रविवार, 15 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 5

 शोषण या साधना


 काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता:।

मोहाङ्गाहींत्त्वीसद्ग्राहागर्क्तन्‍तेउशुचिव्रता:।। 10।।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुयश्रिता:।

कामोयभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: ।। 11।।

आशापाशशातैर्बद्धा: कामक्रोधयरायणा ।

ईहन्‍ते कामभोगार्थमन्यायेनार्श्रसंचयान्।। 12।।


और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्‍त हुए संसार में बर्तते हैं।

तथा वे मरणपर्यत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों को भोगने के लिए तत्‍पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

इसलिए आशारूप सैंकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम— क्रोध के परायण हुए विषय—भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत— से पदार्थो को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।


और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं।

तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों के भोगने में तत्पर हुए इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम—क्रोध के परायण हुए विषय— भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत—से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।

आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों में कृष्ण और भी प्रवेश करते हैं।

दंभ, मान और मद से युक्त।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सदा ही अपने को ठीक मानता है, सदा ही दूसरे को गलत मानता है। दूसरे का दूसरा होना ही उसकी गलती है। यह सवाल नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को उसका स्वयं का वक्तव्य सही है, दूसरे का वक्तव्य गलत है।

कभी—कभी आपको भी खयाल आता होगा कि अगर दूसरा व्यक्ति वही बात कह रहा हो, जो कल आप कह रहे थे, तो भी आप विवाद करते हैं। क्योंकि सवाल यह है नहीं कि क्या सही है। सवाल तो यह है कि आप सही हैं और दूसरा गलत है। हमेशा आप इस कोशिश में होते हैं कि मैं सही हूं।

दुनिया में जो इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य की कोई तलाश नहीं है। उन विवादों में सिर्फ अहंकार की घोषणा है। चाहे कोई कुछ भी कहे, सही मैं ही हूं। और इस मैं के सही होने को हम हजार तरह से सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का यह आंतरिक लक्षण है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति, इसके पहले कि दूसरे को गलत कहे, अपने को गलत सोचने की चेष्टा करता है। और इसीलिए दैवी संपदा वाला व्यक्ति सीख पाता है, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सीख नहीं पाता। क्योंकि सीखना तो तभी संभव है, जब हम गलत हों, दूसरा सही हो। जब हम सदा ही सही होते हैं और दूसरा गलत होता है, तो सीखने की कोई गुंजाइश नहीं है। शिष्यत्व, डिसाइपलशिप पैदा ही नहीं हो सकती।

इसलिए आसुरी संपदा का व्यक्ति कभी भी शिष्य नहीं बनता। हालांकि कहेगा वह यही कि कोई गुरु है ही नहीं। मिले कोई गुरु, तो हम शिष्यत्व ग्रहण करें। लेकिन वह शिष्यत्व ग्रहण नहीं कर सकता। 

शिष्यत्व के लिए झुकना जरूरी है। और मैं गलत हूं दूसरा सही होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। मैं अज्ञानी हूं और दूसरा जानता होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। और जो व्यक्ति को ऐसा भाव हो कि मैं अज्ञानी हूं, वह एक छोटे —से बच्चे से भी सीख लेता है। वह पौधों, पक्षियों से भी सीख लेता है। उसके लिए सारा जगत गुरु हो जाता है।

और जो व्यक्ति सोचता है, मैं सही हूं उसके लिए इस जगत में सीखने का कोई उपाय नहीं। वह अटका रह जाता है, ठहरा रह जाता है। उसका हृदय पत्थर की तरह हो जाता है; फूल की तरह वह कभी भी खिल नहीं पाता है।

आप भी सोचें कि जब आप विवाद करते हैं कि यह ठीक है, तब सच में ही आपको सत्य की तलाश होती है? या आपका वक्तव्य है, तो उसके साथ आपका अहंकार जुड़ गया। वक्तव्य टूटेगा, तो अहंकार टूटेगा। तो आप लड—मर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, हजार तर्क खोज ले सकते हैं। लेकिन उन तर्कों से आप कभी बदलेंगे नहीं। क्योंकि वे तर्क सत्य के लिए दिए ही नहीं गए।

सत्य का तलाशी हमेशा तैयार है कि वह गलत हो सकता है। और जो व्यक्ति जितना तैयार है अपनी गलती स्वीकार करने को, उसके जीवन में विकास की उतनी ही ज्यादा संभावना है। वह जीवन के अंतिम क्षण तक सीखता रहेगा, मरते क्षण तक सीखता रहेगा। उसके सीखने का कोई अंत नहीं है; उसके ज्ञान का कोई पारावार नहीं होगा।

आसुरी संपदा वाला अज्ञानी रह जाता है, क्योंकि सीख नहीं सकता। दैवी संपदा वाला सीखता चला जाता है, उसके पास सागर जैसा ज्ञान हो जाता है।

किसी भी प्रकार न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर...।

और आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपने जीवन की गति को उन वासनाओं के सहारे चलाता है, जिनका कभी कोई अंत नहीं है; जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं, जो कभी पूरी हुई नहीं हैं, जिनका स्वभाव पूरा होना नहीं है।

बुद्ध ने कहा है, कामनाएं दुष्‍पूर हैं, उनको भरा ही नहीं जा सकता। इसलिए नहीं कि आपकी ताकत कम है, इसलिए भी नहीं कि जीवन का समय कम है, इसलिए भी नहीं कि दूसरे लोग बाधा डाल रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनका स्वभाव ही दुष्‍पूर है। वासना का स्वभाव दुष्‍पूर है; उसे पूरा नहीं किया जा सकता।

क्या कारण होगा कि वासना का स्वभाव दुष्‍पूर है? अगर आप वासना को पूरा न करें, दमन करें, दबाएं, तो वासना धक्के मारती है कि मुझे पूरा करो! और सदा धक्के मारती रहेगी जन्मों—जन्मों तक। अगर आप वासना को पूरा करें, तो हर बार पूरा करें, तो वासना की आदत बनती है। और जितनी आदत बनती है, उतनी मांग बढ़ती है।

बड़ी कठिनाई है, बड़ी दुविधा है। अगर वासना को दबाएं, तो पीछा करती है; अगर पूरा करें, तो आदत बनती है। दोनों स्थितियों में वासना उलझा देती है। और तीसरे का हम कभी प्रयोग नहीं करते, कि हम वासना को सिर्फ देखें; न तो दबाएं, न पूरा करें; न तो उससे लड़े, और न उसके गुलाम बनकर उसके पीछे चलें।

दो पंथ हैं जगत में। एक पंथ है वासना पूरे करने वालों का; उनको ही आसुरी संपदा वाले लोग कहा है। एक पंथ है वासनाओं से लड़ने वालों का, उनको दैवी संपदा वाले लोग नहीं कहा है, वे भी आसुरी संपदा वाले लोग हैं। फर्क इतना ही है कि कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सीधे पैर के बल खड़े हैं; कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सिर के बल खड़े हैं, शीर्षासन कर रहे हैं।

एक तीसरा वर्ग है दैवी संपदा वाले व्यक्ति का। वह लड़ता ही नहीं, वह वासना का सिर्फ साक्षी होता है। और जितना गहरा साक्षी— भाव होता है, वासना उसी तरह जड़—मूल से जलकर नष्ट हो जाती है। न तो उसे दबाना पड़ता है, न उसे पूरा करना पड़ता है।

दोनों हालतों में कठिनाई है। और ये दोनों पंथ खड़े हैं और आप सब भी इन दोनों पंथों में डांवाडोल होते रहते हैं। सुबह सोचते हैं कि गलत, सांझ सोचते हैं सही। आज सोचते हैं, वासना पूरी कर लें; कल वासना से लड़कर दमन करते हैं। और ऐसा डोलते रहते हैं और जीवन नष्ट होता चला जाता है।

हमारी अवस्था ऐसी है। मैंने सुना है, एक गांव में एक साधु का आगमन हुआ। वह अद्वैतवादी साधु था। गांव में एक गरीब सीधा आदमी था। इस साधु ने उसे पकड़ लिया; रास्ते से जा रहा था। वह सीधा आदमी अपने खेत जा रहा था, सो उसे पकड़ लिया और कहा कि रुको, क्या जिंदगी खेत में ही गंवा दोगे? कुछ स्मरण करो! यह जगत माया है। उस सीधे आदमी ने कहा, अब आपने शिक्षा ही दी, तो कुछ रास्ता बता दें। तो साधु ने उसे एक मंत्र दिया। मंत्र था सोहम्? कि सदा सोहम्—सोहम् का जाप करते रहो; मैं वही हूं आई एम दैट, सोहम्। कुछ दिनों बाद वह गरीब सीधा आदमी सोहम् का जाप करता रहा।

गांव में दूसरे साधु का आगमन हुआ। लोगों ने उस दूसरे साधु को बताया कि हमारे गांव में एक सीधा—सादा किसान है, लेकिन सोहम् का जाप करता है, और बड़ा प्रसन्न रहता है। साधु ने कहा, बिलकुल गलत। उसे बुलाकर ले आओ। उससे कहा कि यह बिलकुल गलत है। यह साधु द्वैतवादी था। सोहम् अद्वैतवादी का मंत्र है। इसने कहा, यह बिलकुल गलत है; यह पाठ ठीक नहीं है। इससे तुम भटक जाओगे।

उस गरीब सीधे आदमी ने कहा, आप सुधार कर दें। उस साधु ने कहा, दासोहम्? '' तेरा दास हूं यह पाठ करो। सोहम् नहीं, दासोहम्। उसमें दा और जोड़ दो। उस गरीब आदमी ने दा जोड़ दिया।

दो—चार महीने बाद फिर एक अद्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। लोगों ने खबर दी। उसने कहा कि बिलकुल गलत है। द्वैत तो आना ही नहीं चाहिए मंत्र में। यह दासोहम् ठीक नहीं है। तुम इसमें एक स और जोड़ दो, सदा सोहम्? सदा मैं वही हूं। गरीब आदमी ने कहा, अब जैसी आपकी मरजी!

थोड़ी—बहुत शांति पहले मिली थी, दूसरे में उससे भी कम हो गई। अब तीसरे में वह बहुत उलझ गया। वह भी कम हो गई। लेकिन अब साधु ने कहा, तो वह सदा सोहम् करने लगा।

कुछ ही दिन बाद फिर एक द्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। उसने कहा कि यह बिलकुल गलत है। अद्वैत की बात ही गलत है। तुम इसमें एक दा और जोड़ दो, दास दासोहम्। तो उस गरीब ने कहा कि मैं बिलकुल पागल हो जाऊंगा। थोड़ी—बहुत शांति मिलना शुरू हुई थी, सब नष्ट हो गई। और अब कब अंत होगा इसका!

मनुष्य की अवस्था करीब—करीब ऐसी है। वहा दो वर्ग हैं हमारे जीवन में। चारों तरफ दोनों वर्गों में बंटे हुए लोग हैं। कुछ हैं, जो भोग की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो दमन की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो जीवन के विषाद से भरे हैं और कह रहे हैं, सब तोड़ डालो। और कुछ हैं, जो जीवन के उत्साह से भरे हैं और कह रहे हैं, सब भोग डालो। और उन दोनों के बीच में मनुष्य विक्षिप्त हुआ जाता है।

और इन दोनों को अगर आप रोज बदलते रहे, तो एक कनफ्यूजन, चित्त का खंड—खंड हो जाना, एक स्कीजोफ्रेनिक, खंडित चित्त की दशा पैदा होती है। जहां फिर कुछ भी नहीं सूझता, जहां कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ता, कुछ गलत नहीं मालूम पड़ता। और कहा जाएं, और कहां न जाएं! एक पैर बाएं चलता है, दूसरा दाएं चलता है। एक आगे जाता है, दूसरा पीछे जाता है। जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है।

लेकिन हमारी भी अडचन है। और वह अडचन यह है कि इन दो के अतिरिक्त तीसरे का हमें कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ता।

तीसरा एक स्वर है। और वह है वासनाओं की प्रक्रिया का जागरूक साक्षी— भाव से दर्शन। भोगी और त्यागी दोनों ही बंध जाते हैं, सिर्फ साक्षी मुक्त होता है।

यह जो आसुरी संपदा से भरा हुआ व्यक्ति है, वह कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर चलता है, इसलिए सदा दुखी होता है। क्योंकि जो पूरा नहीं होने वाला, उसके साथ चलने वाला दुख पाएगा ही। और सदा अतृप्ति, सदा असंतोष, और सदा अनुभव करता है, कुछ पाया नहीं; और दौड़ो, और दौड़ो। और वह कहीं भी पहुंच जाए, वह जो और की आवाज है, वह चलती ही रहेगी।

मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं। तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय— भोगों के भोगने में तत्पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।

जो भी छोटा—मोटा उच्छिष्ट मिल जाता है, इस भाग—दौड़ में, असंतोष में, दुख में जो थोड़ी—बहुत सुख की आभास जैसी झलक मिल जाती है, बस, आसुरी संपदा वाला मानता है, इतना ही आनंद है, यही सब कुछ है।

आप भी सोचें, इतने दिन आप जीए हैं, कम से कम इस जीवन के दिन का तो आपको स्मरण है ही। और जीवनों में जीए हैं, उसे छोड़ दें। इस सारे जीवन में आपको कोई सुख मिला है?

अगर खोजबीन करेंगे, तो बड़ी मुश्किल होगी। जितनी सचेतता से खोजबीन करेंगे, उतना ही खोजना मुश्किल होगा कि कोई सुख मिला है। कभी—कभी शायद कोई झलक मिली हो, आभास लगा हो, इंद्रधनुष जैसा कुछ दूर दिखाई पड़ा हो। हाथ में तो पकड़ते से खो जाता है इंद्रधनुष। बस दूर से थोड़ा दिखाई पड़ा हो, तो उतना ही सुख है, ऐसा मानकर हम अपने जीवन को ढोते हैं।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति इतने सस्ते में राजी नहीं होता। साधारणत: लोग कहते हैं कि दैवी संपदा वाला व्यक्ति संतुष्ट होता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो बहुत असंतुष्ट होता है। वह इतना असंतुष्ट होता है कि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति भी उसके सामने संतुष्ट मालूम पड़ेंगे। क्योंकि आसुरी संपदा वाला कहता है, इतना ही सुख है; इस पर ही राजी होता है। दैवी संपदा वाला कहता है, इसमें सुख कुछ भी नहीं है। यह दूर दिखाई पड़ने वाला इंद्रधनु है। और हाथ में आते ही पानी की बूंदें हाथ लगती हैं, कुछ भी हाथ नहीं लगता। यहां सुख बिलकुल नहीं है।

तो आसुरी संपदा वाला तो किसी तरह असंतोष में भी थोड़ा—सा संतोष खोज लेता है। दैवी संपदा वाला इसमें पूरी तरह असंतोष पाता है। और इसी असंतोष के कारण वह किसी नए आयाम में, एक नई दिशा में, एक नए क्षितिज की खोज में निकलता है। वासनाओं में पाता है कि कुछ नहीं मिला। आभास भी झूठे थे। तो फिर निर्वासना में, वासना के अतीत, अतिक्रमण में उसकी यात्रा शुरू होती है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो संसार से पूर्ण असंतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वही उसकी परमात्मा की खोज का आधार है, वही स्रोत है। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानता है कि ठीक है, यह जो थोडा—सा सुख मिल रहा है, बस यही सुख है, इससे ज्यादा जीवन में पाने योग्य है भी नहीं, मिल भी नहीं सकता।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति तो प्रखर आंखों से जीवन को देखता है और पूरी तरह असंतुष्ट हो जाता है। अगर यही जीवन है, तो वह इसी समय मरने को तैयार है। कुछ सार नहीं है।

लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति यह देखने में समर्थ होता है कि यह सब व्यर्थ है, उसकी .आंखों का रस इस जगत से अलग हो जाता है, उसकी आंखें मुक्त हो जाती हैं। और वह दूसरे जगत में अपनी आंखों को फैलाने के लिए समर्थ हो जाता है। ध्यान, जो इस जगत में लिप्त था, हट आता है। और फिर ध्यान को दूसरे जगत में ले जाना आसान हो जाता है। परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना ही परमात्मा के परम संतोष को खोज सकती है।

इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम—क्रोध के परायण हुए विषय— भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत—से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।

और जो व्यक्ति भी अपने को नहीं खोज रहा है, वह जाने—अनजाने पदार्थ खोजेगा। खोज तो जारी रखनी ही पड़ेगी। खोज से बचना असंभव है। कुछ न कुछ तो आप खोजेंगे ही। अगर स्वयं को न खोजेंगे, तो कुछ और खोजेंगे। और जो स्वयं को नहीं खोजेगा, उसके पास सिवाय पदार्थों की खोज के कुछ भी नहीं बचता।

इस जगत में दो ही आयाम हैं। या तो मैं चेतना को खोजूं या पदार्थ को खोजूं। बस, दो ही इस जगत के तल हैं, पदार्थ है, चेतना है। अगर आप चेतना की खोज में नहीं हैं, तो क्या करेंगे? तो फिर पदार्थ का संग्रह। आपकी जीवन—ऊर्जा फिर धन इकट्ठा करने में, बड़े पद पर पहुंच जाने में, बड़ा साम्राज्य निर्मित करने में संलग्न हो जाएगी। यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, वह फिर पदार्थ इकट्ठे करने में लग जाता है। और पदार्थ का संग्रह समझ लेने जैसा है। उसके कुछ आधारभूत नियम हैं।





पहला, जो व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करने में लगा हो, वह न्याय—अन्याय का विचार नहीं कर सकता। क्योंकि पदार्थ किसी का भी नहीं है। जिस जमीन को आज आप अपना कह रहे हैं, कल वह किसी और की थी, परसों किसी और की थी। अगर आप यह बैठकर सोचें कि जो मेरा नहीं है, उस पर मैं कैसे कब्जा करूं! तो फिर आप पदार्थ पर कब्जा कर ही नहीं सकते।

इसलिए पदार्थ को इकट्ठा करने वाला तो येन केन प्रकारेण, कैसे भी हो, इकट्ठा करने में लग जाता है। और पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे से छीनना पड़ता है। परिग्रह शोषण के बिना संभव नहीं है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे को वंचित करना पड़ता है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो हिंसा करनी ही होगी, सूक्ष्म, स्थूल, लेकिन हिंसा करनी ही होगी। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दान, दया और करुणा से अपने को बचाना होगा। चाहे चोरी करनी पड़े, चाहे भीख मांगनी पड़े, कुछ भी उपाय करना पड़े।

संपदा का कितना भी ढेर लग जाए, अंततः वह संपदा आपकी कब्र बनती है, अंततः सिवाय उसके नीचे दबकर मर जाने के और कुछ प्रयोजन नहीं है।

लेकिन एक नियम समझने का है कि मनुष्य की जीवन—ऊर्जा बिना खोज के नहीं रह सकती। वह जीवन—ऊर्जा का स्वभाव है—खोज, सर्च। अगर आप कुछ भी नहीं खोज रहे हैं आंतरिक, तो आपको बाहर कुछ न कुछ खोजना ही पड़ेगा।

यह खोज तो तभी बाहर की बंद हो सकती है, जब भीतर की खोज शुरू हो जाए। जैसे ही भीतर की तरफ चेतना मुड़नी शुरू होती है, बाहर की खोज अपने आप खो जाती है। खो जाती है इसलिए कि अब आपको बड़ी संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि अब असली संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि आपको खुद हंसी आएगी, मैं भी किन बच्चों के खेल में उलझा था!

धन बच्चों के खेल से ज्यादा नहीं है। लेकिन चूंकि बुजुर्ग भी उसे खेल रहे हैं, हमें खयाल नहीं आता। खयाल नहीं आता, क्योंकि बुजुर्ग भी हमारे बच्चों से ज्यादा नहीं हैं। सिर्फ शरीर से बूढ़ा हो जाना कोई बहुत मूल्य नहीं रखता। वृत्ति तो बचपन की ही बनी रहती है। बच्चे डाक की टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, तितलियां इकट्ठी कर रहे हैं, कंकड़—पत्थर जोड़ रहे हैं। के हंसते हैं कि क्या पागलपन कर रहे हो! लेकिन डाक की टिकट में और हजार रुपए के नोट में कोई फर्क है? दोनों ही छापाखाने का खेल है। और दोनों पर लगी मुहर केवल सामाजिक स्वीकृति है।

बच्चे टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, या सिगरेट के लेबल इकट्ठे कर रहे हैं, बूढे नोट इकट्ठे कर रहे हैं! बाकी फर्क नहीं है। यह जो बूढ़ा नोट इकट्ठे कर रहा है, यह बस शरीर से बूढ़ा हो गया है; भीतर इसका बचकानापन कायम है; भीतर यह अभी भी जुवेनाइल है, अभी भी बाल—बुद्धि है।

यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, इसकी बाल—बुद्धि नष्ट होती नहीं। यह मरते वक्त भी बाल—बुद्धि का ही मरता है। मरते वक्त भी उसकी चिंता पदार्थ के लिए होती है। जो समझदार है, वह शीघ्र ही पदार्थ की व्यर्थ दौड़ से अपने को मुक्त कर लेता है और परमात्मा की खोज में निकल जाता है।

पदार्थ की खोज बाहर, परमात्मा की खोज भीतर। पदार्थ की खोज दूसरों से छीनकर, परमात्मा की खोज अपने को निखारकर। पदार्थ की खोज में दूसरे का शोषण, परमात्मा की खोज में आत्मा की साधना।

और दो ही खोज हैं। और यह ध्यान रहे कि दोनों खोज कोई सोचता हो कि मैं एक साथ साधू तो वह गलती में है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप संसार को छोड्कर भाग जाएं, तो ही परमात्मा को खोज सकते हैं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप परमात्मा को खोजें, तो आप दीन—दरिद्र, भिखारी ही हो जाएंगे। यह कोई मतलब नहीं है।

लेकिन जो परमात्मा को खोजता है, पदार्थ पर उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उसके पास भी पड़ा हो, तो भी उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उससे छिन भी जाए, तो वह छाती पीटकर रोता नहीं है। पदार्थ हो तो ठीक; पदार्थ न हो तो ठीक। वह उसका लक्ष्य नहीं है। और अगर भीतर की खोज के लिए सब छोड़ना पड़े, तो वह तैयार है। भीतर की खोज के लिए सब खो जाए, तो भी वह तैयार है। वह पूरा दाव बाहर के जगत का भीतर के लिए लगाने के लिए सदा उत्सुक है। उस क्षण की प्रतीक्षा में है, जब वह सब गंवा देगा, स्वयं को बचा लेगा।

जगत में एक सौदा है, या तो आप पदार्थ बचा लें अपने को बेचकर। तो आप जो भी कमाते हैं, वह अपने को बेच—बेचकर कमाते हैं। आत्मा के टुकड़े निकाल—निकालकर बेच देते हैं। तिजोरी भरती जाती है, आत्मा खाली होती जाती है। एक दिन तिजोरी पास में होती है, आप नहीं होते। यही समृद्ध व्यक्ति की दरिद्रता है, यही समृद्ध व्यक्ति की भीतरी दीनता है, भिखमंगापन है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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