बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 12

 गुणातीत है आनंद


ब्रह्यणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतय।

कर्माणि प्रीवभक्तानि स्वभाअभवैर्गुणै।। 41।।

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। 42।।

शौर्य तेजी धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्‍यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 43।।

कृषिगौरमवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्क्कं कर्म शूद्रस्‍यापि स्वभावजम्।। 44।।


इसलिए हे परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के आधार पर विभक्त किए गए हैं।

शम अर्थात अंतःकरण का निग्रह, दम अर्थात इंद्रियों का दमन, शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि, तप अधर्म धर्म के लिए कष्ट सहन करना, क्षांति अर्थात क्षमा— भाव एवं आर्जव अर्थात मन, इंद्रिय और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान, ये तो ब्रह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। और शौर्य, तेज, धृति अर्थात धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामी— भाव, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

तथा खेती, गौपालन और क्रय— विक्रय रूप सत्य व्‍यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। और सब वर्णो की सेवा करना, यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।


इसलिए हे परंतप, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं।

 शम—अंतःकरण का निग्रह, दम—इद्रियों का निग्रह, शौच—बाहर— भीतर की शुद्धि, तप, क्षांति, क्षमा— भाव एवं आर्जव अर्थात मन, इंद्रिय और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, शान और विज्ञान, ये तो ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

और शौर्य, तेज, धृति अर्थात धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामी— भाव, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

तथा खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार वैश्य के और सब वर्णों की सेवा करना, यह शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। पहली बात। अगर संसार में लोग ठीक—ठीक गुणों में विभाजित होते, तो तीन ही वर्ण होने चाहिए, चार नहीं—ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र। अगर लोग ठीक—ठीक विभाजित हों, तो तीन ही वर्ण होंगे। चौथा वर्ण भी है, क्योंकि लोग ठीक—ठीक विभाजित नहीं हैं।

वैश्य वस्तुत: कोई वर्ण नहीं है, सभी वर्णों का बाजार है। शूद्र और क्षत्रिय के बीच में जो हैं, क्षत्रिय और ब्राह्मण के बीच में जो हैं, शूद्र और ब्राह्मण के बीच में जो हैं, वह जो—जो बीच में हैं, उन सबका इकट्ठा समूह वैश्य है। वैश्य कोई वर्ण नहीं है; मिश्रण है, खिचड़ी है।

लेकिन उसकी भी जरूरत है, वह चौराहा है। वहां से एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण में प्रवेश करता है। वहां से एक गुण का व्यक्ति दूसरे गुण में प्रवेश करता है। तीन तो यात्रा—पथ हैं, चौथा चौराहा है।

इसलिए वैश्य बडे से बड़ा वर्ण है। होना नहीं चाहिए। अगर प्रकृति बिलकुल नियम से चलती हो और सब चीजें बंटी हो, जैसी कि हम गणित और तर्क में बांट लेते हैं, विभाजन साफ हो, तो वैश्य खो जाएगा। तब तीन ही रह जाएंगे।

तमस से भरे हुए व्यक्ति का नाम शूद्र है, सोया, मूर्च्छित। रजस से भरे हुए, तीव्र त्वरा और कर्म से भरे हुए व्यक्ति का नाम क्षत्रिय है। सत्व, शांति, पवित्रता से भरे हुए व्यक्ति का नाम ब्राह्मण है। ये तीन तो गणित के विभाजन हैं, लेकिन जीवन गणित को नहीं मानता। तो जीवन में ब्राह्मण तो मुश्किल से मिलेगा, शूद्र भी मुश्किल से मिलेगा, क्षत्रिय भी मुश्किल से मिलेगा। जहां जाओगे, वहां वैश्य मिलेगा। क्योंकि तुम पाओगे, ब्राह्मण भी धंधा कर रहा है। चाहे वह धंधा यज्ञ का हो, पूजा—पाठ का हो, पुरोहित का हो, धंधा कर रहा है। धंधा कर रहा है, तो वैश्य है।

तुम पाओगे, शूद्र भी सेवा कहां कर रहा है, वह भी धंधा कर रहा है। चाहे जूता बना रहा हो, चाहे मालिश कर रहा हो, चाहे बुहारी लगा रहा हो, वह भी धंधा कर रहा है, वह भी वैश्य है। और क्षत्रिय तुम कहां पाओगे? वे भी धंधा ही करने वाले लोग हैं। वे अपनी जान बेच रहे हैं। मरने—मारने के लिए वे तैयार हैं, क्योंकि कुछ रुपए महीना तनख्वाह मिलती है! वे भी वैश्य हैं।

तीन तो होते, अगर जीवन बिलकुल गणित से चलता। लेकिन जीवन गणित से चलता ही नहीं। तो तुम तो इन तीनों का संगम पाओगे। गंगा, यमुना, सरस्वती, तीनों को तुम प्रयाग में मिलता पाओगे। वैश्य तीर्थ बन गया है। वह सब उसमें गड्डमगड्ड है। वह सबसे बड़ा वर्ण बन गया है, जो होना ही नहीं चाहिए।

और दूसरी बात ध्यान रखो कि इनका जन्म से कोई भी संबंध नहीं है। जन्म से तुम ब्राह्मण के घर में पैदा हो सकते हो, इससे तुम्हारे ब्राह्मण होने का कोई संबंध नहीं है। जन्म से तुम क्षत्रिय के घर में पैदा हो सकते हो, लेकिन इससे तुम्हारे क्षत्रिय होने का कोई संबंध नहीं है। तुम डरपोक क्षत्रियों को खोज ही लोगे। और ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्रह्मज्ञान को थोड़े ही उपलब्ध हो जाता है। और शूद्र के घर में पैदा होने से ही कोई शूद्र थोड़े ही होता है।

जीवन का कोई संबंध जन्म से बहुत ज्यादा नहीं है। जन्म से तो केवल संभावना मिलती है।

कोई शूद्र के घर में पैदा होने से शूद्र नहीं हो जाता। हमारी मुल्क की परंपरा तो यह है कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। क्योंकि सभी आलस्य से पैदा होते हैं, गहन तमस से आते हैं।

मां के पेट में नौ महीने बच्चा सोया रहता है। अब इससे बड़ा और आलस्य कुछ खोजोगे! नौ महीने पड़ा ही रहता है तमस, अंधकार में। सभी अंधकार में से आते हैं, आलस्य और तमस से पैदा होते हैं। सभी शूद्र हैं।

सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सब ब्राह्मण की तरह मरने चाहिए। यह तो जीवन की कला होगी। लेकिन जिसने ब्राह्मण के घर में पैदा होकर समझ लिया, मैं ब्राह्मण हो गया, वह चूक जाएगा। वह नाम—मात्र का ब्राह्मण था। उसने लेबल को असलियत समझ लिया। क्षत्रिय के घर में पैदा होने से कोई क्षत्रिय नहीं होता। समझने की कोशिश करें उन तीनों के लक्षण।

शम अर्थात अंतःकरण का निग्रह........।

जिसके भीतर एक गहरी शांति की अवस्था आ गयी है, जिसके भीतर कोई उत्तेजित लहरें नहीं हैं, अंतःकरण विक्षिप्त नहीं रहा, मौन हो गया है। आंख बंद कर लो, तो भीतर सन्नाटा, और सन्नाटा, और सन्नाटा खुलता जाता है। स्वर की व्यर्थ गुंज नहीं होती; शब्द अकारण नहीं तिरते; विचार यों ही नहीं घूमते रहते। भीतर एक परम शांति है। अंतःकरण निगृहीत हो गया। अब अंतःकरण पागल की तरह नहीं दौड़ रहा है। जब जरूरत होती है, तब चलता है; जब जरूरत नहीं होती, तब विश्राम करता है। तुम मालिक हो गए हो अपने अंतःकरण के।

दम.......।

जिसकी इंद्रियां अब मालिक नहीं रहीं; जिसका होश मालिक हो गया है।

तुम्हें तो इंद्रियां चलाए जाती हैं। सुंदर स्त्री जा रही है, तुम ध्यान करने बैठे थे और आंख कहती हैं, देखो, सुंदर स्त्री जाती है। तुम मालिक नहीं हो। आंख मजबूर कर देती है; तुम्हें देखना पड़ता है; आंख उठानी पड़ती है। आंख उठाकर पछताते हो कि क्या होगा देखे लेने से भी! और सौंदर्य में देखने योग्य भी क्या है! हवा में खिंची लकीरें हैं; थोड़ी अनुपातपूर्ण होंगी। हड्डी—मांस—मज्जा पर चढ़ी हुई लकीरें हैं; थोड़ी अनुपातपूर्ण होंगी। लेकिन क्या होगा? पर नहीं। ध्यान टूट गया, श्रृंखला मिट गयी। आंख ने पुकार लिया। आंख ने पकड़ लिया।

इंद्रियां जिसकी वश में आ गयी हैं।

शौच—बाहर— भीतर की शुद्धि........।

जो सदा नहाया हुआ है; जिसके भीतर विकार की धूल नहीं उठती।

तप.......।

जो जीवन में दुख झेलने को तैयार है, अगर उस दुख से शुद्धि होती हो। दुख झेलने को तैयार है, अगर उस दुख से शांति आती हो। दुख झेलने को तैयार है, उससे अगर सत्य की खोज होती है। जो सुख का आकांक्षी नहीं है; सुख से बड़ी आकांक्षा का जिसके भीतर आविर्भाव हुआ है। जो सत्य का खोजी है।

क्षमा— भाव.......।

जिसको भी शांति पैदा होगी, क्षमा— भाव पैदा होगा ही। अगर क्षमा— भाव पैदा न हो, तो तुम शांत कभी हो नहीं सकते। इतना बड़ा संसार है, चारों तरफ चल रहा है। हजारों तरह के काम हो रहे हैं, लोग हजारों तरह की बातें कह रहे हैं, पक्ष में, विपक्ष में। अगर तुम एक—एक की बात पर विचार करो, चोट पाओ, घाव बनाओ, क्षमा न कर सको, माफ न कर सको, भूल न सको, तुम कहीं शांत हो सकोगे! तुम पागल हो जाओगे। तो जिसके भीतर शांति पैदा हुई है, जो क्षमा— भाव को उपलब्ध हुआ है।

आर्जव......।

जिसका मन, इंद्रिय और शरीर सरल हो गए हैं, नैसर्गिक हो गए हैं। जो छोटे बच्चे की तरह जीता है।

आस्तिक बुद्धि।

जिसके भीतर से हां तो सरलता से आता है, मुश्किल से आता है। हां जिसका स्वभाव हो गया है, आस्तिक बुद्धि।

तुमने देखा होगा,ऐसे लोगों को  तुम जानते भी होगे, हां कहने वाले लोग और न कहने वाले लोग। ऐसे लोग हैं, जिनके भीतर से न ही आता है। ऐसे कामों में भी न आता है, जहां कि कोई जरूरत ही न थी। नहीं उनके लिए स्वाभाविक है। वह पहला उनका उत्तर है। तुम कुछ कहो,  नहीं पहले उनके भीतर उठेगा। वे नास्तिक बुद्धि हैं, जिनके भी जीवन में निषेध है, जो इनकार से चलते हैं।

आस्तिक बुद्धि का अर्थ है, जिसके भीतर हां है, आस्था है।

 ज्ञान और विज्ञान......।

पुराने शास्त्रों में, गीता में भी, ज्ञान का अर्थ तो साधारण ज्ञान होता है—संसार का, पदार्थ का। जिसको हम आज विज्ञान कहते हैं, साइंस कहते हैं, उसको गीता ज्ञान कहती है।

और उन दिनों, कृष्ण के दिनों में, विज्ञान कहते थे उस विशेष ज्ञान को जिससे स्वयं जाना जाता है। साधारण ज्ञान और विशेष ज्ञान। जिससे और सब जाना जाता है, वह ज्ञान; और जिससे स्वयं जाना जाता है, वह विज्ञान।

ये ब्राह्मण के स्वाभाविक लक्षण हैं। यही उसका स्वभाव है।

 शौर्य, वीरता, साहस, तेज, एक अदम्य ऊर्जा, शक्ति, धृति, धैर्य, चतुरता.......।

एक जीवन में संघर्ष की कुशलता।

युद्ध में भी न भागने का स्वभाव.......।

चाहे मौत ही क्यों न आ जाए, लेकिन क्षत्रिय पीठ दिखाना पसंद न करेगा। मौत वरणीय है, पीठ दिखाना वरणीय नहीं है।

दान.......।

कुछ भी न हो उसके पास और अगर कोई मांगे, तो वह इनकार न कर सकेगा। देना उसके लिए स्वाभाविक है।

और स्वामी— भाव.........।

और वह मालिक है। वह अकड़ भी उसके लिए स्वाभाविक है। वह अहंकार भी उसके लिए स्वाभाविक है। क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। वे राजस के कर्म हैं, साहस, न भागने की वृत्ति, देने की सहज स्वाभाविकता, मांगने से बचने की चेष्टा।

क्षत्रिय मांग न सकेगा। तुम उसे मांगता हुआ न पाओगे। ब्राह्मण मांग सकता है।

अब यह थोड़ा समझने जैसा है। ब्राह्मण मांग सकता है, क्योंकि उसके पास कोई अहंकार नहीं है। क्षत्रिय मांग नहीं सकता। अहंकार ही तो उसके जीवन की रीढ़ है; मांगा कि गया। दे सकता है।

तो क्षत्रिय महादानी होगा। ब्राह्मण महाभिक्षु होगा। लेकिन हमने ब्राह्मण को क्षत्रिय से ऊपर रखा है। हमने दानी से भिक्षु को ऊपर रखा है। क्योंकि दानी में भी अकड़ है।

क्षत्रिय होने तक तो कोई गलती नहीं है, लेकिन अगर ब्राह्मण होना हो, तो महा गलती है। यह देने का भाव बुरा नहीं है, लेकिन इस देने से भी अहंकार ही सघन होगा, मजबूत होगा, विनम्रता न आएगी।

स्वामी— भाव......।

कुछ भी न रह जाए क्षत्रिय के पास, तो भी स्वामी— भाव बना रहता है। कुछ भी न हो, तो भी वह मूंछ पर अकड़ देकर चलता हुआ दिखायी पड़ेगा। वह उसका स्वाभाविक गुण है।


और खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।

सत्य व्यवहार.......।

वह जो भी करे, उसमें सच्चाई हो, ईमानदारी हो।

हमने एक अनूठी ही अर्थशास्त्र की धारणा खोजी थी। उस धारणा में, उस अर्थशास्त्र में, अर्थ कम था, नीति ज्यादा थी। अर्थ कम था, धर्म ज्यादा था। और हमने चाहा था कि वैश्य भी व्यापार भला करे, लेकिन व्यापार अधर्म आधारित न हो; उसके पीछे भी सत्य की खोज चलती रहे। वह जो भी करे, उसमें से उतना ही ले, जितना जरूरी है। वह ज्यादा न चूस ले।

खेती, गौपालन, क्रय—विक्रय रूप सत्य व्यवहार, वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। इसलिए जो वैश्य सचमुच वैश्य थे, उनके लिए हमने जो नाम दिया है, वह है, सेठ। मूल शब्द उसका है श्रेष्ठ, जिसका वह अपभ्रंश है। जिसने जीवन के उलझे हुए व्यापार में सत्यता को साधा है, वह श्रेष्ठ है ही। श्रेष्ठ का ही विकृत रूप सेठ हो गया। वह बड़ा सम्मानित शब्द था कृष्ण के समय में, श्रेष्ठी। क्योंकि व्यापार में और ईमानदारी साधने से ज्यादा कठिन कोई बात नहीं हो सकती। ब्राह्मण ईमानदार हो सकता है, क्योंकि कोई व्यवसाय नहीं कर रहा है। क्षत्रिय ईमानदार हो सकता है, क्योंकि सीधा तलवार का ही काम है। लेकिन वैश्य? वहां तो सारा धंधा ही उपद्रव का है। वहां तो सब चोरी, षड्यंत्र, धन की दौड़, महत्वाकांक्षा, मिलावट, सब वहां है। वह बीच बाजार में खड़ा है।

इसलिए हमने ब्राह्मणों तक को श्रेष्ठी नहीं कहा, क्षत्रियों को श्रेष्ठी नहीं कहा; और वैश्य को श्रेष्ठी कहा। क्योंकि वहां जिसने साध लिया, उसने निश्चित ही कुछ गजब की बात साध ली है।

और सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है।

ये स्वाभाविक कर्म कृष्ण कह रहे हैं। इनको तुम अगर ढंग से न करो, तो तुम विकृत हो जाओगे।

शूद्र सेवा करे, क्योंकि वह ज्यादा से ज्यादा सेवा ही कर सकेगा। लेकिन उसमें भी भाव सेवा का हो। आलसी है, तामसी है, इससे ज्यादा उससे न हो सकेगा। थोड़ा—बहुत काम कर लेगा, बस इतना काफी है। रोटी—रोजी कमा ले, इतना उसे मिल जाए। लेकिन उसकी भाव—दशा सेवा की हो।





अब भी वैश्य वैश्य है, लेकिन सत्य व्यवहार नहीं है उसका। अब तो वैश्य बिलकुल ही असत्य पर खड़ा है। झूठ ही उसके धंधे का आधार है—बेईमानी, अप्रामाणिकता।

क्षत्रिय अब भी है, लेकिन शौर्य जा चुका है। अकड़ भला रह गयी हो, अकड़ ही रह गयी है। अकड़ के पीछे अब कोई कारण नहीं रह गया है। कभी कारण था। अकड़ माफ की जा सकती थी, क्योंकि खूबियां थीं।

अगर कर्ण अकड़ता क्षत्रिय की तरह, तो हम माफ कर सकते थे, क्योंकि दान की बात थी। अपने कान भी काटकर दे दिए। अब तो राख रह गयी है, रस्सी रह गयी है जल गयी। रस्सी में अकड़ के निशान रह गए हैं।

ब्राह्मण भी नाम का ब्राह्मण है। पोथी—पंडित है, तोते की भांति है। शास्त्र कंठस्थ हैं। अब शास्त्र उसके भीतर से पैदा नहीं होते। जमाने हुए तब से उसकी भीतर की धारा सूख गयी है, रस—स्रोत विलीन हो गए हैं। अब वह उधार है। वह पुरानी बाप—दादों की संपत्ति को दोहराए चला जाता है। उसके होंठों पर भी वे शब्द सच्चे नहीं मालूम होते, क्योंकि उनके भीतर प्राणों का कोई सहयोग नहीं है।

सब विकृत हो गया है। लेकिन अगर सुकृत सब हो, तो शूद्र धीरे— धीरे सेवा से ऊपर उठेगा। क्योंकि सेवा अंततः सत्य में ले जाएगी, सत्य व्यवहार में ले जाएगी।

सत्य का व्यवहार करने वाला व्यक्ति धीरे— धीरे व्यवसाय से उठकर दान में जाएगा। श्रेष्ठी कभी न कभी दानी हो जाएगा। जिस दिन दानी हो गया, वह क्षत्रिय के जगत में प्रवेश कर गया।

और अकड़े तुम कब तक रहोगे? अगर ठीक—ठीक क्षत्रिय का व्यवहार रहा, जीवन से भागने की वृत्ति न रही, तो तुम जीवन को समझ ही लोगे। और जीवन की समझ ही तुम्हें ब्राह्मण की तरफ ले जाएगी, ज्ञान की तरफ ले जाएगी।

और जो ब्राह्मण है, वह सत्व से कभी न कभी ऊब ही जाएगा। सत्व बहुत सुख देता है, लेकिन आनंद नहीं। वह एक दिन गुणातीत होने की चेष्टा करेगा।

ऐसी अगर सुकृत व्यवस्था हो, तो! तो शूद्र भी ब्राह्मण हो जाएगा और ब्राह्मण भी गुणातीत होने की तरफ यात्रा करेगा। अगर सुकृत व्यवस्था न हो, तो सारा समाज धीरे— धीरे गड्डमड्ड हो जाएगा। और अगर तीनों वर्ण खो जाएं, तो वैश्य का अकेला वर्ण रह जाएगा, जैसा कि हुआ है।

आज अगर गौर से देखो, तो वैश्य का वर्ण ही रह गया है, बाकी सब वर्ण उसमें खो गए, गड्डमड्ड हो गए। यह एक बड़ी विकृत स्थिति है, रुग्ण स्थिति है। इसका गहन इलाज होना जरूरी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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