बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 5

 महासूत्र साक्षी

  यञ्जैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।

सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। 13।।

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथश्विधम्।

विविधाश्च यृथक्चैष्टा दैवं चैवात्र यञ्जयम्।। 14।।

शरीरवाक्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।

न्याटयं वा विपरीतिं वा पज्जैते तस्य हेतवः ।। 15।।

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु व: ।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्‍न स पश्यति दुमॅल: ।। 16।।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स हमाँल्लोकान्‍न हन्ति न निबध्यते ।। 17।।


और हे महाबाहो, संपूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच हेतु सांख्य सिद्धांत में कहे गए है, उनको तू मेरे से भली प्रकार जान।

हे अर्जुन, इस विषय में आधार और कर्ता तथा न्यारे— न्यारे करण और नाना प्रकार की न्यारी— न्यारी चेष्टा एवं वैसे ही पांचवां हेतु दैव कहा गया है।

मनुष्य मन वाणी और शरीर से शास्त्र के अनुसार अथवा विपरीत भी जो कुछ कर्म आरंभ करता है, उसके ये पांचों ही कारण हैं।

परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरूष अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता देखता है वह दुर्मति यथार्थ नहीं देखता है।

और हे अर्जुन, जिस पुरुष के अंतःकरण में मैं कर्ता हूं ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और संपूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती? वह पुरूष इन सब लोगों को मारकर भीं वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है।

और हे महाबाहो, संपूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच हेतु सांख्य सिद्धांत में कहे गए हैं, उनको तू मेरे से भली प्रकार सुन। हे अर्जुन, इस विषय में आधार और कर्ता तथा न्यारे—न्यारे करण, नाना प्रकार की न्यारी—न्यारी चेष्टा, वैसे ही पाचवां हेतु दैव कहा गया है।

कृष्ण कहते हैं, पांच कारण हैं, हेतु हैं, सभी घटनाओं के। कोई आधार होता है घटना का, निराधार तो कुछ भी घट नहीं सकता। कोई करने वाला होता है घटना का, बिना कर्ता के घटना घट नहीं सकती। उपकरण होते हैं, उनके सहारे के बिना घटना नहीं घट सकती। चेष्टा होती है, यत्न होता है, प्रयास होता है, उसके बिना भी घटना नहीं घट सकती। और फिर जन्मों—जन्मों के संचित कर्म होते हैं, जिनको दैव कहा है। वे भी उस घटना को घटाने में सहयोगी होते हैं। ये पांच आधार हैं कर्म के।

मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्र के अनुसार अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है, उसके ये पांचों ही कारण हैं। परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरुष अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता देखता है, वह दुर्मति यथार्थ नहीं देखता है।

कारण तो हैं, पाच हैं, लेकिन फिर भी तुम उनके बाहर हो। घटना घटती है, तो अकारण नहीं घट सकती। घटना घटती है, तो कर्ता भी होगा। घटना घटती है, तो घटाने की चेष्टा भी होगी। पूर्व—संस्कार पीछे खड़े होंगे। किसी भी घटना के लिए ये पांच सहारे चाहिए। लेकिन फिर भी तुम इन पाचों के बाहर हो। तुम साक्षी हो, तुम देखने वाले हो।

भूख लगी, तो शरीर ने आधार बनाया। भूख उठी। इसको तुम भूख की तरह समझ लेते हो, क्योंकि पहले भी तुमने भूख को भूख की तरह जाना है। अगर यह पहली ही दफे लगती, तो तुम पहचान भी न पाते कि यह भूख है। शायद तुम समझते पेट में दर्द हो रहा है। तुम कुछ भी समझते, लेकिन भूख नहीं समझ सकते थे।

पहले दिन का बच्चा भी पहली ही घड़ी, पैदा होते ही जो भूख पैदा होती है, तो अनुभव कर लेता है कि भूख लगी और मां के स्तन को खोजने निकल जाता है। यह खबर है इस बात की कि यह स्तन बहुत बार पहले भी खोजा गया है। अन्यथा कैसे खोजोगे? पूर्व—संस्कार चाहिए।

तो यह बच्चा कैसे जानता है कि भूख लगी? इसको यह भूख की तरह कैसे पहचानता है? यह कैसे जानता है कि स्तन इसकी भूख की पूर्ति कर देंगे? इसका हाथ स्तन की तरफ क्यों बढ़ने लगता है? यह कैसे स्तन से दूध को पीता है? इसने कभी पहले पीया नहीं। तो दैव।

पहला अतीत, सारा अतीत पीछे से काम कर रहा है। भूख लगी, शरीर ने आधार दिया, संस्कार ने पहचाना, फिर तुमने चेष्टा की। क्योंकि भूख लगी, तो चेष्टा करनी पड़ेगी। भीख भी मांगने गए, तो भी चेष्टा होगी; दुकान गए, तो भी चेष्टा होगी; चोरी करने गए, तो भी चेष्टा होगी। धर्म के अनुकूल या प्रतिकूल कुछ भी करो, चेष्टा होगी।

जब तुम चेष्टा करोगे, तो तुम्हारा मन कर्ता भी होगा। बिना करने वाले के चेष्टा कैसे होगी? तो मन करेगा। मन विचार करेगा, क्या करूं, क्या न करूं? कैसे रोटी पाऊं आज? चोरी से? भिक्षा से? किसी के घर मेहमान बनकर? कमाकर? क्या करूं? तो मन कर्ता बनेगा। और तुम जो भी उपकरण, जिन—जिन साधनों से भोजन जुटाओगे, वे करण हैं।

ये पांच हैं; तुम छठवें हो।

कृष्ण कहते हैं, इन पांचों में जिसने अपने को डूबा हुआ समझ लिया, वह दुर्मति। तुम इन पांचों के बाहर हो; तुम इन पांचों के देखने वाले हो।

भूख लगती है, वह तुम्हें नहीं लगती। तुम देखते हो, तुम पहचानते हो कि भूख लगी। भूख तुमसे बाहर है, तुमसे दूर है। भूख तुम्हारे आस—पास घटती है, तुममें नहीं घटती।

भूख लगते ही मन चेष्टा में लग जाता है। मन भी तुमसे बाहर है। उसकी भी जरूरत है। बिना मन के भूख लगी रहेगी और तुम्हें पता ही नहीं चलेगा। क्या करोगे? मर जाओगे। मन चेष्टा में लग जाता है, उपाय खोजने लगता है, हाथ—पैर चलने लगते हैं, उपकरण जुटाए जाने लगते हैं, आटा लाओ, पानी लाओ, आग जलाओ, व्यवस्था करो भोजन बनाने की।

लेकिन इस सब घटने में तुम बाहर हो। तुम्हारा होना साक्षी का होना है। तुम सिर्फ देखने वाले हो, द्रष्टा हो।

ऐसा होने पर जो पुरुष अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता देखता है, वह दुर्मति यथार्थ नहीं देखता।

अगर इन सब पांचों के कारण तुमने यह समझा कि तुम कर्ता हो, तो तुम यथार्थ नहीं देखते। तुम अज्ञान में पड़े हो।

और हे अर्जुन, जिस पुरुष के अंतःकरण में मैं कर्ता हुं, ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है।

कृष्ण कहते हैं, अगर इन पांच के बाहर तू अपने को जान ले, जो कि तेरा होना है ही, सिर्फ प्रत्यभिज्ञा चाहिए, होश चाहिए। अगर तू इन पांचों के बाहर अपने को मान ले, जान ले, पहचान ले, तो फिर तू जो भी करता है, उसका कोई पाप—बंध तेरे ऊपर नहीं है। फिर तू भोजन करते हुए उपवासा रहेगा, बोलते हुए मौन, चलते हुए अनचला, करते हुए अकर्ता, संसार में होते हुए भी संसार के बाहर। क्योंकि साक्षी सदा बाहर है। वह लिपायमान नहीं होता। साक्षी का गुणधर्म क्या है? वह लिपायमान नहीं होता; वह किसी चीज में डूबता नहीं। तुम उसे डुबा नहीं सकते। वह सदा बाहर ही रहता है। वह बाजार में दुकान करेगा और डूबेगा नहीं। वह कर्मों में लीन होगा, फिर भी भीतर एक तत्व शेष रहेगा, जो लीन नहीं होगा। यह जो लिपायमान न होने की कला है, यही धर्म है।

इसलिए क्या कहते हैं, हे अर्जुन, ऐसी अगर तेरी दशा हो जाए, अगर तू पहचान ले कि यह सारा कर्म इन पांच का है और तू अकर्ता है, तो फिर ये जो सारे लोग खड़े हैं, अगर तू इनको मार भी डाल, तो भी पाप से नहीं बंधता है। क्योंकि तूने कोई कृत्य किया ही नहीं; हुआ, किया नहीं। घटना जरूर घटी, उसके कारण थे, उपकरण थे, आधार थे, हेतु थे, लेकिन तू बाहर रहा।

वह पुरुष इन सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है।

क्योंकि जब मारने वाला ही भीतर भाव नहीं है, तो कैसे हम कहें कि वास्तव में मारता है! सिर्फ अभिनय करता है मारने का।

और न पाप से बंधता है।

यह भारत की गहनतम खोज है। साक्षी तक विश्व का कोई धर्म इस भांति नहीं पहुंचा। बड़े से बड़े धर्म दुनिया में पैदा हुए हैं, लेकिन वे भी कर्ता तक ही पहुंचकर रुक जाते हैं। वे भी कहते हैं, अच्छा करो, बुरा मत करो।

कृष्ण आखिरी बात कह रहे हैं। इसके पार फिर कोई जाना नहीं है। इसके पार अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। यह आखिरी घड़ी है। साक्षी से पीछे नहीं जा सकते। साक्षी यानी बस आ गए आखिरी से आखिरी मंजिल तक। तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते। तुम सब चीजों को देख सकते हो दुनिया में, स्वयं को नहीं देख सकते। स्वयं तो देखने वाला है, वह सदा ही देखने वाला है; उसे तुम कभी देखा जाने वाला नहीं बना सकते। वह द्रष्टा है, उसे तुम कभी दृश्य नहीं बना सकते।

कृष्ण यह कह रहे हैं कि फिर ये सारे लोग भी तेरे द्वारा मारे जाएं, तो न तो वास्तव में ये मारे जाते हैं, क्योंकि जिसने अपने साक्षी को जान लिया, उसने यह भी जान लिया कि भीतर का तत्व अमृत है। इन बाहर के लोगों को भी काटते समय वह जानेगा कि शरीर ही काट रहा हुं, इनको मार नहीं रहा हूं। मरता तो कोई है ही नहीं। कृष्ण के हिसाब से हिंसा तो असंभव है। मरना तो होता ही नहीं, तो हिंसा कैसे संभव है? हिंसा इसलिए थोड़े ही होती है कि तुमने किसी को मार डाला। हिंसा सिर्फ इसलिए होती है कि तुमने समझा कि तुमने मार डाला।

तुम्हारे मारने से कोई मरता है? ऐसे ही जैसे कोई किसी के कपड़े छीन ले, इससे कोई मरता है? आदमी दूसरे कपड़े खरीद लेगा। तुमने किसी को मारा, देह छीन ली, देह दूसरी देह खोज लेगी। नई देह मिल जाएगी। शायद पुरानी जराजीर्ण हो गई थी, तुमने बड़ी कृपा की। नई देह मिल जाएगी। जैसे कोई घर को बदल ले, ऐसे देहों को बदल लिया जाएगा।

तुम्हारे मारने से भी कोई मरता नहीं, इसलिए वस्तुत: तो हिंसा होती ही नहीं, हो नहीं सकती। और मारते समय तुम कर्ता नहीं हो। कृत्य हो रहा है, कारण सब मौजूद हैं, तुम बाहर खड़े हो। इसलिए मैं कहता हूं कृष्ण का यह सूत्र जीवन को अभिनय बना देता है। तुम एक अभिनेता हो, कर्ता नहीं। एक बड़ा मंच है जीवन का, उस पर तुम बहुत तरह के काम कर रहे हो। जो तुम्हें दिया गया है, जो तुमने पाया है कि तुम्हें दिया गया है, तुम उसे पूरा कर रहे हो बिना लिपायमान हुए।

इसे थोड़ा सोचो, इसे थोड़ा साधो, और तुम्हारे जीवन में संन्यास की सुगंध उतरनी शुरू हो जाएगी।

इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम छोड़ो घर को, गृहस्थी को, बच्चों को, परिवार को। उसके छोड़ने से कुछ अर्थ नहीं है। क्योंकि अगर छोड़ने वाला न छूटा, तो कुछ भी नहीं छूटा।

तुम रहो वहीं, जहां हो, सभी जगहें एक—सी हैं। रहो वहीं, रहने के ढंग को बदल दो। और तुम बड़े हैरान होओगे। जरा से ढंग को बदलने की बात है। और उस ढंग की बदलाहट का बाहर पता भी चलना जरूरी नहीं है। किसी को भी पता न चलेगा; कानों—कान खबर न होगी। लेकिन तुम्हारा जीवन आमूल बदल जाएगा।

तुम पति हो, इसको अभिनय समझो। पत्नी छोड्कर भागने की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ अभिनय समझो। और पति का काम जितनी कुशलता से कर सको, कर दो। तुम पत्नी हो, पत्नी का काम कुशलता से कर दो। अभिनय है, कुशलता से करना है। लिपायमान मत हो।

किसी को कहने की भी जरूरत नहीं है। किसी को पता चलने की भी जरूरत नहीं है। तुम भीतर सरक जाओ। सब काम वैसा ही चलता रहे। हाथ उठेंगे, बुहारी लगेगी, पति आएगा, चरण धोए जाएंगे; पति आएगा, बाजार से फूल ले आएगा; सब काम वैसे ही चलेगा। कहीं कोई भेद न होगा। कहीं रत्तीभर भेद की जरूरत नहीं है। भीतर कुछ सरक जाएगा। भीतर से कोई हट जाएगा। भीतर घर खाली हो जाएगा। कर्ता वहां नहीं रहा।

और जब कर्ता भीतर नहीं रह जाता, तो ऐसा सन्नाटा छा जाता है जीवन में, कि कोई भी चीज उस सन्नाटे को तोड़ती नहीं। ऐसी गहन शांति उतर आती है, कि सारा संसार कोलाहल करता रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। तूफान और आंधी के बीच भी तुम्हारे भीतर सब शांत बना रहता है। सफलता हो, असफलता; सुख हो, दुख; हार हो, जीत, जीवन हो, मृत्यु—कुछ अंतर नहीं पड़ता। एक बात के साध लेने से, कि तुम पीछे हटना सीख गए, कोई अंतर नहीं पड़ता। इसे तुम थोड़ा जीवन में इसकी कोशिश करो। यह बड़ी अनूठी कोशिश है और बड़ी रसपूर्ण। और इससे ऐसा आनंद का झरना फूटने लगता है, जिसका हिसाब रखना मुश्किल है। और तुम खुद मुस्कुराओगे कि यह क्या हो रहा है। इतनी सरल थी बात!

घर आए हो, बेटे की पीठ थपथपा रहे हो, मत थपथपाओ बाप की तरह। बस, थपथपाओ नाटक के बाप की तरह। और मजा यह है कि पीठ ज्यादा अच्छी तरह थपथपाई जाएगी। बेटा ज्यादा प्रसन्न होगा। कहीं कुछ अड़चन न आएगी, कहीं कुछ तुम्हारे कारण बाधा पैदा न होगी और तुम्हारे जीवन का सार सधने लगेगा।

अगर तुम इस जीवन के मंच से ऐसे आओ और ऐसे गुजर जाओ, जैसे अभिनेता आता है; मरते वक्त तुम्हारी मृत्यु तब ऐसे ही होगी, जैसे परदा गिरा; उसमें कोई पीड़ा न होगी। एक कृत्य को ठीक से पूरा कर लेने का अहोभाव होगा। विश्राम की तरफ जाने की भावना होगी। और काम पूरा हो गया, परमात्मा का आह्वान आ गया, वापस लौट चलें। परदा गिर गया।

कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि बस, इतना तू समझ ले; भागने की जरूरत नहीं है इस महायुद्ध से। और भागकर कोई कहीं जा नहीं सकता, क्योंकि जहां भी जाओगे, वहीं युद्ध है। जीवन महासंघर्ष है। वह। छोटी मछली बड़ी मछली के द्वारा खाई जा रही है। इसका कोई उपाय नहीं है।

शायद यही परमात्मा का नियोजित खेल है, कि इस युद्ध में तुम जागो, कि इस युद्ध के भी तुम पार हो जाओ। रहो निमित्त—मात्र, करने दो उसे जो उसकी मर्जी है। बहे उसकी हवाएं, तुम सिर्फ उन्हें गुजर जाने दो। तुम बाधा मत डालों, तुम बीच में मत आओ। और सब सध जाता है। बिना कहीं गए, सब मिल जाता है। एक बिना कदम उठाए, मंजिल घर आ जाती है।

साक्षी— भाव कुंजी है। इसे थोड़ा प्रयोग करना शुरू करो। यह परम ध्यान है। भूल— भूल जाओ, फिर—फिर याद कर लो। भोजन कर रहे हो, ऐसे ही करो जैसे कि बस, एक नाटक में कर रहे हैं। नाटक बड़ा है माना, बड़ा लंबा है, सत्तर साल चलता है, अस्सी साल चलता है, लेकिन है नाटक।

और तुम्हें भी कई दफे खयाल आ जाता है कि क्या नाटक हो रहा है! लेकिन बार—बार भूल जाते हो। स्मरण को सम्हाल नहीं पाते, सुरति को बांध नहीं पाते, छूट—छूट जाती है हाथ से। बस, छूटे न। इतना—सा अगर तुम साध पाओ, एक छोटा—सा शब्द, साक्षी। उसमें सारे शास्त्र समाए हैं। यह जो विराट जीवन फैला दिखाई पड़ता है, जहां भी जाओ, रास्ते में खड़े होकर देखो ऐसे ही जैसे नाटक देख रहे हो।

पूरब में हमने सब चीजें थिर कर ली थीं। ज्यादा हमने स्वतंत्रता न दी थी जीवन को। क्योंकि स्वतंत्रता से समय नष्ट होता है और मूल्यवान अनुभव करीब नहीं आ पाता। अगर तुम हर दो—चार महीने में पत्नी बदलते जाओ, तो यह खेल, अभिनय कभी भी न हो पाएगा। क्योंकि तुम हमेशा ही उत्तेजित रहोगे। लेकिन एक ही पत्नी चालीस साल, पचास साल; सब चीजें थिर हो जाती हैं, उत्तेजना खो जाती है। उस अनुत्तेजित अवस्था में चीजें अभिनय जैसी हो जाती हैं। तुम चीजों के आर—पार ज्यादा कुशलता से देख पाते हो।

हमने चीजें थिर कर ली थीं, सिर्फ इसीलिए, ताकि आंख ठीक से आर—पार जा सके। दृश्य अगर बदलते रहें दिन—रात, तो तुम किसी भी दृश्य में गहराई से नहीं उतर पाते। पूरब ने एक बड़ी थिर जीवन—व्यवस्था बनाई थी, जिसमें कुछ बहुत बदलता नहीं था।

तुम ऐसा समझो कि अगर रामलीला भी हर साल बदलने लगे, उसकी कहानी बदल जाए, तो वह रामलीला जैसी न लगेगी। हर बार तुम उत्तेजित होकर वहां पहुंच जाओगे।

तुम ऐसा समझो कि एक ही फिल्म तुम्हें पच्चीस बार देखनी है। आज देखकर आए, कल देखी, परसों देखी। आज जो उत्तेजना होगी, कल न रह जाएगी। कल तुम्हें घटना मालूम ही है कि क्या होने वाला है। परसों तो बात बिलकुल ही फीकी हो जाएगी। तुम थोड़ी— थोड़ी झपकी भी बीच में लेने लगोगे। चौथे दिन तो तुम मजे से सोने लगोगे कि अब क्या, जानने को क्या है, सब जान लिया। अगर पच्चीस दिन तुम्हें एक ही फिल्म देखनी पड़े, तो तुम मुक्त हो जाओगे उस फिल्म से, बिलकुल मुक्त हो जाओगे। लेकिन रोज नई फिल्म हो, तो उत्तेजना बनी रहेगी। नए को जानने के लिए मन आतुर होता है।

पश्चिम ने एक बदलता हुआ समाज बनाया है, जो रोज बदल रहा है। इसलिए पश्चिम में आखिरी क्षण तक बेचैनी बनी रहती है। मरते दम तक आदमी ऐसा व्यवहार करता है, जैसे अभी जवान है। सुनकर ही हैरानी होती है कभी हमें।



लेकिन पश्चिम में समझ में आती है, कोई अड़चन नहीं है। जीवन कंपता हुआ है, कुछ थिर नहीं है। जैसे कि नदी डांवाडोल हो, तो उथली नदी की भी गहराई में देखना मुश्किल है। नदी थिर हो, लहर न उठती हो, तो गहरी से गहरी नदी की भी तलहटी में देखना संभव हो जाता है।

हमने एक थिर जीवन बनाया था। उसके पीछे राज था। हम हर आदमी को साक्षी बनाने की चेष्टा में संलग्न थे। हमारी कोशिश यह थी कि तुम जीवन को देखते—देखते ही यह समझ जाओ कि यह तो सिर्फ खेल है। इसके पीछे तुम्हें दिखाई पड़ने लगे। हर दृश्य के पीछे तुम्हें द्रष्टा दिखाई पड़ने लगे; हर शरीर के पीछे तुम्हें आत्मा दिखाई पड़ने लगे; हर घटना के पीछे तुम्हें परमात्मा का हाथ दिखाई पड़ने लगे।

इसलिए हमने सब चीजों को थिर कर दिया था, ताकि लहरों के कंपन के कारण दृष्टि में बाधा न पडे। सब चीजें साफ हो जाएं। साक्षी सूत्र है, महासूत्र है। छोड़ दो वेद, छोड़ दो उपनिषद, भूल जाओ गीता, अगर यह एक दो अक्षरों का छोटा—सा शब्द, साक्षी, याद रह जाए तो तुम सारे शास्त्रों को अपने भीतर जन्म दे सकते हो। क्योंकि सभी शास्त्रों की बस इतनी सी ही शिक्षा है, कि तुम कर्ता न रहो, द्रष्टा हो जाओ।

इसे थोड़ा शुरू करो। मेरे समझाने से यह समझ में न आएगा। यह बात ही समझने—समझाने की नहीं है। लिखा—लिखी की है नहीं, देखा—देखी बात।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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