।

अगर बच्चे जरा ज्यादा कुशल हों, चालाक हों, तर्क कर सकें, तो वे कहेंगे, गिर गए बस अब हो गया, घुटने छिल गए। क्षमा करो, देख लिया। एक दफे देख लिया, जांच लिया। अब, अब ये बहाने मत बनाओ, घुटने मत तुड़वा दो। हम ठीक चल रहे हैं। सुविधापूर्ण है सब। तो बच्चे सदा ही घिसटते रहें।

धर्म के जीवन में फिर एक नया बचपन है तुम्हारा। तुम्हें पता नहीं, तुम जब देखते हो बुद्ध—महावीर की तरफ, तो वे आकाश छूते मालूम पडते हैं. टोपी गिरती है। तुम्हें भरोसा नहीं आता कि तुम भी उन जैसे हो। वे लाख कहें तुमसे, कैसे भरोसा आए?

अंडे में छिपा हुआ है मुर्गी का चूजा और मुर्गा अकड़कर खड़ा है बाहर। उसकी शान देखो, उसकी बांग देखो। उसकी कलगी की रौनक देखो सूरज की रोशनी में। और वह चिल्लाकर कह रहा है, घबड़ा मत, निकल आ बाहर अंडे के। तू भी मेरे जैसा है। चूजा और घबड़ाकर सरक जाता है भीतर। इस तरह का मैं कैसे हो सकता हूं! इतना—सा , अंडे में छिपा, अंडा तक तोड़ना मुश्किल है। न ऐसी बाग दे सकता हूं।

बुद्ध के वचनों को बुद्ध के भिक्षुओं ने सिंहनाद कहा है। कि उनकी गर्जना सुनकर सोए हुए सिंह जाग जाते हैं।

लेकिन तुम्हें पहले तो यही लगेगा कि चारों घुटने—पैर से ही चलने दो। मत झंझट में डालो। यह हमसे न हो सकेगा। लेकिन भरोसा तुम करते हो, तो आगे उठते हो।

सत्य को मानने वाला व्यक्ति श्रद्धापूर्ण होता है। और ऐसा नहीं है कि एक बार श्रद्धा टूट जाती है, तो श्रद्धा खो देता है। कई बार बच्चे को गिरना पड़ता है। कई बार तुम्हारा ध्यान चूकेगा, नहीं लगेगा। कई बार समाधि लगते—लगते चूक जाएगी, खड़े होते—होते गिर जाओगे। लेकिन फिर भी श्रद्धावान श्रद्धा को कायम रखता है। कोई चीज उसकी श्रद्धा को नहीं तोड़ पाती, विपरीत अनुभव भी नहीं तोड़ पाते। उसकी श्रद्धा सबसे बड़ी है। विपरीत अनुभवों से बड़ी है। वह भरोसा किए जाता है।

शास्त्र—विधि से नियत किया हुआ, कर्तव्य है, ऐसे मन को समाधान करके...।

क्योंकि अभी समाधि तो उपलब्ध नहीं हुई, अभी तो समाधान करना पड़ेगा। अभी तो मन को समझाना पड़ेगा कि मन, थोड़ा चल, देख, शायद कुछ हो। निर्णय मत ले; विरोध में पहले से मत सोच; निषेध को पक्का मत कर; शायद कुछ हो। द्वार खुला रख; निष्कर्ष मत बना; चलकर देख। शायद कुछ अनुभव में आए तो आगे की यात्रा सुगम हो जाए।

अभी समाधि तो मिली नहीं। जिसको समाधि मिली, उसे समाधान की कोई जरूरत नहीं। साधक को तो समाधान करके चलना पड़ता है। ऐसा मन को समाधान करके, फल की आकांक्षा न करते हुए, वह यज्ञ करता है। वह धार्मिक पूजा, प्रार्थना, अर्चना, यश, साधना करता है। ऐसा व्यक्ति सात्विक है।

इसको जरा अपने भीतर खोजना। तुम्हारा ध्यान भी ऐसा ही हो, सत्व से अनुप्राणित हो, तब तुम्हें बहुत मिलेगा। यही तो अड़चन है। मांगते हो, मिलता नहीं, न मांगोगे, मिलेगा। वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर रत्नों की। लेकिन तुम मांगोगे, तो कंकड़—पत्थर भी न मिलेंगे।

और हे अर्जुन, जो यज्ञ केवल दंभाचरण के लिए है.....।

सिर्फ अहंकार के लिए है कि लोगों को दिखा दूं कि मैंने अश्वमेध यज्ञ किया! दंभाचरण के लिए है, कि देखो मैंने कितना बड़ा यज्ञ किया, हजारों ब्राह्मणों ने पूजा—पाठ की, लाखों ने भोजन किया। सिर्फ दंभ के लिए है।

सम्राट किया करते थे अश्वमेध यज्ञ, वह दंभाचरण था। भेजते थे घोड़े को, वह सारे राज्य में घूमता था। कोई उस घोड़े को छेड़ दे, तो युद्ध छिड़ जाता। वह घोड़ा इस बात की खबर थी, जैसे कि पहलवान लंगोट घुमाते हैं अखाड़े में कि अगर कोई बीच में बोल दे कि ठहरो, रुक जाओ, मैं लड़ने को तैयार हूं। ऐसा घोड़ा घुमाते थे पूरे राज्य में। वह खबर थी कि घोड़ा छुआ न जाए, रोका न जाए। अगर कहीं भी रोका गया, तो तुम झगड़ा मोल ले रहे हो सम्राट से। वह चक्रवर्ती होने की घोषणा थी। जब घोड़ा वापस लौट आता, कोई रोकने वाला न होता, तो वह सम्राट चक्रवर्ती हो जाता।

वह राजस है, वह महत्वाकांक्षा का है। उसमें कुछ पाने की कामना है। दभाचरण के लिए अथवा फल को उद्देश्य में रखकर किया जाता है। कि कुछ फल मिल जाए; राज्य और बड़ा हो, धन और बढ़े; यश, पद, प्रतिष्ठा हो।

और फिर तामसी का यज्ञ भी है, तामसी की धर्म—साधना भी है। शास्त्र—विधि से हीन..।

वह मनगढंत होती है। वह खुद ही बना लेता है अपनी। क्योंकि अगर वह शास्त्र को मानकर चले, तो चलना पड़ेगा, उठना पड़ेगा। वह अपनी खुद ही बना लेता है; अपने तमस के हिसाब से बना लेता है। तमस निर्धारक होता है। तमस से भरा हुआ चित्त अपना ही शास्त्र बन जाता है, अपना ही गुरु हो जाता है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि क्यों समर्पण किया जाए? क्या हम खुद ही नहीं पा सकते?

अब खुद ही पा सकते हो, तो मेरे पास इतना बताने भी किसलिए आए? खुद ही पा सकते हो, मजे से पा लो। इसके लिए भी मेरे पास आने की क्या जरूरत है? नहीं, वे कहते हैं, आपसे जरा सलाह लें। सलाह का क्या काम? सलाह भी मेरी होगी, उसको भी छोड़ो। तुम अपना ही कर डालो।

तमस अपना ही कर लेना चाहता है। क्योंकि तब वह अपने लिए सुविधा बनाकर करता है। अगर शास्त्र में विधि है कि पद्यासन लगाकर बैठो, अब तामसी को पद्यासन लगाना मुश्किल होता है। तो वह कहता है, क्या हर्जा है अगर लेटकर करें? हर्जा तो कुछ भी नहीं है। लेटने का जो लाभ होगा, वही लाभ होगा।

तामसी अपनी व्यवस्था बना लेना चाहता है, ताकि तमस न टूटे। इसलिए शास्त्र—विधि से हीन, दान से रहित।

तामसी मांगता है, दे नहीं सकता। राजसी देता है, ताकि पा सके। तामसी तो दे ही नहीं सकता। इतने के लिए भी नहीं दे सकता कि पाने के लिए भी दे सके। वह बिना दिए मांगता है। तामसी भिखारी है। वह सिर्फ भिक्षापात्र सामने करता है। वह कुछ देना नहीं चाहता।

 दान से रहित, बिना मंत्रों के..।

क्योंकि मंत्र तो जिन्होंने तय किए हैं, वे बड़ी मेहनत से तय किए गए हैं। उनमें सत्य को पैदा करने की क्षमता है, मंत्रों में। उनके अनुच्चार में, उनकी गूंज में, उनसे पैदा होने वाले वातावरण में सत्व फलित होता है।

तुमने कभी ख्याल किया होगा, पश्चिमी संगीत को सुनकर तुममें कामवासना जागी। पूर्वीय शास्त्रीय संगीत को सुनकर तुम थोड़ी देर को कामवासना को बिलकुल भूल जाओगे। खयाल ही न आएगा। पश्चिमी संगीत को सुनकर तुम्हारे भीतर कुछ करने का भाव जगेगा। वह राजस से भरा है। पूरब के संगीत को सुनकर तुम ध्यानस्थ हो जाओगे। वीणा बजती रहेगी, तुम्हारे भीतर के शब्द, विचार खो जाएंगे.। तुम पाओगे, एक धुन बंध गई।

एक वेश्या को नाचते देखकर तुम्हारे भीतर कामवासना जागी। लेकिन कृष्ण को नाचते देखकर तुम्हारे भीतर, वह जो पारलौकिक है, उसका आविर्भाव होगा। शरीर एक ही है। अंग वही हैं। उनका कंपन भी वही है। लेकिन फिर भी रूपांतर हो जाता है। शब्द वही हैं, ध्वनि वही है, संगीत के वाद्य वही हैं, अंगुलियां वही हैं, लेकिन सब बदल जाता हैं।

मंत्र बड़ी लंबी यात्रा में खोजे गए हैं। उन्हें बड़ी मेहनत से निर्णीत किया गया है। अगर तुम ओंकार की ध्वनि ही करते रहो बैठकर, तो तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर रूपांतरण शुरू हो गया। क्योंकि ध्वनि को मात्र ध्वनि मत समझना; क्योंकि ध्वनि तो तुम्हारे प्राणों का सार है। तुम जो भी ध्वनि अपने भीतर करोगे, उस जैसे ही होने लगोगे। इसलिए मंत्र का बड़ा मूल्य है। मंत्र जीवन को बदलने की एक कीमिया है। वह ध्वनिशास्त्र है। उसके भीतर बड़ा विज्ञान छिपा है। तुमने कभी सोचा, एक नग्न स्त्री का चित्र देखकर तुम्हारे भीतर सारे शरीर में कामवासना दौड़ जाती है। कुछ भी नहीं है कागज में, सिर्फ लकीरें खिंची हैं। हो सकता है, सिर्फ स्केच हो एक नग्न स्त्री का। लेकिन बस, तुम्हारे भीतर सपना जग जाता है, वासना उठ आती है, विचार वासना के दौड़ने लगते हैं।

बुद्ध का भी क्या है? एक कागज पर बुद्ध का चित्र बना है। लकीरें खिंची हैं। उसको भी तुम गौर से देखो। कुछ और पैदा होता है। लकीरें वही, कागज वही, स्याही वही, खींचने वाला भी हो वही। लेकिन जरा—सा फर्क लकीरों का, कागज का, स्याही का, और तुम्हारे भीतर बुद्धत्व की थोड़ी—सी प्रतिमा निर्मित होती है। ऐसे ही ध्वनि के द्वारा हमने ऐसे मंत्रों को चुना है, जिन मंत्रों का उपयोग तुम्हारे भीतर एक वातावरण पैदा करता है, एक परिवेश पैदा करता है। और वह परिवेश तुम्हें बचाता है, बदलता है, नया कर्ता है, पुनरुज्जीवित करता है।

तामसी बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के......।

दक्षिणा बड़ी अनूठी चीज है; भारत ने खोजी। दुनिया में कहीं दक्षिणा जैसा कोई शब्द नहीं है। दक्षिणा का अनुवाद करना हो, तो दुनिया की भाषाओं में शब्द नहीं है, कि इसका अनुवाद कैसे करो? दक्षिणा का मतलब बड़ा अजीब है।

एक आदमी को तुम दान देते हो, तो स्वभावत: तुम्हारी आकांक्षा होती है कि वह तुम्हें धन्यवाद दे। तुमने दान दिया और वह आदमी चल पड़े और धन्यवाद भी न दे। तो तुम कहोगे, गलत आदमी को दे दिया, अपात्र को दे दिया। इसको कम से कम धन्यवाद तो देना चाहिए।

दक्षिणा का अर्थ है, जिसने दान दिया, वह लेने वाले को धन्यवाद भी दे। क्योंकि उसने लेने की कृपा की। न लेता तो? दान दो, और फिर उसने लिया, इसके लिए जो धन्यवाद दिया जाता है, वह दक्षिणा। कि आपने दान स्वीकार किया, राजी हुए मुझे दानी होने का मौका दिया, मुझ ना—कुछ को देने की सुविधा दी, इसके लिए दक्षिणा। इतना और लो। यह धन्यवाद।




तो शूद्र तो कैसे धन्यवाद दे सकता है! शूद्र पहले तो दान ही नहीं दे सकता। राजस दान दे सकता है। सात्विक दक्षिणा भी दे सकता है। यह फर्क है। शूद्र दान नहीं दे सकता, सिर्फ ले सकता है। राजस व्यक्ति लेने में जरा कठिनाई पाता है, वह उसके अहंकार के विपरीत है। वह दे सकता है। लेकिन वह चाहेगा कि जिसको दिया है, वह धन्यवाद दे। उतना सौदा कायम है।

सात्विक व्यक्ति देता भी है और देने के पीछे दक्षिणा भी देता है कि धन्यवाद, आपने स्वीकार किया। ऐसा दान पूर्ण हो जाता है, जो दक्षिणा से संयुक्त है। अन्यथा दान अधूरा रह जाता है।

यह बात भारत की अनूठी है कि दान दो और दक्षिणा दो। यह दुनिया में कोई न समझ पाएगा। यह तो व्यवसाय के बिलकुल बाहर मामला हो गया। यह तो बाजार को बिलकुल तोड़ ही दिया। बाजार के नियम और अर्थशास्त्र को, इकॉनामिक्स को किनारे रख दिया। दान भी और दक्षिणा भी?

लेकिन सात्विक पुरुष धन्यभागी मानता है कि किसी ने स्वीकार किया, कोई राजी हुआ, किसी ने मौका दिया, तो दक्षिणा देनी जरूरी है। दान तभी पूरा है, जब दक्षिणा से संयुक्त हो; अन्यथा अधूरा दान है। राजस का रह जाता है, सात्विक का नहीं।

बिना दक्षिणा के, बिना श्रद्धा के किए हुए यज्ञ को तामस कहते हैं।

वह करता भी है, लेकिन उसकी श्रद्धा बिलकुल नहीं है। वह करता है कि शायद फल मिल जाए, करता है कि शायद कोई सुरक्षा मिल जाए। लेकिन श्रद्धा नहीं है, भीतर अश्रद्धा है।

तामस व्यक्ति अश्रद्धा से करता है। राजस व्यक्ति अधूरी श्रद्धा से करता है। सात्विक व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा से करता है। लेकिन श्रद्धा पूर्ण तभी होती है, जब तुम बिलकुल मिट गए, जब तुम हो ही नहीं। गुरु कहता है, इसलिए करता है; अपना कोई होना न रहा। शास्त्र कहते हैं, इसलिए करता है , अपना कोई होना न रहा। आदेश है, इसलिए पूरा करता है, अपनी कोई आकांक्षा नहीं, अपनी कोई वासना नहीं। ऐसे सत्व में ही परमात्मा का आविर्भाव होता है। सत्व के मंदिर में ही परमात्मा का सिंहासन है। वहीं उसकी प्रतिमा विराजमान है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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