रविवार, 15 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 6

 ऊर्ध्‍वगमन और अधोगमन


 इदमद्य मया लब्‍धमिमं प्राप्‍स्‍ये मनोरथम् ।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।। 13।।

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्‍ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहम्हं भोगी सिद्धोsहं बलवान्तुखी।। 14।।

आढ्योऽभिजनवानस्मि कीऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्‍ये दास्यामि मौदिष्य इत्‍याज्ञानविमीहिता:।। 15।।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता:।

प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेsशुचौ।। 16।।


और उन आसुरी पुरूषों के विचार इस प्रकार के होते है, कि मैने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह भविष्य में और अधिक होवेगा।

तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा। मैं ईश्वर अर्थात ऐश्वर्यवान हूं और ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान और सुखी हूं।


मैं बड़ा धनवान और बड़े कुटुंब वाला हूं; मेरे समान दूसरा कौन है! मैं यज्ञ करूंगा, दान देऊंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित हैं। वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय—भोगों में अत्यंत आसक्त हुए महान अपवित्र नरक में गिरते हैं।


और उन आसुरी पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं, कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह भविष्य में और अधिक होवेगा। आसुरी संपदा के व्यक्ति को और की दौड़ होती है। उसके पास जो भी हो, उसे वह और बढ़ा लेना चाहता है। जो भी उसके पास हो, उतनी मात्रा उसे कभी काफी नहीं मालूम पड़ती।


आसुरी संपदा का व्यक्ति मात्रा में बड़ा उत्सुक होता है, क्वांटिटी में उत्सुक होता है। दस रुपए हों, तो हजार हो जाएं; हजार हों, तो दस हजार हो जाएं; दस हजार हों, तो दस करोड़ हो जाएं; उसकी मात्रा बढ़ती जाती है। आकड़ों में जीता है, कितने बड़े आकड़ों का फैलाव हो जाए! और उसकी पकड़ है। उसके पास जो भी है, वह कम है।

दूसरी बात, उसके पास जो भी है, उसमें उसे कोई सुख नहीं है। सुख सदा वहां है, जो उसके पास नहीं है।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को सुख सदा आकाश में कहीं दूर है। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति आशा में जीता है। जो उसके पास है, उसमें तो कुछ खास रस नहीं है। ठीक है। जो नहीं है, आनंद वहां छिपा है। और जब तक वह उसे न पा ले, तब तक आनंदित न हो सकेगा। वह दौड़ता रहता है। आज नष्ट करता है कल के लिए। कल को फिर नष्ट करेगा और आगे आने वाले कल के लिए। ऐसे पूरे जीवन को वह नष्ट करता जाएगा और जीने को पोस्टपोन करता रहेगा। वह कहेगा कि कल जब सब मेरे पास होगा, तब मैं जीऊंगा।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति भी ऐसे ही दौड़ता रहता है। धन इकट्ठा करता है। पद इकट्ठा करता है। उसे सुविधा तो कभी मिल ही नहीं पाती कि वह उसका उपयोग कर ले। आगे की दौड़ उसे पकड़े रहती है। और रोज को वह कुर्बान करता है। भविष्य के लिए, वर्तमान को वह बलि चढ़ाता है भविष्य के लिए।

और ध्यान रहे, वर्तमान के अतिरिक्त किसी चीज की कोई सत्ता नहीं है। भविष्य तो बिलकुल सपना है। जो आज को खो रहा है कल के लिए, वह आज को व्यर्थ ही खो रहा है। और एक बार यह आदत बन गई आज को खोने की, तो मैं सदा आज को खोता रहूंगा। और जब भी समय आता है, वह आज की तरह आता है; कल तो कभी आता नहीं।

और यह जो और की दौड़ है, इसका कोई भी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि यह हर चीज पर जुड़ जाएगी। जो भी आप पा लेंगे, आपका आसुरी संपदा वाला मन कहेगा, और! आप सोच भी नहीं सकते कोई ऐसी स्थिति, जब आपका मन कहे कि बस, काफी! आप सोचें, कभी एकांत में बैठकर यही सोचें कि कितना धन आपको मिल जाए, तो आपका मन और नहीं कहेगा। तो आप अपने साथ ही खेल में पड़ जाएंगे। पहले सोचेंगे, दस करोड़। लेकिन भीतर—अभी कोई दस करोड़ दे भी नहीं रहा है, मिल भी नहीं गए हैं—लेकिन भीतर कोई कहेगा, इतने कम पर राजी क्यों होते हो जब दस अरब हो सकते हैं!

तो जो आपको आखिरी संख्या मालूम है, वहां तक तो आपका मन दौड़ाएगा। और आखिरी संख्या पर भी आपको बेचैनी अनुभव होगी कि और गणित क्यों न सीख लिया! और गणित जानते, तो आज यह मुसीबत तो न होती। आज अटक गए यहां आकर, दस महाशंख या एक करोड़ महाशंख, कहा अब जो संख्या आती है, वह भी छोटी मालूम पड़ेगी। सारी दुनिया आपको मिल जाए, तो भी छोटी मालूम पड़ेगी।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति आज, यहीं जो उसके पास है, जो वह है, उसको परिपूर्णता से जीता है। इसका यह अर्थ नहीं कि उसका विकास नहीं होता। उसका ही विकास होता है। और भी निकलता है आज से, लेकिन वह उसकी मांग नहीं करता। वह आज को जीने से उसका और निकलता है। और उसकी मांग नहीं है, उसके जीवन का फल है।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति आज तो जीता नहीं, और को सोचता रहता है। उसका और केवल मन पर दौड़ रहा है; वह जीवन का फल नहीं है।

तो यह विरोधाभासी बात: आप समझ लें। आसुरी संपदा वाला सोचता है, और! और! और! और जितना सोचता है उतना कम होता जाता है, क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है। दैवी संपदा वाला और का विचार नहीं करता, जो है, उसको पूरे के पूरे समस्त भाव से स्वीकार करके डूबता है। इस डूबने से और निकलता है, और बहुत कुछ उसे मिलता है।

वह जो परमात्मा का तलाशी है, दैवी संपदा का जो व्यक्ति है, वह इसी क्षण में परमात्मा की तलाश कर रहा है। शेष सब भी आता है, लेकिन उस शेष सबकी उसकी कोई मांग नहीं है।

ऐसा ही है और ऐसा ही प्रतिपल हो रहा है। जो—जो आपने जीवन में मांगा है, वह कुछ भी आपके पास है नहीं। जो—जो आपने जीवन में दिया है, छोड़ दिया है, वह सब आपके पास है। जिसे हम छोड़ देते हैं, वह सदा के लिए हमारा हो जाता है। और जिसे हम पकड़ लेते हैं, वह सदा के लिए बोझ हो जाता है, और छूटने की तैयारी करता रहता है।

मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है फिर भी यह भविष्य में और अधिक होएगा। तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा। मैं ऐश्वर्यवान हूं ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त बलवान एवं सुखी हूं।

यह बड़ा समझने जैसा है।

हमेशा आसुरी संपदा वाला व्यक्ति दूसरों को नष्ट करने की कामना से भरा रहता है, कैसे दूसरों को मिटा दूं! क्योंकि वह सोचता है, जब कोई भी न होगा, तब मैं परिपूर्ण हो जाऊंगा। अगर इस पृथ्वी पर कोई न हो, तो मैं ही सम्राट होऊंगा। तो जो भी मेरे विपरीत है, उसको मिटा दूं; जो भी मुझसे अन्यथा है, उसको नष्ट कर दूंगा ताकि मेरा साम्राज्य अबाध हो।

दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को मिटाने का विचार नहीं करता। दैवी संपदा का व्यक्ति अपने को मिटाने का विचार करता है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। क्योंकि वह कहता है, जब तक मैं हूं तभी तक कष्ट रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा, शून्य हो जाऊंगा, तब आनंद हो जाएगा।

दैवी संपदा के व्यक्ति का साम्राज्य उसके अहंकार के खो जाने पर उपलब्ध होता है। आसुरी संपदा के व्यक्ति के साम्राज्य की आका्ंक्षा दूसरों को मिटाने में है, कितना मैं दूसरों को मिटा दूं। आसुरी संपदा का व्यक्ति आपको जिंदा छोड़ सकता है, अगर आप उसके सामने मुरदे की भांति हो जाएं।

आसुरी संपदा का व्यक्ति विवाह करे, तो पत्नी को वस्तु बना देगा, वह मार डालेगा बिलकुल। उसको इस हालत में कर देगा कि उसमें कोई जीवन न बचे। वह कहे रात, तो रात। वह कहे दिन, तो दिन। आसुरी संपदा की स्त्री हो, तो पति को बिलकुल मिट्टी कर देगी। उसको छाया की भांति चलाना चाहेगी। आसुरी संपदा का पिता हो, तो बेटों को पोंछ देगा। उनको बड़ा करेगा, लेकिन ऐसे, जैसे वे मुरदे हैं। उनकी कोई स्वतंत्रता, उसकी कोई गरिमा नहीं बचने देगा।

आसुरी संपदा का व्यक्ति दुश्मनों को मार डालता है। मित्रों को मरे हुए कर देता है। उससे मित्रता रखनी हो तो मुरदा होना जरूरी है।

यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, दुश्मनों को मिटा डालता है, क्योंकि वे झुकने को तैयार नहीं होते। मित्रों को पोंछ डालता है, उनके जीवन में कुछ सत्व नहीं बचने देता। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह आपको चूस रहा है, नष्ट कर रहा है।

दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा कि वह आपको जीवन दे रहा है। आपकी कुम्हलाई हुई जिंदगी फिर से ताजी हो रही है। दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर आपको लगेगा, आपका भी मूल्य है; आप भी स्वीकार किए गए हैं, स्वागत है। आप भी एक धन्यता हैं। छोटे से छोटे व्यक्ति को भी दैवी संपदा वाले व्यक्ति के पास बैठकर लगेगा, उसका कोई मूल्य है, जगत में उसका भी कोई अर्थ है। वह व्यर्थ नहीं है, बोझ नहीं है।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ व्यक्ति को भी बैठकर लगेगा, उसका जीवन तुच्छ है। जिसके पास पहुंचकर आपको ऐसा लगे कि आपको तुच्छ किया जा रहा है, तो समझना कि आसुरी संपदा काम कर रही है। अगर आप दूसरों को तुच्छ करने की वृत्ति से भरे हों, तो समझना कि आप आसुरी संपदा से भरे हैं।

दूसरे की गरिमा और गौरव को स्वीकार करने का आपका मन हो, दूसरे का निजी मूल्य है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है, वह कोई साधन नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में परम मूल्य है, अल्टिमेट वैज्यू है। अगर दूसरे व्यक्ति के प्रति आपका ऐसा सदभाव हो, तो आप में दैवी संपदा का जन्म होगा।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के लिए व्यक्ति है ही नहीं, व्यक्तित्व की कोई गरिमा नहीं है। शत्रुओं को वह नष्ट करना चाहता है। और निरंतर सोचता है, आज शत्रु को मारा; वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, दूसरों को भी मैं कल मारूंगा! वह सदा मारने की तैयारी में लगा है। उसकी चिंतना विध्वंस की है। वह मृत्यु का आराधक है। वह यमदूत है।

ठीक उससे विपरीत सृजन की जो आराधना है, क्रिएटिविटी, कि मैं कुछ निर्मित करूं, कुछ बनाऊं, जहां कुछ भी नहीं था, वहां कुछ निर्मित हो, जहां जमीन खाली पड़ी थी, वहां एक पौधा उगे, कुछ बने—वह जो सृजन की आराधना है, वही ईश्वर की तरफ जाने का मार्ग है।

इधर मैं आपको कहना चाहूं कि दुनिया के सभी धर्मों ने ईश्वर को स्रष्टा कहा है। ईश्वर को स्रष्टा सिद्ध करना आसान नहीं। दुनिया की कभी सृष्टि हुई है, इसके लिए प्रमाण जुटाना आसान नहीं। और एक बात तो निश्चित है कि उस सृष्टि के क्षण में हममें से कोई भी नहीं था, इसलिए कोई गवाही नहीं दे सकता। और जो भी हम कहेंगे, वह सिर्फ कल्पना होगी। क्योंकि अगर हम मौजूद थे, तो सृष्टि उसके पहले ही हो चुकी थी।

तो सृष्टि के प्राथमिक क्षण का तो हमें कोई पता नहीं है। हम कल्पना कर सकते हैं कि परमात्मा ने बनाई, कि नहीं बनाई, कि क्या हुआ। लेकिन वह सिर्फ मानसिक विलास होगा।

लेकिन फिर भी दुनिया के अधिक धर्म परमात्मा के स्रष्टा होने पर जोर क्यों देते हैं? कुछ कारण है। और वह कारण यह है कि जिस व्यक्ति को भी सृजन पकड़ लेता है, जो व्यक्ति भी अपने जीवन में स्रष्टा हो जाता है, उसे परमात्मा का अनुभव शुरू होता है। इस अनुभव से यह प्रमाण मिलता है कि इस जगत की गहनतम स्थिति सृजनात्मक है। परमात्मा स्रष्टा है, यह स्रष्टा अगर हम हों, तो हमें पता चलता है।

अगर आप एक गीत भी जन्म दे सकें, तो उस गीत को जन्म देने के क्षण में आप में परमात्म— भाव प्रकट होता है। आप एक चित्र भी बना सकें, एक मूर्ति खोद सकें, एक बच्चे को निर्मित कर सकें, बड़ा कर सकें—कुछ भी—एक पौधे को भी आप सम्हाल लें, और उसमें फूल आ जाएं, तो उन क्षणों में जो आपको प्रतीति होती है, वह परमात्मा की छोटी—सी झलक है।

विध्वंस परमात्म—विरोध है; सृजन परमात्मा की तरफ प्रार्थना है। और जो प्रार्थना सृजनात्मक न हो, वह प्रार्थना बांझ है, उस प्रार्थना का कोई भी मूल्य नहीं। मंदिर में बैठकर आप चीख—पुकार करते रहें, उससे कुछ बहुत हल होने वाला नहीं है। उतनी शक्ति सृजन में लग जाए, तो प्रार्थना सजीव हो उठेगी। जब आप स्रष्टा होते हैं, तभी आप परमात्मा के निकट होते हैं।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति, मैं ऐश्वर्यवान हूं ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान हूं और सुखी हूं ऐसी मान्यता रखता है।

सुखी तो होता नहीं, लेकिन मान्यता ऐसी रखता है कि मैं सुखी हूं; ऐसा अपने को समझाता है। यह बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है। हम जो नहीं होते, अपने को समझाने की कोशिश करते हैं। कमजोर आदमी अपने को शक्तिशाली समझता है। कमजोर आदमी अपने को समझाता है कि मैं महाशक्तिशाली हूं।

तो वह जो कमजोर आदमी है, अपने से कमजोर खोज लेता है। उनकी छाती पर चढ़कर वह सिद्ध कर लेता है कि मैं निश्चित ही बलवान हूं। आप अपने से मूढ़ को खोज लेते हैं!

और ध्यान रहे, हम सदा यही कोशिश करते हैं कि हमसे कमजोर, हमसे मूढ़ हमें मिल जाए। क्योंकि उसके पास हम बड़े मालूम होते हैं। लगता है, हम कुछ हैं। इससे प्रतीति हम अपने भीतर कर लेते हैं कि सब ठीक है।

कृष्ण भी वही बात कह रहे हैं; कह रहे हैं कि ऐसा आदमी सुखी होता नहीं, हो नहीं सकता, लेकिन मानता है कि मैं सुखी हूं। और गौरव से इसका प्रचार करता है कि मैं सुखी हूं। उसके प्रचार के कारण आप भी धोखे में आ जाते हैं।

उनकी मुस्कुराहट बिलकुल ऊपर से पोती गई है, पेंटेड है, क्योंकि भीतर वे रो रहे हैं और परेशान हैं। और एक क्षण की उनको सुविधा नहीं है, सुख नहीं है, शांति नहीं है। लेकिन बाहर वे दिखलाने की कोशिश करते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं, बड़े आनंदित हैं। उससे आपको भी भ्रम पैदा होता है।

आप भी जब घर से बाहर निकलते हैं, तो दूसरों को भ्रम पैदा करवाते हैं कि बड़े प्रसन्न हैं। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो पति—पत्नी ऐसी प्रेमपूर्ण बातें करने लगते हैं, जैसी उन्होंने कभी नहीं कीं। घर में कोई न हो, तब उनका असली रूप दिखाई पड़ता है। शिष्टाचार है, सभ्यता है।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपनी दीनता को छिपाकर उसका विपरीत रूप प्रकट करता रहता है। तो वह कहता है, मैं ऐश्वर्यवान हूं। वह कहता है कि मैं ऐश्वर्यों का भोगने वाला हूं। वह कहता है कि मैं सब सिद्धियों से युक्त हूं; कि मैं बलवान हूं? मैं सुखी हूं।

ये कोई भी बातें सच नहीं हैं। ये बातें तो सच होती हैं दैवी संपदा वाले को, कि वह ऐश्वर्यवान हो जाता है, ईश्वर हो जाता है, कि सारी सिद्धियां उसे सिद्ध हो जाती हैं; कि सारे सुख, सारी शक्तियां उसके ऊपर बरस जाती हैं। यह घटना तो घटती है दैवी संपदा वाले को। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानकर चलता है कि ऐसा है; और इसका प्रचार भी करता है। और प्रचार अगर ठीक से किया जाए तो दूसरों को भी भरोसा आ जाता है। और अगर दूसरों को भरोसा आ जाए, तो हो सकता है, जिसने प्रचार किया है, उसको भी भरोसा आ जाए; कि इतने लोग मानते हैं, तो ठीक ही मानते होंगे।

मैं बड़ा धनवान, बड़े कुटुंब वाला हूं मेरे समान दूसरा कौन है! मैं यज्ञ करूंगा, दान देऊंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है।

यह कुछ करने वाला नहीं है; न वह यश करने वाला है, न वह दान देने वाला है; लेकिन सोचता है कि मैं दूंगा। अच्छी बातें वह सदा सोचता है कि मैं करूंगा, करता तो सब बुरी बातें है, लेकिन सोचता हमेशा अच्छी बातें है। इस सोचने से एक बड़ी सुविधा हो जाती है। वह सुविधा यह है कि उसको लगता है कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं।

आप भी सब यह करते हैं। अच्छी—अच्छी बातें सोचते हैं, करेंगे! ऐसा सोचने से खुद को भी लगने लगता है कि जब करने की सोच रहे हैं, तो कर ही रहे हैं। और देरी क्या है, आज नहीं तो कल करेंगे, लेकिन करना तो निश्चित है!

कभी आप करने वाले नहीं। क्योंकि पचास साल जी चुके, इस पचास साल में कभी नहीं किए। आगे कैसे करेंगे? कौन करेगा? आप ही करने वाले हैं, और आप रोज टालते जाते हैं।

बुरे को आप आज कर लेते हैं, अच्छे को सोचते हैं, करेंगे। उससे मन में खयाल बना रहता है कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं। अगर मजबूरी की वजह से थोड़ा बुरा करना भी पड़ रहा है, तो यह तो केवल अस्थायी है, यह तो परिस्थितिवश है। लेकिन भाव तो मेरा अच्छा करने का है। उस भाव के कारण बुरा आदमी अपनी बुराई को झेलने में समर्थ हो जाता है। उस भाव के कारण बुरा आदमी बुराई के काटे को चुभने नहीं देता। वह भाव सुरक्षा बन जाता है।

मैं यज्ञ करूंगा, दान करूंगा, हर्ष को प्राप्त होऊंगा—इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित है। यह उसकी आटो—हिपनोटिजिम है, यह उसका मोह है।

यह मोहित शब्द समझ लेने जैसा है। मोहित का अर्थ है कि ऐसे भाव से वह अपने को समझा लेता है। और जो समझा लेता है, वैसा ही हो जाता है। वह मानने ही लगता है, धीरे— धीरे, धीरे— धीरे, बिना दान किए मानने लगता है कि मैं दानी हूं; क्योंकि दान करने का विचार करता है। बिना दिए दाता बन जाता है! क्योंकि इतनी बार सोचा है, सोचते—सोचते हमारे मन में लकीरें पड़ जाती हैं।

अगर आप एक विचार को बहुत बार दोहराते रहे हैं, तो उसकी एक तंद्रा आपके आस—पास निर्मित हो जाती है, वह सम्मोहन है। और बुरा आदमी अपने को सम्मोहित किए रहता है भले विचारों से, हर्ष को उपलब्ध होऊंगा, दान करूंगा......।

वे अनेक प्रकार से अमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय— भोगों में अत्यंत आसक्त हुए अपवित्र नरक में गिरते हैं।

नरक से कुछ अर्थ नहीं है कि कहीं कोई पाताल में छिपा हुआ कोई पीड़ागृह है, जहां उनको गिरा दिया जाता है। ये केवल प्रतीक हैं। ऐसी भावनाओं में जीने वाला व्यक्ति नरक में गिर ही गया। वह नरक में जीता ही है। उसके भीतर प्रतिपल आग जलती रहती है विषाद की, दुख की, पीड़ा की। उसका संताप गहन है। क्योंकि जिसने कभी सुख न बांटा हो, उसे सुख नहीं मिल सकता। और जिसने सदा दुख ही बांटा हो, उसे दुख ही घनीभूत होकर मिलता है। वह दुख उस पर बरसता रहता है। उस दुख की वर्षा ही नरक है।

जो हम देते हैं, वह हमारे पास अनंतगुना होकर लौट आता है। फिर हम सुख दें तो, हम दुख दें तो। हम वही अर्जित कर लेते हैं, जो हम बांटते हैं।

ऐसा व्यक्ति, जो दुख देता है और सुख देने की केवल कल्पना करता है, वह दुख पाता है और सुख की केवल आशा कर सकता है। उसे सुख मिल नहीं सकता। हमारे वास्तविक कृत्य ही हमारे जीवन में परिणाम लाते हैं, वे हमारी निष्पत्तिया हैं। जो हम करते हैं, वही हमारी निष्पत्ति बनता है।

अगर आप दुख पा रहे हैं, तो आप निरंतर ऐसा ही सोचते हैं कि लोग बहुत बुरे हैं, इसलिए दुख दे रहे हैं। आप दुख इसलिए पा रहे हैं कि दुख आपने बांटा है आज, पीछे, कल और पीछे कल। आप वही पा रहे हैं, जो आपने बांटा है।


जब भी हमें दुख मिलता है, हम् सोचते हैं, लोग हमें दुख दे रहे हैं। वह हमारी भ्रांति है। कोई आपको क्यों दुख देने चला? किसी को क्या प्रयोजन है? किसको फुरसत है? लोगों को अपना जीवन जीना है कि आपको दुख देने का उपाय करना है?

नहीं, कहीं कोई आपने निर्मिति की है; कहीं कोई प्रतिध्वनि आपने फेंकी थी, वह आज वापस लौट रही है। उसे इस भाति जो चुपचाप स्वीकार कर लेता है, उसके दुखों के जो अतीत के बोझ हैं, वे कट जाते हैं और नए बोझ निर्मित नहीं होते।

और अगर कभी आपको कोई सुख मिलता है, तो भी आप जानना कि आपने कोई सुख बांटा होगा, जाने या अनजाने, उसका प्रतिफल है।

अगर हम अपने सुखों और दुखों को अपने ही कर्मों का प्रतिफल समझ लें, तो कर्म का सिद्धात हमारी समझ में आ गया। कर्म का सिद्धांत बस सार में इतना ही है कि मुझे वही मिलता है, जो मैंने किया है। मैं वही फसल काटता हूं जो मैंने बोई है; अन्यथा कुछ भी हो नहीं सकता।

ऐसी चित्त की दशा बनती चली जाए, तो आप धीरे— धीरे आसुरी संपदा से मुक्त होकर दैवी संपदा में प्रवेश कर जाएंगे। इससे विपरीत अपने को आप आदत बनाते रहें, तो आसुरी संपदा में धीरे— धीरे थिर हो जाएंगे। ऐसे थिर हो गए लोग, कृष्ण कहते हैं, महानरक में गिर जाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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