सोमवार, 16 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 7

 शरीर, वाणी और मन के तप


देवद्धिजगुरूप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्‍यते।। 14।।

अनुद्वेगकरं वाक्‍यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्‍यमनं चैव वाङ्मय तय उच्यते।। 15।।

मन:प्रमाद सौम्यत्‍वं मौनमात्मीवनिग्रह:।

भावसंशुद्धिरित्‍येतत्तपो मानसमुच्‍यते।। 16।।


तथा हे अर्जुन, देवता, द्विज अर्थात ब्रह्मण, गुरू और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्राह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।

तथा जो उद्वेग को न करने वाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो स्वाध्याय का अभ्यास है, वह नि:संदेह वाणी संबंधी तय कहा जाता है।

तथा मन की प्रसन्नता, शांत भाव, मौन, मन का निग्रह और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधीं तय कहा जाता है।


तथा हे अर्जुन, देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।

तथा जो उद्वेग को न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो स्वाध्याय का अभ्यास है, वह निःसंदेह वाणी संबंधी तप कहा जाता है।

तथा मन की प्रसन्नता, शांत भाव, मौन, मन का निग्रह और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप कहा जाता है।

कृष्ण कहते हैं, तप तीन प्रकार के हैं। क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व तीन परतों में बंटा है। और उन तीनों परतों के तप हैं। और ठीक से समझ लेना चाहिए तपश्चर्या को। क्योंकि बहुतों ने बड़े गलत ढंग से समझा है।

अगर आलसी व्यक्ति, तमस से भरा व्यक्ति तप में उतरता है, तो उसके तप के ढंग बड़े अनूठे होते हैं। वह तप भी करता है, तो तप में उसके प्रमाद की ही छाया होती है, उसके आलस्य की और तमस की ही। वह तप कर सकता है। जैसे कि वह एक ही जगह बैठा रह सकता है, जो कि राजसी को करना मुश्किल होगा।
 फूल जैसी प्रफुल्लता होनी चाहिए सत्व में। पक्षियों जैसे उड़ने का हलकापन होना चाहिए सत्व में। गंगोत्री से उतरती गंगा की धारा जैसी निर्दोष दशा होनी चाहिए। एक कुंवारापन होना चाहिए आंखों में, कि तुम पास जाओ, तो तुम्हें लगे कि तुम हलके हो गए, स्नान हो गया।



फिर राजसी तपस्वी हैं, जिनके तप का कुल जोड़ रजस है। भागते फिरते हैं, दौड़ते फिरते हैं।

लेकिन उनके भी मानने वाले हैं। वे कहते हैं, साधु हो तो ऐसा। तीन रात से ज्यादा नहीं रुकता कहीं भी। वर्षा हो, सर्दी हो, धूप हो, वह भागा चला जा रहा है।

यह भी तो पूछो कि यह जा कहा रहा है? ऐसे ही चलते—चलते मर जाएगा, गिर जाएगा। यह रुक नहीं सकता।

रजस गति है, तमस अगति है। तामसी चल नहीं सकता, रुका रहता है। धक्का—मुक्की करो, तो थोड़ा—बहुत ले जाओ। बाकी वह जा नहीं सकता अपने से। उसने खड़े होने का रास्ता खोज लिया है; वह भी तपस्वी हो गया!

यह रुक नहीं सकता। यह दौड़ने वाला, बचकानी बुद्धि का, रजस से भरा हुआ व्यक्ति है, इसको ठहरना नहीं आता। यह भाग रहा है। अगर इसको तुम रोक दो, तो मन में भाग—दौड़ जारी रखेगा।
पूरब में लोग आलसी हैं, पश्चिम में लोग राजसी हैं। मेरे पास पश्चिम से जो लोग आते हैं, आज आए, कल गोवा जा रहे हैं। फिर दो—चार दिन में गोवा से लौट आए, अब काठमांडू जा रहे हैं। फिर दो—चार दिन में काठमांडू से लौट आए, अब मनाली जा रहे हैं। काहे के लिए जा रहे हो? काठमांडू किसलिए? बस, एक खयाल है। बहुत दिन से खयाल है, काठमांडू जाना है।

करोगे क्या काठमांडू जाकर? जो काठमांडू में हैं, वे कहां पहुंच गए हैं? कोई गोवा कोई मोक्ष है? लेकिन गोवा काबा बन गया है, काशी बन गया है। चले जा रहे हैं, और लोग जा रहे हैं, और रुक नहीं सकते हैं।

एक भाग—दौड़ होती है राजसी के मन में। वह भाग—दौड़ को ही अपनी यात्रा बना लेता है।

हिंदू संन्यासियों में मुझे नब्बे प्रतिशत संन्यासी तामसी मालूम पड़े। और जैन संन्यासियों में नब्बे प्रतिशत राजसी मालूम पड़े। इसलिए जैन संन्यासी रुकेगा नहीं, यात्रा ही करता रहता है, पदयात्रा! चार महीने बरसात में रुकना पड़ता है, वह भी कष्ट हो जाता है। भागता रहता है। हिंदू संन्यासी जमकर बैठ जाते हैं। इसलिए जैन संन्यासियों ने आश्रम नहीं बनाए। क्योंकि आश्रम राजसी बनाए कैसे , उसको फुरसत कहां है एक जगह बैठने की? वह परिव्राजक है।

इसका कारण है। क्योंकि जैन और बौद्ध, दोनों धर्म क्षत्रियों से आए। क्षत्रिय यानी राजस। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। तो राजस सूत्र है उनका। न तो बुद्ध ने आश्रम बनाए, न जिनों ने आश्रम बनाए। दोनों ने परिव्राजक पैदा किए, चलते रहो.।

बुद्ध ने तो अपने शिष्यों से कहा, चरैवेति! चरैवेति! चलते रहो, चलते रहो, जाओ, विहार करो। विहार का मतलब, जाओ, चलो, घूमो। एक पूरे प्रांत का नाम बिहार हो गया, बुद्ध के भिक्षुओं के घूमने के कारण। उन्होंने इतनी परिक्रमा की इस जगह की कि पूरा प्रांत बिहार कहलाने लगा। बिहार का मतलब, परिक्रमा कर रहे हैं लोग, घूम रहे हैं। किसलिए? अब भी जारी है।

हिंदू संन्यासियों ने आश्रम बनाए, विहार नहीं किया। तो उन आश्रमों में खूब संपदा इकट्ठी हो गई और खूब तमस चलता है, चलेगा।

जैन संन्यासी चलते रहे। चलते—चलते उन्होंने ऐसी स्थिति बना ली कि सब साधना खो गई, चलना ही साधना रह गई। क्योंकि रुकोगे नहीं, साधना करोगे कैसे?

अगर मैं किसी जैन संन्यासी को कहता हूं कि भई, एक सालभर रुककर ध्यान कर लो। वे कहते हैं, रुक नहीं सकते।

अब यात्रा में कैसे ध्यान करोगे? आज यह गांव, कल दूसरा गांव, परसों तीसरा गांव; ज्यादा समय पैदल चलने में जाता है। फिर जो थोड़ा—बहुत समय मिलता है, वह विश्राम भी करना पड़ता है; क्योंकि कल उठकर फिर चल देना है। फुरसत नहीं है ध्यान की। तो जैन धर्म से ध्यान और योग खो गए। क्योंकि उसके लिए तो थोड़ी सुविधा चाहिए कि तुम घड़ी, दो घड़ी बैठ सको विश्राम से, आख बंद कर सको। उसकी सुविधा ही न रही।

तो जैन संन्यासी क्या कर रहा है? न तो वह योग साधता, न वह ध्यान साधता। बस, वह एक गांव से दूसरे गांव जाता है। और लोगों को समझाता है कि ध्यान करो, योग करो, जो उसने खुद कभी नहीं किए। क्योंकि उसको फुरसत ही नहीं करने की। जो उसकी मान लेंगे, वे भी उसी जैसे किसी दिन पदयात्री हो जाएंगे, जब उनको जोश चढ़ जाएगा। वे भी नहीं करेंगे। क्योंकि गृहस्थी क्या ध्यान करे! क्या योग करे! संन्यासी करता है। और संन्यासी को फुरसत नहीं रुकने की। एक पागलपन है, होश नहीं है।

सत्व को उपलब्ध व्यक्ति रजस और तमस के बीच एक संतुलन निर्धारित कर लेता है। जब जरूरी होता है, वह विश्राम करता है। जब जरूरी होता है, तब आश्रम बनाता है। जब जरूरी होता है, तब परिव्राजक होता है।

उचित होगा कि संन्यासी जब जवान हो, तब परिव्राजक हो, तब रजस महत्वपूर्ण होता है। लेकिन जैसे—जैसे वृद्ध होने लगे, आश्रम में थिर हो जाए। खबर पहुंचानी हो लोगों तक, तो चले। जब खबर पहुच जाए और लोग आने लगें, तब न चलता रहे, तब बैठ जाए। क्योंकि अब लोग आने लगे, अब उनको कुछ करवाना है। खबर ही तो नहीं पहुंचाते रहना है जिंदगीभर। उनको कुछ करवाना है।  उसके लिए तो बैठना जरूरी है, शांत हो जाना जरूरी है, गति को रोक लेना जरूरी है।

यह कृष्ण अब तप की व्याख्या कर रहे हैं। यह व्याख्या सत्व के हिसाब से है। इसका रजस रूप भी होगा, इसका तमस रूप भी होगा। पहले सत्व के हिसाब से व्याख्या समझ लें, क्योंकि वह तपश्चर्या का शुद्धतम रूप है, वह निखरा सोना है, कंचन है।

हे अर्जुन, देवता......।

जहां—जहां दिव्यता का अनुभव हो, वहीं—वहीं देवता। देवता तो प्रतीक शब्द है। ठीक अगर समझना हो, तो दिव्यता। वह गुण है। जहां—जहां दिव्यता का अनुभव हो!

कहां —कहां हो सकता है? अगर आंख हो, तो सब जगह होगा। आंख न हो, तो मुश्किल पड़ेगी। अन्यथा सुबह तुम उठे, रात का अंधेरा टूटा। तमस गया। सूर्य उगने लगा। क्या तुमने कभी सूर्य में देवता देखा? तुम्हें पता ही नहीं है। रात को जिसने तोड़ दिया, अंधेरे को जिसने मिटा दिया, वह दिव्य है। इसलिए हिंदू उसे देवता कहते हैं। और सूर्य को नमस्कार करते हैं।

यह तो प्रतीक है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर भी किसी दिन रात टूटेगी, सूरज उगेगा। लेकिन इस प्रतीक को तो थोडा नमस्कार करो। ताकि भीतर के नमस्कार के लिए द्वार खुले। इस बाहर के सूरज को झुको, ताकि भीतर के सूरज की भी हिम्मत बढ़े कि अगर पैदा हो जाऊं तो तुम इनकार न कर दोगे, कि पैदा हो जाऊं तो तुम राजी हो, कि तुम्हें बोध है। इसलिए सूर्य देवता है।

ये तो प्रतीक हैं काव्य के। कोई सूर्य देवता है, ऐसा नहीं। कुछ उसकी पूजा करने से तुम्हें मिल जाएगा, ऐसा नहीं है; कि उसको तुम राजी कर लोगे, तो वह तुम पर कुछ ज्यादा किरणें बरसाएगा और दूसरों पर कुछ कम, ऐसा नहीं है, कि पापी की तरफ अंधेरा कर देगा और पुण्यात्मा पर रोशनी कर देगा, ऐसा भी नहीं है। सूरज कोई व्यक्ति थोड़े ही है। अगर तुम ठीक से समझो, तो दिव्यता तुम्हारी समझ है, सूरज का होना नहीं। और तुम्हें जो लाभ होगा, वह तुम्हारी समझ के कारण होगा, सूरज के कारण नहीं।
जब तुम सुबह सूरज को उगते देखकर नमस्कार के भाव से भर जाते हो, नमन करते हो, वह नमन इस बात की घोषणा है कि अंधकार को तोड़ना है, प्रकाश को लाना है। वह इस बात का तुम्हारा अंतर्भाव है, तमसो मा ज्योतिर्गमय! कि मुझे अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चल, हे परमात्मा! मैं प्रकाश को नमस्कार करता हूं प्रकाश के स्रोत को नमस्कार करता हूं। यह देवता है, इसने बाहर की रात मिटाई। मुझे भीतर का कुछ पता नहीं। जैसे बाहर की रात मिट गई, वैसे मेरी भीतर की रात को भी मिटा। तमसो मा ज्योतिर्गमय! मुझे ले चल अंधेरे से प्रकाश की तरफ।
यह तुम्हारा भाव है। तुम्हारे भाव से तुम्हें लाभ है। सूरज तुम्हें कोई लाभ नहीं पहुंचा देगा। न सूरज तुम्हें कोई हानि पहुंचाता है। लेकिन तुम्हारी भाव—दशा तुम्हें लाभ पहुंचाएगी, हानि पहुंचाएगी। जिन्होंने सूर्य को नमस्कार किया, बड़े कुशल लोग हैं। उन्होंने अपने भीतर एक परिवेश पैदा कर लिया, एक बीजारोपण किया। तुमने वृक्ष में फूल खिले देखे और तुम्हारे भीतर एक नमन आया, तुम झुके। वह भी देवता हो गया। इसलिए हिंदुओं के सभी देवता हैं, वृक्ष, नदियां, पहाड़, सूरज। हिंदू समझ पाए कला को। उन्होंने देवता का राज पकड़ लिया। वह देवता में नहीं है, वह तुम्हारे भाव में है।

तो जितनी जगह तुम्हें देवता मिल जाए, उतना अच्छा; क्योंकि उतनी बार भाव का बार—बार जन्म होगा, पुनरुक्ति होगी, भाव सघन होगा, प्रगाढ़ होगा, बैठेगा।

तो हिंदुओं ने सारे जगत को देवता से भर दिया। चांद भी देवता है, सूरज भी देवता है, वृक्ष भी देवता हैं, गंगा भी, हिमालय भी, कैलाश भी। जहां आंख उठाओ, वहां देवताओं का वास है। तुम देवताओं से भाग न सकोगे। सब तरफ से तुम्हें दिव्यता घेर लेगी। इस घिराव में तुम्हारे भीतर के देवता का जन्म होगा।

तो लक्षण पहला कहते हैं कृष्ण अर्जुन से, देवता, द्विज, गुरु, ज्ञानीजनों का पूजन।

पहला देवता, क्योंकि उससे ही तुम्हारे भीतर की चेतना रूपांतरित होगी। सारी दुनिया हंसती है, लेकिन समझ नहीं पाती। सारी दुनिया हंसती है कि हिंदू कैसे पागल हैं, गंगा की पूजा कर रहे हैं! नदी में क्या रखा है? हमें भी पता है। रात दीया जला घर में और हिंदू नमस्कार कर रहे हैं। हमें भी पता है कि दीए में क्या रखा है! केरोसिन तेल है, वह भी शुद्ध नहीं। उसमें भी  मिलावट है। वह हमें भी पता है। नमस्कार करने जैसा कुछ नहीं है। घासलेट के तेल में क्या हो सकता है नमस्कार करने जैसा? फिर भी हम नमस्कार कर रहे हैं।

असली सवाल दीया नहीं है। असली सवाल नमस्कार करना है। वह तो बहाना है। जहां मिल जाए, वहीं हम बहाना खोज लेते हैं। वह बहाना तत्‍क्षण तुम्हें बदलता है।

समझो कि तुम क्रोध से भरे बैठे थे और किसी ने दीया जलाया......।

दीया क्या, हिंदू तो अब बिजली भी जलाओ, तो भी नमस्कार करते हैं। थोड़े डरते हैं, झिझकते हैं, पढ़े—लिखे हुए तो जरा देख लेते हैं कि कोई देख तो नहीं रहा। ज्यादा ही डरपोक हुए तो भीतर— भीतर कर लेते हैं, ऊपर से नहीं प्रकट करते।

बिजली जलती है; तुम क्रोध से भरे थे, नाराज थे, अचानक बिजली जली, सांझ हो गई। तुमने हाथ जोड़े; नमस्कार किया। क्रोध विसर्जित हो गया; भाव—दशा बदल गई। क्योंकि कैसे तुम क्रोध से भरे नमस्कार कर सकोगे! क्षण में रूपांतरण हो गया। हवा दूसरी आ गई। झोंका और आ गया बाहर का, ले गया क्रोध को; श्रृंखला टूट गई। भीतर की विचारधारा क्रोध की तरफ जा रही थी, वह टूट गई, वह नमन में बदल गई।

पति घर में आता है, पत्नी पैर छू लेती है। बेटा घर लौटता है, मां के पैर छूता है। यह चलता रहता है क्रम। यह नमन तुम्हारे जीवन को दिव्यता की तरफ ले जाता है।

देवताओं से मतलब नहीं है। तुम्हें दिव्यता की तरफ जाना है, तो तुम जितने देवता अनुभव कर सको, उतना सुगम हो जाएगा। देवताओं का नमस्कार तुम्हें दिव्य बनाएगा। वह तो तरकीब है, एक विधि है।

द्विज,…..।

द्विज का अर्थ है, ब्राह्मण। द्विज का अर्थ है, जिसका दुबारा जन्म हुआ। यह द्विज शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। ऐसा दुनिया की किसी भाषा में शब्द नहीं है, द्विज। क्योंकि जन्म तो एक ही दफा होता है। दुबारा जन्म का क्या मतलब?

लेकिन हम कहते हैं, पहला जन्म तो शरीर का है। वह तो मा—बाप से होता है। दूसरा जन्म असली है; जिसमें तुम अपनी चेतना को जन्म देते हो। उसे हम द्विज कहते हैं।

द्विज वह है, जिसने ब्रह्म को जाना, जिसका दूसरा जन्म हो गया—शरीर का नहीं, आत्मा का, चैतन्य का। मृण्मय का नहीं, चिन्मय का जिसके भीतर आविर्भाव हुआ।  उसको हम कहते हैं द्विज। ध्यानस्थ हुए को, समाधिस्थ हुए को, उसे हम कहते हैं ब्राह्मण।
ब्राह्मण कोई किसी ब्राह्मण के घर में पैदा होने से नहीं होता। ब्राह्मण तो द्विज होने से होता है। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। फिर उनमें से कुछ ब्राह्मण हो जाते हैं, अधिक शूद्र ही रह जाते हैं।

द्विज का मतलब है, समाधि से आविर्भाव हुआ नए जीवन का। पुराना गया, नया आया। पुराना मरा, नए का जन्म हुआ। फिर से तुम बालक हुए परमात्मा के।

द्विज को नमस्कार। जिसके भीतर क्रांति घट गई है, उसको नमस्कार। क्योंकि उससे तुम्हारे भीतर क्रांति के घटने का सूत्रपात मिलेगा, संबंध जुड़ेगा। वैसे नमस्कार करते—करते द्विज को कितनी देर तक तुम अपने शरीर से चिपके रहोगे? वह नमस्कार तुम्हें तोड़ेगा अपने ही शरीर से।

द्विज को नमस्कार करते—करते कभी—कभी तो तुम्हें द्विज की क्षमता दिखाई पड़ेगी। उसकी गरिमा, उसका गौरव, उसकी आंखें, उसका होना, उसका ढंग, कभी तो तुम पहचानोगे। हो सकता है, पहले नमस्कार औपचारिक ही हो; शास्त्र कहते हैं, इसलिए हो।
लेकिन अगर तुम द्विज को नमस्कार करते ही रहे, तो किसी न किसी क्षण में—जब तुम्हारा मन शांत होगा, आनंदित होगा, क्रोध न होगा, दुख न होगा, एक भीतर सन्नाटा होगा—किसी दिन संयोग बैठ जाएगा, उस क्षण तुम्हें द्विज का दर्शन हो जाएगा। उस क्षण तुम जिसको नमस्कार करते थे, वह शरीर नहीं रह जाएगा; भीतर की ज्योति तुम्हें दिखाई पड़ जाएगी।

और ध्यान रखो कि जब तुम्हें किसी में वह ज्योति दिखाई पड़ेगी, तभी तुम अपने में खोजना शुरू करोगे। अन्यथा तुम कैसे खोजोगे अपने में? किसी में खजाना देख लोगे, तो तुम अपने घर आकर खोदने लगोगे। खजाना कहीं दिखाई ही न पड़ेगा, तो तुम सोच भी न पाओगे कि घर में खजाना हो सकता है। कहीं खोजोगे तो ही, किसी में देख लोगे तो ही, किन्हीं आंखों में तुम्हें सागर दिखाई पड़ जाएगा, किसी हृदय में तुम्हें विराट की थोड़ी—सी झलक मिलेगी। द्विज का अर्थ है, कोई जो जाग गया। शायद उसके पास क्षणभर को तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम करवट बदल लो, एक क्षण को आंख खोलकर देख लो। एक क्षण भी फिर क्रांति हो जाती है। एक चिनगारी आग बन जाती है। जरा—सी चिनगारी, और तुम फिर वही न हो सकोगे।

द्विज के पास होने का मतलब है, बारूद के पास होना। तुम तो घास—पात हो। एक चिनगारी पड़ गई कि लपटें लग जाएंगी, सब राख हो जाएगा। फिर वही बचेगा, जो जल नहीं सकता। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! फिर वही बचेगा, जो शरीर के मरने से मरता नहीं। फिर वही बचेगा, जिसे शस्त्र छेद नहीं सकते।
पर द्विज के पास ही पहली दफा स्वाद लगेगा। और एक दफा स्वाद लग जाए, तब कठिनाई नहीं।

मैं जब स्कूल में पढ़ता था, तो पहली या दूसरी कक्षा में एक शिकारी की कहानी थी। वह क्यों वहां रखी थी, पता नहीं। किसने रख दी थी, वह भी पता नहीं। कोई प्रयोजन उस वक्त मालूम नहीं पड़ता था।

कहानी थी कि एक शिकारी ने एक सिंह को मारा, एक सिंहनी को मारा; जोड़े को मार डाला। तब उसे पता चला कि जोड़े के बच्चे भी थे। तो सिंह शावकों को, दो बच्चों को वह घर ले आया। एक तो उनमें से मर गया, एक बड़ा हो गया। उसे उसने शाक—सज्जी—दूध पर ही पाला।

वह सिंह शावक बड़ा हुआ, शाकाहारी। वह उसके पास बैठा रहता, जैसे बिल्ली बैठती या कुत्ता बैठता। बच्चे उसके साथ खेलते, वह बड़ा होता गया। नए लोग तो भयभीत हो जाते, लेकिन पूरा गांव जानता था, वह गांव में घूम आता। लोग उसे मिठाई खिलाते और उसको प्रेम करते।

एक दिन शिकारी बैठा था, वह भी बैठा था, उसका सिंह भी उसके पास बैठा था। शिकारी के पैर में चोट लग गई थी, और थोड़ा—सा खून बह रहा था। और उस सिंह ने उसे चाट लिया। बस, फिर खतरा हो गया। स्वाद लग गया। खून का स्वाद। उसी वक्त शिकारी खतरे में पड़ गया। क्योंकि उसने सिंह की गर्जना कर दी, वह शाकाहारी न रहा।

शिकारी को अपने प्राण बचाने मुश्किल हो गए, क्योंकि सिंह ने झपट्टा मार दिया। कभी उसने किसी पर झपट्टा न मारा था। उसे पता ही न था कि खून का स्वाद क्या है। अब स्वाद लग गया, तो उसके रोएं—रोएं में सोई हुई प्रकृति जाग गई।

उसके कण—कण में सिंह सोया था। सिंह शाकाहारी हो गया था। उसको पता ही नहीं था, इसलिए कोई उपाय ही न था। वह भूल ही चुका होगा कि सिंह है। अचानक गर्जना हौ गई। सारा घर खतरे में पड़ गया। सारा गांव खतरे में पड़ गया।

यह जब मैंने कहानी पढ़ी थी, तब तो मुझे लगा कि किसलिए है? इसका क्या मतलब है? क्या प्रयोजन है? लेकिन अब मैं सोचता हूं यह कहानी जरूर किन्हीं ज्ञान के स्रोतों से आई होगी। कहानी इतना ही कह रही है कि जब स्वाद लग जाए, तब क्रांति घट जाती है।

द्विज के पास तुम्हें स्वाद लगेगा। क्योंकि द्विज से बह रहा है परमात्मा, जैसे शिकारी से बह रहा था खून। एक दफा तुमने चख लिया, जरा—सा तुमने चख लिया, फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे। कल तक तुम अर्जुन थे, अब एकदम कृष्ण हो जाओगे। एक क्षण में सब बदल जाता है।

लेकिन कृष्ण का स्वाद कैसे लगेगा? कृष्ण के पास आने की व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। उस व्यवस्था को हिंदुओं ने जमाया है द्विज से। तो वे कहते हैं द्विज को, ब्राह्मण को नमस्कार करो, नमन करो, उसका पूजन करो, उसके प्रति श्रद्धा का भाव रखो, तो कभी न कभी, अनायास, बिना तुम्हारे प्रयास के भी द्वार खुल जाएगा। बस एक बार स्वाद लगने की बात है।

गुरु और ज्ञानीजन........।

जिनसे तुमने कुछ भी सीखा हो। कुछ भी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या। यहां कोइ सदगुरु की बात नहीं हो रही है, क्योंकि द्विज में वह बात हो गई। द्विज के बाद गुरु का नाम लेना अब फिर व्यर्थ पुनरुक्ति है। कृष्ण पुनरुक्ति नहीं करेंगे। वे एक शब्द ज्यादा न बोलेंगे, जो जरूरी है उससे।

द्विज, देवता में गुरु, सदगुरु आ गया। यहां तो गुरु से मतलब है, जिससे तुमने कुछ भी सीखा हो, कुछ भी, उसके प्रति नमन। जिससे तुमने क ख ग घ सीखा, गणित सीखा, भूगोल सीखी, उसमें कुछ भी नहीं है नमन जैसा। क्या है नमन जैसा?

पश्चिम में विद्यार्थी कहता है कि तुम तनख्वाह लेते हो, हम फीस देते हैं, बात खतम हो गई। वही बात अब हिंदुस्तान में भी विद्यार्थी कह रहा है कि तुम नौकर हो। बात खतम हो गई। तुम्हें नमन क्या करना? तुम्हारे पैर क्या छूना?

हम चूके जा रहे हैं एक बड़ी महत्वपूर्ण बात से। वह महत्वपूर्ण बात यह है कि जिससे तुमने कुछ भी सीखा हो, उसके चरणों में झुकना। क्यों? क्योंकि जो आखिरी सीखना होने वाला है, वह चरणों में बिना झुके न होगा। यह गणित है।

यहां तो तुमने जो सीखा है, वह दो कौड़ी का है। कोई हर्जा नहीं, न झुके तो भी कोई गुरु बिगाड़ नहीं लेगा कुछ। लेकिन झुकने की कला कहां सीखोगे? झुकने का अभ्यास कहां करोगे?

उथले पानी में तैरना सीखना पड़ता है। तो गुरु कितना ही उथला हो। उथले ही हैं, क्योंकि क्या है बेचारा वह। प्राइमरी स्कूल का एक मास्टर है, वह कोई सत्तर रुपया, अस्सी रुपया, सौ रुपया महीना पाता है। उसकी क्या हैसियत है! और तुम कभी के उससे आगे जा चुके। वह मैट्रिक पास है या पुराना मिडिलची होगा, तुम एम. ए. हो गए, पी.एच. डी हो गए, या डी. लिट हो गए। अब क्या है उस गुरु में? तुम उसके लिए क्यों झुको? तुम उससे ज्यादा जानते हो, उसे तुम्हारे लिए झुकना चाहिए।

नहीं लेकिन, जिससे तुमने कभी भी कुछ सीखा, उसके प्रति झुकना। वह तुम झुकते ही रहना। क्योंकि आखिरी दिन ऐसी घड़ी आएगी, जब तुम झुकोगे, तब सीखना होगा। अभी सिखाने वाले के प्रति झुकते रहना, ताकि झुकने का अभ्यास गहन हो जाए और उस परम सिखावन के पहले ऐसा न हो कि तुम अकड़े खड़े रह जाओ। हिंदुओं ने पूरे जीवन का शास्त्र बना लिया है। हिंदुओं से ज्यादा कुशल जाति खोजनी असंभव है। मगर उनके सब मूल्य टूटे जा रहे हैं। और उनके मूल्यों को समझाने वाला भी कोई नहीं है। 
जब भी कोई जाति मरती है, तो ऐसा हो जाता है। उसमें बुद्धओं के हाथ में शक्ति पहुंच जाती है, फिर उसका मरना निश्चित हो जाता है।

गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन……।

गुरु तो वह है, जिससे तुमने सीखा हो। और ज्ञानीजन वे हैं, जिनसे दूसरों ने भी सीखा हो, तुमने न भी सीखा हो, तो भी झुकना। जिनसे दूसरों ने भी सीखा हो, जो दूसरों के गुरु हों, उनके प्रति भी झुकना। क्योंकि यह बड़ा सवाल नहीं है कि तुमने जिससे सीखा हो, उसी के प्रति झुको। क्योंकि अगर तुमने ऐसा अभ्यास किया कि तुम उसी के प्रति झुकोगे, जिससे तुमने सीखा है, तो इसमें भी अहंकार है। मैंने सीखा इसलिए झुकता हूं; एक लेन—देन है। झुकना शुद्ध नहीं है। झुकने में थोड़ी अशुद्धि है, थोड़ा व्यवसाय है।

न, उनके प्रति भी झुकना, जिनकी तुम्हें खबर है कि वे ज्ञानीजन हैं। वे न भी हों—इसको खयाल रखना—वें ज्ञानीजन न भी हों, अफवाह तुमने सुनी हो। तुम्हारे ऊपर कोई यह जिम्मा नहीं है कि तुम पहले पक्का प्रमाण खोजो, अदालत से सर्टिफिकेट लाओ कि यह आदमी असली में गुरु है कि नही, योग्य है कि नहीं, ज्ञानी है कि नहीं, फिर मैं झुकूंगा। नहीं, यह सवाल ही नहीं है। हो सकता है, वह ज्ञानी न भी हो, अज्ञानी हो। हर्जा कुछ नहीं है। झुकने से लाभ ही लाभ है।

और मेरा अनुभव यह है कि अगर तुम अज्ञानी के प्रति भी झुको, तो दोनों को लाभ होता है। अज्ञानी भी तुम्हारे झुकने से थोड़ा ज्ञानी होता है। उसको भी अपने अज्ञान से थोड़ी घबड़ाहट होती है। कभी तुम अज्ञानी के प्रति झुको, तो उसको भी लगता है, कुछ करना पड़ेगा। लोग झुक रहे हैं, कुछ बदलाहट करनी पड़ेगी।
तुम करके देखो। एक आदमी को तुम तय कर लो, उसको पता न चलने दो, सब उसके पैर छूने लगो। तुम पाओगे, महीनेभर में तुमने उस आदमी को बदल डाला है। क्योंकि अब वह चोरी नहीं कर सकता, शराब नहीं पी सकता, सिगरेट पीए, तो डर लगता है कि कोई पैर छू ले उसी वक्त, तो कैसा बेहूदा लगेगा!

इसलिए मैं कहता हूं हिंदू जाति बहुत कुशल है। झुकने से तुम्हें लाभ है। और जिसके प्रति तुम झुके, उसे भी लाभ है। क्योंकि तुम जब भी किसी के प्रति आदर देते हो, तब तुम उसके भीतर एक आकांक्षा पैदा करते हो कि यह आदर के योग्य तो बनाना चाहिए। इसलिए हमने इस गणित का बड़ा गहरा उपयोग किया था। हमने गुरुओं को और गुरु की गहराई में जाने में सहयोग दिया था, और शिष्य को और शिष्यत्व की गहराई में जाने में। और एक ही तरकीब का। इसको कहते हैं, एक पत्थर से दो पक्षी मार लेना।
अगर स्कूल के बच्चे स्कूल के गुरुओं को आदर दें, तो गुरुओं को बदल डालते हैं।


कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजनों का भी पूजन.....।
जो तुम्हारे गुरु न भी हों, उनका भी पूजन।
पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा.....।

पवित्रता का अर्थ होता है, प्रामाणिकता। अपवित्र तुम उसी क्षण हो जाते हो, जब तुम होते कुछ हो और दिखाते कुछ हो। कोई आदमी चोरी करने से अपवित्र नहीं होता। चोरी करता है और दिखलाता है कि अचोर हूं तब अपवित्र होता है।

इसे तुम ठीक से समझ लो। कोई आदमी झूठ बोलने से अपवित्र नहीं होता। लेकिन बोलता झूठ है और दिखाता यह है कि मैं सच बोलता हूं तब अपवित्र होता है। जो आदमी झूठ बोलता है और कहता है, मैं झूठ बोलने वाला हूं वह पवित्र है। उसमें अपवित्रता नहीं है। उसमें विपरीत का मिश्रण नहीं है। वह सीधा, सरल है। तो अगर तुम्हें पवित्रता पानी हो जीवन में, तो तुम जैसे हो, वैसा ही प्रकट कर देना—बुरे हो तो बुरे, चोर हो तो चोर, झूठे हो तो झूठे, कामी हो तो कामी—उसे तुम छिपाना मत। बस, छिपाने से आदमी अपवित्र होता है।

और यह बड़े रहस्य की बात है कि जितना तुम प्रकट कर दोगे, उतने ही जल्दी तुम बदलना शुरू हो जाओगे। क्योंकि पवित्र व्यक्ति कितने दिन तक चोर रह सकता है? पवित्रता इतनी बड़ी अग्नि है कि चोरी को जला डालेगी। प्रामाणिकता इतनी बड़ी बात है कि जो आदमी झूठ बोलता है और कहता है कि मैं झूठ बोलता हूं वह कितने दिन तक झूठ बोल सकेगा? उसने पहला कदम सच की तरफ उठा ही लिया। सबसे बड़ा कदम उसने उठा लिया कि उसने स्वीकार कर लिया कि मैं झूठ बोलता हूं मैं झूठा आदमी हूं। इससे बड़ा सत्य की तरफ कोई भी कदम नहीं है। और यह कदम इतना बड़ा है कि सब झूठ इस कदम में दब जाएंगे और मर जाएंगे।
जिस आदमी ने स्वीकार कर लिया कि मैं कामवासना से भरा हूं उसने ब्रह्मचर्य की तरफ पहला कदम उठा लिया। इसीलिए तो हमारे साधु—संन्यासी ब्रह्मचारी नहीं हो पाते। क्योंकि उन्होंने पहला कदम ही नहीं उठाया। उन्होंने कभी यह स्वीकार ही नहीं किया कि हम कामवासना से भरे हैं। वे पहले ही से दावा कर रहे हैं कि हम ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं।

और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध करोड़ों में कभी एक आदमी होता है। क्योंकि कामवासना शरीर के रोएं—रोएं में भरी है। और हिंदुस्तान में लाखों संन्यासी दावा कर रहे हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं। इससे भयंकर झूठ दुनिया में कहीं चल ही नहीं सकता।

हिंदुस्तान जैसा पाखंड तुम कहीं भी न पा सकोगे। और लोग मान भी रहे हैं! बड़ा खेल चल रहा है।

जिसने स्वीकार कर लिया कि मुझमें कामवासना है, यह आदमी प्रामाणिक है। यह कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर रहेगा। जिसने कहा, कामवासना मुझमें है ही नहीं, इसने पहला झूठ स्थापित कर लिया। अब यह कामवासना नहीं है, इसको ही छिपाने में, इसको ही दबाने में इसकी सारी जिंदगी लग जाएगी।

प्रामाणिक, आथेंटिक बनो।

तो कृष्ण कहते हैं, पवित्रता। फिर कहते हैं, सरलता। जो पवित्र होगा, वह सरल हो जाता है। सरल का अर्थ है, जिसमें दाव—पेंच न हों, चालाकी न हो, एक निर्दोषता हो। बच्चे जैसा।

क्या मतलब है बच्चे जैसा होने का? बच्चे पर तुम नाराज हो जाओ, तो वह क्रोध से भर जाता है, आग में जलने लगता है। लगता है कि मकान को मिटा देगा, कि दुनिया को मिटा देगा, अगर उसके हाथ में ताकत होती। कूदता—फांदता है। चीजें तोड़ देता है। तुम सोचोगे कि यह बच्चा तो महान भयंकर उपद्रव है। यह किसी न किसी दिन हत्यारा बनेगा।

और पांच मिनट बाद वह शांति से तुम्हारे पास बैठा है। बड़ा आनंदित है, गीत गुनगुना रहा है। तुम भरोसा ही नहीं कर सकते कि क्षणभर पहले यह इतना क्रोध से भरा था और अब इतना सुंदर और शांत मालूम हो रहा है! क्या हो गया इसको?

बच्चा सरल है, उसके पास गणित नहीं है। जब क्रोध होता है, तब वह क्रोध प्रकट करता है। बच्चा जिस भाव—दशा में होता है, वही भाव—दशा प्रकट करता है। तुम कभी क्रोध में होते हो, लेकिन मुस्कुराते हो। क्योंकि अभी मुस्कुराना लाभपूर्ण है, क्रोध करना खतरा है; महंगा पड़ जाएगा।

मालिक से दफ्तर में तुम नाराज हो, लेकिन हंस—हंसकर बातें करते हो, पूंछ हिलाते हो। तबीयत हो रही है कि गरदन दबा दें इसकी। तुम हिसाब बिठाते हो कि इसमें तो नुकसान होगा, नौकरी हाथ से चली जाएगी।

घर आते हो, पत्नी से कलह होती है। कोई सदभाव नहीं भीतर पैदा होता, क्रोध पैदा होता है। उसको भी छिपाते हो। क्योंकि पत्नी से झंझट लेने का मतलब है, दिन, दो दिन मुसीबत चलेगी। उतना महंगा सौदा नहीं करना चाहते।

सब तरफ से झूठ इकट्ठा कर लेते हो, धीरे— धीरे अप्रामाणिक हो जाते हो। तुम्हारी हंसी से पक्का पता नहीं चलता कि तुम भीतर हंस रहे हो। तुम्हारे रोने से पक्का पता नहीं चलता कि तुम भीतर रो रहे हो। भीतर कुछ, बाहर कुछ। यह जटिलता है।

और फिर यह जटिलता घनी होती जाती है। जैसे—जैसे अनुभव जीवन का बढ़ता है, सब चीजें जटिल हो जाती हैं, उलझाव हो जाता है। जैसे रस्सी का धागा उलझ गया हो, कई उलझन में पड़ गया हो, ऐसा तुम्हारा व्यक्तित्व हो जाता है।

इसलिए मैं कहता हूं धार्मिक होना बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि उसमें तुम्हें कई खतरनाक सौदे करने पड़ेंगे। जब तुम क्रोध से भरो, तो क्रोध को ही प्रकट करना, चाहे कोई भी परिणाम हो, चाहे कितना ही उसका फल भोगना पड़े।

फल का हिसाब जिसने लगाया, वह चालाक है। असल में फल का हिसाब ही चालाकी है। वह सोच रहा है कि इसका क्या परिणाम होगा। बच्चा नहीं सोचता कि क्या परिणाम होगा।

और मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम सरल रहे, तो तुम धीरे— धीरे पाओगे, क्रोध विलीन हो गया। अगर तुम जटिल रहे, तो क्रोध सदा मौजूद रहेगा। घृणा गहन होती जाएगी, प्राणों के प्राण में समा जाएगी। नासूर की तरह तुम्हारा व्यक्तित्व हो जाएगा। उसमें से परमात्मा की सुगंध कैसे उठ सकती है? उसमें समाधि का दीया कैसे जलेगा? नहीं, उसमें कमल नहीं खिल सकते। वहा भूमि ही नहीं रही। वहा तुमने सब जटिल कर लिया।

कृष्ण कहते हैं, सरलता, पवित्रता.....।

पहले पवित्रता, फिर सरलता। सरलता का अर्थ है, जीवन के सभी संवेगों को बच्चे की तरह जीना। धीरे— धीरे तुम पाओगे कि कोई हानि नहीं होती। तुम्हारे क्रोध को भी लोग समझते हैं कि यह आदमी क्रोध भला कर लेता हो, लेकिन क्रोधी नहीं है। तुम्हारे क्रोध को लोग क्षमा कर देंगे; क्योंकि लोग जानते हैं, तुम सरल हो। तुम किसी क्षण में उबल पड़ते हो, यह बात ठीक है। लेकिन तुम जटिल नहीं हो।

जो आदमी कभी क्रोध नहीं करता और सदा क्रोध को ढोता है, उसका कोई भरोसा नहीं करता। वह आदमी जटिल है। उसकी बात का पक्का भरोसा नहीं है। वह पाखंडी है। वह कहेगा कुछ, करेगा कुछ। उस पर तुम भरोसा नहीं कर सकते। धीरे— धीरे वह जितनी चालाकी करता है, जितना हिसाब लगाता है, उतने ही नुकसान में पड़ता है।

सरल व्यक्ति अंततः ,चाहे शुरू में थोड़ी कठिनाई हो, बाद में हमेशा परम धन को उपलब्ध होता है, परम लाभ को उपलब्ध होता है।

ब्रह्मचर्य.......।

इनमें एक क्रम है। अगर तुम पवित्र हो, तो सरल होना आसान होगा। अगर सरल हो, तो ब्रह्मचर्य आसान होगा। पहले कामवासना को स्वीकार करो। फिर कामवासना को दबाओ मत, प्रकट होने दो; उसे जीओ। जीवन में सभी कुछ जीने के लिए है, ताकि तुम उसके पार जा सको। तब ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है।
ब्रह्मचर्य कामवासना के विपरीत नहीं है। कामवासना के द्वारा पाए गए अनुभव का नाम है। कामवासना से गुजरे हुए आदमी की संपदा है। कामवासना को जीया है जिसने, जीकर देखा है जिसने, पीड़ा जानी, व्यर्थता जानी, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। तब ब्रह्मचर्य कोई जबरदस्ती थोपा गया नियम नहीं होता, अनुशासन नहीं होता; तुम्हारे जीवन के अनुभव से आया हुआ सीधा—सीधा भाव होता है। नहीं कि तुम अब लड़ते हो अपनी कामवासना से। नहीं, कामवासना जा चुकी; तुमने उसे जी लिया, वह बात खतम हो गई।

इसे तुम सूत्र की तरह याद रखो, जिस चीज को भी समाप्त करना हो, उसे ठीक से जी लो। अधूरी जीयी गई चीज हमेशा कायम रहती है, सरकती है, सिर के आस—पास घूमती रहती है। अधूरे अनुभव से कोई मुक्त नहीं हो सकता।

कच्चा फल कैसे वृक्ष से गिरेगा? पत्थर मारकर गिरा सकते हो। लेकिन फल में भी घाव रह जाएगा; वृक्ष में भी घाव रह जाएगा। और कच्चा फल खाया भी नहीं जा सकता। और कच्चे फल में जो बीज हैं, वे भी व्यर्थ हैं। उनसे नये पौधे पैदा नहीं हो सकते। कच्चा फल बिलकुल बेकार है।

कच्चा ब्रह्मचर्य बिलकुल बेकार है। उससे ब्रह्म का कोई अनुभव पैदा न होगा। तुम भटक— भटककर शरीर में आओगे। जो अधूरा है, वह तुम्हें वापस ले आएगा।

अधूरा अनुभव संसार में लौटने का द्वार है। अनुभव की पूर्णता पार ले जाती है, अतिक्रमण करा देती है। जान ही लो, परमात्मा ने जो भी अवसर दिया है। दुख—पीड़ा झेल ही लो, ताकि तुम पक जाओ। उस पकने का ही नाम अनुभव है।

जिसका काम पक गया, वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है। जिसका क्रोध पक गया, वह करुणा को उपलब्ध हो जाता है। जिसकी घृणा पक गई, वह प्रेम को उपलब्ध हो जाता है। जिसका भोग पक गया, वह त्याग को उपलब्ध हो जाता है।

उपनिषद कहते हैं, त्येन त्यक्तेन भुंजीथा। उन्होंने ही जाना त्याग, जिन्होंने भोग जाना। उपनिषद हिम्मतवर हैं; कमजोरों का धर्म नहीं है वहा। कूड़ा—कर्कट नहीं है वहां व्यर्थ का। सीधी साफ बात है, विज्ञान की बात है। जानो, क्योंकि जानना ही मुक्ति है।

और जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, वह अहिंसा को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जब तक तुम्हारी कामवासना है, तुम हिंसक रहोगे। कामवासना हिंसा है। कामवासना का अर्थ है, दूसरे का शोषण। कामवासना का अर्थ है, दूसरे का उपयोग। कामवासना का अर्थ है, दूसरे के शरीर को वस्तु की भांति समझना। दूसरे पर कब्जा करो।

इसलिए तुम ध्यान रखो, कामवासना ही तुम्हारे मन में हिंसा पैदा करती है। इसलिए पति और पत्नी लड़ते रहते हैं। जैसा पति—पत्नी लड़ते हैं, ऐसा दुनिया में कोई नहीं लड़ता। लड़ते ही रहते हैं चौबीस घंटे; क्योंकि एक—दूसरे का संबंध ही कामवासना का है।
जहां कामवासना है, वहां कलह, वहा हिंसा जारी रहेगी। और जो तुम्हारी कामवासना में बाधा डालेगा, उसे तुम समाप्त कर देना चाहोगे। जो भी बीच में आड़े आएगा, उसे तुम मिटा देना चाहोगे। जब कामवासना ही चली जाती है, तो अचानक अहिंसा का आविर्भाव होता है। अहिंसा का अर्थ है, अब मुझे दूसरे से कोई प्रयोजन न रहा; अब मेरा आनंद मुझमें है, दूसरे में नहीं है। तो न तो दूसरा उसे छीन सकता है, न दे सकता है। जब दूसरा मुझे आनंद नहीं दे सकता और न छीन सकता है, तो दूसरे को मैं क्यों दुख पहुंचाने जाऊंगा!

जैसे—जैसे आनंद अपने भीतर गहन होता है, वैसे—वैसे तुम्हारे दूसरों के प्रति जो भी हिंसा के, लगाव के, विरोध के, मित्रता के, शत्रुता के संबंध थे, वे सब गिर जाते हैं। अहिंसक का न तो कोई मित्र है, न कोई शत्रु। अहिंसक अकेला है। अहिंसक अपने में जीता है। उसे भीतर का स्वर्ग मिल गया। अब दूसरे से उसका कोई संबंध न रहा।

कामवासना से भरा आदमी हिंसक रहेगा ही। क्योंकि कामवासना की बहुत जरूरतें हैं। एक तो सुंदर स्त्री चाहिए, वह तुम्हें खोजनी पड़ेगी, छीननी पड़ेगी; क्योंकि बड़ा बाजार है। गरीब को सुंदर स्त्री तो नहीं मिल पाती। जितना धन हो, उसको उतनी सुंदर स्त्री मिल पाती है। सुंदर स्त्री को तुम बिना धन के तो न पा सकोगे। वहां बाजार है। तो गरीब को गई गुजरी स्त्री मिलती है। ऐसी मिल जाती है, जिसको कामचलाऊ स्त्री कह सकते हो।

तो दौड़ है धन की। कामवासना है, तो धन चाहिए। नहीं तो बिना धन के कैसे रहोगे? और धन है, तो एक स्त्री नहीं पचास स्त्रियां मिल सकती हैं। सम्राट हजारों स्त्रियों को रखते थे; कोई अड़चन न थी। गरीब तो एक स्त्री को भी नहीं रख पाता! गरीब को एक स्त्री का भी विचार उठता है, तो सोचता है हजार दफे कि विवाह करना कि नहीं; सम्हाल पाएंगे कि नहीं। अमीर सैकड़ों स्त्रियों से संबंध बना लेता है।

और तुम यह मत सोचना कि जिन अमीरों की एक पत्नियां हैं, उनके और स्त्रियों से संबंध नहीं हैं। नहीं तो अमीर होने का फायदा ही क्या है? सार क्या है? अमीर होने का मतलब यह है कि जितना ज्यादा भोगा जा सके, उसकी भोग की सुविधा धन है। धन तो केवल सुविधा है। तो तुम जितनी स्त्रियां चाहो, उतनी स्त्रियां मिल सकती हैं।

पद चाहिए! जिसके पास पद है, उसे स्त्रियों को पाना आसान हो जाता है। तो वही आदमी कल बाजार में घूमता रहता था तुम्हारे पूना के, कोई नहीं मिलता था। वही अब मिनिस्टर हो जाए, तो फिल्म अभिनेत्रियां उसके पैर दबाने लगती हैं।

पद हो, धन हो, तो कामवासना को पूरा करना आसान होता है। पद न हो, धन न हो, तो तुम कैसे कामवासना पूरी करोगे? फिर धन और पद के लिए हिंसा करनी पड़ती है, शोषण करना पड़ता है। युद्ध होते हैं, स्त्रियों के लिए, धन के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए।

हिंसा तभी मिटती है, जब कामवासना चली जाती है। इसे शरीर संबंधी तप कृष्ण ने कहा।

जो उद्वेग को न करने वाला, प्रिय और हितकारी यथार्थ भाषण है, स्वाध्याय का अभ्यास है, वह निःसंदेह वाणी का तप है।
वाणी ऐसी हो जो प्रिय हो, हितकारक हो। दूसरे से तभी बोलो, जब उसका कुछ हित होने वाला हो तुम्हारे बोलने से, अन्यथा मत बोलो।

तुम बोले चले जाते हो, तुम्हें दूसरे से कोई प्रयोजन ही नहीं है। यह हिंसा है। वह भागना चाहता है, उसे दफ्तर जाना है। तुम रास्ते पर पकड़ लिए हो और तुम अपना बोले चले जा रहे हो। तुम्हें इसकी फिक्र ही नहीं कि वह सुनने वाले को सुनना है कि नहीं सुनना है। वह क्या कह रहा है? क्यों कह रहा है? उसका चेहरा देखो, वह भागने को तैयार खड़ा है। लेकिन तुम कहे चले जा रहे हो। तुम हिंसा कर रहे हो। वाणी की हिंसा है।

वही कहो, जिससे दूसरे का कोई हित होता हो, अन्यथा चुप रहो। क्या जरूरत है! और जिस ढंग से कहो, वह ढंग प्रीतिकर हो। क्योंकि सत्य भी तुम इस तरह बोल सकते हो, जैसे गाली फेंके कोई किसी की तरफ। तुम काने आदमी को काना कह सकते हो, असत्य वह नहीं है। इसलिए दुनिया का कोई भी संत तुमसे यह नहीं कह सकता कि तुम असत्य बोले। सत्य तुम बिलकुल बोले, अंधे को तुमने अंधा कहा।

लेकिन सूरदास भी कह सकते थे। और सूरदास में एक माधुर्य है। तुमने अंधे को अंधा कहकर चोट पहुंचाई सत्य से भी। तुमने सत्य का ऐसा उपयोग किया, जैसा लोग असत्य का करते हैं। तुमने सत्य को पत्थर की तरह फेंका। उससे तुम्हारे भीतर का बोध बढ़ेगा नहीं। संवेदनशील बनो, वही कहो, जो दूसरे के लिए प्रीतिकर हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम प्रीतिकर करने के लिए झूठ बोलो। इसलिए कृष्ण उसमें शर्त देते हैं, उद्वेग को न पैदा करे, प्रिय हो, हितकारक हो, यथार्थ हो, सत्य हो।

कोई यह नहीं कहते कि तुम लोगों की झूठी प्रशंसा करो कि उनको खूब आनंद आए। कि वे खुद अपना चेहरा आईने में देखने में डरते हैं और तुम कह रहे हो कि तुम परम सुंदर हो, कि आप जैसा पुरुष कहीं देखा नहीं। धन्य हैं कि दर्शन हो गए!

झूठ बोलने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। क्योंकि वह भी हानिकर है। वह भी इस आदमी में अहंकार जन्मा सकता है। तुमने विष डाल दिया।

और जिससे स्वाध्याय का अभ्यास हो। वही बात बोलो, जिसके बोलने से तुम्हारे स्वयं के अध्ययन में, स्वयं के निरीक्षण में गति आए। खयाल करो, किसी से तुम कुछ भी बोल रहे हो, तो बोले मत जाओ मूर्च्छित। ठीक भीतर जागकर बोलो कि जो मैं बोल रहा हूं वह मैं क्यों बोल रहा हूं? अपने कारण बोल रहा हूं या दूसरे के कारण बोल रहा हूं? बोलना मेरा पागलपन है, इसलिए बोल रहा हूं? कि मेरे मन में कचरा भरा है, उसे खाली करने के लिए बोल रहा हूं? रेचन कर रहा हूं? भीतर अध्ययन करते रहो, क्यों बोल रहा हूं? यह बात मैंने क्यों कही? क्या कारण था? क्यों मेरे भीतर उठी?
तो वाणी मधुर हो, यथार्थ हो, तुममें या दूसरे में व्यर्थ के उद्वेग और तनाव को पैदा न करती हो, और साथ ही साथ तुम्हारा स्वाध्याय चलता रहे, तो यह वाणी का तप है।

मन की प्रसन्नता, शांत भाव, मौन, मन का निग्रह और भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप है।
और तीसरा तप है मन संबंधी।
मन की प्रसन्नता......।

तुम आमतौर से पाओगे कि धार्मिक जो लोग बन जाते हैं या सोचते हैं कि धार्मिक बन गए, वे प्रसन्नता छोड़ देते हैं। वे उदास होकर बैठ जाते हैं, लंबे चेहरे बना लेते हैं। जैसे लगता है कि धार्मिक होने का उदासी से कोई संबंध है।

नहीं, कृष्ण तो बड़ी उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, मन की प्रसन्नता तप है।

उदास होना तो सांसारिक आदमी का लक्षण होना चाहिए, साधु का नहीं। सांसारिक उदास हो, समझ में आता है, क्योंकि इतने दुख में जी रहा है, नरक में पड़ा है। लेकिन मंदिरों में बैठे साधु ऐसा चेहरा बनाए बैठे हैं, कि जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। इनका दिल भी वहीं होने का है, जहां नरक है, बाजार है। दुर्घटनावश ये मंदिर में फंस गए हैं, इसलिए उदास बैठे हैं। अन्यथा मंदिर में तो नाच होगा, गीत होगा, प्रसन्नता होगी।

मन की प्रसन्नता को साधो। जितने तुम मन को प्रसन्न कर सकोगे, तुम पाओगे कि तुम उतने ही मन के पार जाने लगे। मन की प्रसन्नता मन के पार ले जाने का उपाय है।

मन की प्रसन्नता ऐसे है, जैसे फूल की गंध। फूल तो पीछे पड़ा रह जाता है, गंध ऊपर उठ जाती है। जब तुम्हारा मन प्रसन्न होता है, मन तो नीचे पड़ा रह जाता है, प्रसन्नता की गंध ऊपर उठ जाती है। सिर्फ प्रसन्नचित्त लोगों ने ही परमात्मा को जाना है, वह नाचते हुए लोगों का अनुभव है। उदास, बीमार, रुग्णचित्तों का अनुभव नहीं है। क्योंकि परमात्मा यानी परम उत्सव।

प्रसन्न होकर तैयारी करो। नाचने का थोड़ा अभ्यास करो; थोड़े पैरों में घुंघरू बांधो, कंठ को मधुर करो, गीत को गुंजने दो। क्योंकि उस परम उत्सव में तुम तभी सम्मिलित किए जा सकोगे, जब तुम्हारी थोड़ी तैयारी होगी।

मन की प्रसन्नता और शांत भाव.......।

क्योंकि मन की प्रसन्नता उथली भी हो सकती है। जैसे बाजार में खड़े सड्कों पर लोग हंसते हैं। वह हंसना उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे छिछली नदी में शोरगुल होता है, कंकड़—पत्थरों में आवाज होती है। और गहरी नदी में सब शांत हो जाता है। गहरी नदी भी प्रसन्न होती है, लेकिन शांत होती है। तुम गहरी नदी की तरह शांत भी रहो और प्रसन्न भी। तुम्हारी प्रसन्नता खिलखिलाहट की तरह नहीं होगी, स्मित की तरह होगी, मुस्कुराहट की तरह होगी। और भीतर एक शांत पृष्ठभूमि हो, मौन। और तुम्हारी प्रसन्नता, तुम्हारी हंसी कुछ कहे न। सिर्फ तुम्हें प्रकट करे, कुछ कहे न।

कोई गिर गया छिलके पर फिसलकर, तुम हंस दिए। यह मौन नहीं है हंसना। तुम व्यंग्य कर रहे हो। तुम गाली से भी गहन चोट पहुंचा रहे हो उस आदमी को, जो गिर पड़ा है। तुम्हारी हंसी कुछ न कहे, सिर्फ तुम्हें कहे। तुम्हारे मौन को प्रकट करे तुम्हारी प्रसन्नता। 

मन का निग्रह..।

मन के निग्रह का अर्थ है कि तुम मन के प्रति सदा जागे रहो; मन के साथ तादात्म्य न हो जाए। क्रोध आए, तो भी तुम जागकर जानते रहो कि क्रोध ने मुझे घेरा है, लेकिन मैं क्रोध नहीं हूं। मैं क्रोध से अलग हूं। मैं साक्षी हूं। साक्षी— भाव है मन का निग्रह।
भाव की पवित्रता।

कुछ भी हो, तुम भाव को अपवित्र मत करो। एक आदमी तुम्हें धोखा दे दे, तो दो उपाय हैं। एक तो यह है कि तुम भाव को अपवित्र कर लो कि यह आदमी बुरा है और अब कभी किसी का भरोसा न करूंगा। और इस आदमी का तो अब कभी भरोसा नहीं करूंगा। और यह आदमी चोर है, बेईमान है। और तुमने अपने भाव को कलुषित कर लिया।

बड़े मजे की बात यह है कि उसने तुम्हें चोरी करके जितना नुकसान पहुंचाया, उससे ज्यादा नुकसान तुम अपने भाव को अपवित्र करके पहुंचा रहे हो। यह भी हो सकता था कि तुम कहते कि बेचारा आदमी, शायद तकलीफ में होगा, गरीबी में होगा, मुसीबत में होगा। उपाय नहीं खोज सका कोई, इसलिए चोरी की है। और मुझे अगर समझ आ जाती कि इसको चोरी करनी पड़ेगी, तो मैं ऐसे ही दे देता।

तुम अपने भाव को बचाओ; क्योंकि अंतिम रूप से भाव ही तुम्हारी संपदा है। इस संसार में किसने तुम्हें धोखा दिया, किसने नहीं दिया, इसका कोई हिसाब आखिरी में नहीं बचेगा। तुम्हारा भाव क्या रहा; बस, वही बचेगा।

भाव की पवित्रता, ऐसे यह मन संबंधी तप कहा जाता है।
ये तीन तप अगर तुम साध सको, तो तुम्हारे भीतर सत्व का उदय होगा। तुम सात्विक हो सकते हो।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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