मंगलवार, 17 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 8

 पूरब और पश्‍चिम का अभिनव संतुलन


श्रद्धया परया तप्तं तयस्तन्त्रिविधं नरै ।

अफलाकंक्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं पश्चिक्षते।। 17।।

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमब्रुवम्।। 18।।

मूढग्राहेणात्मनार्थं यत्पीडया क्रियते तय: ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदहतम्।। 19।।


हे अर्जुन, फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरूषों द्वारा परम  श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्‍त तीन प्रकार के तप को तो सात्‍विक कहते हैं।

और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है वह अनिशचय और क्षणिक फल वाला तप का राजस कहा गया है।

और जो तप मूढतापूर्वक हठ से मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है वह तप तामस कहा गया है।


हे अर्जुन, फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं। और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल वाला तप यहां राजस कहा गया है।

और जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।

फल को न चाहना सत्य का शुद्धतम लक्षण है। जीवन में तुम जो भी करते हो, फल की चाह से ही करते हो, अन्यथा करोगे ही क्यों? 

अब एक बड़ी जटिल समस्या खड़ी होती है। क्योंकि जब तक तुम कुछ चाहोगे, ध्यान न लगेगा। ध्यान से शांति मिलती है, इसमें कोई शक—शुबहा नहीं है। इसमें सारी दुनिया के ध्यानी एक मत हैं। ध्यान से शांति मिलती है, इसमें एक मत हैं; और एक और अजीब शर्त से भी एक मत हैं कि जब तक तुम चाहते हो, तब तक नहीं मिलती। क्योंकि चाह अंशांति है।

चाहने में ही तो सारी अशांति है। चाहने के कारण ही तो तुम तने हो, चाहने के कारण ही तो भीतर एक बेचैनी है। तुम ध्यान कैसे कर पाओगे!

ध्यान का अर्थ है, सिर्फ हो जाना। चाह के कारण तुम कभी भी सिर्फ नहीं हो पाते। आगे कुछ खींचता रहता है। ध्यान का अर्थ है, अभी और यहीं हो जाना। और चाह तो भविष्य में खींचती रहती है—कल।

जब तुम चाह से भरे होते हो, तब तुम ध्यान थोड़े ही करते हो, तुम किनारे खड़े ध्यान के देखते हो, कब मिलेगी शांति? अभी तक नहीं मिली? घंटा बीतने के करीब आ गया और शांति का कोई पता नहीं है।

तो ध्यान तुम्हें और अशांत कर देगा। तुम वैसे ही अशांत थे। अशांत थे, धन चाहते थे, नहीं मिला। अशांत थे, सुंदर स्त्री चाहते थे, नहीं मिली। और मिल भी जाए, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि मिलने से ही सुंदर स्त्री सुंदर नहीं रह जाती। मिलने से ही जितना धन मिले, वह काफी नहीं रह जाता। मिले न मिले, कोई फर्क नहीं पड़ता। सफलता चाहते थे, वह न मिली। पद चाहते थे, वह न मिला। कभी मिलता ही नहीं, क्योंकि जो भी पद मिल जाए, वही छोटा पड़ जाता है। पद की आकांक्षा बड़ी है, विराट है, उसका कोई अंत नहीं है।

हर जगह तुम पाओगे, कुछ अड़चन खड़ी हो जाती है। जब तक चाह है, तब तक अड़चन खड़ी होती ही रहेगी।

तुम भटके, संसार से थके—मांदे मेरे पास आए। अब तुम कहते हो, शांति चाहिए। अब तुम शांति को चाह बना रहे हो। धन नहीं मिला, उससे तुम काफी अशांत हो गए। पद नहीं मिला, उससे अशांत हो गए। अब तुम कहते हो, शांति चाहिए। तुम समझे नहीं, तुम जागे नहीं।

धन की खोज के कारण थोड़ी अंशांति थी। और तुम्हारे धर्मगुरु भी ऐसी मूढ़तापूर्ण बातें तुम्हें समझा रहे हैं कि धन की चाह छोड़ो, तो अशांति मिट जाएगी। गलत कह रहे हैं। चाह छोड़ने से अशांति मिटती है, धन की चाह से कुछ लेना—देना नहीं है। मोक्ष की चाह भी उतनी ही अशांति ले आएगी।

चाह अशांति है। चाह की विषय—वस्तु का कोई अर्थ नहीं है। मोक्ष, धन, परमात्मा, शांति, कुछ भी चाहो, अशांति पैदा होगी। न चाहो, शांति मौजूद है। चाह के पीछे अशांति छाया की तरह आती है। और जहां चाह नहीं रह जाती, वहा शांति आती थोड़े ही है। तुम अचानक जागकर पाते हो, शांति सदा थी, चाह के कारण चूकते थे। 

शांति स्वभाव है, उसे मांगना नहीं है, चाहना नहीं है। वह बाहर नहीं है। उसे तुमने कभी खोया नहीं है। वह तुम्हारा होने का भीतरी ढंग है। लेकिन चाह के कारण तुम भीतरी को देख नहीं पाते। दौड़ते हो, भागते हो; भाग—दौड़ में अपने को ही भूल जाते हो।

तो उनसे अगर मैं कहता हूं कि शांति तो मिलेगी, वह पक्का है। लेकिन तुम कृपा करके चाहो मत।

उनकी अड़चन भी मैं समझता हूं। उनका गणित भी साफ है। वे कहते हैं, अगर हम चाहें ही न, तो हम आपके पास क्यों आएं? हम चाहते हैं, इसीलिए तो आए हैं।

मैं उनसे कहता हूं कि मेरे पास तक आ गए, चाह इतना कर दी, यही काफी है। अब कृपा करके सिर्फ ध्यान करो, चाहो मत कुछ। समझाता हूं तो अधूरे मन से वे सिर भी हिलाते हैं। हां भी भरते हैं। बात तो उनको भी कहीं समझ में पड़ती है। एकदम पकड़ में तो नहीं आती। पकड़ में आ जाए, तो ध्यान की जरूरत ही नहीं रह जाती। बात ही खतम हो गई। यह बात दिख गई कि चाह ही तो मुझे अशांत किए है........।

थोड़ी देर को सोचो, अगर तुम्हारी कोई चाह न हो, तो तुम कैसे अशांत हो पाओगे? क्या कोई उपाय कर सकते हो तुम बिना चाह के अशांत होने का? क्या कोई ढंग है तुम्हारे पास? 

उछलोगे,कूदोगे, मगर अशांत हो सकोगे अगर चाह न हो?

चाह न हो, तो अशांति का उपाय ही न रहा, मूल बीज ही खो गया। ध्यान की भी कोई जरूरत नहीं है।

लेकिन अधूरे मन से, उनको भी बात जंचती तो है। बुद्धि को समझ में भी आती है कि शायद ऐसा ही हो। फिर आप कहते हैं, तो होगा ही। तो हम कोशिश करेंगे। अच्छा हम चाह छोड़ देते हैं। लेकिन भीतर गहरे में वह चाह इसीलिए छोड़ते हैं कि शांति मिल जाए।

तीन दिन बाद वे फिर हाजिर हैं, कि तीन दिन हो गए छोड़े हुए, अभी तक मिली नहीं।

क्या खाक छोड़ी होगी! छोड़ने का मतलब ही यह होता है कि अब इसको उठाना ही मत, अब इसकी बात ही मत करना। यह बात ही व्यर्थ हो गई। तीन दिन बाद फिर तुम आकर कहते हो कि चाह छोड़ दी, तीन दिन हो गए, अभी तक शांति मिली नहीं। तो तुम किनारे खड़े देखते रहे। ध्यान तुमने किया नहीं। तुम्हारा ध्यान चाह पर लगा रहा। ध्यान हो न पाया; मांग कायम रही। थोड़ा सरका दी होगी भीतर को, थोड़ी हटा दी होगी अंधेरे में, थोड़ा उस तरफ से पीठ कर ली होगी। लेकिन तुम जानते हो, वह खड़ी है। और जब तक वह खड़ी है, तब तक सत्व का उदय नहीं होता।

इसलिए सात्विक साधना का पहला सूत्र कृष्ण कहते हैं, फल को न चाहने वाले।

यही निष्काम दशा है। काम की दशा है, जब तुम्हारा रस सदा फल में होता है, कृत्य में नहीं। वह काम की दशा है। और जब तुम्हारा रस कृत्य में होता है, फल में नहीं, तब वह निष्काम दशा है। जैसे सुबह—सुबह तुम घूमने निकले हो। सूरज उगा। पक्षी गीत गाते हैं। वसंत आ गया है। सब तरफ बहार है। तुम मस्ती में गीत गुनगुनाते चले जा रहे हो। कोई अगर तुमसे पूछे, कहां जा रहे हो, तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, बस, घूमने निकले हैं। कहीं जा नहीं रहे हैं।

यही रास्ता है, यही वृक्ष होंगे, यही सूरज होगा, यही वसंत होगा; दोपहर तुम दफ्तर की तरफ चले जा रहे हो या दुकान की तरफ, लेकिन अब वह गुनगुनाहट नहीं है। सब वही है; तुम भी वही हो, हवाएं वही, कुछ बदला नहीं, मधुमास अभी चला नहीं गया। फूल अब भी खिले हैं, पक्षी अब भी गीत गा रहे हैं। लेकिन अब तुम्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ता। सूरज रोशनी देता नहीं मालूम पड़ता अब, सिर्फ ताप पैदा करता है। पक्षियों के गीत बाजार के शोरगुल को सिर्फ बढ़ा रहे हैं। वृक्षों की हरियाली, वृक्षों के फूल, अब तुम्हें सुख नहीं देते, बल्कि एक पीड़ा देते हैं कि तुम्हें दफ्तर जाना पड रहा है। सब कुछ वही है, लेकिन अब तुमसे कोई पूछे, कहा जा रहे हो? तुम दफ्तर जा रहे हो। तुम्हारे चेहरे का ढंग बदल गया, बड़ा तनाव है। लक्ष्य है अब; सुबह लक्ष्य न था। फल है अब, सुबह फल न था।

संन्यासी का जीवन सुबह घूमने जैसा है। गृहस्थ का जीवन दोपहर दफ्तर जाने जैसा है। बस, इतना ही फर्क है। कोई पहाड़ नहीं जाना है। दफ्तर ऐसे ही जाना है, जैसे तुम सुबह घूमने निकले। दुकान पर ऐसे ही जाकर बैठ जाना है, जैसे क्लब में आकर मित्रों से गपशप करने चले आए हो। काम ऐसे ही करना है, जैसे खेल हो। बस, निष्काम सध जाता है।

अर्जुन भागना चाहता है युद्ध से। वह कहता है कि यह करने योग्य नहीं है। हिंसा होगी बहुत। पाप लगेगा बहुत। जन्मों—जन्मों तक सडूगा नरकों में और मिलने को कुछ भी नहीं है। राज्य मिल भी गया अगर, तो इतने हिंसा—पात के बाद, इतने लोगों का जीवन लेने के बाद, अपने ही लोग! और उस तरफ भी मेरे ही सगे—संबंधी हैं, इस तरफ भी। दोनों तरफ कोई भी मरेगा, मेरे ही लोग मरेंगे, अपने ही संबंधी मरेंगे। मित्र, प्रियजन बंटे खड़े हैं। नहीं, यह इस योग्य नहीं मालूम पड़ता।

कृष्ण का जोर क्या है अर्जुन से? जोर है कि तू फल की क्यों सोचता है! अगर अर्जुन कृष्ण से कहता—अचानक उतर गया होता नीचे रथ से और कहता—कि जाता हूं। बात खतम हो गई। तो कृष्ण रोक न पाते। रोकने की जरूरत भी न थी। कृष्ण प्रसन्नता से कहते कि इस क्षण की मैं प्रतीक्षा करता था। भला हुआ। बात खतम हो गई।

लेकिन अर्जुन यह नहीं कहता है कि मैं जाता हूं। अर्जुन फल की बातें कर रहा है। वह कह रहा है, क्या फल मिलेगा? सार क्या है? कृत्य का सवाल नहीं है।

अर्जुन राजी है, अगर हिंसा करनी पड़े, कोई अड़चन नहीं है। लेकिन अगर अपने लोग न होते, पराए होते, तो काट देता घास—पात की तरह। सदा काटता ही रहा था, कोई नया न था यह मामला। योद्धा था, क्षत्रिय था। लोगों को काट—पीट दे, तो हाथ भी धोने की आदत न थी। अचानक कैसे यह संन्यास उठा है? यह संन्यास नहीं है। यह मोह— भाव है। और अचानक कैसे फल की चर्चा चली कि नर्क जाना पड़े, पाप लगे! जन्मों—जन्मों तक यह मेरे ऊपर कलंक बना रह जाएगा!

यह भविष्य की छाया उठी है मोह के कारण, ज्ञान के कारण नहीं। ज्ञान सदा वर्तमान में है। मोह सदा भविष्य में है। मोह सदा अज्ञान में है। फल की सोच रहा है। और यह भी देख रहा है कि अगर धन मैंने पा भी लिया।

धन पाना चाहता है, नहीं तो युद्ध तक आने की जरूरत क्या थी? यह तो आखिरी घड़ी में आकर उनको बुद्धि आ रही है। अब तक क्या करते थे? यह तो पहले ही सोच सकते थे कि इतने लोग मरेंगे, मिलेगा क्या? सार क्या है?

सिंहासन पर बैठ ही जाऊंगा, तो अर्जुन कहता है, क्या फायदा? क्योंकि जिनके लिए सिंहासन पर बैठा जाता है, वे तो सब कब्रों में होंगे। बच्चे मर जाएंगे, जो प्रसन्न होते कि पिता सिंहासन पर बैठे। मित्र मर जाएंगे, जो भेंट लाते कि अर्जुन, तो अंततः तुम सम्राट हो गए। प्रियजन मर जाएंगे, जो उत्सव मनाते। बैठ जाऊंगा, मरघट पर रखा होगा मेरा सिंहासन।

उस सिंहासन पर बैठने में रस नहीं मालूम होता। नहीं कि उसको त्याग आ गया है। नहीं कि संन्यास का भाव उदय हुआ है। बस, देखकर कि फल कुछ सार का नहीं मालूम पड़ता; सौदा महंगा लग रहा है उसको। करने योग्य नहीं लगता। जाएगा ज्यादा, मिलेगा कम। यह उसकी काम की दशा है।

और कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि लड़, न लड, यह बहुत बड़ा सवाल नहीं है। लेकिन निष्काम हो जा। लड, न लड़, यह बहुत सवाल नहीं है। तू बस, फल की आकांक्षा छोड़ दे।

फल की आकांक्षा छोडते ही एक अपूर्व घटना घटती है कि तुम परमात्मा के उपकरण हो जाते हो। फिर वह जो कराता है, तुम करते हो। नहीं कराता, नहीं करते।

अगर परमात्मा नहीं चाहता है युद्ध कराना, तो नहीं होगा। अर्जुन बैठा हंसता रहेगा। कृष्ण कहते रहें गीता। वे लाख समझाएं, वह कहेगा कि चुप रहो। बेकार की बातें मत करो। बात ही नहीं उठ रही है। यह होने को ही नहीं है। परमात्मा उपकरण नहीं बना रहा है। बनाए, तो लड़ने को तैयार हूं। न बनाए तो मैं क्या कर सकता हूं! लेकिन कर्ता— भाव मेरा नहीं है अब। लड़ाएगा, तो लडूंगा। अर्थात लड़ाएगा, तो वही लडेगा; मैं नहीं लडूंगा। नहीं लड़ाका, तो वही भागेगा; मैं नहीं भागता। संन्यास उसका, गृहस्थी उसकी, अब मेरा कुछ भी नहीं है।

यह सोचने जैसा है। जब तक फल की आकांक्षा है, तब तक तुम अड़े रहते हो। जैसे ही फल की आकांक्षा गई, तुम हट जाते हो। तुम फल की आकांक्षा हो। अहंकार फल की आकांक्षा है। अहंकार को हटाना हो, तो फल की आकांक्षा छोड़ देनी पड़े। तब कृत्य ही पर्याप्त है।

फिर कल का भरोसा क्या? कल होगा ही, यह किसे मालूम है? और अर्जुन ऐसा क्यों सोचता है कि ये ही लोग मरेंगे और वह न मर जाएगा? और सिंहासन मिलेगा ही?

यह अर्जुन क्या कह रहा है कृष्ण से? कल पक्का है सिंहासन मिल ही जाएगा तुझे? ये मर जाएंगे दुश्मन, तू नहीं मरेगा? तू बचा रहेगा? लाशें इन्हीं की बिछेगी, तू सिंहासन पर होगा? कल का इतना पक्का भरोसा क्यो है? कोई कारण तो दिखाई नहीं पड़ता। कोई योद्धा उस तरफ कमजोर नहीं हैं। बल करीब—करीब संतुलित है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, यह बस जरा—सी बारीक रेखा है हार और जीत में। अर्जुन को इतना पक्का क्या है?

लेकिन हर अहंकार अपने को केंद्र मानकर सोचता है। फलाकांक्षी अपने को केंद्र मानकर सोचता है।

कृष्ण कहते हैं, सत्व का लक्षण है, फलाकांक्षा का छूट जाना। तू निष्काम— भाव से हो जा। आज इस क्षण जो कर्तव्य है कर, कल की मत सोच। कर्तव्य का क्या फल होगा, यह परमात्मा पर छोड़, हमारे हाथ में नहीं है।

तुम भी जानते हो, कई बार तुम अच्छा करते हो और बुरा हो जाता है। और कई बार बुरा करना चाहते थे और अच्छा हो जाता है।

तुम्हारे हाथ में करना मात्र है, कृष्ण कहते हैं। क्या होगा, यह तुम समष्टि के हाथ में छोड़ दो। तुम इसकी जिद में ही मत पड़ो, तुम यह सोचो ही मत कि क्या होगा। तुम इतना ही सोचो कि जो हो रहा है, उसको मैं कैसे पूरी तरह, पूरे कर्तव्य— भाव से कर पाऊं। हे अर्जुन, फल को न चाहने वाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस तीन प्रकार के तप को सात्विक कहते हैं। कल जो हमने तीन प्रकार के तप समझे, वे सात्विक हैं, यदि किसी ने निष्काम— भाव से किए हैं। कुछ चाहा नहीं। खुद निमित्त होकर किए हैं। कुछ मांगा नहीं। और परम श्रद्धा से किए हैं।

स्वभावत:, निष्काम— भाव तभी हो सकता है, जब तुम्हारी श्रद्धा परम हो। तुम फल की आकांक्षा क्यों करते हो? क्योंकि तुम्हें पक्का भरोसा नहीं है कि फल आएगा। अन्यथा आकांक्षा क्यों करोगे?

तुम बीज बोते हो, फिर तुम बैठकर आकांक्षा करते हो कि पौधे अंकुरित हों। अगर तुम बिलकुल सिक्खड किसान हो, नए—नए खेती में उतरे हो या बागवानी में, तो तुम बड़ी चिंता करोगे, रात सो न सकोगे, सुबह उठ—उठकर बार—बार जाओगे, दिन में कई दफा देखोगे, अभी तक अंकुर आए या नहीं आए?

छोटे बच्चे आम की गोई बो देते हैं। कम से कम मेरे गांव में वैसा होता था। तो बचपन में मैंने भी आम की गोई लाकर अपने आयन में बो दी। लेकिन बच्चों की धीरज कितनी? घडीभर बाद फिर जाकर उखाड़कर देखते, अभी तक आया कि नहीं आया? इतनी जल्दी आम नहीं आते, वह भी पक्का है। कभी बड़ों ने कहा भी कि क्या कर रहे हो? इस तरह तो कभी नहीं आएंगे। लेकिन उत्सुकता मानती नहीं, कि शायद आ गया हो। रात सो नहीं पाते, नींद में आम की गोई अभी फूटी या नहीं, अंकुर लगे या नहीं। पता नहीं, फल लग गए हों। रात भी बच्चा उठकर जाता है, एक नजर डाल आता है आंगन में, अभी भी आया नहीं?

यह सारी चिंता इसलिए हो रही है कि बच्चे को कुछ पता नहीं है, कुछ बोध नहीं है। माली भी बोता है आम की गोई, लेकिन चिंता। नहीं करता। क्योंकि वह जानता है, आएंगे। आम की गोई बो दी है, कृत्य पूरा कर दिया है, जरूरत जैसी थी, वैसा खाद दे दिया है, पानी था, पानी दे दिया है, सुविधा जुटा दी सब, बात खतम हो गई। करना पूरा हो गया। फल हमारे हाथ में थोड़े ही है। और फिर श्रद्धा होती है, आएगा।

जो जानता है, उसकी श्रद्धा होती है। अज्ञानी अश्रद्धालु होता है। ज्ञानी श्रद्धालु होता है। और इस सूत्र का उलटा भी सच है। जितने तुम श्रद्धालु हो जाओगे, उतने ज्ञानी हो जाओगे। जितने अश्रद्धालु हो जाओगे, उतने अज्ञानी हो जाओगे। वे दोनों जुड़ी हैं बातें। श्रद्धा ज्ञान का एक पहलू है, अश्रद्धा, अज्ञान का एक पहलू है।

परम श्रद्धालु का अर्थ है, जो जानता है, करने योग्य कर दिया, होने योग्य होता रहेगा। अगर करने योग्य ठीक से कर दिया है, तो होने योग्य होगा ही। उस पर क्या सोचना?

अगर तुमने ध्यान कर लिया, शांति होगी ही। तुम ध्यान की फिक्र करो, तुम शांति की फिक्र मत करो। अगर तुमने प्रार्थना कर ली, तुम प्रकाश से भर ही जाओगे। तुम प्रकाश का विचार ही मत करो। तुम सिर्फ प्रार्थना कर लो। अगर तुम ठीक से जी लिए हो, तो तुम मुक्त हो ही जाओगे। तुम मुक्ति की चिंता मत करो। ठीक से जीने वाला सदा मुक्त हो गया है।

जीवन में फल तो आते ही हैं, कृत्य भर पूरा हो जाए। क्योंकि कृत्य में ही छिपा है फल। कृत्य है बीज, उसी में छिपा है फल। यह शब्द फल अच्छा है। बीज में छिपा है फल। फल का अर्थ सिर्फ परिणाम ही नहीं होता। फल को हम फल इसीलिए कहते हैं, परिणाम को हम इसीलिए फल कहते हैं, क्योंकि वह बीज में छिपा है।

तुम बीज की फिक्र कर लो, फल तो अपने से आ जाता है। कोई बीज निष्फल नहीं जाता। और अगर गया, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि तुमने कर्तव्य न किया। जो करने योग्य था, उसमें कमी की, और जो होने योग्य था, उसमें समय बिताया। तुम सोचते रहे फल की और कृत्य उपेक्षित पड़ा रहा। कर्तव्य पूरा न हुआ, तो ही फल चूकता है।

इसलिए परम श्रद्धा से..........।

परम श्रद्धा का अर्थ है, जहां रत्ती—मात्र भी संदेह नहीं। और अगर तुम जीवन को गौर से देखोगे, तो संदेह मिट जाएगा। संदेह का कोई कारण नहीं है।

और कृष्ण कहते हैं, साधुओं के उद्धार के लिए ओर असाधुओं के विनाश के लिए युगों—युगों में आऊंगा। बात उलटी दिखती है। या तो उन्होंने अपना बदल दिया वचन। ऐसा दिखता है कि साधुओं का विनाश हो रहा है और असाधु सिंहासनों पर बैठे हैं। कैसे श्रद्धा हो?

धार्मिक व्यक्ति अगर शक भी करता है, तो अपने पर। और अधार्मिक अगर शक करता है, तो दूसरे पर। दूसरे का ही शक बढ़ते—बढ़ते परमात्मा के प्रति संदेह बन जाता है। और अपने पर शक करते—करते अहंकार गिर जाता है। क्योंकि अहंकार संदिग्ध हो जाता है। स्वयं पर जिसने संदेह किया, वह परमात्मा पर श्रद्धा करने लगेगा। और स्वयं पर जिसने कभी संदेह न किया, वह परमात्मा पर संदेह करेगा।

परम श्रद्धा का अर्थ है, जिसने जीवन के अनुभव से जाना कि बोओ, जो बोओगे, वही काटोगे। इसलिए अब काटने की चिंता क्या? अब उसकी बात ही क्या उठानी? अब उसकी चर्चा ही क्या करनी?

ध्यान रखना, फल की बहुत चर्चा करने वाले जितनी ऊर्जा फल की चर्चा में लगाते हैं, उतनी ही ऊर्जा कृत्य में चूक जाती है और उतना ही फल विकृत हो जाता है। फिर जब फल विकृत होता है, तो एक दुष्टचक्र शुरू हो गया। दुबारा वे और भी घबड़ा जाते हैं, और भी फल विकृत हो जाता है। तीसरी बार संदेह पूरा हो जाता है, फल नष्ट हो जाते हैं।

संदेह से कभी किसी ने सत्य के फल नहीं काटे; श्रद्धा से काटे हैं

श्रद्धा और निष्काम भाव से जो किया जाए वह सात्विक तप है।

इसलिए तपस्वी कुछ मांगता नहीं। वह यह नहीं कहता कि परमात्मा वैकुंठ देना, कि मोक्ष देना, कि स्वर्ग में मकान बिलकुल बगल में देना। वह कुछ भी नहीं मांगता। वह कहता है, वह बात ही क्या उठानी! वह तेरी चिंता। वह हम क्यों फिक्र करें? तूने जन्म दिया, तूने जीवन दिया, तू श्वास देता है। तूने बिना मांगे इतना दिया, बिना पूछे दिया। हम क्यों चिंता करें कि तू और देगा या नहीं देगा? जितना दिया है, उसे जरा गौर से देखो, श्रद्धा का आविर्भाव होगा। जो नहीं दिया है, उस पर ध्यान लगाओ, संदेह का आविर्भाव होगा।

श्रद्धा से भरा हुआ कृत्य सात्विक है।

और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखंड से किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल वाला तप यहां राजस कहा गया है।

तुम ऐसी भी तपश्चर्या कर सकते हो, जो केवल सत्कार के लिए हो। तुम प्रतीक्षा कर रहे हो, कब बैंड—बाजे बजे! कब जुलूस निकले! कब शोभा—यात्रा हो! तो तुम उपवास कर सकते हो लंबे लेकिन प्रतीक्षा बैंड—बाजों पर लगी है। बच्चे हो। जिससे स्वर्ग का आनंद मिल सकता था, उससे तुम बैंड—बाजे का शोरगुल सुनोगे। तुम कुछ बहुत होशियार नहीं हो। तुम भला कितना ही अपने को समझदार समझ रहे हो, मगर चूक रहे हो। जिससे वर्षा हो सकती थी आनंद की, उससे सिर्फ थोड़े से खुशामदी मिलकर तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। खतम हो गई बात। तुम चूक गए। इतना मिल सकता था, न मांगते तो। मांगा कि क्षुद्र मिलता है। जिसका कोई भी सार नहीं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, क्षणिक फल वाला तप........।

क्षणभर को शोरगुल होगा, लोग चर्चा करेंगे, बात खतम हो जाएगी। लहर उठेगी पानी पर, मिट जाएगी। बस इतना ही सुख पाएगा राजसी व्यक्ति।

राष्ट्रपति हो गए तुम; क्या करोगे? लोग आकर भेंट कर जाएंगे, प्रसन्नता हो जाएगी। और दूसरे दिन ये ही लोग गालियां देने लगेंगे और पत्थर फेंकने लगेंगे। फूलमालाएं पहना देंगे। क्या, होगा क्या? राष्ट्रपति होकर तुम पाओगे क्या? सिंहासन पर बैठ जाओगे। तो अपने घर की छत पर ही एक कुर्सी रखकर बैठ गए ऊंचाई पर। सारा संसार नीचा कर दिया। पाओगे क्या? मिलने को क्या है? मिलने को कुछ भी नहीं।

क्षणिक फल वाला........।

थोड़ा—सा कुछ लहर उठेगी चारों तरफ, खो जाएगी।

तप, सत्कार के लिए किया जाए, मान के लिए किया जाए, पूजा के लिए किया जाए, या केवल पाखंड से किया जाए......।

पाखंड का मतलब ही यह है कि तुम करना भी नहीं चाहते थे, करने का कोई भाव भी नहीं था, कोई श्रद्धा भी नहीं थी कि इससे कोई सार होगा। लोकोपचार के लिए, लोग धार्मिक समझते हैं, कर देते हो। मंदिर भी हो आते हो, कभी उपवास भी रख लेते हो, कभी व्रत भी कर लेते हो। लोगों को दिखाने के लिए; एक पाखंड बना रहता है।

उससे भी लाभ हैं। पाखंड के लाभ हैं, इसलिए तुम करते हो। क्योंकि अगर तुम धार्मिक आदमी हो........।

मैंने सुना है कि एक दुकान थी सोने—जवाहरातों की। उसके मालिक ने अपने नौकरों को बड़ी कला सिखा रखी थी। जैसे ही कोई आदमी प्रविष्ट होता, उसने पहले ही एक मनोवैज्ञानिक बिठा रखा था, जो जांच—पड़ताल करे कि है भी इसके पास कुछ या नहीं! खीसे में कुछ वजन है, गर्मी है? फिर अगर दिखती गर्मी, तो वह उस आदमी को देखकर कहता, हरि—हरि।

वह भीतर हरि—हरि कहता; वह कहता कि है, लूटने योग्य है। हरि—हरि। हरि का मतलब होता है, चोर, चुराया जा सकता है, हरण किया जा सकता है। हरि का मतलब होता है, हरण किया जा सकता है।

लेकिन वह आदमी बड़ा प्रभावित होता कि कैसी दुकान है साधुओं की। तो दूसरे आदमी के पास आता काउंटर पर, वह भी जांच—पड़ताल करता, दिखाता चीजें। कहता, केशव—केशव। वे सब संकेत थे। उनकी लिपि थी। जो हिसाब लगाता, बिल बनाता, वह कहता, राम—राम। वह यह कह रहा है कि मरा, मरा। वह सब कोड है उनका।

मगर वह आदमी यह सोचकर कि कैसे सात्विक पुरुष लोग हैं, न तो मोल— भाव करता; क्योंकि इनसे क्या मोल— भाव करना! न ठीक से देखता कि ये हिसाब में क्या लगा रहे हैं। न यह देखता कि ये हीरे दिखा रहे हैं और पत्थर दे रहे हैं। दिखा कुछ रहे हैं, रख कुछ रहे हैं। मगर वहां अहर्निश परमात्मा के नामों की गुंज चलती रहती।

पाखंड का उपयोग है। अगर तुम मंदिर जाते हो, तो तुम्हारी दुकान में सहायता मिलती है। लोग सोचते हैं, साधु पुरुष है। झूठ थोड़े ही बोलेगा! जेब थोड़े ही काटेगा!

राम चदरिया ओढ़े बैठे हो तुम। तो तुम चाहे कसाई भी क्यों न होओ, दूसरा आदमी सोचेगा, बेचारा राम चदरिया ओढ़े बैठा है। साधु पुरुष है। धन्यभाग जो दर्शन हुए। और वह छुरी छिपाए है। मुंह में राम बगल में छुरी। छुरी को छिपाना हो, तो मुंह में राम बड़ा उपयोगी है।

तो कुछ हैं, जो पाखंड के लिए कर रहे हैं। कुछ हैं, जो तप सत्कार के लिए कर रहे हैं, जिनकी आकांक्षा है कुछ पाने की, फल की। उन्हें थोड़ा—सा फल भी मिलेगा। लेकिन वह फल पानी पर बनी हुई लकीर जैसा होगा। इस तरह के तप को राजस कहा है। और फिर ऐसे भी हैं, जो मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर को पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए कर रहे हैं, वह तप तामस कहा गया है।

ऐसे लोग भी हैं, जो मूढ़तापूर्वक।

जिद्दी हैं, हठी हैं, अकड़े हैं, दंभी हैं। वे यह करके दिखा रहे हैं कि जो कोई नहीं कर सकता, वह हम करके दिखा रहे हैं। कांटों पर लेट जाते हैं। वे तुमसे यह कह रहे हैं कि तुम सब कायर हो, हमको देखो!

वैसे वे मूढ़ हैं, क्योंकि इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। इससे उतना भी नहीं मिलने वाला है, जितना राजस को मिल जाता है। क्योंकि क्षणभंगुर प्रतिष्ठा भी मिल जाती है, क्षणभंगुर मान—सम्मान भी मिल जाता है। वह भी मिलने वाला नहीं है। ज्यादा से ज्यादा राहगीर खड़े हो जाएंगे और चले जाएंगे कि ठीक है। मदारीगिरी से ज्यादा क्या इसका मूल्य हो सकता है? लेकिन मूढ़ व्यक्ति भी तप कर सकते हैं।

मेरे अनुभव में ऐसा आया कि मूड व्यक्ति जिद्दी होते हैं। और जिद्दी होने के कारण कोई चीज करना हो, तो जिसको सात्विक वृत्ति का व्यक्ति मुश्किल पाए, राजस व्यक्ति भी थोड़ा कठिन पाए, मूढ़ बिलकुल कठिन नहीं पाता। मूढ़ को कोई ऐसी चीज करने को कह दो, जिसमें कोई सार भी न हो, सिर्फ उसके अहंकार को पकड़ जाए, तो वह कर लेता है। तो इस तरह मैंने अनुभव किया है कि अधिक तपस्वी तीसरी कोटि के होते हैं।

अब एक आदमी दो महीने तक उपवास करता है। इसे न तो उपवास से पहले कभी कुछ मिला, क्योंकि यह बहुत बार कर चुका है। न इसके जीवन में कोई ऊर्जा का आविर्भाव हुआ, न कोई ज्योति जगी, न कोई धुन बजी, न कोई वीणा छिड़ी। कुछ भी नहीं हुआ है। लेकिन फिर कर रहा है, फिर कर रहा है। यह जिद्दी है, हठी है। यह दुष्ट प्रकृति का है। यह दूसरे को नहीं सता रहा है, अपने को ही सता रहा है।

दुनिया में दो तरह के दुष्ट हैं। एक, जो दूसरों को सताते हैं। और एक, जो अपने को सताते हैं। और ध्यान रखना, पहले तरह के दुष्ट उतने खतरनाक नहीं हैं। क्योंकि दूसरा कम से कम अपनी रक्षा तो कर सकता है। दूसरे प्रकार के दुष्ट बहुत खतरनाक हैं, जो अपने को सताते हैं। वहां कोई रक्षा करने वाला भी नहीं है।

अब अगर तुम अपने ही शरीर में कांटे चुभाओ, तो कौन रक्षा करेगा? खुद को ही भूखा मारो, कौन रक्षा करेगा? अंग काट डालो, आंखें फोड़ लो, कान फोड़ दो, कौन रक्षा करेगा? सडाओ अपने को, कौन रक्षा करेगा?


लेकिन ये दूसरे तरह के दुष्ट बड़े तपस्वी हो जाते हैं। इनके जीवन में सिवाय मूढ़ता के कुछ भी नहीं होता। तुम कोई लपट न देखोगे इनके जीवन में प्रतिभा की।

जाओ, काशी की सड्कों पर बैठे लोगों को देखो। तीर्थों में तुम्हें इस तरह के मूढ़ मिल जाएंगे। तुम उनके चेहरे पर सिर्फ जघन्य अंधकार पाओगे, घनीभूत अंधकार पाओगे। उनकी आंखों में तुम्हें कोई ज्योति न मिलेगी। तुम उन्हें दुष्ट पाओगे।

साधुओं को जरा गौर से देखना, क्योंकि उनमें तीन तरह के साधु हैं। नब्बे प्रतिशत तो उसमें सिर्फ हठी हैं। हठ ही उनका गुणधर्म है। इसलिए वे कुछ भी कर सकते हैं, यह खयाल रखना। क्योंकि हठी व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। उसमें से नौ प्रतिशत तुम पाओगे कि राजसी हैं, जो मान—प्रतिष्ठा के लिए कर रहे हैं। कभी भूल से तुम्हें वह एक आदमी मिलेगा, जो सात्विक है। जो उपवास कुछ पाने के लिए नहीं कर रहा है, जिसका उपवास आनंद है। जिसका उपवास परमात्मा के निकट होने की सिर्फ एक दशा है।

फर्क समझ लो। सात्विक व्यक्ति उपवास करता है। उपवास का अर्थ है, उसके पास होना, आत्मा के पास होना या परमात्मा के पास होना। शब्द का भी वही अर्थ है। उसका भूखे मरने से कोई लेना—देना नहीं है सीधा। लेकिन जब सात्विक व्यक्ति उसके निकट होता है, तो शरीर को भूल जाता है। कुछ घड़ियों के लिए न भूख लगती है, न प्यास लगती है। भीतर ऐसी धुन बजने लगती है। जैसे तुम भी कभी—कभी नृत्य देखने बैठे हो, कोई सुंदर नर्तक नाच रहा है; या कोई गीत गा रहा है, और गीत ऐसा प्यारा है कि धुन बंध गई, तारी लग गई; तो तीन घंटे तुम्हें न भूख लगती है, न प्यास लगती है। तुम सब भूल ही जाते हो। जब संगीत बंद होता है, अचानक तुम्हें पता चलता है कि पेट में तो हाहाकार मचा है, भूख लगी है, कंठ सूख रहा है। इतनी देर तक पता क्यों न चला! ध्यान लीन था।

सात्विक व्यक्ति का उपवास ऐसा है कि उसका ध्यान इतना भीतर परमात्मा में लीन होता है कि वह भूल ही जाता है, प्यास लगी है, भूख लगी है। जब लौटता है अपने ध्यान से, तब भूख और प्यास का पता चलता है। इसलिए उसका नाम उपवास है, परमात्मा के निकट वास।

राजस व्यक्ति अनशन करता है, उपवास नहीं। अनशन का मतलब है, उसकी कोई चेष्टा है। 

हठ से, मन, वाणी और शरीर को पीड़ा पहुंचाकर........।

वह अपने को कष्ट पहुंचाता है। या ज्यादा से ज्यादा उसकी आकांक्षा होती है, तो दूसरे का अनिष्ट करने की होती है।

मूढ़ चित्त दूसरे को दुख देने में अपना सुख मानता है। यह तमस का लक्षण है। राजस व्यक्ति अपने को सुख देने में सुख मानता है। सत्व का व्यक्ति दूसरे को सुख देने में सुख मानता है।

और तुम्हारे जीवन की सारी गतिविधियां इन तीन हिस्सों में बंटी हैं। और अपनी हर गतिविधि का गौर से निरीक्षण करना। वह सत्य है, रजस है या तमस है? और चेष्टा करना तमस से रजस में उठने की, रजस से सत्व में उठने की।

अगर कोई स्वाध्यायपूर्वक अपनी वृत्तियों का, अपनी दृष्टियों का, धारणाओं का, मनोभावों का ठीक—ठीक अध्ययन करता रहे, तो उस अध्ययन से ही तुम्हारे भीतर सीढ़ियां लग जाएंगी। और जैसे—जैसे तुम सत्य के करीब आते हो, वैसे—वैसे श्रद्धा के करीब आते हो। जैसे—जैसे सत्य के करीब आते हो, वैसे—वैसे भगवत्ता के करीब आते हो।

भगवान दूर नहीं है। उतना ही दूर है, जितनी तुम्हारे जीवन की दूरी सत्व से है। 

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

 हरिओम सिगंल

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