बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 8

 समाधान और समाधि


मुक्ततङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्विक उच्यते।। 26।।

रागी कर्मफन्सेप्सुरर्लब्‍धो हिंसात्क्कोऽशुचि:

हर्षशक्रोन्वित: कर्ता राजस: परिर्कीर्तित:।। 27।।

अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस:।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्‍यते।। 28।।


तथा हे अर्जुन, जो कर्ता आसक्‍ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष— शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्‍विक कहा गया है।

और जो आसक्‍ति से युक्‍त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष— शोक से लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है।

तथा जो विक्षेपयुक्‍त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, धमंडी, धूर्त और दूसरे की आजीविका का नाशक एवं शौक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह कर्ता तामस कहा जाता है।


तथा हे अर्जुन, जो कर्ता आसक्ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष —शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्विक कहा जाता है।

और जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला, लोभी, दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी, हर्ष—शोक से लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है।

तथा जो विक्षेपयुक्त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरों की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है, वह कर्ता तामस कहा जाता है।

 तामस से समझें। कृष्ण तो सदा सात्विक से शुरू करते हैं। पर अच्छा है, तामस से समझें। क्योंकि वहीं कहीं पास में आप खड़े होंगे। प्रथम से ही समझना ठीक है।

विक्षेपयुक्त चित्त वाला।

ऐसा चित्त जो करीब—करीब विक्षिप्त है। तुम क्या करते हो, क्यों करते हो, वह भी साफ नहीं।

 यह तुम्हारा ही चित्त है। ऐसे ही तो तुम करते रहे हो। कर लेते हो, फंस जाते हो, ढोते हो। क्यों किया था पहले चरण में, यह भी साफ नहीं। अंत आ जाता है जीवन का, शुरुआत क्यों की थी, इसका कोई पता नहीं।

होश नहीं है, तो ऐसा होगा। तब कोई भी तरंगें तुम्हारे जीवन में आती रहेंगी और तुम्हें बहाती रहेंगी। तुम पागल आदमी की तरह दौड़ते रहोगे, कभी उत्तर, कभी दक्षिण। लेकिन क्यों दौड़ते हो, कहां जाना चाहते हो, कुछ साफ नहीं।

तामस चित्त का लक्षण है कि होश नहीं होगा, मूर्च्छा होगी। होश होगा, तो करने के पहले तुम सोचोगे। होश होगा, तो उत्तरदायित्व होगा। जीवन करीब—करीब विक्षिप्त है। ऐसे ही चल रहा है, ऐसे ही बहा जा रहा है। इसको कृष्ण कहते हैं, तामस चित्त। विक्षिप्त चित्त वाला, घमंडी, भयंकर अभिमान ग्रस्त, अहंकार से भरा हुआ......।




ध्यान रखना, राजस व्यक्ति भी अभिमानी होता है और तामसी भी। दोनों में क्या फर्क है?

तामसी व्यक्ति अभिमानी होता है बिना कारण। और राजस व्यक्ति अभिमानी होता है सकारण। अगर वह अभिमान करता है, तो उसका कारण है। अभिमान तो दोनों करते हैं। तामसी को कोई कारण भी नहीं है अभिमान करने का। उस घमंड को हम तामसी कहते हैं जिसमें कोई कारण भी नहीं।

एक आदमी बहुत बुद्धिमान है और इसलिए अहंकारी है। समझ में आता है। एक आदमी महाबुद्ध है, फिर भी अहंकारी है और सोचता है कि मैं महाबुद्धिमान हूं। तो पहले को हम अहंकार कहते हैं, दूसरे को घमंड कहते हैं। घमंड जिसमें कोई आधार भी नहीं है। आधार भी हो, तो थोड़ा क्षम्य है।

धूर्त......।

वह कभी भरोसा न करेगा किसी का भी। और किसी को कभी जीवन में मौका न देगा कि कोई उस पर भरोसा कर ले। हर जगह चालबाजी करेगा। असल में वह सोचता है कि चालबाजी से ही सब कुछ उपलब्ध होता है। आलसी है, करने से बचता है, चालबाजी से रास्ता निकालता है।

दूसरों की आजीविका का नाशक।

और उसके जीवन की प्रक्रिया विध्वंसक होगी, डिस्ट्रक्टिव होगी। वह कुछ कर तो न सकेगा, क्योंकि करने में श्रम चाहिए, सातत्य चाहिए, लगन चाहिए, पूरे जीवन को समर्पित करने की क्षमता चाहिए। वह तो उसमें नहीं है। उसमें तो एक क्षण में हवा बदल जाती है, उसका मौसम बदल जाता है, तो जीवनभर को किसी चीज में लगाकर सफलता की तरफ ले जाने की संभावना उसकी नहीं है।

तो वह कभी क्रिएटिव, सृजनात्मक तो नहीं होगा, लेकिन सृजन की कमी वह विध्वंस से पूरी करेगा। वह चीजों को तोड्ने में मजा लेगा। वह लोगों के जीवन को नष्ट करने में मजा लेगा। उसका रस मिटाना होगा, बनाना नहीं। इसलिए तामसी व्यक्ति कभी भी कुछ सृजन न कर पाएगा। न तो उससे एक गीत बनेगा, न वह एक मूर्ति बनाएगा। वह मूर्ति तोड़ सकता है।

तामसी को कृष्ण कहते हैं, वह नाशक है।

शोक करने के स्वभाव वाला.......।

उसको शोक की स्थितियों की जरूरत नहीं रहती, उसका स्वभाव शोक करने का है। वह दुखी रहता है। तुम उसके लिए कोई भी कारण नहीं जुटा सकते, जिससे वह सुखी हो जाए। वह हर जगह दुख के कारण खोज लेगा। कितनी ही सुंदर स्थिति हो,। कितनी ही सुखद स्थिति हो, उसमें वह कुछ न कुछ दुख के कारण खोज लेगा। वह उसका स्वभाव है।

दुख में रमे रहना, उसके जीवन की चर्या है, उसका ढंग है। वह उदास रहेगा। उदासी उसकी जीवन—शैली है। शिकायतें ही उससे उठेंगी; धन्यवाद उससे कभी नहीं उठ सकते। इसलिए तामसी कभी प्रार्थना नहीं कर सकता।

आलसी, दीर्घसूत्री.........।

हमेशा चीजों को पोस्टपोन करने वाला होगा। दीर्घसूत्री, कल कर लूंगा, परसों कर लूंगा। जो अभी हो सकता है, उसे वह कल पर छोड़ेगा; फिर कल आएगा, फिर कल पर छोड़ेगा। ऐसे उसका जीवन एक लंबा पोस्टपोनमेंट होगा, स्थगन होगा। वह जीएगा कभी नहीं। वह सिर्फ जीने की सोचेगा, कभी जीऊंगा।

ऐसे उसके जीवन का अवसर खो जाता है। उसके हाथ मौत ही लगती है, जीवन नहीं लग पाता। क्योंकि जीवन तो उसका है, जो अभी जी ले, यहीं जी ले, इसी क्षण जी ले। जिसने कल पर टाला, उसके हाथ में आखिर मौत की राख लगेगी।

फिर दूसरा है राजस पुरुष, राजस कर्ता।

जो आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला..।

वह आसक्तिपूर्ण है। कर्मों के फल चाहता है, कर्मों में उसे उत्सुकता नहीं है। वह वर्षों तक कर्म कर सकता है। लेकिन उसकी उत्सुकता कर्म में नहीं है, उसकी उत्सुकता फल में है। वह वर्षों तक संलग्न रह सकता है, आलसी नहीं है। वह एक ही काम को कर सकता है जीवनभर; फल की आशा भर बनी रहे। तो अपनी पूरी जीवन—ऊर्जा को उंडेल देगा। लेकिन लक्ष्य भविष्य में है। कृत्य करना पड़ता है, इसलिए करेगा। असली बात फल है। आसक्ति उसमें गहन होगी।

लोभी तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला होगा.......।

जहां भी लोभ है, वहां दूसरे को कष्ट देना ही पड़ेगा। क्योंकि लोभ छीनेगा, शोषित करेगा। फर्क समझ लेना।

तामसी स्वभाव वाला व्यक्ति भी नाशक होता है, लेकिन वह नाश में रस लेता है। राजस स्वभाव का व्यक्ति नाश में रस नहीं लेता, लोभ उसका कारण है। लोभ के लिए नाश करना पड़े, तो वह करता है। लेकिन राजस व्यक्ति अकारण नाश नहीं करेगा। तामस व्यक्ति अकारण नाश कर देगा। उसका रस ही नाश है। राजस व्यक्ति को कोई लोभ होगा, तो करेगा।


अशुद्धाचारी.............।

क्योंकि जहां लोभ है, वहां आचरण शुद्ध नहीं हो सकता। लोभ ही तो अशुद्धि है।

हर्ष—शोक से लिपायमान.............।

तामसी व्यक्ति शोक में लिपायमान होता है। उसको हर्ष घटता ही नहीं। राजसी व्यक्ति को कभी—कभी हर्ष की घड़ियां आती हैं। शोक तो आता है, लेकिन हर्ष भी आता है। तुम उसे कभी हंसते हुए भी पाओगे। तुम उसे कभी रोते हुए भी पाओगे, लेकिन रोना उसकी शैली नहीं है। अगर वह रोता है, तो सिर्फ इसलिए रोता है कि हंसने की जो चेष्टा कर रहा था, वह सफल नहीं हो पाई। हारकर रोता है। चाहता था हंसना, मजबूरी है, इसलिए रोता है।

तामसी व्यक्ति रोना ही चाहता था। तुम उसको हंसा न सकोगे। तुम हंसाने की कोशिश करोगे, तो और जोर से वह रोने लगेगा। रोने में उसका रस है। रोना ही उसका सुख है।

हर्ष—शोक से लिपायमान कर्ता राजस कहा जाता है। 

और फिर सबसे ऊपर सात्विक कर्ता है।

 जो कर्ता आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य—उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने न होने में हर्ष, शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता सात्विक कहा जाता है।

उसकी कोई आसक्ति नहीं है। वह करता है, इसलिए नहीं कि कोई लोभ है, कि कुछ पाना है। वह करता है, कर्तव्यवश। वह करता है, क्योंकि परमात्मा ने भेजा है। वह करता है, क्योंकि पाता है, मैं जी रहा हूं और जीवन कृत्य है। वह पाता है कि मैं जीवन के मध्य में खड़ा हूं और जीवन में कर्म से जाने का कोई उपाय नहीं है। तो कर्म करता है।

जो भी कर्तव्य है, वह करता है। जो भी शास्त्र—सम्मत है, करता है। जो भी सदगुरु उपदेशित है, करता है। लेकिन करने में कोई आसक्ति नहीं है। ऐसा नहीं है कि अगर आज मृत्यु आ जाए, तो वह कहेगा, मुझे काम पूरा कर लेने दो। वह कहेगा कि मैं राजी हूं। आसक्ति से रहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला........।

उसकी कोई अपनी अस्मिता नहीं है। परमात्मा के साथ ही उसका ऐक्य है। वह कहता है, वही अकेला मैं कहने का हकदार है। और कोई मैं कहने का हकदार नहीं है। जो सबका केंद्र है, वही कह सकता है, मैं। हम तो उसकी परिधि हैं, उसकी वल्लरियां हैं, तरंगें हैं, लहरें हैं। सागर कहे मैं, ठीक। लहर कैसे कहे!

धैर्य.......।

परम धैर्य उसमें तुम पाओगे। राजसी व्यक्ति में तुम धैर्य न पाओगे। तामसी में तुम धैर्य पाओगे, लेकिन वह धैर्य नहीं है, आलस्य है। वह धैर्य का धोखा है। राजसी व्यक्ति सदा जल्दी में होगा, क्योंकि फल पाना है।

सात्विक व्यक्ति प्रतीक्षा कर सकता है। वह प्रतीक्षा के मधुर आनंद को जानता है। कोई जल्दी नहीं है। जब होगा, तब होगा। वह किसी भी घटना को समय के पहले नहीं करवा लेना चाहता। उसे बेमौसम के फल नहीं चाहिए। जब पकेगा मौसम, जब फल आएंगे, तब तक वह बैठा प्रतीक्षा कर सकता है। उसकी प्रतीक्षा आलस्य नहीं है, क्योंकि वह श्रम पूरा करेगा। उसका श्रम तनाव नहीं है राजसी व्यक्ति जैसा, क्योंकि उसके श्रम में प्रतीक्षा है, आतुरता नहीं है।

उत्साह से युक्त।

उसे तुम हमेशा हलका—फुलका, नाचता, उत्साहयुक्त पाओगे। तुम कभी उसे हारा— थका न पाओगे। तुम कभी उसे बेमन न पाओगे। तुम कभी उसे ऐसा न पाओगे, जैसा कि आलसी सदा मिलता है और राजसी कभी—कभी मिलता है—उदास, पराजित, सर्वहारा, जैसे सब खो गया। तुम उसे सदा खिला हुआ पाओगे, सुबह के फूल की भांति। तुम सदा उसे ज्योतिर्मय पाओगे। क्योंकि फल की जिसकी कोई आकांक्षा नहीं, कर्म ही उसे फल हो जाता है। वह जो कर रहा है, वही उसका आनंद हो जाता है। प्रतिपल जीवन है। वह कभी पोस्टपोन नहीं करता, वह कल के लिए छोड़ता नहीं। आज ही कर लेता है।

सात्विक व्यक्ति ऐसे जीता है, जैसे यह आखिरी दिन है। और ऐसे भी जीता है, जैसे जीवन का कभी अंत न होगा। सात्विक व्यक्ति एक विरोधाभास है, एक पैराडाक्स है। वह रोज सुबह उठता है और सोचता है, यह आखिरी दिन है, आज की सांझ आखिरी होगी। इसलिए पूरी तरह जी लूं कल तो है नहीं।

कल नहीं है, इसलिए आज को पूरी तरह जीता है। लेकिन आतुरता से नहीं जीता, जल्दी में नहीं जीता, कि जीवन को आज में ही सिकोड़ लूं पूरा, क्योंकि कल नहीं है। तब वह इस तरह भी जीता है, जैसे अनंत है काल, कभी अंत न होगा, समय की कोई सीमा न आएगी। तुम उसके पैरों में गति भी पाओगे और धैर्य भी। तुम उसके कृत्य में उत्साह भी पाओगे, गति भी पाओगे, प्रतीक्षा भी। सात्विक व्यक्ति इस जगत में सबसे बड़ा संगीत है। उसके पार जो हो जाता है, जिसको गुणातीत कृष्ण कहते हैं, वह फिर इस जगत के पार है। सात्विक व्यक्ति इस जगत की आखिरी ऊंचाई है।

 समाधि 

 तामसिक व्यक्ति आखिरी खाई है, सात्विक आखिरी गौरीशंकर। उसके पार भी एक व्यक्तित्व है, जो गुणातीत है —कृष्ण का, बुद्ध का। उनको हम सिर्फ सात्विक नहीं कह सकते। वे बचे ही नहीं, उनको सात्विक कहने का भी उपाय नहीं है।

धैर्य और उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष—शोकादि विकारों से रहित...।

उसके लिए हर्ष और शोक दोनों विकार हैं, बीमारिया हैं। न तो वह सुख चाहता, न वह दुख चाहता। तब उसके जीवन में महासुख घटता है। महासुख सुख नहीं है। महासुख दुख का अभाव नहीं है। महासुख सुख—दुख दोनों से मुक्ति है। तब उसके जीवन में बड़ी शांति होती है, बड़ी निगूढ़ शांति होती है, जिसको खंडित करने की कोई भी संभावना नहीं है। क्योंकि न उसे दुख मिटा सकता, न उसे सुख मिटा सकता।

क्या तुमने कभी यह गौर किया कि सुख भी एक तरह का ज्वर है! जब पकड़ता है, तो थकाता है। सुख भी एक तरह की उत्तेजना है, बेचैन कर जाती है। दुख तो है ही बेचैनी, लेकिन सुख भी बेचैनी है। और तुमने यह कभी खयाल किया कि दुख में तुमने किसी को मरते न देखा होगा, सुख में बहुत लोग मर जाते हैं। अति सुख हो जाए, हृदय ठप्प हो जाता है; अति दुख में नहीं होता।

तो सुख बड़ी गहन उत्तेजना है, शायद दुख से भी ज्यादा। शायद दुख तो हमें इतना मिलता है कि हम उसके लिए राजी हो गए हैं। सुख हमें कभी—कभी मिलता है; ऐसा अनजाना अतिथि, कि जब आता है, तो हम इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि तोड़ जाता है।

दुनिया में जितने भी हृदय के दौरे पड़ते हैं, वे चालीस और पैंतालीस के बीच अधिकतम, चालीस और पैंतालीस की उम्र के बीच, क्योंकि ये ही सफलता के दिन हैं। आदमी चालीस और पैंतालीस के बीच सफल होने के करीब आता है—धंधे में, पद में, प्रतिष्ठा में। ये दिन हैं। इनमें जो चूक गया, फिर बहुत मुश्किल है।

पैंतालीस तक भी जो संसार में कुछ न पा सका, फिर वह न पा सकेगा। क्योंकि अब शक्ति के दिन गए, खोज के दिन गए, लड़ने के दिन गए। पैंतालीस और चालीस के पहले बहुत कम लोग पा सकते हैं; वे ही लोग पा सकते हैं, जिनको वंश —परंपरागत सुविधा मिली हो। जिसे अपने ही पैरों से खड़ा होना हो, वह करीब चालीस और पैंतालीस के बीच सफल होता है; वहीं हार्ट अटैक, वहीं हृदय के दौरे, वहीं हार्ट फैल्योर, वहीं हृदय का बंद होना भी घटता है।

तुम अब की बार जब तुम्हारे जीवन में सुख आए, तो जरा गौर करना कि सुख भी कैसी बेचैनी की अवस्था है! कैसा चित्त उद्विग्न होता है!

सात्विक व्यक्ति जान लेता है, दुख तो बेचैनी है ही, सुख भी बेचैनी है। और सात्विक व्यक्ति यह भी जान लेता है कि सुख—दुख दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सुख है, वही दुख हो जाता है। अगर सुख ज्यादा देर रुक जाए, तो दुख हो जाता है। अगर दुख भी ज्यादा देर रुक जाए, तो उसका दुख मिट जाता है, वह भी सुख जैसा लगने लगता है। वे अलग—अलग नहीं हैं, वे एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। वह दोनों को छोड़ देता है।

न तो उसे कार्य के सिद्ध होने पर हर्ष होता, न शोक होता। हारने पर रोता नहीं, जीतने पर हंसता नहीं। क्योंकि न अब हार अपनी है न जीत अपनी है। हारे तो परमात्मा; जीते तो परमात्मा। जो उसकी मर्जी। सात्विक व्यक्ति तो सिर्फ निमित्त ही रहता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...