बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 13

 स्‍वधर्म, स्‍वकर्म और वर्ण

 स्‍वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तव्छृणु।। 45।।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमथ्यर्ब्य सिद्धिं विन्दति मानव:।। 46।।

श्रेयाक्यधर्मा विगुणः परधर्माफ्लनुष्ठितात्।

स्वभावनिक्तं कर्म कुर्वब्रानोति किल्‍बिषम्।। 47।।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोश्मीय न त्यजेत्।

सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। 48।।


एवं इस अपने—अपने स्वाभाविकि कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्‍तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन। हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसलिए अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।

अतएव हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सब ही कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।


एवं इस अपने—अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्पाप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है। परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू मेरे से सुन।

हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। तुम्हारी जीवन— धारा ही तुम्हारी पूजा हो। उससे अन्यथा पूजा की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम जो कर रहे हो, उसके ही फूल तुम उसके चरणों में चढ़ा दो। किन्हीं और फूलों को तोड़कर लाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारा कर्म ही तुम्हारा अर्ध्य, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अर्चना हो जाए।

हे अर्जुन, जिस परमात्मा से सर्व भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होता है। इसलिए कर्मों को बदलने की व्यर्थ की झंझट में मत पड़ना। जो करते हो, उस करने को ही उसके चरणों में चढ़ा देना। कह देना कि अब तू ही कर, मैं तेरा उपकरण हुआ। अब मेरे हाथ में तेरे हाथ हों, मेरी आंख में तेरी आंख हो, मेरे हृदय में तू धड़क।वही धड़क रहा है। तुमने नाहक की नासमझी कर ली है। तुम बीच में अकारण आ गए हो।


 इसलिए अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता। और कृष्ण कहते हैं, दूर के ढोल सुहावने हैं, उनसे बचना। यह सदा होता है कि दूसरा तुम्हें ज्यादा ठीक स्थिति में मालूम पड़ता है। ऐसा है नहीं कि वह ठीक स्थिति में है, मालूम पड़ता है। उसके कारण हैं। क्योंकि दूसरे के भीतर को तो तुम देख नहीं पाते, न उसकी पीड़ा को, न उसके दंश को, न उसके नर्क को। तुम देख पाते हो उसके ऊपर के व्यवहार को, उसकी परिधि को, उसके आवरण को।

मुस्कुराता हुआ देखते हो तुम अपने पड़ोसी को, तुम सोचते हो, पता नहीं कितने आनंद में है! वह भी तुम्हें मुस्कुराता हुआ देखता है बाहर खड़ा हुआ। वह भी सोचता है, पता नहीं तुम कितने आनंद में हो! ऐसा धोखा चलता है। न तुम आनंद में हो, न वह आनंद में है। हर आदमी को ऐसा ही लग रहा है कि सारी दुनिया सुखी मालूम पड़ती है एक मुझको छोड्कर। हे परमात्मा, मुझ ही को क्यों दुख दिए चला जाता है! क्योंकि तुम्हें अपने भीतर की पीड़ा दिखाई पड़ती है और दूसरे का बाहर का रूप दिखाई पड़ता है।

बाहर तो सभी सज—संवरकर चल रहे हैं। तुम भी चल रहे हो। तुम भी किसी की शादी में जाते हो, तो जाकर रोती शक्ल नहीं ले जाते, हंसते, मुस्कुराते, सजकर, नहा धोकर, कपड़े पहनकर पहुंच जाते हो। वहां एक रौनक है। और ऐसा लगता है कि सारी दुनिया प्रसन्न है।

सड़कों पर चलते लोगों को देखो सांझ, सब हंसी—खुशी मालूम पड़ती है। लेकिन लोगों के जीवन में भीतर झांको, और दुख ही दुख है। जितने भीतर जाओगे, उतना दुख पाओगे।

इसलिए किसी के ऊपर के रूप और आवरण को देखकर मत भटक जाना। और यह मत सोचने लगना कि अच्छा होता कि मैं ब्राह्मण होता, कि देखो ब्राह्मण कितने मजे में रह रहा है! कि अच्छा होता मैं क्षत्रिय होता, कि क्षत्रिय कितने मजे में रह रहा है!

अब यह बहुत हैरानी की बात है कि सम्राट भी ईर्ष्या से भर जाते हैं साधारण आदमियों को देखकर। क्योंकि उनको लगता है, साधारण आदमी बड़े मजे में रह रहे हैं।




सम्राट भी राह पर चलते मस्त फकीर को देखकर ईर्ष्या से भर जाते हैं कि काश! इसकी मस्ती हमारे पास होती! अपने महल में रात उदास, विषाद से भरे हुए, बाहर किसी भिखमंगे का गीत सुनने लगते हैं और प्राणों में ऐसा होने लगता है, काश, हम भी इतने स्वतंत्र होते और इस तरह राह पर गीत गाते और कोई चिंता न होती और वृक्ष के तले सो जाते!

कृष्ण कहते हैं, दूसरे से बहुत प्रलोभित मत हो जाना। और अगर तुम अपने ही नियत कर्म में, जो तुमने जन्मों—जन्मों में अर्जित किया है, जिसके लिए तुम्हारे संस्कार तैयार हैं, वहां तुम दुखी हो, तो अपरिचित कर्म में तो तुम और भी दुखी हो जाओगे, तुम और भी कष्ट पाओगे, क्योंकि उसके तो तुम आदी भी नहीं हो। इसलिए अपने स्वाभाविक कर्म और आचरण में रहते हुए, उस कर्म को नियत मानकर करते हुए, परमात्मा की मर्जी है ऐसा जानते हुए, व्यक्ति स्वधर्म को प्राप्त हो जाता है, पाप से मुक्त हो जाता है। अतएव हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म को नहीं त्यागना चाहिए.......।

और कभी ऐसा भी लगे कि यह कर्म तो दोषयुक्त है, तो भी इसे मत त्यागना।

क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।

यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। तुम ऐसा तो कोई कर्म खोज ही न सकोगे, जिसमें दोष न हो। अगर तुम दोष ही खोजने गए, तो तुम कुछ भी न कर पाओगे। तुम दोष भी न खोज पाओगे, क्योंकि उस खोज में भी कई दोष होंगे। श्वास लेने तक में हिंसा हो रही है। तो करोगे क्या?

कृष्ण कहते हैं, अगर तुम बधिक के घर में पैदा हुए हो और हत्या ही तुम्हारा काम है, तो भी तुम मत घबड़ाना; तुम इसको भी परमात्मा की मर्जी मानना। तुम चुपचाप किए जाना उसको ही सौंपकर, तुम अपने ऊपर जिम्मा ही मत लेना। तुम कर्ता मत बनना, फिर कोई कर्म तुम्हें नहीं घेरता है।

और तुम यह मत सोचना कि यह पापपूर्ण कर्म है, इसे छोडूं। कोई ऐसा पुण्य कर्म करूं, जिसमें पाप न हो।

ऐसा कोई कर्म नहीं है। क्या कर्म करोगे, जिसमें पाप न हो? यहां तो हाथ हिलाते भी पाप हो जाता है, श्वास लेते भी प्राणी मर जाते हैं। तुम जीओगे, तो पाप होगा; चलोगे, तो पाप होगा; उठोगे—बैठोगे, तो पाप होगा। और अगर इस सबसे तुम सिकुड़ने लगे, तो तुम पाओगे कि जीवन एक बड़ी दुविधा हो गई।

जैसे पोस्टमैन आता है चिट्ठी लेकर। अब किसी ने गाली लिख दी चिट्ठी में, इसलिए पोस्टमैन जिम्मेवार नहीं। कि तुम उससे लड़ने लगते हो, कि उठा लेते हो लट्ठ कि खड़ा रह, कहां जाता है! तू यह चिट्ठी यहां क्यों लेकर आया! या कोई प्रेम—पत्र ले आया, तो तुम उसे कोई गले लगाकर और नाचने नहीं लगते हो। तुम जानते हो कि यह तो पोस्टमैन है। चिट्ठी कोई और भेज रहा है। यह तो सिर्फ बेचारा बोझा ढोता है। ले आता है, घर तक पहुंचा देता है।

परमात्मा कर्ता हो जाए और तुम केवल उसके उपकरण। इसलिए फिर जो भी कर्म नियति से, प्रकृति से, स्वभाव से, संयोग से तुम्हें मिल गया है, तुम चुपचाप उसे किए चले जाओ, कर्ता— भाव छोड़ दो, जहां भी हो, वहीं कर्ता— भाव छोड़ दो।

कृष्ण का सारा जोर है कर्ता— भाव छोड़ देने पर, कर्म को छोड़ने पर नहीं। क्योंकि छोड़—छोड़कर भी कहां जाओगे! जहां जाओगे कर्म तुम्हें घेरे ही रहेगा।

हे कुंतीपुत्र, दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्मों को त्यागना नहीं, क्योंकि धुएं से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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