बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18भाग 18

 आध्‍यात्‍मिक संप्रेषण संप्रेषण की गोपनीयता


हदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्‍यसूयीत।। 67।।

य इमं परमं गुह्मं मद्भक्तेम्बीभधास्यति।

भक्‍ति मयि परां कृत्या मामैवैष्यत्यसंशय:।। 68।।

न च तस्मान्मनुष्येधु कीश्चन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।। 69।।


हे अर्जुन, इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहीत के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चाहिए; एवं जो मेरी निंदा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए।

 जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम गुह्म रहस्य गीता को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा।

और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है, और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा।


हे अर्जुन, इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना चाहिए; एवं जो मेरी निंदा करे, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए।

समझने की कोशिश करो।

इस प्रकार तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को......।

यह अत्यंत गुह्य और गोपनीय है। इससे जीवन के आत्यंतिक द्वार खुलते हैं। यह कुंजी बहुत बहुमूल्य है। यह हर किसी को मत दे देना। ये मोती हैं, ये पारखियों को देना। ये हीरे हैं, ये जौहरियों को देना।

तो कृष्ण कहते हैं

  इस परम रहस्य को भी किसी भी काल में तपरहित मनुष्य के प्रति नहीं कहना चाहिए.......।

तपस्वी कौन है? तपस्वी का अर्थ है, जिसने सत्य को पाने के लिए अथक चेष्टा की, अपने को जलाया, तपाया। जो कुतूहलवश नहीं आ गया है सत्य को पूछने। जिसने सत्य को अपने को समर्पित किया है, जो सत्य के लिए मिटने को तैयार है। अगर जीवन की भी आहुति देनी पड़े, तो वह तैयार है। वह एक हाथ में अपने जीवन को लेकर आया है, यह रहा जीवन, सत्य मुझे मिल जाए, तो मैं जीवन देने को तैयार हूं।

तपस्वी का अर्थ है, जो सत्य को जीवन के ऊपर रखता है। जो कहता है, जीवन चला जाए, हर्जा नहीं; सत्य खरीद लेना है। जीवन दो कौड़ी का है जिसके लिए सत्य के मुकाबले।
भोगी का अर्थ है, जो जीवन को किसी भी हालत में खोने को तैयार नहीं है। जिसके लिए जीवन से ऊपर कुछ भी नहीं है। त्यागी का अर्थ है, जिसके लिए जीवन से भी ऊपर कुछ है। जो जीवन को भी कुछ पाने के लिए साधन बना लेता है।

तो तपस्वी को कहना चाहिए। कुतूहलवश कोई आया हो, उसको नहीं; जिज्ञासा मात्र से कोई आया हो, उसको नहीं। मुमुक्षा से आया हो! जो अपने जीवन को मोक्ष बनाने के लिए तत्पर हो। जो कहता हो, जान भी देनी पड़े, तो यह रही गरदन।

तपरहित मनुष्य के प्रति नहीं कहना, न भक्तिरहित के प्रति कहना

क्योंकि जो भक्ति ही न हो, तो गोपनीय बात नहीं कही जा सकती। अत्यंत निकटता चाहिए।

पुराना शब्द है कि जब गुरु मंत्र देता है शिष्य को, तो हम कहते हैं, कान फूंकता है। उसका मतलब क्या है? उसका मतलब है, इतनी गुप्त है बात कि कान में ही कहता है। कोई और सुन न ले! वह गुफ्तगू है; वह बड़ी हृदय से हृदय में कही गई है बात। कान फूंकना तो प्रतीक है।

कान फूंकना प्रतीक है, उसका अर्थ है, कानों—कान कहना। कोई दूसरे के कान में न पड़ जाए। अत्यंत निकटता में कहना, सामीप्य में कहना।

जिसकी मुमुक्षा है, वह ही यहां तक पहुंच पाएगा। जिसका प्रेम है, वह सब सहकर यहां तक पहुंच जाएगा।

प्रेम कोई बाधाएं नहीं मानता। प्रेम कोई सीमाएं नहीं मानता। प्रेम बड़ी से बड़ी दीवालें लांघ जाता है।

तो कृष्ण कहते हैं, भक्तिरहित के प्रति मत कहना......।

क्योंकि तुम तो कह दोगे, लेकिन जिसने भक्ति से सुना ही नहीं, वह समझेगा ही नहीं। तो क्यों अपनी श्वास खराब करनी! और डर यह है कि अगर वह बुद्धि से समझेगा। क्योंकि दो ही जगह हैं समझने की, या तो हृदय या बुद्धि। अगर भक्ति है, तो हृदय से समझेगा। वही समझने का ठीक केंद्र है। अगर भक्ति नहीं है, तो बुद्धि से समझेगा। वह तुमने जो कहा है, उसका तर्क बनाएगा, शास्त्र बनाएगा, सिद्धात बनाएगा, उसमें वह भटक जाएगा।

बुद्धि का तो जंगल है, वहा कोई खुले स्थान नहीं हैं। हृदय का खुला आकाश है। हृदय में कोई कभी भटका नहीं, बुद्धि में लोग सदा भटके हैं।

तो बुद्धि वाला आदमी तो वैसे ही भटका है, उसको और यह गोपनीय बात कहकर और न भटका देना, और उसका जंगल बड़ा मत कर देना। वह वैसे ही उलझा है।

और न बिना सुनने की इच्छा वाले के प्रति ही कहना।

और जो सुनने को इच्छुक ही न हो, आतुर न हो, अभीप्‍सु न हो, उससे मत कहना। उसके तो कान पर भी न पहुंचेगा। और खतरा एक है कि जब सुनने की इच्छा न हो, तब अगर कोई कुछ कह दे, तो ऊब पैदा होती है। और उस ऊब के कारण वह सदा के लिए अनुत्सुक हो जाएगा।

बहुत बच्चे धर्म से इसीलिए अनुत्सुक हो जाते हैं। जब उनकी तैयारी नहीं होती सुनने की, तब मां—बाप उनको गीता सुना रहे हैं! मंदिर ले जा रहे हैं! वे घसिटे जा रहे हैं। उनको फिल्म जाना है, पिक्चर देखना है। बाजार में मदारी आया है। और ये कहां के कृष्ण और गीता को लगाए हुए हैं!

और जो मेरी निंदा करता हो, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिए। 
क्योंकि जहां मन निंदा से भरा हो, विरोध से भरा हो, वहा तुम कुछ भी कहो, अनर्थ होगा। तुम जो भी कहोगे, उससे उलटा अर्थ निकाला जाएगा। जब निंदा भीतर हो, तो तुम अपनी निंदा को हर चीज पर टांग दोगे। तुम्हारी निंदा तुम्हारी आंखों पर छाई होगी। तुम उसी के माध्यम से देखोगे। हर चीज निंदा के ही रंग में रंग जाएगी। कोई जरूरत नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।

क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम गुह्य रहस्य को, गीता को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यंत प्यारा पृथ्वी पर दूसरा कोई होवेगा।


भगवद्गीता भगवान का गीत है। अर्जुन के बहाने स्वर्ग की गंगा को पृथ्वी पर उतारा है। उस गंगा को उन्हीं के पास ले जाना, जिनके हृदय में स्वर्ग की गंगा की प्यास उठ गई है।

जो अभी इसी पृथ्वी के जल से तृप्त हैं, उन्हें व्यर्थ परेशान मत करना। अभी यही जल उनके लिए काफी है। एक दिन आएगा कि वे पाएंगे, इस जल से किसी की प्यास बुझती नहीं, तभी वे तलाश करेंगे उस जल की जो भगवान का है।

भगवद्गीता एक दिव्य गीत है। सभी न सुन पाएंगे। संगीत को, उस संगीत को सुनने के लिए बड़ी अहर्निश तैयारी चाहिए; बड़ा श्रद्धा— भाव से भरा मन चाहिए। नाचता, उत्सव करता हुआ, एक अहोभाव चाहिए, तभी उस गीत की कड़ियां सुनाई पड़ेगी। और तब वे गीत की कड़ियां साधारण न होंगी। वह गीत की कड़ियां भगवत्ता से भरी होंगी। उनका स्वाद इस पृथ्वी का नहीं है, उनका स्वाद परलोक का है।

उस स्वाद के लिए तैयार हो जाए कोई, तो कृष्ण कहते हैं, उससे जरूर कहना। और जो ऐसे प्यासे व्यक्ति को मेरा गीत पिला देता है, उससे ज्यादा प्यारा मेरा कोई भी नहीं है।

क्योंकि इसका अर्थ हुआ कि वह एक व्यक्ति को और भगवान में वापस बुला लेता है। इसका अर्थ हुआ कि एक हृदय को और उसने भगवत्ता में डुबा दिया। इसका अर्थ हुआ, एक बटोही भटका था, वह वापस लौट आया, उसे अपना घर मिल गया। इसका अर्थ हुआ, अस्तित्व का एक खंड शांत हुआ, आनंदित हुआ, निर्वाण को उपलब्ध हुआ, निस्संशय हुआ। यात्रा एक खंड की पूरी हुई। अस्तित्व का एक टुकड़ा स्वर्ग को, शांति को, महासुख को, सच्चिदानंद को उपलब्ध हुआ।

स्वभावत:, जो भगवान के गीत में लोगों को डुबा देता है, उससे ज्यादा प्यारा भगवान का और कौन होगा!

कृष्ण कहते हैं, वह मेरे भक्तों में मुझे परम प्रिय है। वह निस्संदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। वह मेरे साथ एकरूप हो जाता है।

कृष्ण के गीत को गाते—गाते व्यक्ति कृष्ण हो जाता है। भगवद्गीता को सुनते—सुनते, कहते—कहते, अगर ताल—मेल बैठ जाए, अगर सुर बैठ जाए, साज बैठ जाए, तो व्यक्ति कृष्णमय हो जाता है।

लेकिन घृणा से भरा हो, निंदा से भरा हो, विरोध से भरा हो, तो यह नहीं हो पाएगा। उत्सुक न हो, अनुत्सुक हो, जबरदस्ती कहा जा रहा हो उसे, तो यह न होगा। अभी उसकी मुमुक्षा ही न हो, अभी वह धन चाहता हो, तुम धर्म की बात करते हो, तो तीर स्थान पर न लगेंगे। अभी वह पद चाहता हो, तुम परमात्मा की पुकार उठाते हो, उसे सिर्फ व्याघात मालूम होगा कि तुम व्यर्थ का उपद्रव कर रहे हो।

व्यक्ति की आकांक्षा के विपरीत उसे परमात्मा में भी वापस नहीं पहुंचाया जा सकता है। स्वतंत्रता परम है, आखिरी है। और प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही स्वतंत्रता से जीता है। हम सहारा दे सकते हैं। बुद्ध पुरुष इशारा कर सकते हैं, चलना तो प्रत्येक को ही पड़ता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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