बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 19

 गीता—ज्ञान—यज्ञ

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट स्‍यामिति मे मति:।। 70।।

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादीय यो नर:।

सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राम्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।। 71।।


तथा हे अर्जुन, जो पुरूष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद— रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान— यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

तथा जो पुरूष श्रद्धायुक्त और दोष— दृष्टि से रहित हुआ इस गीता का श्रवण— मात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्‍त हुआ पुण्य करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।


तथा हे अर्जुन, जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को पढ़ेगा अर्थात नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान—यज्ञ से पूजित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

हे अर्जुन, जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को पढेगा.....।

जिस संवाद की मैंने बात कही, वही कृष्ण कह रहे हैं, इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप....।

एक तो विवाद है, जहां जो भी तुमसे कहा जाता है, तुम उसके विपरीत सोचते हो। एक संवाद है, जहां तुमसे जो भी कहा जाता है, तुम उसके अनुकूल सोचते हो, सामंजस्य का अनुभव करते हो। तुम्हारा हृदय उसके साथ—साथ धड़कता है, विपरीत नहीं। एक गहन सहयोग होता है।

तो कृष्ण कहते हैं, इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को जो भी पढेगा...।

एक संवाद घटित हुआ है, एक अनूठी घटना घटी है। दो व्यक्तियों ने एक—दूसरे को अपने में उंडेला है, एक—दूसरे में डूबे हैं। इस अनूठी घटना को कृष्ण धर्ममय कहते हैं। यही धर्म की घटना है, जहां दो चेतनाएं इतने अपूर्व रूप से एक—दूसरे में डूब जाती हैं कि कोई अस्मिता और अहंकार की घोषणा नहीं रह जाती कि हम अलग— अलग हैं; अपनी कोई सुरक्षा की आकांक्षा नहीं रह जाती। बूंद जैसे सागर में डूब जाए, सरिता जैसे सागर में कूद जाए!

इस धर्ममय हम दोनों के संवाद—रूप गीता को जो पढेगा, नित्य पाठ करेगा…..।





नित्य पाठ एक अनूठी बात है, जो पूरब में ही विकसित हुई। पश्चिम में नित्य पाठ जैसी कोई चीज नहीं है। पश्चिम में लोग किताबें पढ़ते हैं, पाठ नहीं करते। किताब पढ़ने का अर्थ है, पढ़ ली एक बार, खतम हो गई बात; अब उसे दुबारा क्या पढ़ना? जो पढ़ ही ली, उसे दुबारा क्या पढ़ना? एक फिल्म एक बार देख ली, बात खतम हो गई, दुबारा क्या देखने को बचता है? एक उपन्यास एक बार पढ़ लिया, बात खतम हो गई। फिर दुबारा उसे वही पढेगा, जो मंदबुद्धि हो, जिसकी अकल में कुछ भी न आया हो। दुबारा कोई क्यों पढेगा?

लेकिन पाठ का अर्थ है, करोड़ों बार पढ़ना, रोज पढ़ना, जीवनभर पढ़ना।

नित्य पाठ का क्या अर्थ है फिर? यह साधारण पढ़ना नहीं है। नित्य पाठ का अर्थ है, धर्म के वचन ऐसे वचन हैं कि तुम एक बार उन्हें पढ़ लो, तो यह मत समझना कि तुमने पढ़ लिया। उनमें पर्त दर पर्त अर्थ हैं। उनमें गहरे—गहरे अर्थ हैं। तुम जैसे—जैसे गहरे उतरोगे, वैसे—वैसे नए अर्थ प्रकट होंगे। जैसे—जैसे तुम उनमें प्रवेश करोगे, वैसे—वैसे पाओगे, और नए द्वार खुलते जाते हैं।
गीता को तुम जितनी बार पढ़ोगे, उतने ही अर्थ हो जाएंगे। बहुआयामी है प्रत्येक शब्द धर्म का। और तुम्हारी जितनी प्रज्ञा विकसित होगी, उतनी ही ज्यादा तुम्हें अर्थ की अभिव्यंजना होने लगेगी। कृष्ण का ठीक—ठीक अर्थ जानते—जानते तो तुम कृष्ण ही हो जाओगे, तभी जान पाओगे, उसके पहले न जान पाओगे।
ऐसा समझो कि जब तुम गीता शुरू करोगे, तो तुम ऐसे पढ़ोगे, जैसा अर्जुन है, और जब गीता पूरी होगी, तो तुम ऐसे पढ़ोगे, जैसे कृष्ण हैं। और बीच में हजारों सीढ़ियां होंगी।

बहुत बार, बहुत बार तुम्हें लगेगा, इतनी बार पढने के बाद भी यह अर्थ इसके पहले क्यों नहीं दिखाई पड़ा? यह शब्द कितनी बार मैं पढ़ गया हूं लेकिन इस शब्द ने कभी ऐसी धुन नहीं बजाई मेरे भीतर! आज क्या हुआ?

आज भाव—दशा और थी। आज तुम्हारा चित्त शांत था, तुम आनंदित थे, तुम प्रफुल्लित थे, तुम थोड़े ज्यादा मौन थे, नया अर्थ प्रकट हो गया। कल तुम परेशान थे, मन उपद्रव से भरा था, यही शब्द तुम्हारी आंख के सामने से गुजरा था, लेकिन हृदय पर इसका कोई अंकुरण नहीं हुआ था, कोई छाप नहीं छोड़ सका था, कोई संस्कार नहीं बना सका था।

ऐसे बहुत—बहुत भाव—दशाओं में, बहुत—बहुत चेतना की स्थितियों में तुम गीता का पाठ करते रहना, बहुत—बहुत तरफ से गीता को देखते रहना, तुम्हें नए—नए अर्थ मिलते चले जाएंगे।
हम धर्मग्रंथ उसी को कहते हैं, जो पढ़ने से न पढ़ा जा सके, जो केवल पाठ से पढ़ा जा सके। इसलिए हर किताब का पाठ नहीं किया जाता, सिर्फ धर्मग्रंथ का पाठ किया जाता है।

असल में जिसका पाठ किया जा सकता है, वही धर्मग्रंथ है। जिसमें रोज—रोज नए—नए अर्थ की कलमें लगती जाएं, नए फूल खिलते जाएं; तुम हैरान ही हो जाओ कि तुम जितने भीतर जाते हो, और नए रहस्य खुलते चले जाते हैं, इनका कोई अंत नहीं मालूम होता, तभी तुम धर्मग्रंथ पढ़ रहे हो। इसे तुम्हें रोज ही पढ़ना होगा। यह तुम्हें तब तक पढ़ना होगा, जब तक कि आखिरी अर्थ प्रकट न हो जाए, जब तक कि कृष्ण का अर्थ प्रकट न हो जाए।
जैसे हम प्याज को छीलते हैं, ऐसे गीता को रोज छीलते चले जाना। एक पर्त उघाड़ोगे, नयी ताजी पर्त प्रकट होगी। वह पहले से ज्यादा ताजी होगी, नयी होगी, गहरी होगी। उसे भी उघाड़ोगे, और भी नयी पर्त मिलेगी। ऐसे उघाडते जाओगे, उघाडते जाओगे, एक दिन सब पर्तें खो जाएंगी, भीतर का शून्य प्रकट होगा।

वही शून्य कृष्ण का अर्थ है। उस शून्य में ही समर्पण हो जाता है, उस शून्य में ही कोई डूब जाता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो हम दोनों के इस धर्ममय संवाद—रूप गीता को पढेगा, नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञान—यज्ञ से सुसज्जित होऊंगा, ऐसा मेरा मत है।

उसे कोई और यज्ञ करने की जरूरत नहीं, उसने रोज ज्ञान—यज्ञ कर लिया। जितनी बार उसने मेरे शब्दों को, तुझसे कहे शब्दों को अर्जुन, बड़े प्रेम और श्रद्धा और आस्था से पढ़ा; और जितनी बार इस गीत का उसके भीतर भी थोड़ा— थोड़ा उदय हुआ; वह भी नाचा और डोला और मतवाला हुआ; उसने भी यह शराब पी, जो हम दोनों के बीच घटी है, वह भी इसी मस्ती में मस्त हुआ, जिसमें हम दोनों डोलते गए हैं और डूबते गए हैं, उतनी ही बार उसने ज्ञान—यज्ञ किया, ऐसा मेरा मत है। उसे किसी और यज्ञ की कोई जरूरत भी नहीं है।

तथा जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोष—दृष्टि से रहित इस गीता का श्रवण—मात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त हुआ पुण्य कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होवेगा।

और जो पुरुष श्रद्धायुक्त।

बड़े प्रीतिभाव से, अनन्य श्रद्धा से। संदेह की एक रेखा भी न उठती हो।

दोष—दृष्टि से रहित.....।

दोष न खोजने को तैयार हो। क्योंकि दोष जो खोजने को तैयार है, उसे मिल ही जाएंगे। लेकिन इन दोषों के मिल जाने से किसी और की कोई हानि नहीं है, उसकी ही हानि है। तुम अगर गुलाब के पौधे के पास जाओगे और कांटे ही खोजना चाहते हो, तो मिल ही जाएंगे। वे वहां हैं, काफी हैं। मगर इससे सिर्फ तुम्हारी हानि हुई। जो गुलाब के फूल का दर्शन हो सकता था, और जो दर्शन तुम्हारे जीवन को रूपांतरित कर देता, उससे तुम वंचित हो गए।

जो दोष—दृष्टि से रहित, श्रद्धाभाव से......।

कांटों को नहीं गिनेगा जो, फूलों को छुएगा जो, फूलों की गंध को अपने भीतर ले जाएगा। अपने द्वार खोलेगा। भयभीत नहीं, संदिग्ध नहीं, असंशय, आस्था से भरा हुआ।

वह श्रवण—मात्र से भी...!

क्योंकि ऐसी घड़ी में, ऐसी भाव—दशा में श्रवण भी काफी है। ऐसा सुन लिया, तो सुनने से भी पार हो जाता है। क्योंकि ऐसा सुना हुआ तीर की तरह प्राणों के प्राण तक उतर जाता है।
श्रवण—मात्र भी करेगा, वह पापों से मुक्त हुआ पुण्य कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त हो जाएगा।

मात्र श्रवण से भी!

बुद्ध ने बड़ा जोर दिया है, सम्यक श्रवण। महावीर ने कहा है कि मेरा एक घाट श्रावक का है। जिसने ठीक से सुन लिया, वह भी नाव पर सवार हो गया, वह भी उस पार पहुंच जाएगा। कृष्णमूर्ति राइट लिसनिंग पर रोज—रोज समझाते हैं, ठीक से सुन लो।
जानने का अर्थ सिर्फ ठीक से सुन लेना है। लेकिन ठीक से सुन लेना बड़ी मुश्किल से घटता है। क्योंकि हजार बाधाएं हैं, आलोचक की दृष्टि है, दोष देखने का भाव है, निंदा का रस है। उसमें तुम काटो में उलझ जाते हो।

कांटे हैं। मेरे पास तुम सुन रहे हो; अगर दोष देखने की दृष्टि हो, दोष मिल जाएंगे। इस पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जहां कांटे न हों। क्योंकि कांटे फूलों की रक्षा के लिए हैं। कांटे फूलों के दुश्मन नहीं हैं, विपरीत भी नहीं हैं। वे फूलों की रक्षा के लिए हैं; वे फूलों के पहरेदार हैं; उनके बिना फूल नहीं हो सकते। और जितना सुगंधयुक्त गुलाब होगा, उतने ही बड़े काटे होंगे। जितना बड़ा गुलाब का फूल होगा, उतने ही बड़े काटे होंगे। वे रक्षा कर रहे हैं। तो तुम्हें कीटों से उलझने की कोई जरूरत नहीं है। कांटे हैं; तुम फूल को देखो।

और एक मजे की बात है। अगर तुमने फूल को ठीक से देखा, जीया, अपने भीतर जाने दिया, तो तुम एक दिन पाओगे कि सब कांटे फूल हो गए। तुम्हारी दृष्टि फूल की हो गयी, अब तुम्हें कांटे दिखायी ही नहीं पड़ते। और अगर तुमने कांटों को ही गिना और उनको ही चुभा—चुभाकर देखा, घाव बनाए, तो तुम फूल से भी डर जाओगे; फूल से भी ऐसे डरोगे, जैसे फूल भी कांटा है। एक दिन तुम पाओगे, फूल बचे ही नहीं तुम्हारे लिए, कांटे ही कांटे हो गए। तुम्हारी दृष्टि ही अंततः तुम्हारा जीवन बन जाती है।

तो जिसने श्रद्धा से, प्रेम से, अहोभाव से, दोष—दृष्टि से नहीं, सत्य की आकांक्षा—अभीप्सा से मात्र सुना भी, वह भी मुक्त हो जाता है।

इससे बड़ी भूल पैदा हुई। कृष्ण के इन वचनों से वही हुआ जिसका डर था। लोगों ने समझा, तो फिर ठीक है, गीता सुन लेने से सब हो जाता है। मगर वे भूल गए कि शर्तें हैं. श्रद्धायुक्त, दोष—दृष्टि से रहित......।

इसका मतलब यह नहीं कि सोए—सोए सुन लेना। सोए रहोगे, न संदेह उठेगा, न दोष—दृष्टि होगी; आंख बंद किए झपकी लेते रहना। धार्मिक सभाओं में लोग सोए रहते हैं। इसका मतलब सोए—सोए सुनना नहीं है, इसका मतलब है, बहुत जागरूक होकर सुनना, ताकि दोष—दृष्टि प्रविष्ट न हो जाए। दोष—दृष्टि नींद का हिस्सा है, मूर्च्छा का हिस्सा है।

बहुत अनन्य जागरूक, चैतन्य होकर सुनना, ताकि श्रद्धा का आविर्भाव हो जाए। तो ही सुनने से भी कोई पार हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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