रविवार, 15 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 16भाग 7

 जीवन की दिशा


अत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।। 17।।

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोध च संश्रता:।

मामत्‍मपरहेहेषु प्रद्धईषन्तोऽभ्यसूक्का:।। 18।।

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षियाम्यजस्रमशुभानासुरीष्येव योनिषु।। 19।।

आसुरी योनिमापन्‍ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामाप्राप्‍यैव कौन्तेय ततो यान्‍त्‍यधमां गतिम्।। 29।।


 वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष बन और मान के मद से युक्‍त हुए, शास्त्र— विधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं।

तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एंव दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिरता हूं।


इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ पूरूष जन्म— जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं।


वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान के मद से युक्त हुए, शास्त्र—विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं।

तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के पारायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं।

ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म—जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं। आसुरी संपदा के जो व्यक्ति हैं, वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले हैं। उनके लिए श्रेष्ठता का एक ही अर्थ है कि जो भी मैं हूं, वही श्रेष्ठता है। अपना होना उनकी श्रेष्ठता की परिभाषा है। श्रेष्ठता और अहंकार में उन्हें कोई भेद नहीं है।

यही आसुरी संपदा वाले का प्राथमिक लक्षण है, मैं श्रेष्ठ हूं। और धन और मान के मद से युक्त हुए..।

ऐसे व्यक्ति अगर धर्म भी करते हैं, तो उनका धर्म भी धन और मद का ही मान होता है। वे बड़ा मंदिर खड़ा कर सकते हैं, जो आकाश को छुए। वे यज्ञ करवा सकते हैं, करोड़ों रुपए उसमें खर्च कर सकते हैं। लेकिन यह भी उनके अहंकार की ही यात्रा है। उनके मंदिर का अर्थ है, उनसे बड़ा मंदिर और कोई खड़ा नहीं कर सकता। उनके यश का अर्थ है कि ऐसा यज्ञ पृथ्वी पर कभी हुआ नहीं। उनका धर्म भी उनकी श्रेष्ठता को ही सिद्ध करे, इतना ही उनके धर्म का प्रयोजन है।

शास्त्र—विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन करते हैं.......।

वे अगर शुभ भी करेंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि वे पूजे जाएं। वे अगर कुछ भला भी करेंगे, दान भी देंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि वे जाने जाएं। उनके प्रत्येक कृत्य का लक्ष्य वे स्वयं हैं।

तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं।

परमात्मा कहीं भी हो, उससे उन्हें द्वेष होगा। क्यों? क्योंकि परमात्मा की स्वीकृति, अपने अहंकार का खंडन है।

इसलिए परमात्मा को स्वीकार करना आसुरी वृत्ति वाले व्यक्ति को अति कठिन है। इसलिए नहीं कि उसको पता है कि परमात्मा नहीं है। इसलिए भी नहीं कि तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्मा नहीं है। वह तर्क भी देगा, वह सिद्ध भी करेगा। लेकिन न तो तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्मा है और न सिद्ध होता है कि परमात्मा नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें।

मनुष्य की बुद्धि न तो पक्ष में कुछ तय कर सकती है, न विपक्ष में। अब तक हजारों—हजारों तर्क दिए गए हैं। जितने पक्ष में हैं, उतने ही विपक्ष में। बराबर संतुलन है। कोई आस्तिक किसी नास्तिक को राजी नहीं कर सकता कि ईश्वर है, और कोई नास्तिक किसी आस्तिक को राजी नहीं करवा सकता कि ईश्वर नहीं है। दोनों बातें समतुल हैं। तर्कों से कुछ सिद्ध नहीं हुआ है।

लेकिन फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर है। कुछ लोग मानते हैं, नहीं है। तो किस आधार पर मानते होंगे, क्योंकि तर्क से कुछ भी सिद्ध नहीं होता। तब आधार दूसरे हैं; तब आधार का कारण आसुरी संपदा और दैवी संपदा है।

वे जो समझते हैं कि मैं ही श्रेष्ठ हूं, मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, वे परमात्मा को नहीं मान सकते। फिर वे तर्क खोज लेते हैं। लेकिन वे तर्क पीछे आते हैं, वे तर्क रेशनलाइजेशस हैं। वह अपनी ही मानी हुई बात को सिद्ध करने का उपाय है।

और दूसरे वे लोग हैं, जो जानते हैं कि मैं कैसे केंद्र हो सकता हूं! मैं केवल एक लहर हूं। वे परमात्मा को स्वीकार कर लेते हैं। उनकी स्वीकृति भी तर्क से नहीं आती, उनकी दैवी संपदा से आती है।

और इन दोनों के बीच में अधिक लोग हैं, जिन्होंने कुछ तय ही नहीं किया। जिनको हम अधिकतर आस्तिक कहते हैं, वे बीच के लोग हैं; आस्तिक नहीं हैं। उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि परमात्मा है या नहीं। आप में से अधिक लोग उस तीसरे हिस्से में ही हैं।

अगर आप कहते हैं कि होगा, तो उसका मतलब यह नहीं कि आप मानते हैं कि ईश्वर है। आप मानते हैं, सोचने योग्य भी नहीं है। लोग कहते हैं; होगा। और क्या हर्जा है, हो तो हो। और कभी वर्ष में एकाध बार अगर मंदिर भी हो आए तो क्या बनता—बिगड़ता है! और होशियार आदमी दोनों तरफ कदम रखकर चलता है। अगर हो ही, तो मरने के बाद कोई झंझट भी नहीं होगी। न हो, तो हमने कुछ उसके लिए खोया नहीं। हमने संसार अच्छी तरह भोगा। और मानते रहे कि परमात्मा है। हम दोनों नाव पर सवार हैं।

बहुत थोड़े—से लोग हैं, जो मानते हैं कि परमात्मा है। वे वे ही लोग हैं, जो अपने अहंकार को तोड़ते हैं, घमंड को छोड़ते हैं, गर्व को गिराते हैं। बहुत लोग हैं, जो मानते हैं परमात्मा नहीं है। उनका कुल कारण इतना है कि वे खुद अपने को साध्य समझे हैं। इसलिए अपने से परम को स्वीकार करना उनके लिए आसान नहीं है। और अधिक लोग हैं, जिनको कोई चिंता ही नहीं है, जिनको कोई प्रयोजन नहीं है, जो उपेक्षा से भरे हैं।

इसमें आप कहा हैं? और आप जहां भी होंगे, मजे की बात यह है कि वहीं के लिए आप तर्क खोज लेंगे।

प्रेम में हम पहले पड़ते हैं, फिर तर्क हम बाद में इकट्ठा करते हैं।

किसी व्यक्ति को आप देखते ही घृणा करने लगते हैं, फिर आप तर्क खोजते हैं, फिर आप कारण खोजते हैं। क्योंकि बिना कारण हमें अड़चन होती है। अगर कोई हमसे पूछे कि क्यों घृणा करते हो, और हम कहें कि बिना कारण करते हैं, तो हम मूढ़ मालूम पड़ेंगे। तो हम कारण खोजते हैं कि यह आदमी मुसलमान है; मुसलमान बुरे होते हैं। यह आदमी हिंदू है; हिंदू भले नहीं होते। कि यह आदमी मांसाहारी है, कि इस आदमी का चरित्र खराब है। आप फिर हजार कारण खोजते हैं। वे कारण आपने पीछे से खोजे हैं। भाव आपका पहले निर्मित हो गया। और भाव अचेतन है और कारण चेतन है।

ईश्वर के साथ भी यही होता है, गुरु के साथ भी यही होता है। 

आप भी, जहां भी आपको दूसरे को श्रेष्ठ मानना पड़ता है, वहा बड़ी अड़चन आती है। दूसरे को अपने से नीचा मानना बिलकुल सुगम है। हम हमेशा तैयार ही हैं। हम पहले से माने ही बैठे हैं कि दूसरा नीचा है। सिर्फ अवसर की जरूरत है और सिद्ध हो जाएगा। और अगर कोई दूसरा हमसे आगे भी निकल जाए कभी, तो हम जानते हैं कि चालाकी, शरारत, कोई धोखाधड़ी, कोई भाई— भतीजा वाद, कुछ न कुछ मामला होगा, तभी दूसरा आगे गया, नहीं तो हमसे आगे कोई जा कैसे सकता था! अगर दूसरा हमसे पीछे रह जाए, तो हम समझते हैं, रहेगा ही पीछे; क्योंकि हमसे आगे जाने की कोई योग्यता भी तो होनी चाहिए।

हम जो भी होते हैं, जहां भी होते हैं, उसके अनुसार तर्क खोज लेते हैं।

ईश्वर है या नहीं है, यह बडा सवाल नहीं। जो व्यक्ति ईश्वर को मान सकता है कि है, उसने अपने को झुकाया, यह बड़ी भारी बात है। ईश्वर न भी हो, तो भी जिसने स्वीकार किया कि ईश्वर है और अपने को झुकाया, इसके लिए ईश्वर हो जाएगा। और जो कहता है, ईश्वर नहीं है—चाहे ईश्वर हो ही—इसने अपने को अकड़ाया। ईश्वर हो, तो भी इसके लिए नहीं है, तो भी इसके लिए नहीं हो सकेगा, तो भी क्योंकि इसके द्वार बंद हैं।

वह जो आसुरी संपदा का व्यक्ति है, अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण हुआ, दूसरों की निंदा करने वाला, दूसरों के शरीर में मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाला है। ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार—बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं।

यह वचन थोड़ा कठिनाई पैदा करेगा, क्योंकि हमें लगेगा कि क्यों परमात्मा गिराएगा! होना तो यह चाहिए कि कोई आसुरी वृत्ति में गिर रहा हो, तो परमात्मा उसे रोके, बचाए, दया करे। क्योंकि हम निरंतर प्रार्थना करते हैं कि हे पतितपावन! हे करुणा के सागर! दया करो, बचाओ, मैं पापी हूं। और ये कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसे नराधम, क्रूरकर्मी को मैं संसार में बार—बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं!

जब ईसाई या इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग इस तरह के वचन पढ़ते हैं, तो उनको बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि इस्लाम में तो परमात्मा के सभी नाम—रहीम, रहमान, करीम—सब नाम दया के हैं कि वह दयालु है। यह कैसी दया! और जीसस ने कहा है कि तुम प्रार्थना करो, तो सब तरह की क्षमा संभव है। तुम पुकारो, तो क्षमा कर दिए जाओगे।

लेकिन कृष्ण का यह वचन! इसका तो अर्थ यह हुआ, और यही भारतीय प्रज्ञा की खोज है, कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम पुकारों और वह क्षमा कर दे। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम उसे फुसला लो, राजी कर लो—प्रशंसा से, खुशामद से, स्तुति से—और वह बदल दो परमात्मा एक नियम है, व्यक्ति नहीं। पहुंच जाता है।

इसको थोड़ा समझ लें।

परमात्मा एक व्यवस्था है, व्यक्ति नहीं। तो आग में कोई आदमी हाथ डाले, तो आग जलायेगी। आग जलाने को उत्सुक नहीं है। आग इस आदमी को जलाने के लिए पीछे नहीं दौड़ती। लेकिन यह आदमी आग में हाथ डालता है, तो आग जलाती है। क्योंकि आग का स्वभाव जलाना है, वह उसका नियम है। अगर हम आग से पूछें, तो वह कहेगी, जो मुझमें हाथ डालेगा, उसे मैं जलाऊंगी। आग चूंकि बोलती नहीं, इसलिए हमें खयाल में नहीं है।

कृष्ण परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं। वह जो जागतिक नियम है,  वह जो जीवन का आधार—स्तंभ है, उसकी तरफ से बोल रहे हैं। वह कहते हैं, जो व्यक्ति ऐसा कर्म करेगा, इस तरह की दृष्टि और धारणा रखेगा, ऐसा पाप में डूबेगा, उसे मैं गिराता हूं। गिराने का कुल मतलब इतना ही है, ऐसा करने से वह अपने आप गिरता है, कोई परमात्मा उसको धक्का नहीं देता। धक्का देने की कोई जरूरत नहीं है। वह ऐसा करता है, इसलिए गिरता है।

इसलिए भारत की जो गहरी से गहरी खोज है, वह कर्म का सिद्धांत है। यह खोज इतनी गहरी है कि जैनों और बौद्धों ने परमात्मा को विदा ही कर दिया। उन्होंने कहा, यह सिद्धांत ही काफी है। परमात्मा को बीच में लाने की कोई जरूरत भी नहीं है। जैनों और बौद्धों ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि कोई जरूरत ही नहीं है परमात्मा को बीच में लाने की। कर्म से मामला साफ हो जाता है। और सच में ही साफ हो जाता है।

लेकिन परमात्मा को इनकार करने की कोई भी जरूरत नहीं, क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही वह महानियम है जो इस जीवन को चला रहा है। उसे हम कर्म का नियम कहें, या परमात्मा कहें, एक ही बात है।

वह जो गिरता है अपने हाथ से, नियम उसे गिराता है। आप जमीन पर चलते हैं, सम्हलकर चलते हैं, तो ठीक। उलटे—सीधे चलते हैं, तो गिर जाते हैं, हाथ—पैर टूट जाते हैं। कोई जमीन आपको गिराती नहीं है। लेकिन उलटा—सीधा जो चलता है, नियम के विपरीत, उसके हाथ—पैर टूट जाते हैं।

जमीन स्वेच्छा से, आकांक्षा से आपका हाथ—पैर नहीं तोड़ती। लेकिन जमीन का नियम है, उसके विपरीत जो जाता है, वह टूट जाता है। उसके अनुकूल जो जाता है, वह सहजता से मंजिल पर पहुंच जाता है।

जगत के नियम को समझकर उसके अनुकूल चलने का नाम धर्म है।

बुद्ध ने धर्म शब्द का अर्थ ही नियम किया है । जब बुद्ध कहते हैं, धम्म शरणं गच्छामि, तो वह कहते हैं, धर्म की शरण जाओ, तो उसका यही अर्थ है कि नियम की शरण जाओ। और नियम के अनुकूल चलोगे, तो तुम मुक्त हो जाओगे। नियम के प्रतिकूल चलोगे, तो अपने हाथ से बंधते चले जाओगे। नियम के विपरीत जो जाएगा, वह दुख पाएगा। नियम के अनुकूल जो जाएगा, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है।

इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म—जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीची गति को ही प्राप्त होते हैं।

जब कोई व्यक्ति गिरना शुरू हो जाता है, तो वह मोमेंटम पकड़ता है, गिरने में भी गति आ जाती है। आप कभी सोचें, अगर आप एक झूठ बोलें, तो फिर दूसरा और तीसरा और चौथा। और दूसरा पहले से बड़ा, और तीसरा दूसरे से बडा, क्योंकि फिर और बड़ा झूठ बोलना जरूरी है पिछले झूठ को सम्हालने के लिए। फिर एक गति आ जाती है। फिर उस गति का कोई अंत नहीं है।

एक पाप करें, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और बड़ा, और बड़ा; तब आप अपने ही हाथ से गिरते चले जाते हैं। और अगर आप गिरना चाहते हैं, तो नियम सहयोग देता है। अगर आप उठना चाहते हैं, तो नियम सीढ़ी बन जाता है। गहरे में समझने पर, आप जो करते हैं, उससे आपकी दिशा निर्मित होती है।

सुबह आप उठे और आपने क्रोध किया। आपने दिन के लिए चुनाव कर लिया। अब दूसरा क्रोध पहले से ज्यादा आसान होगा, तीसरा दूसरे से ज्यादा आसान होगा। सांझ तक आप अनेक बार क्रोध करेंगे और सोचेंगे, न मालूम किस दुष्ट का चेहरा देखा!

आईने में अपना ही देखा होगा। क्योंकि किसी दूसरे के चेहरे से आपके जीवन की गति का कोई संबंध नहीं है, आपसे ही संबंध है। इसलिए सारे धर्मों ने फिक्र की है कि सुबह उठकर पहला काम परमात्मा की प्रार्थना का करें। उससे मोमेंटम बदलेगा, उससे गति बदलेगी। प्रार्थना के बाद एकदम से क्रोध करना मुश्किल होगा। और प्रार्थना के बाद और प्रार्थनापूर्ण होना आसान हो जाएगा।

जो बात गलत के संबंध में सही है, वही सही के संबंध में भी सही है। जो आप करते हैं, उसी दिशा में करने की और गति आती है। जिस तरफ आप चलते हैं, उस तरफ आप दौड़ने लगते हैं। दिशा चुनना बड़ा जरूरी है। सुबह उठते ही प्रेम और प्रार्थना और करुणा का भाव हृदय में भर जाए, तो आपके दिन की यात्रा बिलकुल दूसरी होगी। लेकिन सुबह अगर आप चूक गए, तो बड़ी कठिनाई हो जाती है।

यही बात पूरे जीवन के संबंध में भी लागू है। अगर बचपन में दिशा प्रार्थना और परमात्मा की हो जाए, तो पूरे जीवन की यात्रा आसान हो जाएगी। इसलिए हम अपने बच्चों को इस मुल्क में पुराने दिनों में, पहले चरण में गुरुकुल भेज देते थे कि पच्चीस वर्ष तक वे प्रार्थनापूर्ण जीवन व्यतीत करें। क्योंकि उससे गति बनेगी, एक यात्रा का पथ निर्मित होगा। फिर बहुत आसानी से आगे सब हो जाएगा।


एक बार बचपन खो गया, गति बिगड़ गई, पैर डावाडोल हो गए, उलटी दिशा पकड़ गई, फिर उसी दिशा में दौड़ शुरू हो जाती है। जवानी दौड़ का नाम है। बचपन में जो दिशा पकड़ ली, जवानी उसी दिशा में दौड़ती चली जाएगी। फिर बुढ़ापा ढलान है। जिस दिशा में आप जवानी में दौड़े हैं, उसी दिशा में आप बुढ़ापे में ढलेंगे। क्योंकि शक्ति फिर क्षीण होती चली जाती है।

अब तो मनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि सात वर्ष की उम्र के बच्चे को हम जो दिशा दे देंगे, सौ में निन्यानबे मौके पर वह उसी दिशा में जीवनभर यात्रा करेगा। बहुत शक्ति की जरूरत है फिर बाद में दिशा बदलने के लिए। शुरू में दिशा बदलना बिलकुल आसान है। कोमल पौधा है, झुक जाता है। फिर रास्ता पकड़ लेता है, फिर उस झुकाव को तोड़ना बहुत कठिन हो जाता है।

बचपन में जाने का तो अब कोई उपाय नहीं, लेकिन रोज सुबह आप फिर से थोड़ा—सा बचपन उपलब्ध करते हैं। कम से कम दिन को दिशा दें। दिन जुड़ते जाएं। और अनेक दिन जुड़कर जीवन बन जाते हैं। गलत कदम उठाने से रोकें। उठ जाए, तो बीच से वापस लौटा लें। सही कदम उठाने की पूरी ताकत लगाएं; आधा भी जा सकें, तो न जाने से बेहतर है। थोड़े ही दिन में आपकी जीवन—ऊर्जा दिशा बदल लेगी।

आसुरी दिशा, हम जो कर रहे हैं, क्रोध, मान, अहंकार, उसमें हमें बढ़ाती जाती है। उससे रुकेंगे नहीं, बदलेंगे नहीं, हाथ हटाएंगे नहीं, कुछ छोड़ेंगे नहीं गलत, खाली न होंगे हाथ, तो दैवी संपदा की तरफ बढ़ना बहुत मुश्किल है। और जिस तरफ आप जाते हैं, उस तरफ.....।

कृष्ण कहते हैं, और भी मैं अति नीची योनियों में गिराता हूं। वे गिराते नहीं। कोई गिराने वाला नहीं है, कोई उठाने वाला नहीं है। आप ही गिरते हैं। नियम न पक्षपात करता है, न चुनाव करता है। नियम निष्पक्ष है। इसलिए जो भी आप हैं, अपनी ऊर्जा, दिशा और नियम, तीन का जोड़ हैं।

नियम शाश्वत है, सनातन है; आपकी ऊर्जा शाश्वत है, सनातन है; ये दोनों समानांतर हैं। इन दोनों के बीच में एक और तत्व है, आपका चुनाव, इस ऊर्जा को नियम के अनुकूल बहाना या नियम के प्रतिकूल बहाना।

नदी बह रही है, नाव आपके पास है, वह आपका जीवन है, नदी नियम है। अब इस नदी के साथ नाव को बहाना है या नदी के विपरीत नदी से लड़ने में नाव को लगाना है?

जो नदी के विपरीत बहेगा, वह आसुरी चित्त—दशा को उपलब्ध होता जाएगा। जो नदी के साथ बह जाएगा—उस साथ बहने का नाम ही समर्पण है—वह दिव्यता को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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