मंगलवार, 17 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 2

 सात्‍विक, राजस और तामस त्‍याग


निश्चय श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।

त्यागो हि पुरूषव्‍याघ्र त्रिविध: संप्रकीर्तित: ।। 4।।

यज्ञदानतय:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। 5।।

एतान्ययि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्वा फलानि च ।

कर्तथ्यानीति मे पार्थ निशिचतं मतमुत्तमम्।। 6।।


परंतु हे अर्जुन, उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन। हे पुरूषश्रेष्ठ, वह त्याग सात्‍विक राजस और तामस, ऐसे तीनों प्रकार का ही कहा गया है।

तथा यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नही है, किंतु वह निःसंदेह करना कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ दान और तप, ये तीनों ही बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं। इसलिए हे पार्थ, यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म तथा और भी संपूर्ण श्रेष्ठ कर्म आसक्‍ति को और फलों को त्याग कर अवश्य करने चाहिए, ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।


परंतु हे अर्जुन, उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन।

कृष्‍ण कहते हैं, मेरे निश्चय को सुन। यह शब्द समझ लेने का है। बहुत कीमती है।

चित्त की दो दशाओं में निश्चय का भाव पैदा होता है। एक, जब तुम तर्क से, विचार से, मंथन से किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हो, तब भी लगता है, निश्चय हुआ। लेकिन वह निश्चय क्षणभंगुर है। नए तर्क आएंगे, और वह निश्चय डगमगा जाएगा। नई संभावनाएं होंगी, और वह निश्चय टूट जाएगा।

तो तर्क से जो निश्चय आता है, उसको निष्कर्ष कहो, निश्चय मत कहो। वह सिर्फ निष्कर्ष है, कनक्लुजन है, डिसीजन नहीं है। इसलिए वह हमेशा अस्थायी है।

— जैसे विज्ञान है। विज्ञान निष्कर्ष लेता है, निश्चय नहीं। न्यूटन ने कुछ खोजा, तो कुछ निष्कर्ष लिए। फिर आइंस्टीन ने उनको गलत कर दिया, खोज आगे बढ गई। आइंस्टीन न्यूटन का दुश्मन नहीं है। न्यूटन की खोज को ही आगे बढ़ाया। उसी खोज को आगे खींचने से पता चला कि बहुत—सी चीजें बदलनी पड़ेगी; वह निष्कर्ष बदलना पड़ा। आइंस्टीन के जाते ही दूसरे लोग आइंस्टीन को आगे खींच रहे हैं, निष्कर्ष बदल रहे हैं।

इसलिए विज्ञान कभी भी निश्चयात्मक रूप से कुछ भी न कह सकेगा। उसके निष्कर्ष बदलते ही रहेंगे।

तर्क कभी भी निश्चय पर नहीं पहुंचता। उसके सभी निश्चय निष्कर्ष होते हैं। फिर नया कोई तर्क उठा, फिर कोई नई घटना घटी, फिर से डावाडोल हो जाता है।

लेकिन कृष्ण यह नहीं कहते कि मैं तुझे अपना निष्कर्ष बताता हूं। वे कहते हैं, मैं तुझे अपना निश्चय बताता हूं। निश्चय हम उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें कोई बदलाहट न होगी, समय की धारा जिसमें कोई परिवर्तन न लाएगी। कुछ भी घट जाए, कैसी भी स्थितियां बदल जाएं, निश्चय नहीं बदलेगा।

निश्चय का अर्थ है, जिसे हमने तर्क के ऊहापोह से नहीं, बल्कि आत्म—जागरण से पाया है। अंधेरे में तुम टटोलते हो, उस टटोलने से तुम जो निष्कर्ष लेते हो, वह निष्कर्ष है। फिर रोशनी हो गई, उस रोशनी में तुम जो निष्कर्ष लेते हो, वह निश्चय है।

समझो कि राह पर तुमने देखा, तुम चले आ रहे हो, दूर तुम्हें दिखाई पड़ता है कि कोई खड़ा है, मालूम होता है कोई चोर, कोई शरारती छिपा है वृक्ष के नीचे। बिलकुल ठीक लगता है, निष्कर्ष तुमने ले लिया, घबड़ाहट भी आ गई। लेकिन मजबूरी है, राह से गुजरना ही पड़ेगा। तुमने अपने हाथ में डंडा भी सम्हाल लिया। तुम अपने निष्कर्ष के अनुकूल तैयार भी हो गए।

थोड़ी दूर आगे जाकर तुम पाते हो कि नहीं, यह कोई चोर नहीं है, यह तो पुलिसवाला है। निष्कर्ष बदल गया। तुमने अब डंडे को शिथिल छोड़ दिया। मस्ती से फिर चलने लगे। और पास गए, तो जाकर देखा, वहां पुलिसवाला भी नहीं है, वह तो सिर्फ बिजली का खंभा है।
परिस्थिति बदलती है, निष्कर्ष बदल जाते हैं। क्योंकि नई परिस्थिति के अनुकूल निष्कर्ष को होना चाहिए। लेकिन निश्चय नहीं बदलता। निश्चय परिस्थिति पर निर्भर ही नहीं है, नहीं तो बदलेगा। निश्चय तो आत्मनिर्भरता है। तुम अपने भीतर इतने इकट्ठे हो गए हो, एकजुट हो गए हो; तुमने भीतर एक ऐसी योग की स्थिति पा ली है, एक ऐसी समाधि पा ली है, एक ऐसा समाधान मिल गया है, अब कोई भी बदल न सकेगा।

विज्ञान निष्कर्ष तक पहुंचता है, धर्म निश्चय तक। विज्ञान संदेहों को हल करके निष्कर्ष लेता है। धर्म संदेह से मुक्त होकर निश्चय लेता है। विज्ञान में संदेह मौजूद ही रहता है, छिपा रहता है भीतर, परदे की आड़ में। धर्म में संदेह की मृत्यु हो जाती है, लाश निकल जाती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन। मैं कोई पंडित की तरह नहीं बोल रहा हूं कृष्ण उससे कह रहे हैं। मैं कोई विचारक की तरह नहीं बोल रहा हूं। यह मेरे जीवन का निश्चय है। ऐसा मैंने जाना है।

एक अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में बोले, तो वह निष्कर्ष से ज्यादा कभी नहीं हो सकता। क्योंकि अनुभव तो उसका कोई भी नहीं है। और एक आंखों वाला आदमी प्रकाश के संबंध में बोले, तो वह निश्चय है। और सारी दुनिया भी उससे कहे कि तुम गलत हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जो अनुभव से जाना गया है, उसमें अंतर नहीं आता। अनुभव शाश्वत की उपलब्धि है।

और हम उसी को सत्य कहते हैं, जो शाश्वत है, सनातन है। इसलिए विज्ञान के पास ज्यादा से ज्यादा परिकल्पनाएं हैं, हाइपोथीसिस हैं, सत्य नहीं। सत्य तो केवल धर्म की अनुभूति है।

हे अर्जुन, मेरे निश्चय को सुन। हे पुरुषश्रेष्ठ.......

अर्जुन को कृष्ण बार—बार पुरुषश्रेष्ठ कहते हैं, बड़े भाव से कहते हैं।
शिष्य जितना ज्यादा झुकता जाता है, उतना ही श्रेष्ठ होता जाता है। यह विरोधाभास है। तुम सोचते हो, जितने अकड़े खड़े रहेंगे, उतने ही श्रेष्ठ हो जाएंगे। गुरु के सामने तुम जितने अकड़ते हो, उतने ही निकृष्ट सिद्ध होते हो। वहां तो झुकना ही कला है। वहा तो तुम जितने झुकते हो, उतने ही श्रेष्ठ होते चले जाते हो। वहां तो तुम बिलकुल झुक जाते हो, तो तुम श्रेष्ठता की आखिरी परम सीमा हो जाते हो।

अर्जुन पुरुषश्रेष्ठ है। वह झुकता जा रहा है, प्रतिपल झुकता जा रहा है। और पुरुषश्रेष्ठ इसलिए भी है कि अब उसने संन्यास और मोक्ष की जिज्ञासा की है। वह पुरुषश्रेष्ठ ही करते हैं। निकृष्ट पुरुष धन के बाबत पूछता है।

पुरुष जब श्रेष्ठ चित्त से भरता है, तो उसकी जिज्ञासा मोक्ष की होती है। वह कहता है, मुक्त कैसे हो जाऊं? देख लिया संसार, जान लिया संसार, दुख के अतिरिक्त कुछ भी न पाया, पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी न मिला। काटे ही काटे थे। फूल सिर्फ आश्वासन थे; आते कभी न थे, दूर दिखाई पड़ते थे; पास पहुंचने से सब काटे ही सिद्ध होते थे।
संसार से, संसार की पीड़ा से जो ऊब गया, जाग रहा है, वही पूछता है, मुक्त कैसे हो जाऊं? वही पूछता है, संन्यास क्या है? त्याग क्या है? हे कृष्ण, मुझे साफ—साफ करके बता दें।

हे पुरुषश्रेष्ठ, वह त्याग सात्विक, राजस और तामस, ऐसे तीन प्रकार का कहा गया है।

कृष्ण सांख्य के गणित को पूरा का पूरा स्वीकार करते हैं। और हर चीज तीन प्रकार की है, तो त्याग भी तीन प्रकार का होगा, संन्यास भी तीन प्रकार का होगा।

एक तो वह आदमी है, जो त्याग करेगा, लेकिन उसके कारण तामसिक होंगे। अनेक लोग सिर्फ आलस्य के वश त्यागी हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि त्यागी हो गए, फिर समाज खिलाता—पिलाता है, फिक्र लेता है, फिर खुद कुछ करना नहीं पड़ता। जिनको कुछ नहीं करना है, जिनका प्रमाद गहरा है, वे त्याग कर लेते हैं!
भारत में सौ संन्यासियों में से निन्यानबे तामसी मिलेंगे। बड़ी संख्या है उनकी। कोई पचपन लाख संन्यासी हैं भारत में। अब अगर पचपन लाख संन्यासी सात्विक हों, तो इस पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आए। तामसी हैं, छोड़ने में रस नहीं है, पकड़ने की चेष्टा करने की इच्छा न थी। उतनी भी इच्छा न थी कि कुछ करें। निष्कि्रय हैं, अकर्मण्य हैं। मुफ्त खाने मिल जाए, पीने मिल जाए, तो बस यही उनके जीवन का परम लक्ष्य है। इस तरह का तमस त्याग कहां ले जाएगा!

फिर कुछ लोगों का त्याग राजस है। राजस का अर्थ है, जो उन्होंने जबरदस्ती किया है। एक तरह की हिंसा है उसमें, ऊर्जा है। राजस व्यक्ति या तो दूसरे को दबाए या अपने को दबाए दबाएगा जरूर। उसका सारे जीवन का ढंग हिंसा का है। अगर वह दूसरों को न दबा सके, तो अपने को दबाएगा। अगर वह दूसरों पर मालकियत सिद्ध न कर सके, तो अपने पर मालकियत सिद्ध करेगा।

तो राजस व्यक्ति भी त्याग कर सकता है, लेकिन उसके त्याग में हिंसा होगी। वह अपने को सताएगा। वह अपने पर मालकियत करने की कोशिश करेगा। वह अपने शरीर के साथ ऐसा व्यवहार करेगा, जैसे शरीर कोई दूसरा है। वह खड़ा रहेगा, जब शरीर को बैठना था। वह भूखा रहेगा, जब शरीर को भूख लगी थी। जब प्यास लगी थी, तब वह प्यासा रहेगा। वह काटों पर लेटेगा। वह सब तरह से शरीर को सताएगा। वह मजा वही ले रहा है, जो वह दूसरे को सताने में लेता। यह त्याग भी कहां ले जाएगा! यह त्याग भी हिंसा है।

फिर एक सात्विक त्याग है, संतुलन का, सत्व का, समता का, बोध का, सम्यकत्व का, कि तुम्हारी समझ बढ़ी, तुमने जीवन को जाना—पहचाना। न तो तुम अकर्मण्यता के कारण छोड्कर भागते हो; न तुम भागने में मजा है, क्योंकि भागने में दौड़ है, इसलिए भागते हो। तुम्हारा संन्यास तुम्हारे बोध की एक परिपक्व दशा है। तुम्‍हारी समझ का ही परिणाम है।

तुमने देखा कि संसार में कुछ पकड़ने जैसा नहीं है, क्योंकि सभी छूट जाएगा। जो छूट ही जाना है, उसे पकड़ना क्या? जो छूट ही जाना है, वह छूट ही गया है। तुमने दौड़कर भी देख लिया और पाया कि कोई मंजिल नहीं आती; यह संसार कोल्हू के बैल की तरह है, दौड़ बहुत, पहुंचना नहीं होता। तुमने दौड़ भी छोड़ दी।

अब तुम एक सम्यकत्व में थिर हो गए हो। तुम्हारे जीवन में एक अनअतिशय का भाव पैदा हुआ है। न तो तुम इस तरफ डोलते हो, न तुम उस तरफ डोलते हो, तुम मध्य में ठहर गए हो। घड़ी का पेंडुलम जैसे बीच में रुक गया है। न बाएं जाता, न दाएं जाता। क्योंकि कहीं जाने में कोई सार नहीं है। होने में सार है, जाने में सार नहीं है। दौड़ने में सार नहीं है, रुकने में सार है। कहीं पहुंचना नहीं है; जहां हो, वहीं पूरी तरह हो जाना है। स्वयं में थिर होना है। ऐसा जो संन्यास है, वह सात्विक है।

हे पुरुषश्रेष्ठ, वह त्याग, वह संन्यास तीन प्रकार का कहा गया है। तथा यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं हैं। वे निःसंदेह ही करने चाहिए, उनका करना कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप, ये तीनों ही बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं। इसलिए हे पार्थ, यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म तथा और भी संपूर्ण श्रेष्ठ कर्म आसक्ति और फलों को त्यागकर अवश्य करने चाहिए, ऐसा मेरा निश्चित उत्तम मत है।

कृष्ण कहते हैं, यज्ञ, दान और तप, इन्हें भी छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। कृष्ण एक संतुलन बिठा रहे हैं लोक में और परलोक में। कृष्ण इस संसार के विरोध में नहीं हैं और उस संसार के पक्ष में हैं।
यह थोड़ी नाजुक बात है। क्योंकि साधारणत: जो लोग परलोक के पक्ष में हैं, वे इस लोक के विपक्ष में होते हैं। जो लोग इस लोक के पक्ष में हैं, वे परलोक के विपक्ष में होते हैं। जो भौतिकवादी हैं, वे अध्यात्मवादी नहीं होते। जो अध्यात्मवादी हैं, वे भौतिकवादी नहीं होते।

कृष्ण भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दोनों हैं। पदार्थ और परमात्मा में किसी का तिरस्कार नहीं करना है। संसार में और मोक्ष में भी एक संतुलन साध लेना है। यह गहरे से गहरे संतुलन की बात है।
कृष्ण कहते हैं, इसलिए संसार में जो कर्तव्य है, उसे छोड्कर भाग जाना उचित नहीं। भागकर भी जाओगे कहां? संसार ही पाओगे, जहां भी भागकर जाओगे। कर्म को छोड़ोगे भी कैसे श्वास छोड़ना भी कर्म है। पलायन करोगे, वह भी कर्म होगा; आख बंद करके बैठोगे, वह भी कर्म होगा। बैठना भी कर्म है।

तो कर्म से तो भाग नहीं सकते। जब तक जी रहे हो, श्वास चलती है, कर्म चलता ही रहेगा। तब फिर ध्यान रखो कि जो कर्म हो, वह यज्ञरूप हो, वह दूसरे के हित के लिए हो। तुम्हारी श्वास भी चले, तो दूसरे के हित के लिए चले, वह स्वार्थ के लिए न चले। दानरूप हो। दूसरे को देने के लिए तुम्हारी चेष्टा हो, छीनने की चेष्टा न हो। तपरूप हो। तुम जो करो, वह स्वयं को निखारने और शुद्ध करने के लिए हो, अशुद्ध करने के लिए न हो।

तो कहीं कुछ भागने की जरूरत नहीं है। करने का इतना ही है कि हे पार्थ, यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म और भी संपूर्ण श्रेष्ठ कर्म आसक्ति को छोड्कर और फल की आकांक्षा को छोड्कर किए जाएं।
तुम किसी की सेवा करो, तो धन्यवाद भी मत मांगना। अन्यथा सेवा व्यर्थ हो गई। तुम तपश्चर्या करो, तो परमात्मा की तरफ शिकायत से मत देखते रहना कि मैं इतनी तपश्चर्या कर रहा हुं, अभी तक कुछ हुआ नहीं! तपश्चर्या को तुम आनंद मानकर करना। तुम अगर दान दो, तो तुम देने में सुख लेना। देने के पार और देने के बाद तुम्हारी कोई आकांक्षा न हो।

इसीलिए तो गुप्तदान को श्रेष्ठतम दान कहा गया है, कि जिसको दिया है, उसे धन्यवाद देने का भी मौका न मिले, उसे पता ही न चले कि किसने दिया है। और देने वाले को इतनी भी आकांक्षा न हो कि जब राह पर, जिसे उसने दिया है, वह मिले, तो नमस्कार करे, कि अखबार में खबर छपे, कि रेडियो पर घोषणा हो।

आकांक्षा फल की बताती है कि तुम्हारे जीवन में साधन और साध्य अलग—अलग हैं; साधन अभी और साध्य भविष्य में। और योग का सार सूत्र यही है कि साधन ही साध्य हो जाए। यह वर्तमान क्षण ही तुम्हारा सारा भविष्य हो जाए। आज ही सब समा जाए; इस कृत्य में ही सारा समाविष्ट हो जाए, इसके पार कोई आकांक्षा न हो। जिस दिन साधन ही साध्य हो जाता है और जिस दिन कदम ही मंजिल हो जाती है, जिस दिन तुम जहां बैठे हो, वहीं होना मोक्ष हो जाता है, उसी दिन पा लिया।

कृष्ण की पूरी प्रक्रिया कर्मत्याग की नहीं, फलाकांक्षा के त्याग की है। और फलाकांक्षा का त्याग वही कर सकता है, जिसने बड़ी सात्विक प्रौढ़ता को पाया हो।

फलाकांक्षी का त्याग तामसी नहीं कर सकता। क्योंकि तामसी तो कर्म का त्याग कर सकता है, फल का त्याग नहीं कर सकता। तामसी की आकांक्षा क्या है? वह कहता है, फल तो सब मिलने चाहिए, कर्म कुछ भी न करना पड़े। यह तामसी की आकांक्षा है। वह कहता है, बैठे—बैठे मिल जाए, तो हम राजी हैं।

 प्रमादी कर्म नहीं करना चाहता। इसे तुम ठीक से समझ लो। प्रमादी कर्म नहीं करना चाहता, फल चाहता है। सत्व को उपलब्ध व्यक्ति कर्म करता है, फल नहीं चाहता। एक छोर है प्रमाद, निम्नतम। दूसरा छोर है श्रेष्ठतम, सत्व। और मध्य में जो राजसी है, उसकी दशा बड़ी अलग है। उसे कर्म करने में ही मजा आता है, क्रिया में ही मजा आता है। उसमें इतनी ऊर्जा है, इतनी शक्ति है कि वह दौड़— धूप करने में रस लेता है। अगर उसे दौड़— धूप करने को न मिले, तो परेशानी होती है।

जैसे तामसी उठ नहीं सकता, वैसे राजसी बैठ नहीं सकता। जैसे तामसी को सुबह बिस्तर से उठने में भारी अड़चन आती है, संसार का सारा कष्ट आता है, वैसे राजसी को रात बिस्तर पर जाने में भारी कष्ट आता है। राजसी की रात लंबी होती जाती है, वह जागता है दो बजे, तीन बजे तक। कुछ नहीं तो नाचता है, होटल में, क्लब में, कहीं भी समय बिताता है। ताश खेलता है, कुछ करना है! उसके भीतर इतनी बेचैनी है कि उस बेचैनी को न निकाले, तो वह सम्हाल न सकेगा।
तामसी पड़ा रहता है, उसे उठने में अड़चन है।

राजसी उन्मत्त है ऊर्जा से। जरूरत से ज्यादा शक्ति है। भागेगा, दौड़ेगा, जमानेभर की राजनीति करेगा, उपद्रव खड़े करेगा, वह उसके बिना जी नहीं सकता।

राजसी का एक जगत है, उसका एक पागलपन है। वह दौड़ेगा, दौड़ेगा। उसे कहीं पहुंचना नहीं है, पहुंचने से कोई लेना—देना भी नहीं है। ऊर्जा है, बेचैनी है।

फिर सत्व को उपलब्ध व्यक्ति है, वह संतुलित है। वह उतना ही करता है, जितना करना जरूरी है। वह श्रम और विश्राम के बीच खड़ा है। वह सदा श्रम और विश्राम के बीच संतुलन को साधता है। उसका जीवन सम्यकत्व की धारा है। समत्व, अनतिशय, निरति, उसके सूत्र हैं। वैसा व्यक्ति ही आकांक्षा को छोड़ सकता है, फल की आसक्ति को। वैसा व्यक्ति ही अपने अहंकार को छोड़ देता है। क्योंकि जब तुम फल की आकांक्षा नहीं करते, तुम्हारा अहंकार गिर जाता है।


बिना भविष्य के अहंकार जीएगा कैसे? भविष्य का सहारा चाहिए। वर्तमान में तो अहंकार होता ही नहीं। इस क्षण बोलो, कहां है तुम्हारा अहंकार? इस क्षण! इस क्षण तो भीतर सन्नाटा है। तुम खोजो भी, कहां हूं मैं? कहीं पाओगे न। कल है, बड़ा मकान बनाना है, बड़ी कार खरीदनी है; कल है अहंकार। चुनाव जीतना है। राष्ट्रपति होना है। कल है अहंकार। अभी इसी क्षण खोजोगे, पाओगे नहीं।

जितना भविष्य बड़ा बनाओगे, उतना बड़ा अहंकार है। या अतीत में है अहंकार। जो तुमने किया या जो तुम करोगे, उन दोनों में अहंकार है। लेकिन जो तुम हो, वहां कोई अहंकार नहीं है। तुम्हारा होना निरअंहकारपूर्ण है।

अस्तित्व की कोई अस्मिता नहीं है। अस्तित्व तो बस, है। बस, होना ही है।

इसलिए कृष्ण बार—बार सभी द्वारों से अर्जुन को समझाते हुए एक बात पर लौट आते हैं; वह उनके गीत की टेक है। वे बार—बार वह कडी पर लौट आते हैं, तू फलाकांक्षा छोड़ दे, और परमात्मा जो कराए तू कर। न तो तू अपनी तरफ से करने वाला हो, न अपनी तरफ से न करने वाला हो। न तो तामस, न राजस, परमात्मा जो कराए, तू कर। तू निमित्त मात्र हो जा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

 हरिओम सिगंल

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