रविवार, 15 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 17 भाग 2

 भक्‍ति और भगवान


सत्‍वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो वो यव्छुद्ध: स एव सः।। 3।।

यजन्ते सात्‍विका देवान्यक्षरक्षांति राजसाः।

प्रेतान्धूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ।। 4।।


हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरूष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।

उनमें सात्‍विक पुरूष तो देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य है, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।


हे भारत, कृष्ण ने कहा, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। उसमें सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षस को तथा अन्य जो तामस पुरुष हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।

मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है.......।

तुम्हारा अंतःकरण तमस से भरा हो, तो तुम्हारी श्रद्धा सात्विक नहीं हो सकती। क्योंकि श्रद्धा तो तुममें उगती है, तुम्हारे अंतःकरण की भूमि में ही वह बीज टूटता है, तुम्हारी भूमि ही उसे रसदान देती है, पुष्टि देती है, वह पौधा तुम्हारा है। तो तुम्हारा अंतःकरण कैसा है, वैसी ही तुम्हारी श्रद्धा होगी। अपने अंतःकरण की ठीक—ठीक पहचान तुम्हारी श्रद्धा की पहचान बन जाएगी।

इस सूत्र में कृष्ण साधक के लिए बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह रहे हैं। एक तो यह जानना जरूरी है कि तुम्हारा अंतःकरण कैसी दशा में है। ऐसा मत सोचना कि जो लोग तामसिक हैं, वे बिलकुल तामसिक हैं। शुद्ध तामसिक व्यक्ति हो ही नहीं सकता। शुद्ध तामसिक वृत्ति का व्यक्ति हो ही नहीं सकता। क्योंकि इन तीन के जोड़ के बिना कोई भी नहीं हो सकता।

इसलिए जब हम कहते हैं तामसी, तो हमारा मतलब सापेक्ष होता है, रिलेटिव होता है। हमारा मतलब होता है कि तामसी ज्यादा, राजसी कम, सात्विक कम। तमस का अनुपात ज्यादा है, इतना ही अर्थ होता है। कोई व्यक्ति पूर्ण तामसी नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो टूट जाएगा। होने के लिए तीनो ही आवश्यक हैं। इसलिए कोई व्यक्ति अगर तामसी होता है, तो समझो सत्तर परसेंट तामसी है, उनतीस परसेंट राजसी, एक परसेंट सात्विक। पर एक परसेंट सात्विक भी होना जरूरी है। नहीं तो, जैसे तीन पैर की तिपाई में से एक पैर निकाल लो, तिपाई फौरन गिर जाए; ऐसा व्यक्ति जी नहीं सकता, जिसका एक पैर गिर गया हो।

तुम तिपाई हो, वे तीनों गुण चाहिए; मात्रा कम—ज्यादा हो सकती है। यह हो सकता है कि एक टांग बिलकुल पतली हो तिपाई की, धागे जैसी हो, मगर उतनी जरूरी है। एक टांग बहुत मोटी हो, हाथी—पांव की बीमारी हो गई हो, यह हो सकता है। लेकिन टांगें तीन ही होंगी। 

तामसिक वृत्ति का व्यक्ति गहन तमस से भरा होता है, लेकिन दूसरे तत्व भी मौजूद होते हैं।

यह पहली बात समझ लेना कि कोई पूर्ण तामसी नहीं है, कोई पूर्ण राजसी नहीं है, कोई पूर्ण सात्विक नहीं है। शुद्धतम व्यक्ति में भी, बुद्ध में भी, जब तक उनकी देह नहीं छूट जाती, तमस की टांग रहेगी। पतली होती जाएगी; उलटा हो जाएगा अनुपात, तुम्हारी तमस की टांग हाथी—पांव है, बुद्ध की तमस की टांग, समझो मच्छड़ की टांग है। पर रहेगी; उतना अनुपात रहेगा। जब तक शरीर है, तब तक तीनों रहेंगे।




इसलिए बुद्ध ने निर्वाण की दो अवस्थाएं कही हैं। पहला निर्वाण, जब समाधि उपलब्ध होती है, लेकिन शरीर बचता है। वह पूर्ण निर्वाण नहीं है। जीवनमुक्त हो गया व्यक्ति, जंजीरें टूट गईं, लेकिन कारागृह मौजूद है। कैदी न रहा, जंजीरें नहीं हैं हाथ—पैर पर, यह भी हो सकता है कि जेलर प्रसन्न हो गया हो इस व्यक्ति से और इसने उसको कैदियों के ऊपर सुपरिनटेंडेंट या सुपरवाइजर बना दिया हो। बाकी है कारागृह के भीतर; अभी दीवालें मौजूद हैं। इतना प्रसन्न हो गया हो जेलर इसकी सात्विकता से कि इसको बाहर— भीतर आने की भी सुविधा हो गई हो; सब्जी खरीदने बाहर चला जाता हो, इसके भागने का डर न रहा हो। लेकिन इसे भी लौट आना पड़ता है। कभी—कभी घर के लोगों से भी मिल आता हो, गपशप भी कर आता हो, लेकिन फिर भी लौट आना पड़ता है।

अभी इसकी नाव भी शरीर के किनारे से ही बंधी रहेगी। इसकी स्वतंत्रता बढ़ गई, बहुत बढ़ गई। यह करीब—करीब ऐसा स्वतंत्र हो गया है, जैसा कि कारागृह के बाहर के लोग हैं; लेकिन करीब—करीब। जरा—सी बात तो अभी अटकी है, अभी शरीर से बंधा है। इसको हम जीवनमुक्त कहते हैं, क्योंकि यह निन्यानबे प्रतिशत मुक्त है। कुछ बचा नहीं, सब हो गया है। सिर्फ शरीर के गिरने की बात है।

इसलिए बुद्ध ने कहा, जब शरीर गिर जाता है, तब महापरिनिर्वाण, तब महासमाधि लगती है। जीवनमुक्त तब मोक्ष को उपलब्ध हो जाता, तब मुक्तत्व उसका स्वभाव हो जाता। अब दीवाल भी गिर गई, अब कारागृह न रहा; जंजीरें भी टूट गईं।

रजस से भरे व्यक्ति में भी तमस होता है, सत्य होता है। तीनों सभी में होते हैं। और तीनों सभी में होते हैं, इससे ही क्रांति की संभावना है। नहीं तो मुश्किल हो जाए। अगर कोई व्यक्ति पूरा ही तामसी हो, सौ प्रतिशत, चौबीस कैरेट तामसी हो, तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता, कोई उपाय न रहा। यह तो करीब—करीब लाश की तरह पड़ा रहेगा, कोमा में रहेगा, बेहोश रहेगा, क्योंकि होश के लिए भी थोड़ा रजस चाहिए। यह तो हाथ—पैर भी न हिलाएगा; यह तो आंख भी न खोलेगा; इसका तो जीना भी जीना न होगा, यह तो मुरदे की भांति होगा, जीते जी मुरदा होगा। नहीं, इसकी फिर कोई संभावना क्रांति की न रह जाएगी।

दूसरे तत्व मौजूद हैं, उनसे ही क्रांति का द्वार खुला है, उन्हीं के सहारे एक से दूसरे में जाया जा सकता है। जैसे तुम अंधेरे कमरे में बैठे हो, लेकिन छपरैल से, खपड़ों की संध से एक छोटी—सी सूरज की किरण भीतर आ रही है। सब घना अंधकार है, पर एक छोटी किरण अंधकार में उतर रही है। वही द्वार है। तुम उसी किरण के सहारे चाहो तो सूरज तक पहुंच जाओगे, चाहे वह दस करोड़ मील दूर हो। तुम उसी का किरण का अगर मार्ग पकड़ लो, तो तुम सूरज के स्रोत तक पहुंच जाओगे। वह गहन अंधकार पीछे छूट सकता है, यात्रा संभव है। इसलिए तीनों तत्व सभी में हैं, पहली बात समझ लेनी जरूरी है।

दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि तीनों तत्वों का अनुपात भी सदा थिर नहीं रहता। रात तमस बढ़ जाता है, दिन में रजस बढ़ जाता, संध्याकाल में सत्य बढ़ जाता है। इसलिए हिंदुओं ने संध्याकाल को प्रार्थना का क्षण समझा।

सुबह, जब रात जा चुकी और सूरज अभी नहीं उगा, वही ब्रह्ममुहूर्त है। उसको ब्रह्ममुहूर्त कहने का कारण है भीतर की गुण—व्यवस्था से। रात जा चुकी, पृथ्वी जाग गई, पक्षी बोलने लगे, वृक्ष उठ आए, लोग नींद के बाहर आने लगे, सारी पृथ्वी पर तमस का जाल सिकुड़ने लगा। सूरज करीब है क्षितिज के, जल्दी ही उसका किरण—जाल फैल जाएगा, जल्दी ही सब उठ बैठेगा, रजस पैदा होगा। सूरज के उगते ही काम— धाम की दुनिया शुरू होगी। अभी सूरज नहीं उगा, अभी रजस उगने को है। अभी रात गई, तमस जा चुका, मध्य की छोटी—सी घड़ी है, वह संध्या है।
संध्या का अर्थ है, बीच का काल, मध्य की घड़ी। उस मध्य की घड़ी में सत्व का प्रमाण ज्यादा होता है। वह दोनों के बीच की घड़ी है। इसलिए उस क्षण को ध्यान में लगाना चाहिए। क्योंकि अगर ध्यान सत्व से निर्मित हो, तो दूरगामी होगा। उस सत्व को अगर तुम ध्यान बनाओ, तो धीरे— धीरे तुममें सत्व बढ़ता जाएगा।
ऐसे ही सांझ को सूरज डूब गया, रजस का व्यापार बंद होने लगा, सूर्य ने समेट ली अपनी दुकान, द्वार—दरवाजे बंद करने लगा। रात आने को है, आती ही है, उसकी पहली पगध्वनिया सुनाई पड़ने लगीं। मध्य का छोटा—सा काल है, वह संध्या है। दुनिया के सभी धर्मों ने मध्य के काल चुने हैं। क्योंकि उस मध्य के काल में, जब दो तत्वों के बीच की थोड़ी—सी संधि होती है, तो सत्य का क्षण महत्वपूर्ण होता है।

तुम्हारे भीतर हो सकता है पचास प्रतिशत या साठ प्रतिशत तमस हो, तीस या चालीस प्रतिशत रजस हो, एक प्रतिशत सत्व हो, तो उस मध्यकाल में वह एक प्रतिशत प्रमुख होता है। और उसका अगर तुम उपयोग कर लो, तो ब्रह्ममुहूर्त का तुमने उपयोग कर लिया। इसलिए हिंदुओं के लिए तो प्रार्थना शब्द संध्या का पर्यायवाची हो गया। वे जब प्रार्थना करते हैं, तो वे कहते हैं, संध्या कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि उसका अर्थ क्या था!

इस्लाम में भी नियम है, सूरज उगने के समय, सूरज डूबने के समय, सूरज जब मध्य आकाश में हो, तब—ऐसी सूरज की पांच घड़ियां उन्होंने चुनी हैं। लेकिन दो घड़ियां वहा भी मौजूद हैं, सुबह
और सांझ। उन घड़ियों में सत्व तेज होता है। रात्रि तमस तेज हो जाता है, दिन रजस तेज हो जाता है।

तो तुम्हारे भीतर चौबीस घंटे अनुपात एक—सा नहीं रहता। 
जो आदमी समझदार है, वह अपनी जीवन—विधि को इस तरह से बनाएगा कि वह इन गुणों का ठीक—ठीक उपयोग कर ले। अगर तुम्हें कोई शुभ कार्य करना हो, तो संध्याकाल चुनना; तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। अगर कोई अशुभ कार्य चुनना हो, तो मध्य—रात्रि चुनना, तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। हत्यारे, चोर, सब मध्य—रात्रि चुनते हैं।

सुबह भोर के क्षण में तो चोर को भी चोरी करना मुश्किल हो जाएगा, हत्यारे को भी हत्या करना मुश्किल हो जाएगा, उसकी जीवन— धारा भिन्न होगी। भरी दोपहर में सब दफ्तर और दुकानें खुलती हैं दुनिया की; ग्यारह बजे, वह रजस का व्यापार है। बाजार धूम में होता है, जब सूरज आकाश में होता है। फिर सब क्षीण हो जाता है। रात्रि लोग क्लबघरों में इकट्ठे होते हैं, शराब पीने, नाचने वेश्याओं के घर—द्वार पर दस्तक देते हैं। तमस प्रगाढ़ है।

तुम कभी—कभी हैरान होओगे, सुबह जिसको तुमने भोर में प्रार्थना करते देखा, दोपहर में बाजार में तुम लोगों को लूटते देखोगे उसी आदमी को, उसी आदमी को रात तुम वेश्याघर में शराब पीते पाओगे। तुम बड़े हैरान होओगे कि बात क्या है! यह आदमी वही है?

तुम सोचोगे, इसकी प्रार्थना झूठी है। जरूरी नहीं। प्रार्थना सही रही हो। तुम सोचोगे, यह दुकान पर जो तिलक—चंदन लगाकर बैठता है, वह सब बकवास है। जब इसने तिलक—चंदन लगाया था, तब तिलक—चंदन का भाव रहा हो, झूठ मत समझना। तिलक—चंदन हटा नहीं, क्योंकि तिलक—चंदन तो चमड़ी पर लगा है। भीतर के तमस, रजस, सत्य का रूपांतरण हो गया।

तो दुकान पर यह आदमी बैठकर हरि बोल, हरि बोल भी करता रहता है और जेब भी काटता रहता है। जरूरी नहीं कि इसका हरि बोल सदा ही झूठ होता हो; कभी—कभी किन्हीं क्षणों में बिलकुल सच होता है। और यही आदमी रात वेश्याघर चला जाता है।
तुम भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है, आदमी एक नहीं है, तीन है। हर आदमी के भीतर कम से कम तीन आदमी हैं। तेरह होंगे, वह दूसरी बात है। मगर तीन तो हैं ही। कहावत है, जब कोई आदमी बिलकुल भ्रष्ट हो जाता है, तो लोग कहते हैं, तीन तेरह हो गए। तीन तो हैं ही, लेकिन अब तेरह हो गए; अब मामला ही खराब हो गया, अब सब खंड—खंड हो गया।

ठीक से अगर तुम अपने जीवन का निरीक्षण करो, तो तुम बहुत—सी बातें समझ पाओगे। प्रत्येक समझपूर्वक जीने वाले आदमी को अपने जीवन की निरंतर निरीक्षणा करते रहनी चाहिए और देखना चाहिए, किन क्षणों में शुभ प्रगाढ़ होता है। उन क्षणों का शुभ के लिए उपयोग करो। और उन क्षणों को जितना बढ़ा सको, बढ़ाओ। तुम्हारी भोर जितनी बड़ी हो जाए, उतना अच्छा। तुम्हारी संध्या जितनी लंबी हो जाए उतना अच्छा। और जो तुमने शुभ क्षण में पाया है, उसकी सुवास को दूसरे क्षणों में भी खींचने की कोशिश करो। तो ही रूपांतरण होगा; नहीं तो रूपांतरण न होगा।

फिर दिन के चौबीस घंटे में ही यह बदलाहट होती हैं, ऐसा नहीं; जीवन की हर घड़ी में! बच्चे में सत्व का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की भोर है। जवान में रज का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की आपा— धापी, बाजार है। बूढ़े में रजस और सत्य दोनों क्षीण हो जाते हैं, तमस बढ़ जाता है; क्योंकि वह मौत का आगमन है। मौत यानी पूर्ण तमस में गिर जाना।
अब यह बड़े मजे की बात है, लेकिन सभी बूढ़े दूसरों को शिक्षा देते हैं। वे बच्चों को भी चलाने की कोशिश करते हैं। होना उलटा चाहिए कि बुढ़े बच्चों के पीछे चलें। सांझ भोर का पीछा करे। इसलिए तो दुनिया उलटी है। यहां नाव नदी पर नहीं है, यहां नदी नाव पर है। बूढ़े बच्चों को चला रहे हैं; गलत हो रहा है। सांझ सुबह को चलाए, गलत हो जाएगा। बुढो को बच्चों का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि बच्चे निर्दोष हैं।

जीसस ने कहा है, जो बच्चों की तरह भोले— भाले होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।

बूढ़ा आदमी तो चालाक हो जाता है। हो ही जाएगा, जीवनभर का अनुभव, जीवनभर की दाव—पेंच, कलाएं, राजनीति, चालबाजियां—धोखे जो दिए, धोखे जो खाए—सब का अनुभव। बूढ़ा आदमी निर्दोष हो, बड़ा मुश्किल है, हो जाए, तो संत।
बच्चा निर्दोष होता है, लेकिन संत नहीं। सभी बच्चे निर्दोष होते हैं, वह स्वाभाविक है। वह कोई गुण नहीं है। क्योंकि बच्चों का संतत्व सब खो जाएगा। चौदह वर्ष के होंगे, कामवासना जगेगी, रजस पैदा होगा। सब भूल जाएंगे, सब निर्दोषता बच्चों की खो जाएगी।
तुमने कभी सोचा, सभी बच्चे जब पैदा होते हैं, तो सुंदर मालूम होते हैं। कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। और सभी लोग बड़े होते—होते कुरूप हो जाते हैं। शायद ही कोई आदमी सुंदर बचता है। क्या मामला है?

बच्चे सत्व को उपलब्ध होते हैं। अभी आ रहे हैं सीधे परमात्मा के घर से। अभी वह सुवास उनके शरीर को घेरे है। अभी—अभी पैदा हुए भोर का क्षण है, ब्रह्ममुहूर्त। बच्चे यानी ब्रह्ममुहूर्त। अभी प्रार्थना गूंज रही है; अभी मंदिर की घंटियां बज रही हैं; अभी तिलक ताजा है, अभी हाथों में लगे चंदन में गंध है; अभी—अभी आते हैं मूल स्रोत से, उत्स से। खो जाएंगे कल।

अगर दुनिया कभी समझदार होगी, तो बूढ़े बच्चों का अनुसरण करेंगे, उनसे सीखेंगे। उनका बालपन संतत्व की कीमिया है। और जब कोई बूढ़ा आदमी बच्चे जैसा हो जाता है, तो इस जगत में अनूठी घटना घटती है। जब कोई बूढ़ा आदमी बच्चे जैसा हो जाता है, तो इस जगत में अपूर्व सौंदर्य घटता है।

ऐसे बूढे आदमी के सौंदर्य की तुम कोई तुलना नहीं कर सकते, कोई जवान आदमी इतना सुंदर नहीं हो सकता। क्योंकि जवानी में बड़ा तनाव है, बेचैनी है, दौड़ है, उपद्रव है, आपा— धापी है। कैसे कोई जवान इतना सुंदर हो सकता है? तूफान है, आंधी है। बुढ़ापे में सब शांत हो गया। आंधी जा चुकी; तूफान विदा हो गया। तूफान के पीछे के क्षण हैं, जब सब शांत हो जाता है और एक सन्नाटा घेर लेता है।

अगर बूढ़े आदमी ने बचपन को फिर से पुनरुज्जीवित कर लिया, तो वह संत हो जाता है। नहीं तो वह महान तामसी हो जाता है। इसलिए बूढे आदमी बहुत तामसी हो जाते हैं। उनका जीवन करीब—करीब मुरदे जैसा हो जाता है। चिड़चिड़े, नाराज, हर चीज उनके लिए की जाए, कुछ करने को तैयार नहीं! हर चीज की अपेक्षा और हर चीज से शिकायत। कोई चीज तृप्त नहीं करती। सारा जगत असार मालूम पड़ता है; व्यर्थ मालूम पड़ता है। और आकांक्षा मरती नहीं, महत्वाकांक्षा जगी रहती है। 

तो जीवन में भी घड़ियां बदलती हैं, जब अनुपात बदल जाता है। और जीवन का ही सवाल नहीं है। अनुपात रोज भी बदल जाता है। परिस्थिति भी अनुपात को बदल देती है।

तुम दोपहर बड़ी दौड़ में थे। अचानक एक शुभ—संवाद किसी ने दे दिया, तत्‍क्षण भीतर की मात्रा में भेद हो जाता है। किसी ने शुभ—संवाद दे दिया, तुम्हारी दौड़ ठिठक गई; किसी ने खुशी की एक खबर दे दी, तुम प्रसन्न हो गए, तुम्हारे भीतर की मात्रा बदल गई। तुम भोर में बड़े सात्विक थे और किसी ने खबर दी कि कोई मर गया, उदासी छा गई, तमस ने घेर लिया।

तो प्रति क्षण परिस्थिति भी बदलती है। लेकिन ये सारी बातें तुम्हें अपने भीतर ठीक से स्वाध्याय करनी चाहिए, ताकि तुम इनका ठीक—ठीक उपयोग कर सको। और जो व्यक्ति अपने अनुपात को न तो परिस्थिति से प्रभावित होने देता है, न समय की धारा से प्रभावित होने देता है, न जीवन की अवस्थाओं से प्रभावित होने देता है, वही व्यक्ति साधक है।

इसलिए साधना बड़ी कठिन मालूम पड़ती है। जो भरी दोपहरी में ऐसा होता है, जैसे ब्रह्ममुहूर्त में कोई हो, जो बुढ़ापे में ऐसा होता है, जैसे बचपन में कोई हो, तब साधना का सूत्र शुरू होता है। पहले ठीक से निरीक्षण करो। फिर निरीक्षण को ठीक से सोचकर अपने जीवन की गति को बदलो। और गति बदलनी है इस भांति कि अति न हो जाए। तीनों की मात्रा समान हो जाए।

एक तिहाई हो तमस, वह जरूरी है। इसलिए चौबीस घंटे में आठ घंटे सोना जरूरी है, वह एक तिहाई तमस है। उससे कम सोओगे, नुकसान होगा, उससे ज्यादा सोओगे, नुकसान होगा। आठ घंटा सोना जरूरी है। आठ घंटा जीवन की दौड़—धूप जरूरी है। रजस, भागो—दौड़ो; महत्वाकांक्षा का विस्तार है। उसको भी अनुभव करो। क्योंकि गैर अनुभव के गुजर गए, तो पकोगे नहीं, पार न होओगे, अतिक्रमण न होगा। आठ घंटा व्यापार, व्यवसाय, दौड़— धूप। आठ घंटा सत्व—प्रार्थना, पूजा, ध्यान। ऐसा एक तिहाई, एक तिहाई जीवन को बांट दो।

अगर तुम्हारा सारा समय एक तिहाई, एक तिहाई की मात्रा में बंट जाए, तुम धीरे— धीरे पाओगे, यह अनुपात थिर हो जाता है। तब न तो रात में यह बदलता, न दिन में बदलता, न जवानी में, न बुढ़ापे में। यह अनुपात धीरे— धीरे, धीरे— धीरे थिर हो जाता है। इस थिरता का नाम ही सत्व की उपलब्धि है। क्योंकि जब तीनों समान होते हैं, तब तुम्हारे भीतर एक संगीत बजने लगता है अनजाना, जिसे तुमने पहले कभी नहीं सुना।

इसलिए मैं कहता हूं हिमालय मत भागना, क्योंकि वह कोशिश है चौबीस घंटे सत्व में जीने की। वह भी अतिशय है। इसलिए मैं संन्यासी को भी कहता हूं, घर में रहना। आठ घंटा संन्यासी, आठ घंटा दुकानदार। आठ घंटा निद्रा में पडे हैं, न संन्यासी, न दुकानदार। विश्राम भी तो चाहिए, संन्यास से भी, दुकान से भी! चौबीस घंटे संन्यासी बनने की कोशिश में भारत ने बहुत गंवाया। कि न तो वे संन्यासी संन्यासी हो पाए, क्योंकि वे हो नहीं सकते। उन्होंने कोशिश की कि तिपाई के दो पैर तोड़ दें और एक ही पैर पर खड़े हो जाएं; लंगड़ा गए। तो भारत का संन्यास बुरी तरह लंगड़ा गया और बुरी तरह धूल— धूसरित होकर गिरा। गरिमा पैदा नहीं हुई। संन्यासी संतुलित न रहा।

और तुम तोड़ नहीं सकते दूसरे दो पैर, क्योंकि जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं। पीछे के द्वार से वे प्रवेश कर गए। तो संन्यासी बाहर से दिखाएगा, उसकी कोई धन में उत्सुकता नहीं है, और भीतर से धन जोड़ेगा। बाहर से दिखाएगा, उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन विस्तार में मन लगा रहेगा। बाहर से दिखाएगा कि मेरे जीवन में कोई तमस नहीं है, लेकिन भीतर भयंकर तमस घिरा रहेगा।

भाग नहीं सकते, जीवन के नियम के विपरीत नहीं चल सकते। जीवन के नियम का उपयोग करो। समझदार वह है, जो जीवन के नियम का उपयोग करके जीवन के पार उठ जाता है। नासमझ वह है, जो जीवन के नियम को तोड़ने की कोशिश करके बाहर होना चाहता है। वह और उलझ जाता है।

संन्यास एक कला है संतुलन की।

हे भारत, सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है।

तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो। अगर तुम्हारी श्रद्धा आलस्य की है, तो तुम्हारा जीवन आलस्य की कहानी होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा रजस की है, महत्वाकांक्षा की है, दौड़ की है, तुम्हारा जीवन एक दौड़— भाग होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा सत्व की है, शांति की है, शून्य की है, शुभ की है, तो तुम्हारे जीवन में एक सुवास होगी, जो स्वर्ग की है, जो इस पृथ्वी की नहीं है। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो।
अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचान लो, क्योंकि न पहचानने से बड़ी जटिलता बढ़ती है। आदमी तो होता है आलसी, अंतःकरण आलसी। और आकांक्षा करता है उन सुखों को पाने की, जो राजसी को मिलते हैं। तुम मुश्किल में पड़ोगे। तुम्हारी श्रद्धा तुम हो। आदमी तो होता है राजसी, दौड़— धूप में पड़ा। और चाहता है, वह शांति मिल जाए, जो सात्विक को मिलती है। यह हो नहीं सकता।

दौड़ के लिए तो सदा दौड़ कायम रहती है। और की आकांक्षा तो सदा और की बनी रहती है।

अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचानो और अपनी श्रद्धा से भिन्न मत मांगो। अगर भिन्न मांगना है, तो अपनी श्रद्धा को रूपांतरित करो। अन्यथा तुम बड़ी बिगचन में पड़ जाओगे, भीतर बड़ा बेबूझ हो जाएगा; एक पहेली हो जाओगे।

सभी लोग पहेली हो गए हैं। लोग ऐसा सुख चाहते हैं, जो राजसी को मिलता है; और ऐसी शांति चाहते हैं, जो सात्विक को मिलती है; और ऐसा विश्राम चाहते हैं, जिसको आलसी भोगता है। बड़ी मुश्किल है; वे सभी एक साथ चाहते हैं। कुछ भी उपलब्ध नहीं होता।

भीतर को ठीक से पहचानो, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हारा जीवन है।

जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। और अगर तुमने ठीक से भीतर को पहचाना, तो तुम जल्दी ही यह समझ जाओगे कि तृप्ति किसी एक से नहीं हो सकती। उन तीनों का संयोग चाहिए। और तीनों के संयोग में ही तृप्ति फलती है, परितोष झरता है। और तीनों के संयोग से ही एक की प्रतीति शुरू होती है। और तीनों का संयोग धीरे— धीरे— धीरे तुम्हें उस एक की तरफ ले जाता है, जो गुणातीत है।

पाना तो उसे ही है, जो त्रिगुण के बाहर है। उस एक की ही खोज करनी है। तीनों पैरों को तुम एक ही अनुपात का बना लो, एक ही बल का, और तुम पाओगे कि तिपाई सध गई। तिपाई सध गई, कि सब सध गया। अब तुम तिपाई पर पैर रख सकते हो और एक की तरफ यात्रा शुरू हो सकती है।

जो सात्विक हैं, वे देवों को पूजते हैं......।

ये प्रतीक हैं। इन्हें भी खयाल में ले लो। जो सात्विक है, उसके मन की पूजा सत्व की तरफ होती है, स्वभावत:। क्योंकि तुम जो हो, और तुम जो होना चाहते हो, उसी का तुम्हारे मन में आदर होता है। अगर तुम राजनेता आता है और उसके स्वागत के लिए स्टेशन पर पहुंच जाते हो, तो भला तुम राजनीति में न हो, लेकिन उसके स्वागत की खबर बताती है कि तुम राजसी हो। मौका न मिला होगा तुम्हें उपद्रव में पड़ने का, जिंदगी में उलझन होगी, पत्नी है, बच्चे हैं, काम—धंधा है और तुम नहीं पड़ पाते, लेकिन दर्शन करने तुम राजनीतिज्ञ का पहुंच जाते हो। तुम्हारी श्रद्धा! कि फिल्म अभिनेता आया है, उसके पास भीड़ लगा लेते हो—तुम्हारी श्रद्धा। कि संन्यासी आया, और तुम उसके दर्शन को पहुंच जाते हो—तुम्हारी श्रद्धा। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हें संचारित करती है।

सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, दिव्यता को पूजते हैं।

दिव्यता का अर्थ है, जिनके जीवन में संगीत बजने लगा तीनों की एकता का। अभी वे एक को उपलब्ध नहीं हुए हैं; अभी यात्रा बाकी है, लेकिन बड़ा पड़ाव आ गया, तिपाई सध गई। उनके जीवन में स्वर्ग का संगीत बजने लगा। बाकी तो प्रतीक हैं कि स्वर्ग में देवता रहते हैं। ऐसा स्वर्ग कहीं नहीं है। यहीं जमीन पर तुम्हारे आस—पास रहते हैं। लेकिन तुम्हारी सत्य की श्रद्धा होगी, तो दिखाई पड़ेंगे। सत्व की श्रद्धा न होगी, तो दिखाई न पड़ेंगे। क्योंकि श्रद्धा आंख है।

तुम्हारे पास ही, हो सकता है कि तुम्हारे पड़ोस में कोई रहता हो; हो सकता है, तुम्हारे घर में रहता हो, हो सकता है, तुम्हारी पत्नी में हो; हो सकता है, तुम्हारे पति में हो। लेकिन सत्व की आंख होगी, तो दिखाई पड़ेगा। नहीं होगी, तो नहीं दिखाई पड़ेगा। अगर पति सात्विक हो जाए और पत्नी की आंख सत्व की न हो, तो उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा।

पति में अगर सत्व पैदा हो रहा है, तो पत्नी को दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उसकी श्रद्धा अभी रजस की है; वह कहती है, अभी थोड़े और गहने चाहिए। वह पति के ध्यान की कुर्बानी के लिए राजी है, अपने और थोडे गहनों की कुर्बानी के लिए राजी नहीं है। वह कहती है, अभी तो मकान बहुत छोटा है, थोड़ा मकान तो बड़ा हो जाने दो। अभी बैंक में बैलेंस है ही क्या! बुढ़ापे में क्या होगा? अगर कल पति को कुछ हो जाए, तो हम क्या करेंगे?

न तो पति की आत्मा से कोई मतलब है, न पति के जीवन से कोई मतलब है। अगर पति को कुछ हो जाए, इसकी चिंता है। तो बैंक में बैलेंस होना चाहिए, चाहे पति रहे, चाहे जाए। श्रद्धा रजस की है।

तो पति ध्यान करने बैठे, तो पत्नियां बाधा डालती हैं। अगर पत्नी में श्रद्धा पैदा हो जाए सत्व की, तो पति बेचैन हो जाता है। 
जो श्रद्धा होती है, वह दिखाई पड़ता है। ध्यान जैसी घटना घट रही हो, उसमें भी सौभाग्य नहीं मालूम पड़ता। पत्नी शांत हो रही है, इसमें भी पीड़ा लगती है।

तुम चकित होओगे, लोगों ने मुझसे आकर कहा है, पत्नियों ने कहा है कि पति अब क्रोध नहीं करते, इससे हमें हैरानी होती है। वे पहले क्रोध करते थे, तो ठीक था। अब ऐसा लगता है कि उन्हें उपेक्षा हो गई है। अक्रोध में उपेक्षा दिखती है। अक्रोध में एक घटना नहीं दिखती कि इस आदमी के जीवन में एक फूल खिला है, हम आनंदित हों। अक्रोध में दिखता है कि इस आदमी को अब रस नहीं रहा; इसलिए हम गाली भी दें, तो यह सुन लेता है। क्योंकि इसको कोई मतलब ही नहीं है। उपेक्षा से भर गया है यह आदमी।

और ध्यान रखना, लोग उपेक्षा पसंद नहीं करते, चाहे गाली दो, वे उसके लिए भी राजी हैं, कम से कम इतना रस तो रखते हो कि गाली देते हो। उपेक्षा बहुत काटती है। तटस्थ हो गए! उदासीन हो गए! पत्नी घबडाती है कि यह तो हाथ के बाहर चला आदमी। ऐसे उदास होते—होते एक दिन घर से भाग जाएगा; फिर हम क्या करेंगे? वह चाहती है कि पति नाराज हो, लड़े, मारे—पीटे, तो भी चलेगा, ध्यान न करे।

सत्य की श्रद्धा हो, तो ही सत्व दिखाई पड़ता है।

देवता का अर्थ है, जिनके जीवन में संतुलन आ गया, जिनके जीवन में सत्व ने ऐसी संतुलन की सुगंध दे दी कि जो अब करीब—करीब मुक्ति के किनारे खड़े हैं। स्वर्ग वह सीमा है, जहां से आदमी मोक्ष में छलांग मार ले। थोड़े अटके हैं, अटकाव यह है कि उनको अभी संगीत से ही रस पैदा हो गया है; इसको भी बड्वे की हिम्मत करनी पड़ेगी। यह सोने की जंजीर है, बड़ी प्यारी लगती है।
इसलिए हम देवताओं को मुक्त पुरुष नहीं कहते। और जब कोई बुद्ध पुरुष पैदा होते हैं, तो हमारे पास कथाएं हैं कि देवता उन्हें सुनने आते हैं कि हमें मुक्ति का मार्ग दें। उनको आना पड़ेगा, क्योंकि अब वे सत्व के सुख से बंध गए हैं। स्वर्ग भी बंधन है। बड़ा प्यारा बंधन है, बड़ी मिठास है उसमें, लेकिन है कांटा। कितनी ही मीठी पीड़ा देता हो, उसे भी निकाल देना होगा।

जिनकी सत्य की श्रद्धा है, वे देवों को पूजते हैं। वे जहां भी दिव्यता को पाएंगे, वहा उनका सिर झुक जाएगा।

जिनकी राजस श्रद्धा है, वे यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं। राक्षस का अर्थ है, जिसके जीवन में रजस प्रगाढ़ हो गया। सत्व और तम दोनों दब गए, बस रजस प्रगाढ़ हो गया।

बड़े राजनेता यानी राक्षस। तुम उस तरह सोचते नहीं अब, क्योंकि तुम इन प्रतीकों का अर्थ भूल गए। तुम सोचते हो, रावण राक्षस था। किसलिए? सफल से सफल राजनीतिज्ञ था! स्वर्ण की लंका बसा दी थी। और क्या चाहिए सफल राजनीतिज्ञ के लिए? तुम्हारे सफल राजनीतिज्ञ मिट्टी के घर भी तो नहीं बसा पाते हैं लोगों के लिए; भूखा मरता है समाज। लेकिन लंका में स्वर्ण का बसा दिया था नगर। और कैसा सफल राजनीतिज्ञ चाहिए?

रावण सफल से सफल राजनीतिज्ञ था, कुशल से कुशल कूटनीतिज्ञ था; प्रगाढ़ शक्तिशाली था। दौड़ उसकी महान थी। कथा तो यह है कि अगर उसे न हटाया गया होता स्वयंवर से, तो उसने सीता को जीत लिया होता; राम खाली हाथ घर वापस लौटे होते। उसे हटाया गया। डर था। क्योंकि वह इतना कुशल राजनीतिज्ञ था और इतना शक्तिशाली था कि एक सिर नहीं था उसके; उसके दस सिर थे। सभी राजनीतिज्ञों के होते हैं। एक चेहरा नहीं, दस!

सभी राजनीतिज्ञ दशानन हैं। उनका कुछ पक्का नहीं है कि वे कौन—सा चेहरा तुम्हें दिखा रहे हैं। जब जैसी जरूरत हो, वे वैसा चेहरा दिखाते हैं। जब वोट मांगनी हो, तो मुस्कुराते हैं—एक चेहरा। जब वोट मिल गई, तब वे ऐसा देखते हैं, जैसे तुम्हें पहचानते ही नहीं—दूसरा चेहरा। जब वे ताकत में हैं, तब एक चेहरा; जब वे ताकत में नहीं, तब उनके कैसे हाथ जुड़े हैं और सिर झुका है, कि आपके चरणों के सेवक हैं। दशानन! उनके दस चेहरे हैं। और एक काटो, तत्‍क्षण दूसरा पैदा हो जाता है। इसलिए राजनीतिज्ञ को मारना मुश्किल है।

स्वयंवर भरा था, तो कथा यह है कि यह देखकर देवताओं ने कि रावण बाजी मार ले सकता है..। कई कारण थे, एक तो वह शिव का भक्त था।

तुम राजनीतिज्ञों को सदा पाओगे किसी न किसी का भक्त। कोई जा रहा है सत्य सांईबाबा। कोई नहीं तो दिल्ली में बहुत ज्योतिषी बैठे हैं, उनकी ही भक्ति में लगा है। हनुमान चालीसा पढ़ रहा है, इलेक्शन जीतना है!

इस रावण ने अपने सिर चढ़ा—चढ़ाकर, कहते हैं, शिव को भी राजी कर लिया था। शिव का भक्त था और वह धनुष भी शिव का था। यह तोड़ देता; और यह आदमी बलशाली था।

तो कथा यह है कि देवताओं ने यह देखकर कि यह तो खतरा हो जाएगा। और राम तो विनम्र व्यक्ति हैं, वे आगे आकर खड़े भी न होंगे, यह रावण तो उछलकर खड़ा हो जाएगा और धनुष तोड़ देगा। राम को शायद मौका ही न मिले; शायद कोई पूछे ही न कि राम भी आए थे। और राम तो पीछे खड़े रहेंगे। राम के होने का अर्थ ही है कि जो पीछे खड़ा रहे, जिसको आगे आने की दौड़ न हो; जो महत्वाकांक्षी न हो।

लक्ष्मण भी ज्यादा महत्वाकांक्षी था राम से। वह दो—चार दफा उठ आया बीच—बीच में। और उसने कहा कि भाई, अगर मुझे आज्ञा दें, तो अभी इस धनुष—बाण को तोड़ दूं। उसको रोकना पड़ा, कि तू बैठ, तू थोड़ा तो ठहर। वह भी तोड्ने को बहुत तत्पर था। वह भी महत्वाकांक्षी था; वह भी राजनीतिज्ञ था।

रावण को हटाया। देवताओं ने जोर से शोरगुल किया आकर स्वयंवर के आस—पास, कि रावण तू यहां क्या कर रहा है? लंका में आग लग गई है! और जब लंका में आग लगी हो।

यह भी बड़ा सोचने जैसा है। राजनीतिज्ञ प्रेम की कुर्बानी दे सकता है; राजधानी में आग लगी हो, इसकी कुर्बानी नहीं दे सकता। भागा लंका की तरफ, भूल गया सीता और सब और यह प्रेम और यह सब उपद्रव। क्योंकि राजनीतिज्ञ प्रेम की कुर्बानी दे सकता है, पद की कुर्बानी नहीं दे सकता। इसलिए तुम राजनीतिज्ञों को हमेशा पाओगे कि अगर उनको पत्नी का त्याग करना पड़े, वे तैयार हैं। अगर विवाह न कर पाएं, तो तैयार। लेकिन उनका स्वयंवर पद से है।

अन्यथा रावण ने कहा होता, हो जाए; जल जाए लंका। अगर सच में ही प्रेम होता सीता के प्रति। लेकिन हृदय होता ही नहीं राजनीतिज्ञ के पास, प्रेम कहां से होगा! वह तो जीतने आया था। इसको भी एक जीत बनाने आया था। इसको भी, अपने जीत के जो हजार चांद थे, उसमें एक चांद और जोड़ देना था, कि सीता को भी जीत लाया। जैसे— लोग ट्राफी जीत लाते हैं। सीता एक ट्राफी थी, जिसको वह बैंड—बाजे बजाकर लंका में ले जाता और कहता कि देखो, इसको भी जीत लाया। रानियां उसके पास और भी बहुत थीं। कुछ रानियों की कमी न थी। कोई सीता से सुंदर कम थीं, ऐसा भी न था। भरा—पूरा रनिवास था। कोई सीता से लेना—देना न था। अन्यथा वह कहता कि ठीक।

भाग गया। वह देवताओं की साजिश थी, सत्व का षड्यंत्र था कि इस राजसी व्यक्ति को हटा लिया जाए। सीता राम के योग्य थी, राम के लिए थी। सत्व का सत्व से मिलन हो सके, इसलिए देवताओं ने व्यवस्था की।

यह रावण राक्षस है। इससे तुम यह मत समझना कि राक्षस कोई जाति है मनुष्यों की। राक्षस गुण है, वह राजनीतिज्ञ का नाम है; पद—लोलुप का नाम है।

राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं.......।

वे उनको पूजते हैं, जिनके पास शक्ति है, या जिनके पास पद है, या जिनके पास धन है। कुबेर यक्ष है। कुबेर का अर्थ है, जिसके पास सब से बड़ा धन है सारे जगत में। जो खजांची है स्वर्ग के देवताओं का,  कुबेर, वह यक्ष है। तो या तो धन की पूजा है या पद की पूजा है। लेकिन दोनों ही पूजा के पीछे शक्ति की पूजा है।

अगर ऐसा व्यक्ति देवी—देवताओं की भी पूजा करता है, तो भी शक्ति के लिए ही करता है। वह मांगता है, और दो शक्ति! ऐसी शक्ति दो कि सब को पराजित कर दूं! मैं पराजित न हो पाऊं, अपराजेय हो जाऊं! राजस शक्ति की मांग करता है।

और अन्य जो तामस पुरुष हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। फिर तीसरा वर्ग है तमस से भरे लोगों का। उनकी आकांक्षा इतनी ही है कि उनका आलस्य अखंडित रहे। कोई उन्हें जगाए न; उनकी आकांक्षाएं कोई और पूरा कर दे; वे पड़े रहें। वे अपनी मूर्च्छा में सोए रहें, वे शराब पीए रहें, वे नींद में डूबे रहें, वे प्रमाद में रहें; कोई और पूरा कर दे उनकी जरूरतों को। तो भूत और प्रेत।

भूत—प्रेत से अर्थ है, ऐसे लोग जो खुद भी तमस—प्रधान हैं. ऐसी आत्माएं जो खुद भी तमस—प्रधान हैं। वे इनकी पूर्ति करती रहती हैं। इस तरह के लोग हैं। तुम्हें वेश्या के घर ले जाने वाला एक एजेंट भी होता है, वह भूत—प्रेत है। तुम्हें धन की ओर लगाने वाला, जुआ खिलाने वाला भी होता है। तुम्हें लाटरी में दाव लगाने की उत्सुकता पैदा करवाने वाला, टिकट बेचने वाला भी होता है। वे तुम्हारे आलस्य को बढ़ाते हैं। वे कहते हैं, हम कर देंगे; तुम मजे से सोए रहो, तुम जरा—सा इतना सहारा दे दो, सब ठीक हो जाएगा।

ठीक वैसी ही व्यवस्था आत्माओं की भी है। जैसे ही शरीर छोड़ती हैं आत्माएं...। तीन तरह की आत्माएं हैं, क्योंकि तीन तरह के गुण हैं। प्रेत को तुम राजी कर सकते हो।

तुममें से बहुत—से प्रेत को ही राजी करने को उत्सुक हैं। कोई तुम्हें ताबीज दे दे, जिससे बीमारी ठीक हो जाए; कोई तुम्हें भभूत दे दे, जिससे खजाना मिल जाए। तुम्हारी आकांक्षा ऐसी है, तुम्हें कुछ न करना पड़े, तुम ऐसे आलस्य में पड़े रहो, खजाने तुम्हारी तरफ आते जाएं। प्रेत उत्सुक कर लेते हैं ऐसे लोगों को। वे जीवित भी हैं, शरीर में भी हैं, और शरीर के बाहर भी हैं।

तुम्हारी श्रद्धा तुम्हें ले जाती है। तुम जाते हो साधु—संतों के पास, लेकिन हो सकता है, तुम साधु—संतों के पास जा ही न रहे हो। तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है। हो सकता है, तुम साधु के पास जा रहे हो कि उसके पास जाने से धन की वर्षा हो जाएगी।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे तीन तरह के लोग हैं। तुम जरा अपनी खोज करना, तुम किस तरह के हो।

तुम जब तक मांगते हो, तब तक तुम संत के पास न आ सकोगे।
देवों की पूजा वे लोग करते हैं, जो धन्यवाद देने आते हैं; जो अहोभाव प्रकट करने आते हैं; जो कहते हैं, इतना मिला है वैसे ही कि उसका धन्यवाद देने आए हैं। संतों के निकट वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो सिर्फ अहोभाव प्रकट करने आते हैं। नहीं तो तुम राजसी पुरुषों के पास पहुंचोगे या तुम तामसी पुरुषों के पास पहुंचोगे।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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