बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 14

 पात्रता और प्रसाद


अमक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।

नैष्कर्म्यतिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगव्छीत।। 49।।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाम्नोति निबोध मे।

समामेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या पर।।। 50।।

बुद्धया विशुद्धया युक्‍तो धृत्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्त्रिषयांस्‍त्‍यक्‍त्‍वा राग्द्धेशै व्युदस्य च।। 51।।

विविक्तसेवी लथ्वाशी यतवाक्कायमानस।

ध्यानयोगयरो नित्यं वैराग्य समुपाश्रित:।। 52।।

अहंकार बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुव्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 53।।


तथा हे अर्जुन, सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्‍पृहारहित और जीते हुए अंतकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात क्रियारहित हुआ शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा की प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसलिए हे कुंतीपुत्र, अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सच्चिदानंदधन ब्रह्म को प्राप्त होता है तथा जो तत्वज्ञान की परा— निष्ठा है, उसको भी तू मेरे से संक्षेय में जान।

हे अर्जुन, विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला तथा मिताहारी जीते हुए मन, वाणी व शरीर वाला और दृढ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान— योग के परायण हुआ सात्‍विक धारणा से अंतःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग—द्वेष की नष्ट करके तथा अहंकार, बल घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह, को त्यागकर ममता रहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है।


तथा हे अर्जुन, आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात क्रियारहित हुआ शुद्ध सच्चिदानंदघन परमात्मा की प्राप्तिरूप परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

कृष्ण को सभी स्वीकार है। उनके स्वीकार पर कोई शर्त और सीमा नहीं है। वे बड़े बेशर्त आदमी हैं। वे कहते हैं, संन्यास की कोई जरूरत नहीं है अर्जुन। तू जहां है, वहीं कर्म को करते हुए, फलाकांक्षा के त्याग से त्याग सिद्ध हो जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जो संन्यास ले लेते हैं, दूर हिमालय में खो जाते हैं, स्वर्ग में चले जाते हैं, उन्हें परमात्मा नहीं मिलता।

हम जल्दी ही धारणाएं खड़ी कर लेते हैं। एक तरफ लोग हैं, जो कहते हैं, जब तक संन्यस्त होकर सब न छोड़ दोगे, तब तक मोक्ष न मिलेगा। इनके विपरीत दूसरी तरफ लोग हैं, वे कहते हैं, संन्यस्त का सवाल ही क्या है! संसार में ही रहना है। कर्म करना है, परमात्मा पर कर्ता — भाव छोड़ देना है। बस, मोक्ष मिल जाएगा।

जो दूसरी बात मानते हैं, उनको संन्यासी गलत मालूम होता है। जो पहली बात मानते हैं, उनको दूसरा आदमी गलत मालूम होता है। कृष्ण का कोई भी पक्षपात नहीं है। कृष्ण कहते हैं, कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जिनसे परमात्मा संन्यास ही करवाना चाहता है। 

तो कृष्ण कहते हैं, संन्यासी भी उपलब्ध हो जाता है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तू ऐसा मत सोच लेना कि संन्यासी उपलब्ध होता ही नहीं। उपलब्ध होने का सूत्र न तो संन्यास है, न गृहस्थ है। उपलब्ध होने का सूत्र फलाकांक्षा का त्याग है। फिर चाहे तुम घर में फलाकांक्षा का त्याग कर दो, अगर तुम्हें घर मौजूं आए।

कुछ लोग हैं, जिन्हें बेघर होना ही मौजूं आता है। वह उनके स्वभाव में है। वह उनका स्वधर्म है। उनको भी रोकना उचित नहीं है। वे जब तक बेघर न हो जाएं, तब तक उन्हें ठीक ही न लगेगा। वे स्वभाव से बेघर, स्वभाव से परिव्राजक, भटकने वाले हैं। उनको घर में बांध दोगे, तो मौत हो जाएगी। उनके लिए घर कारागृह मालूम होगा।

जैसे संसार में स्त्रियां हैं और पुरुष हैं; दोनों विपरीत हैं, दोनों भिन्न हैं, दोनों के जीवन—कोण और मनस अलग—अलग हैं। ऐसे ही जीवन में हर पहलू पर विपरीत लोग हैं। कुछ हैं, जो गृहस्थ हैं। कुछ हैं, जो संन्यस्त हैं। वह उनके स्वभाव में है।

तो सारे लोगों को जबरदस्ती संन्यासी बना दो, तो उपद्रव होगा, क्योंकि उसमें कई गृहस्थ फंस जाएंगे। अगर गृहस्थ को तुमने संन्यासी बना दिया, वह जल्दी ही संन्यास में भी गृहस्थ— धर्म को उपलब्ध हो जाएगा। वह जल्दी ही अपने संन्यास को भी घर बना लेगा। वहां भी सारी दुनिया धीरे— धीरे, धीरे— धीरे आ जाएगी; बच न सकेगा। उसका कोई उपाय नहीं है। उसके गृहस्थ का सूत्र उसके भीतर है। बचने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम उसे जहां बैठा दोगे, वहीं वह अपना काम शुरू कर देगा।

संसार में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनको हम गृहस्थ कहें; और एक, जिनको हम संन्यस्त। वे स्त्री—पुरुषों जैसे ही हैं। उन दोनों का तालमेल है।

और संन्यस्त को भी अगर जीना हो, तो उसको भी कुछ गृहस्थ चाहिए। 

मेरे देखे, संसार में दो तरह के लोग हैं, संन्यस्त और गृहस्थ। अगर तुम संन्यासी को घर में भी रख दो, तो थोडे दिन में घर आश्रम जैसा हो जाएगा। क्योंकि वह ज्यादा धन कमा नहीं सकता; वह दौड़ ही उसके भीतर नहीं है, वह स्पृहा नहीं है। कुछ मिल भी जाएगा, तो बांट आएगा। बांटने में ज्यादा रस है, इकट्ठा करने में रस कम। संन्यासी को घर में रख दो, तो घर थोड़े दिनों में आश्रम और धर्मशाला की शक्ल ले लेगा। गृहस्थ को तुम मंदिर में बिठा दो, थोड़े दिन में पाओगे, मंदिर दुकान हो गया। क्योंकि हमारे भीतर बीज हैं।

और बड़ी कठिनाई यह है कि अक्सर विपरीत में आकर्षण होता है। जो गृहस्थ है, उसको आकर्षक लगता है संन्यासी। जो संन्यस्त है, उसको आकर्षक लगता है गृहस्थ। और यह विपरीत का आकर्षण भटका देता है। अपने को ठीक से पहचानना जरूरी है कि मेरी वृत्ति क्या है, मेरा स्वभाव क्या है, मेरा गुणधर्म क्या है।

इसको ही कृष्ण स्वधर्म की पहचान कहते हैं। वे कहते हैं, स्वधर्मे निधन श्रेय: —अपने धर्म में मर जाना बेहतर है।

इसका यह मतलब मत समझना कि हिंदू रहकर मर जाना बेहतर, कि मुसलमान रहकर मर जाना बेहतर। इससे इन धर्मों का कोई संबंध नहीं है। स्वधर्म का अर्थ है जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी प्रकृति है, उसमें मर जाना भी बेहतर है। क्योंकि प्रकृति को तृप्त करते अगर तुम मरे, तो मृत्यु भी महाशांति और महासंतोष और समाधि बन जाती है।

और परधर्म बहुत भयावह है, कृष्ण कहते हैं, कि दूसरे धर्म में चाहे कितना ही आकर्षण मालूम पड़े, वह तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे स्वभाव से मेल नहीं खाता। उसमें उलझना मत, अन्यथा तुम अड़चन में पड़ जाओगे। तब तो जीए भी, तो भी कष्ट ही रहेगा। पूरा जीवन नर्क हो जाएगा।

लेकिन कृष्ण पक्षपाती नहीं हैं। वे कहते हैं, जहां तुम हो, जैसा तुम्हारा भाव है; अगर तुम कर्म में रहना सरल पाते हो, सुगम पाते हो, तो फलाकांक्षा छोड़ दो, काफी है। अगर तुम कर्म का त्याग ही सुगम पाते हो, तो कर्म का त्याग भी कर दो, लेकिन ध्यान रखना, कर्म के त्याग में भी फलाकांक्षा पैदा न हो, क्योंकि मूल बात फलाकांक्षा है।

कहीं संसार को त्यागकर मत बैठ जाना। कि अब मोक्ष मिला, अब मोक्ष मिला, अब मिलना चाहिए! फल मिलने में देर हो रही है! परमात्मा अभी तक क्यों द्वार पर नहीं आया! मैं इतना सब त्याग करके चला आया हूं!

सूत्र है, फलाकांक्षा का त्याग। चाहे घर में, चाहे संन्यास में, चाहे कर्म में, चाहे अकर्म में; चाहे बाजार में, चाहे हिमालय में, एक बात ध्यान रखना कि फलाकांक्षा छूट जाए, कर्ता का भाव छूट जाए।

हे अर्जुन, आसक्तिरहित, स्पृहारहित, जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष संन्यास के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है।

हे कुंतीपुत्र, अंतःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होता है तथा जो तत्वज्ञान की परा—निष्ठा है, उसको भी तू मुझसे जान।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त, एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, मिताहारी, जीते हुए मन, वाणी व शरीर वाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान—योग के परायण हुआ सात्विक धारणा से अंतःकरण को वश में करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग—द्वेषों को नष्ट करके, अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह को त्यागकर ममतारहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य होता है।

बहुत—सी बातें कृष्ण इस सूत्र में कहे हैं। जो आधारभूत हैं, उन्हें खयाल ले लें।

स्पृहारहित.......।

जिसकी दूसरे से कोई ईर्ष्या नहीं है। जब तक तुम्हारी दूसरे से कोई स्पृहा है, प्रतिस्पर्धा है, तब तक तुम इसी संसार की किसी चीज की खोज कर रहे हो। क्योंकि इस संसार मे चीजें कम हैं, चाहने वाले ज्यादा हैं। इसलिए हर चीज पर संघर्ष है।

परमात्मा में संघर्ष की कोई जरूरत नहीं है। चाहने वाले हैं ही नहीं; और परमात्मा बहुत है। और परमात्मा को एक चाहे, हजार चाहें, इससे परमात्मा खंडित नहीं होता। इसलिए स्पृहा की वहां कोई भी जरूरत नहीं है।

जहां तक स्पृहा है, वहां तक संसार है। तुम परमात्मा को सीधा ही चाहना। किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा का कोई प्रश्न मत उठाना। वहां इतना है कि सभी चाहें, तो भी पूरा न होगा।

उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। कितना ही उसमें से लेते जाओ, चुकेगा नहीं। इसलिए घबड़ाना मत और स्पृहा मत करना।

विशुद्ध बुद्धि से युक्त......।

विचार से भरी बुद्धि अशुद्ध बुद्धि है। बुद्धि तो है, लेकिन धुएं से दबी है। जैसे ज्योति जलती हो दीए की, और धुएं में घिरी हो। विशुद्ध बुद्धि का अर्थ है, जहां धुआं खो गया, विचार न रहे। सिर्फ ज्योति रह गई, सिर्फ बुद्धि का शुद्ध स्वरूप रह गया।

एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला.........।

और जैसे—जैसे व्यक्ति कर्ता का भाव छोड़ता है, विचार छोड़ता है, वैसे—वैसे उसके भीतर एकांत का उदय होता है।

अभी तो तुम सदा चाहते हो, दूसरा, भीड़, समाज। अकेले हुए कि डरे। अकेले हुए कि लगता है, क्या करें, क्या न करें! अकेले में ऊब आती है। अपने से साथ होने को तुम राजी ही नहीं हो। और जो अपने साथ होने को राजी नहीं है, वह परमात्मा के साथ न हो सकेगा। क्योंकि अंततः अपने साथ होना ही परमात्मा के साथ होना है। क्योंकि वह तुम्हारे आत्यंतिक जीवन का सारभूत अंग है। वह तुम्हारा केंद्र है।

एकांत, शुद्ध देश का सेवन करने वाला, मिताहारी, जीते हुए मन, वाणी और शरीर वाला, दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष........।

क्या है दृढ़ वैराग्य? कच्चा वैराग्य ऐसा वैराग्य है कि अभी तुमने राग की पीड़ा भी न पाई थी और छोड़ दिया संसार। जरा—सी कुछ अड़चन हुई और भाग खड़े हुए संसार से। यह कच्चा वैराग्य काम न आएगा। तुम वापस लौट आओगे। संसार तुम्हें बुलाता रहेगा। जीवन को ठीक से जान लेना, उसकी पीड़ा को पूरा ही भोग लेना, उसके दुख को रोएं—रोएं में उतर जाने देना, ताकि उसकी आकांक्षा शून्य हो जाए। जब कोई ठीक से जल जाता है संसार में, तभी परमात्मा के योग्य होता है।

दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरंतर ध्यान—योग के परायण हुआ......।

और करो तुम कुछ भी—उठो, बैठो, सोओ, चलो, चुप रहो, बोलो—पर ध्यान की सतत धारा भीतर बहती रहे, होश बना रहे। भोजन करो तो होशपूर्वक, राह पर चलो तो होशपूर्वक। ऐसे शराबी की तरह तुम्हारा जीवन न हो, मूर्च्छा न हो, जागा हुआ हो, जो भी तुम करो। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य के मनके में ध्यान समा जाए, ध्यान का धागा पिरो जाए। तो ही वह जो तत्वज्ञान की परा—निष्ठा है सच्चिदानंदघन ब्रह्म, वह उपलब्ध होता है।

अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह को त्यागकर ममतारहित और शांत हुआ सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के योग्य होता है।

परमात्मा तो इसी क्षण मिल सकता है; तुम तैयार नहीं हो।

लोग मुझसे पूछते हैं, परमात्मा को कैसे पाएं? मैं उनसे कहता हूं यह पूछो ही मत। तुम इतना ही पूछो कि हम परमात्मा के योग्य कैसे बनें। तुम जिस क्षण योग्य हो जाओगे, वह मिला ही हुआ है। लेकिन यह कोई पूछता ही नहीं कि हम परमात्मा के कैसे योग्य बनें। ऐसा तो हम मानकर ही चलते हैं कि हम तो योग्य ही हैं; परमात्मा कैसे मिले! और अगर नहीं मिलता, तो हम कहते हैं, परमात्मा है ही नहीं। होता तो मिलता।

परमात्मा के न मिलने से हमें यह बोध नहीं होता कि हो सकता है, हम पात्र न हों, योग्य न हों। अंधा कहता है, प्रकाश होगा ही नहीं, इसलिए मुझे दिखाई नहीं पड़ता। बहरा कहता है, शब्द होते ही न होंगे, संगीत है ही नहीं, इसीलिए तो मुझे सुनाई नहीं पड़ता।

तुम भी कहते हो, परमात्मा होगा ही नहीं, इसीलिए तो मुझे मिलता नहीं। अपने को तो तुम मान ही लेते हो कि आंख वाले हो, कान वाले हो, पात्र हो। वहीं भूल हो जाती है।

अगर परमात्मा न मिले, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं। अगर आनंद न मिले, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं। अगर जीवन में अमृत का स्वाद न आए, तो पूछना कि मैं कैसे पात्र बनूं।

यहीं से फर्क हो जाता है दर्शन और धर्म का। दार्शनिक खोज में निकल जाता है, परमात्मा है या नहीं। और धार्मिक अपनी पात्रता को निर्मित करने लगता है कि मैं पात्र हूं या नहीं। और दार्शनिक खोजता ही रहता है, कभी पाता नहीं; धार्मिक पा लेता है।

तुम्हारी पात्रता ही अंततः परमात्मा का मिलन बनेगी। वह तो मौजूद ही है। शायद तुम्हारी आंख के सामने, आंख के पीछे, आस—पास, सब तरफ उसने ही तुम्हें घेरा हुआ है।

कबीर ने कहा है कि मुझे बड़ी हंसी आती है यह देखकर कि मछली पानी में प्यासी है। चारों तरफ पानी ने घेरा हुआ है, फिर भी मछली प्यासी है।





तुम्हारे चारों तरफ वही है, जिसको तुम खोज रहे हो। तुम हाथ हिलाते हो, तो उसी में। तुम बोलते हो, तो उसी में। तुम चलते हो, तो उसी में। तुम सोते हो, तो उसी में। तुम उसी से आए हो, उसी में खो जाओगे। और पूछते हो, वह कहां है?

निश्चित ही, तुम्हारे पास वह संवेदनशील हृदय नहीं है, जो उसे पहचान ले, वह संवेदनशील आंख नहीं है, जो उसे देख ले, वह संवेदनशील हाथ नहीं है, जो उसे छू ले।

इसलिए तुम परमात्मा के संबंध में प्रश्न ही मत उठाना, अपनी पात्रता के संबंध में ही प्रश्न उठाना। और जिसने भी अपनी पात्रता के संबंध में प्रश्न उठाया, वह एक दिन परमात्मा को पाने वाला हो ही गया। और जो परमात्मा के संबंध में पूछता रहा, एक न एक दिन उसे यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि परमात्मा नहीं है। क्योंकि जब तुम खोजोगे, न पाओगे; खोजोगे, न पाओगे; हर तरह से उपाय करोगे, न पाओगे; अंततः नास्तिकता हाथ लगेगी। ईश्वर पर ध्यान दिया, तो नास्तिक हो जाओगे। अपने पर ध्यान दिया, तो आस्तिक होना सुनिश्चित है।

इसलिए कुछ ऐसे भी आस्तिक पृथ्वी पर हुए, जिन्होंने ईश्वर की बात ही न की; बुद्ध और महावीर ने चर्चा ही नहीं उठाई। उसकी कोई बात उठानी ही बेकार है। उन्होंने तो सिर्फ अपनी ही बात की। अपने को शुद्ध किया, निर्विकार किया, अपने भीतरी कुंवारेपन को उपलब्ध किया। उसी क्षण सब मिल गया।

बुद्ध से जब भी कोई पूछता है ईश्वर के संबंध में, वे कहते हैं, व्यर्थ के प्रश्न मत उठाओ। यह बकवास छोड़ो। यह बात करने की ही नहीं है। तुम तो अपनी बात करो। तुम्हारे पात्र को कैसे शुद्ध किया जाए, यही काफी है।

यहां पात्र तैयार हुआ नहीं, कि वहां घन घिरे नहीं, वर्षा हुई नहीं। क्षणभर की भी देरी नहीं होती।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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