बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 4

 सदगुरू की खोज


न द्वेञ्चकुशलं कर्म कुशले नानुषज्‍जते।

त्यागी सत्‍वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:।। 10।।

न हि देहभृता शाक्‍यं त्यक्तुं कर्माण्यझेश्त:।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्‍यभिधीक्ते।। 11।।

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्।

भवत्‍यत्‍यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां क्वचित्।। 12।।  


और हे अर्जुन, जो पुरुष अकल्‍याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म में आसक्त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्‍त हुआ पुरुष संशयरहित मेधावी अर्थात ज्ञानवान और त्यागी है।

क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा संपूर्णता से सब कर्म त्यागे जाना शक्य नहीं है। इससे जो पुरूष कर्मो के फल का त्यागी है, वह ही त्यागी है, ऐसा कहा जाता है।

तथा सकामी पुरूषों के कर्म का ही अच्‍छा बुरा और मिश्रित, ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्‍चात भी होता है और त्यागी पुरुषों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता है।


और हे अर्जुन, जो पुरुष अकल्याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म से आसक्त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त हुआ पुरुष संशयरहित मेधावी अर्थात ज्ञानवान और त्यागी है।

जो अकल्याणकारक कर्म से द्वेष नहीं करता और कल्याणकारक कर्म की कामना नहीं करता है......।

क्योंकि जब तक तुम कहोगे, यह न हो और यह हो, ऐसा न हो और ऐसा हो; रात न हो, दिन हो, दुख न हो, सुख हो; मृत्यु न हो, जीवन हो, जब तक तुम चुनोगे, तब तक अहंकार बना रहेगा। चुनाव अहंकार है। चुनावरहित हो जाना, च्चाइसलेस हो जाना, निरहंकारिता है।

तो कृष्ण कहते हैं, इसकी तू फिक्र ही मत कर कि क्या अकल्याणकारक है। छोड़ उसी पर। वही जानता होगा। जो पूरे को जानता है, वही जानता होगा। तू छोड़ दे उसी पर। और न तू कल्याण की कामना कर, कि जो ठीक है, वह मैं करूं। तू बिलकुल छोड़ दे। तू बीच से हट जा। तू अपने हाथ उसके हाथ बन जाने दे। अपनी आंखें उसकी आंखें बन जाने दे। तेरे हृदय में तू मत धड़क, उसे धड़कने दे।





और यह महाभाव घटता है। ऐसा महाभाव जब घटता है, तभी हम कहते हैं, कोई व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया। तब वह कोई चुनाव नहीं करता, तब उसका होना सरल है। जैसे नदी बहती है सागर की तरफ, ऐसा ही वह भी बहता है। उसके होने में फिर कोई कृत्य नहीं रह जाता। कर्म तो बहुत होते हैं, कर्ता नहीं रह जाता, करने का भाव नहीं रह जाता।

जो कल्याणकारक कर्म में आसक्त नहीं, अकल्याणकारक कर्म से द्वेष नहीं करता, वही संशयरहित होकर मेधा को, त्याग को उपलब्ध होता है।

त्याग, कर्ता का त्याग है, त्याग, अहंकार का त्याग है। तुमने अगर त्याग भी किया और अहंकार बच गया, तो त्याग झूठा हो गया, व्यर्थ हो गया। इस ढंग से करना त्याग कि अहंकार न बच पाए। बस, यही कला है, सारे धर्म की कला इतनी है। इस भांति छोड़ना कि छोडने वाला निर्मित न हो जाए। छोड़ना जरूर, छोड़ने वाले को मत बनने देना।

यह कैसे करोगे? इसका एक ही उपाय है कि तुम अपने को परमात्मा के हाथ में छोड़ दो। वह बुरा कराए तो बुरा, भला कराए तो भला। वह नाटक में तुम्हें रावण बना दे, तो रावण; वह राम बना दे, तो राम। तुम यह मत कहना कि हम रावण का पार्ट न करेंगे। तुम तो कहना कि तुम डायरेक्टर हो, तुम जो पात्र दे दोगे, हम वही करेंगे। हमारा कुल काम इतना है, जो तुम दे दोगे, हम उसे पूरी तरह करेंगे। वह रावण बना दे, तो रावण, वह राम बना दे, तो राम। वह राजा बना दे, तो राजा, वह रंक बना दे, तो रंक। जो उसकी मर्जी।

उसकी मर्जी से भिन्न जरा भी न सोचने का नाम संन्यास है।

क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा संपूर्णता से सब कर्म त्यागे जाना शक्य भी नहीं है, इससे जो पुरुष कर्मों के फल का त्यागी है, वह ही त्यागी है, ऐसा कहा जाता है।

तुम सारे कर्म तो छोड़ ही नहीं सकते। छोड़ना भी कर्म है। आंख बंद करोगे, वह भी कर्म है। भोजन करोगे, वह भी कर्म है। श्वास लोगे, वह भी कर्म है। जंगल जाओगे, वह भी कर्म है। सोओगे, सुबह उठोगे, भूख लगेगी, भिक्षा मांगोगे, वह भी कर्म है।

कर्म से भागोगे कैसे? राजा का कर्म अलग है, भिखारी का कर्म अलग है, लेकिन दोनों कर्म हैं। अलग कितने ही हों, उनका कर्म होना तो समान ही है।

तो कृष्ण कहते हैं, यह शक्य भी नहीं है कि कोई सारे कर्मों को छोड़ दे।

फिर शक्य क्या है? शक्य इतना ही है कि फलाकांक्षा छोड़ दे; आकांक्षा न रखे। जब तुमने सारे कर्म उस पर छोड़ दिए, तो फल की आकांक्षा अपने आप छूट जाती है। इस कीमिया को ठीक से समझ लेना।

जब तक तुमने अपने हाथ में कर्मों का चुनाव रखा है, तब तक फल की आकांक्षा नहीं छूटेगी। तब तुम सफल होना चाहोगे, असफल न हो जाओ, यह भय पकड़ेगा। लेकिन जब तुमने सभी उस पर छोड़ दिया, तो वही असफल होता है, वही सफल होता है। उसको असफल होने का मजा लेना हो, ले, उसको सफल होने का मजा लेना हो, ले। तुम सिर्फ निमित्त हो जाते हो।

निमित्त शब्द बड़ा प्यारा है। इसे तुम कुंजी की तरह याद रखो, निमित्त। जैसे खूंटी है, तुम आए, कोट टांग दिया, तो खूंटी यह नहीं कहती कि कोट न टैगने देंगे। तुम आए, कमीज टांग दी, तो खूंटी यह नहीं कहती कि कमीज नहीं टैगने देंगे। कल कोट टांगा था आज भी कोट टांगो। तुमने कोट टांगा, आज रुपए हैं, कल रुपए नहीं हैं। खूंटी यह नहीं कहती कि देखो, बिना रुपए के कोट मत टांगो, इससे मन में बड़ा विषाद होता है। और इससे चित्त में बड़ी ग्लानि और पराजय का भाव पैदा होता है। और एक दिन तुम खूंटी पर कुछ भी नहीं टांगते, तो खूंटी यह नहीं कहती कि बिलकुल नंगा, भिखमंगा छोड़ दिया, कुछ तो टांगो।

खूंटी निमित्त मात्र है, जो भी टांगो, टंग जाता है। ऐसे तुम खूंटी की तरह हो जाओ। परमात्मा जो टांगे, टंग जाने दो, तब फिर फल की कोई आकांक्षा नहीं है। किसी दिन न भी टांगे, तो भी मौज है। तथा सकामी पुरुषों के कर्म का ही अच्छा, बुरा और मिश्रित, ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात भी होता है।

और वह जो व्यक्ति आकांक्षा नहीं छोड़ता फल की, वह जो भी करता है, इतनी कामना से भरकर करता है, इतने द्वेष और लोभ से भरकर करता है कि लोभ और द्वेष की लकीरें उसके चित्त पर छूटती हैं, गहरी होती हैं, बनती हैं, सघन होती हैं। और इस जीवन के बाद भी उसके साथ जाती हैं।

जो व्यक्ति कामना से भरकर कर्म करता है, अहंकार से भरकर कृत्य करता है, कर्ता को बचाता है, उसके ऊपर लकीरें ऐसे खिंच जाती हैं कर्म की, जैसे किसी ने पत्थर पर खींच दी हों। वह फिर उसका जीवन उन लकीरों से घिरा हुआ चलता है। इसको ही हमने कर्म का सिद्धांत कहा है।

 जो व्यक्ति सब कुछ उस पर छोड़ देता है, सब कुछ अस्तित्व पर छोड देता है, उस पर भी लकीरें खिंचती हैं, लेकिन वे ऐसे खिंचती हैं, जैसे पानी पर खिंची लकीरें, खिंच भी नहीं पाती कि मिट जाती हैं। करता बहुत है वह, लेकिन कुछ पीछे लकीर नहीं छूटती। वह निर्मल विदा होता है।

संसार में जीयो, जैसे जीना हो। संसार एक बड़ा अभिनय का मंच है। उसको तुम सच मत समझो, सपना समझो। एक अभिनय है, पूरा करो। बस, अभिनेता की तरह दूर—दूर रहो, पार—पार रहो, अतिक्रमण करते रहो। करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई अकर्ता बना रहे। चलते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई चले न। भोजन करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई उपवासा रहे। भोग करते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई संन्यस्त रहे।

इसलिए कृष्ण ने जगत को जो संन्यास दिया है, वह सबसे ज्यादा बारीक और महीन है।

ऐसे पुरुष को किसी भी काल में कर्मों का कोई भी बंधन नहीं होता।

फिर परमात्मा ही बंधे और वही मुक्त हो। तुम तो हट ही गए। इससे ज्यादा सरल कोई साधना नहीं है। इससे ज्यादा कठिन भी कोई साधना नहीं है। सरल इसलिए नहीं है कि इसमें कुछ भी करना नहीं है, सिर्फ करने का भाव छोड़ देना है। कठिन इसलिए कि इसमें कुछ भी करने को नहीं है; तुम्हारा मन बड़ी मुश्किल पाएगा। कुछ करने को होता, तो कर लेते। अब इसमें कुछ करने को ही नहीं है, तो तुम एकदम अधर में पाओगे; शून्य में भटके पाओगे। लेकिन अगर सुनो, गौर से सुनो, तो सुनने से ही सत्य उपलब्ध हो जाता है। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम मुझे सुन रहे हो, ठीक से सुन रहे हो, सम्यकरूपेण सुन रहे हो, तो तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत न रह जाएगी। अगर करने की जरूरत रह जाए, तो समझना कि ठीक से सुना नहीं, सुनना चूक गया। फिर से गौर से सुनना। इसलिए मैं रोज बोले चला जाता हूं। कभी तो सुनोगे!

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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