मनन और निदिध्यासन
कच्चिदेतव्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिमानसंमोह: मनष्टस्ते धनंजय।। 72।।
अर्जन उवाच:
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्ससादान्मयाव्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव।। 73।।
इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
इस प्रकार भगवान के पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पाल करूंगा।
इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
पूछने को ही पूछ रहे हैं। जांच के लिए पूछ रहे हैं। इसलिए पूछ रहे हैं कि अर्जुन को खबर मिली या नहीं! जो हुआ है, उसकी खबर कृष्ण को तो मिल गई है।
कृष्ण को पता तो चल गया है, इसीलिए माहात्म्य कहा है। नहीं तो माहात्म्य कहने की कोई जरूरत न थी। अब तक नहीं कहा; अठारह अध्याय बीत गए। अचानक माहात्म्य कहा है। अचानक यह बताया कि कौन पात्र है, किसको कहना। अचानक यह कहा है कि कहने का कितना मूल्य है। बिन कहे मत रह जाना।
पता चल गया है, लेकिन पूछते हैं माहात्म्य कहकर, हे पार्थ, क्या यह मेरा वचन तूने एकाग्र चित्त से श्रवण किया? तूने सुना, क्या कहा मैंने? ले समझा, क्या कहा मैंने? तू जागा? तूने देखा, कौन हूं मैं? और हे धनंजय, क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
वे यह कह रहे हैं, अब भीतर जरा टटोलकर देख, कहां है तेरा मोह? कहा हैं वे बातें तेरे भीतर कि ये मेरे अपने प्रियजन खड़े हैं, इनको मैं कैसे काटू? अब जरा पीछे मुड़, खोज। कहां गए वे प्रश्न, संदेह—शंकाएं? वे सारी चित्त की विचलित दशाएं कहां हैं अब? तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?
भगवान के ऐसा पूछने पर अर्जुन बोला, हे अच्यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूं और आपकी आज्ञा पालन करूंगा।
एक—एक शब्द बहुमूल्य है। सारी गीता की चेष्टा इन थोड़े—से शब्दों के लिए थी कि अर्जुन के भीतर ये थोड़े—से शब्द प्रकट हो सकें। यह कृष्ण का पूरा आयोजन, इतनी—इतनी बार अर्जुन को समझाना, बार—बार अर्जुन का छिटक—छिटक जाना, कृष्ण का फिर—फिर उठाना, यह इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए था।
सारे गुरुओं की चेष्टाएं शिष्य से इन थोड़े—से शब्दों को सुनने के लिए हैं, कि किसी दिन वह घड़ी आएगी सौभाग्य की और शिष्य का हृदय अहोभाव से भरकर कहेगा, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया, मुझे स्मृति प्राप्त हुई, संशयरहित हुआ मैं स्थित हूं और आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा है।
हे अच्यूत.....।
अच्यूत का अर्थ होता है, जो कभी डिगाया न जा सके। अर्जुन ने बहुत डिगाने की कोशिश की कृष्ण को। कितने संदेह उठाए! कितने प्रश्न पूछे! कोई भी थक जाता। कोई भी कहता कि बस, बहुत हुआ। अब मेरा सिर मत खा। लेकिन बार—बार कृष्ण फिर अनुकंपा से भरे अपना हाथ बढ़ा देते हैं।
तो अर्जुन कहता है, हे अच्यूत, तुम जो कि डिगाए नहीं जा सके।
और वही गुरु तो तुम्हें थिर कर सकेगा, जिसे तुम डिगा न सको। जो गुरु तुम से डिग जाए, वह तुम्हें कैसे अनडिगा बना सकेगा? वह तो असंभव है।
कृष्ण न तो नाराज हुए, न परेशान हुए, न चिंतित हुए, न निराश हुए। जरा भी डिगे नहीं।
तो अर्जुन कहता है, हे अच्यूत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हुआ। तुम्हारे प्रसाद से....।
यह बहुत बहुमूल्य बात है। वह सीधा भी कह सकता था, मेरा मोह नष्ट हुआ। लेकिन तब भूल हो जाती। तब गीता अभी समाप्त नहीं हो सकती थी। यात्रा और चलती।
अगर वह कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ, तो मेरा अभी भी महत्वपूर्ण था। मोह नष्ट हो गया, इसको भी वह मेरे का ही आभूषण बना लेता। अभी भी वह अकड़ से कहता, मेरा मोह नष्ट हुआ। तो कृष्ण को फिर चेष्टा करनी पड़ती।
नहीं; पहली बार उसने कहा है, आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ। मेरे प्रयास से नहीं, तुम्हारे अनुग्रह से। तुम बरसे मेरे ऊपर—अकारण। मेरी कोई पात्रता न थी; मेरा कोई पुण्य का उदय भी न था। मैं खो जाता अंधकार में, तो शिकायत करने का कोई उपाय न था। लेकिन तुम बरसे, तुम औघड़दानी, तुमने बिना मेरी पात्रता की फिक्र किए मेरे ऊपर खूब बरसा की, खूब अमृत बरसाया। तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ।
जब भी मैं नष्ट होता है, तो वह परमात्मा के प्रसाद से नष्ट होता है। अगर तुम यह कहो कि मेरे ही प्रयास से नष्ट हुआ, मेरी साधना से, मेरे तप से, तो वह अभी नष्ट हुआ ही नहीं। अभी तपस्वी के भीतर तप में तपा हुआ अहंकार खड़ा ही रहेगा। यह खतरनाक अहंकार है। यह पवित्र अहंकार है। यह साधारण आदमी के अहंकार से भी ज्यादा उपद्रव से भरा हुआ रोग है।
साधारण आदमी का अहंकार तो रोगग्रस्त है, अपवित्र है। उसे भी लगता है कि यह बीमारी जैसा है, छोड़ना है। नहीं छूटता, मजबूरी है। पर छोड़ने की आकांक्षा है।
पवित्र अहंकार वह साधु पुरुषों को उपलब्ध होता है। तप किया, ध्यान किया, धारणा की, समाधि को पाया, चेष्टा से उत्पन्न हुआ, श्रम से पाया, अपने ही प्रयास से पाया, तो बड़ा सघन और सूक्ष्म अहंकार निर्मित होता है।
अगर कृष्ण जरा—सा शब्दों में फर्क पाते, अगर अर्जुन जरा बदलकर बात कहता, जमीन— आसमान का अंतर हो जाता। अगर उसने इतना ही कहा होता, मेरा मोह नष्ट हो गया, तो अभी और चेष्टा करनी जरूरी थी। अभी मोह भला नष्ट हो गया हो, लेकिन अब इस नष्ट हुए मोह ने एक और नया अहंकार खड़ा कर दिया, कि मेरा मोह नष्ट हो गया।
आपकी कृपा से, तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया हे अच्यूत, और मुझे मेरी स्मृति प्राप्त हुई।
वह यह नहीं कहता कि मुझे कुछ नया मिल गया। जो मिला है, वह केवल स्मृति है, वह स्मरण है। जो मिला है, वह केवल याददाश्त है। जिसे मैं भूल गया था, जो मेरे भीतर था और जिसकी तरफ मेरी नजर न रही थी, तुमने मेरी दृष्टि को फेर दिया। तुमने मुझे याद दिला दी। तुमने मुझे मुझसे ही मुलाकात करवा दी, मुझे मुझसे ही मिला दिया।
पर तुम्हारे प्रसाद से हुआ है। अपने हाथ से तो मैं कभी भी यहां न पहुंच पाता। शायद जितनी मैं चेष्टा करता, उतनी ही स्मृति मुश्किल होती चली जाती।
अर्जुन कहता है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई। अब मैं पहचान गया अपने को। अब मुझे याद आ गई मेरे होने की। अपने ही अस्तित्व से मुलाकात हो गई। अब मैं अपने आमने—सामने खड़ा हूं।
और इसलिए अब मैं संशयरहित स्थित हूं......।
जिस दिन भी तुम्हें स्मरण आ जाता है कि तुम कौन हो, उसी क्षण सब संशय गिर जाते हैं। विस्मरण की अंधेरी रात में ही संशयों की बाढ़ उपजती है। स्मरण के प्रकाश में सब संशय ऐसे ही खो जाते हैं, जैसे दीया जल जाए, तो अंधेरा खो जाता है। सुबह सूरज उग आए, तो रात विदा हो जाती है, रात के तारे विदा हो जाते हैं। संशयरहित हुआ स्थित हूं..।
और अब मुझे कुछ करना नहीं पड़ रहा है स्थिर होने के लिए। अचानक मैं पाता हूं हे अच्युत, कि स्मृति क्या आ गई, मैं स्थित हो गया हूं। मेरी प्रज्ञा ठहर गई। अब दीए की लौ हिलता नहीं। तूफान आएं, आंधिया उठें, मेरे भीतर कोई कंपन नहीं हो रहा है। स्थित हुआ मैं अपने भीतर ठहर गया हूं।
यह गीता का लक्ष्य है, स्थितप्रज्ञ की अवस्था। जब चेतना थिर हो जाए; जैसे कोई दीए की लौ हो, और हवा के झोंके उसे कंपान सकें; थिर रहे, अकंप, निष्कंप।
और अब आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता हूं।
अब तक वह कहता था, मैं ऐसा करना चाहता हूं वैसा करना चाहता हूं। ये मेरे प्रियजन हैं, इन्हें मैं मारना नहीं चाहता। मैं त्याग करना चाहता हूं। मैं संन्यास लेना चाहता हूं। पहली बार उसने कहा कि अब मैं थिर हुआ; स्मृति मुझे आ गई, अच्यूत; अब तुम्हारी आज्ञा। अब तुम्हारी मर्जी। अब तुम जो कहो। अब मुझे रत्तीभर भी प्रश्न नहीं है। तुम जो कहोगे, वह ठीक है या गलत, यह सवाल नहीं है। अब तुम जो कहोगे, वह ठीक ही है।
यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। जब तक ऐसी दशा न आ जाए तब तक गुरु से मिलन नहीं। जब तुम ऐसा न कह सको कि अब तुम जो कहोगे, वही ठीक है; अब ठीक और गलत का कोई मापदंड तुम पर हम् लगा न करेंगे, अब तुम्हारा कहना ठीक, तुम्हारा न कहना गलत। तुम जो न कहो, वह गलत, तुम जो कहो, वह ठीक। तुम जो छोड़ दो, वह गलत, तुम जो इशारा करो, वह सही। अब तुम्हारा होना पर्याप्त है।
पर यह तभी होता है, जब स्वयं का स्मरण आ जाए। स्वयं की पहचान के साथ ही गुरु के भीतर की पहचान भी होती है।
अभी तक कृष्ण सखा थे, साथी थे, सारथी थे, हितेच्छु थे, मंगलकामी थे। मित्र थे और कल्याण चाहते थे। इस क्षण गुरु हुए।
इस घड़ी आकर अर्जुन शिष्य हो गया, इस घड़ी आकर रथ ही अर्जुन ने कृष्ण के हाथों में नहीं छोड़ा, अपने को भी छोड़ दिया, कि अब तुम मेरे भी सारथी हो गए। तुम मेरे घोड़ों को ही मत सम्हालो, अब मुझे भी सम्हालो। अब तुम मेरे रथ की ही लगाम मत पकडो, मेरी लगाम भी पकड़ लो।
अब मैं थिर हुआ। स्मरण को उपलब्ध हुआ। तुम्हें पहचान पाता हूं। तुम्हारी महिमा को देख पाता हूं तुम कौन हो। यह अपने को पहचानकर मैं तुम्हें भी पहचान गया हूं। अब मुझे कोई संशय नहीं है। अब तुम्हारी आज्ञा की प्रतीक्षा है।
जिस दिन शिष्य आज्ञा की प्रतीक्षा करता है, समर्पण हो गया। शिष्य उसी दिन शिष्य बनता है, और उसी दिन उसे गुरु में परमात्मा के दर्शन होते हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें