बुधवार, 18 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 18 भाग 16

 संसार ही मोक्ष बन जाए


   यदहंकारमाश्रित्य न योत्‍स्‍य इति मन्यसे।

मिथ्‍यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्थ्यां नियोक्ष्यति।। 59।।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

कर्तुं नेच्छीस यन्महात् कीरष्यवशेउपि तत्।। 60।।

र्इश्वर: सर्वभूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। 61।।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्‍प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्‍स्‍यसि शाश्वतम।। 62।।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्माशह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्‍छसि तथा कुरु।। 63।।


और जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है, क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा। और हे अर्जुन, जिस कर्म को तू मोह से नहीं करना चाहता है उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा।

क्योंकि है अर्जुन, शारीररूप यंत्र में आरूढ़ हुए, अंपूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से, उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ, सब भूत—प्राणियों के ह्रदय में स्थित है।

इसलिए हे भारत, सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो? उस परमात्मा कीं कृपा से ही परम शांति को और सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

इस प्रकार यह गोयनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैने तेरे लिए कहा।  इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से अच्छी प्रकार विचार करके, फिर तू जैसा चाहता है? वैसा ही कर।



और जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो अर्जुन, यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

मनुष्य के सभी निश्चय मिथ्या हैं। तुम निश्चय कैसे करोगे? तुमने अपने जन्म का निश्चय नहीं किया, जीवन का निश्चय नहीं किया, तुमने अपनी मृत्यु का निश्चय नहीं किया। तुम हो, अपने निश्चय से नहीं। तुम हो विराट की लीला के एक अंग। तुम हो उस सागर की एक ऊर्मि, एक लहर। तुम्हारे सभी निश्चय मिथ्या हैं। कृष्ण ने कहा कि जो तू अहंकार को अवलंबन करके ऐसा मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा...........।

ध्यान रखना, सवाल युद्ध का नहीं है, सवाल मैं का है—मैं युद्ध नहीं करूंगा। युद्ध कर या न कर, यह कृष्ण का जोर ही नहीं है। मैं को कृपा कर बीच में मत ला।

मैं युद्ध नहीं करूंगा, तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा।

तेरा होने का ढंग क्षत्रिय का है। तेरा शिक्षण, तेरे संस्कार, तेरी वृत्तियां, तेरे मनोभाव क्षत्रिय के हैं। लडना ही तू जानता है और भागने की कला तूने कभी सीखी भी नहीं है। तू भागेगा, तो बड़ा बेहूदा लगेगा।

अगर यह अर्जुन भाग ही जाता समझ लो, न सुनता कृष्ण की, वह तो सुन लिया, अधिकतर अर्जुन तो सुनते नहीं। अगर यह भाग ही जाता, तो क्या तुम सोचते हो, यह संन्यस्त हो जाता!

यह असंभव था। यह ध्यान भी लगाकर बैठता और इसे एक शेर आता हुआ दिखाई पड़ता, यह उठा लेता गांडीव अपना। यह भूल जाता कि यह संन्यस्त है, इसको गाडीव नहीं उठाना है। यह बैठा होता ध्यान करने और कोई चुनौती दे देता। कोई पास से निकल जाता। यह उबल पड़ता।

कृष्ण यह कह रहे हैं, तेरा सारा ढांचा युद्ध के लिए तैयार किया गया है। उसने तैयार किया है। तुझे गहन से गहन युद्ध की शिक्षा दी गयी है। तेरा रोआं—रोआं लड़ने में कुशल है। तू लड़ने के सिवाय कुछ जानता नहीं है। अगर तू शांत भी होकर बैठेगा, तो शांति के लिए युद्ध करेगा, लेकिन युद्ध करेगा। युद्ध करना तेरी नियति है।

इसलिए तू यह मत सोच कि मैं युद्ध न करूगा। यह तेरा मैं तेरे युद्ध का ही हिस्सा है।

अहंकार युद्ध का स्रोत है। यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

और हे अर्जुन, जिस कर्म को तू मोह से नहीं करना चाहता है, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा।

यह तेरा सिर्फ मोह है, जो तू कहता है कि मेरे प्रियजन खड़े हैं चारों तरफ। इस तरफ, उस तरफ, मेरे गुरु हैं, मेरे दादा हैं, मेरे भाई हैं, मेरे चचेरे भाई हैं, मेरे मित्र हैं, यह सब मेरे ही परिवार का फैलाव खड़ा है। यह तू मोहग्रस्त है। अगर सोच ले, इसमें तेरे परिवार के लोग न होते, उस तरफ गुरु न होते, भीष्म न होते, तेरे चचेरे भाई न होते; तेरा सारा परिवार तेरी तरफ होता और उस तरफ विपरीत लोग होते जिन से तेरा कोई सम्बन्ध नहीं होता, तो तू उन्हें ऐसे काट देता जैसे लोग मूलियों को काट देते हैं। तेरे मन में जरा भी सवाल न उठता हिंसा, अहिंसा का। वह तेरा सवाल भी नहीं है।

यह मोह है। तू कुछ अहिंसक नहीं हो गया है। तू यह कह रहा है, ये मेरे हैं, इन्हें कैसे काटू? काटने से तुझे कोई विरोध नहीं है। मेरे, ममत्व का आग्रह है, जो तू डांवाडोल हो रहा है। यह तेरे मन में कोई अहिंसा का उदय नहीं हुआ है जैसे बुद्ध और महावीर के मन में हुआ था। तेरे मन में कोई महाकरुणा नहीं आ गयी है। तेरे भीतर सिर्फ मोह पैदा हुआ है कि मेरे कट जाएंगे, अपने कट जाएंगे। इनसे क्या लड़ना। भोग लेने दो इन्हीं को, मैं जंगल चला जाता हू। लेकिन तू जा न पाएगा। तू जंगल में भी जाएगा, तो तू क्षत्रिय ही रहेगा।

मोह से कहीं कोई मोक्ष को उपलब्ध हुआ है? और मोह से कहीं कोई संन्यस्त हुआ है? मोह ही तो संसार है। तो तू उलटी बातें कर रहा है। तू गंगा को उलटी बहाने की कोशिश कर रहा है। यह तेरा निश्चय मिथ्या है।

क्योंकि हे अर्जुन, शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए, संपूर्ण प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया से, उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ, सब भूत—प्राणियों के हृदय में स्थित है।

यह तू बात ही मत उठा, मेरे और तेरे की। एक ही उपस्थित है, तेरे में भी और उनमें भी। मेरा और तेरा सब झूठ है, मिथ्या है। एक ही मौजूद है। सारा खेल उसका है। वह लड़ाना चाहता है, तो लड़ाएगा। उसकी मर्जी होगी इस युद्ध से कुछ फलित करने की। वह बचाना चाहता है, तो बचाएगा। तू उस पर छोड़ दे।

हे भारत, सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से ही परम शांति को, सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

अहंकार से, मोह से, मिथ्या से कभी कोई उस शांति को उपलब्ध नहीं हुआ, न उस परम धाम को किसी ने पाया है। अपने को हटा ले, तू ही अड़चन है। तेरे कारण ही तेरे मन में अशांति है। युद्ध के कारण नहीं है अशांति, तेरे कारण है।

यह भीतर मैं है, जो कहता है, बाहर जो हैं, वे मेरे हैं। अगर मैं भीतर गिर जाए, तो कौन मेरा है! कौन तेरा है! फिर सभी उसके हैं। यह भी कहना ठीक नहीं कि सभी उसके हैं, सभी वही है।

इस प्रकार यह गोपनीय से अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिए कहा। इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से अच्छी प्रकार विचार करके, फिर तू जैसे चाहता है, वैसे ही कर।

कृष्ण कहते हैं, गोपनीय से अति गोपनीय........।

यह अत्यंत गुप्त है। जो साधारणत: कहा नहीं जाता, क्योंकि साधारणत: इसे समझना बहुत मुश्किल है।

जो बातें कही जाती हैं, वे हैं, या तो संसार में रहो—नास्तिक समझाते हैं, अधार्मिक समझाते हैं। या संन्यस्त हो जाओ—धार्मिक समझाते हैं, आस्तिक समझाते हैं। वह साधारण धर्म है। वह बातचीत समझ में आती है। वह तर्क सीधा—सीधा है।

मैंने तुझे गोपनीय बात कही, बड़ी गुह्य, गुप्त, इसोटेरिक। ऐसी बात कही, जो अत्यंत आत्मीयता में ही कही जा सकती है। जहां गुरु और शिष्य का हार्दिक मिलन होता है, वहीं कही जा सकती है। मैंने तुझसे उपनिषद कहा।

उपनिषद का अर्थ होता है, गुप्त ज्ञान। इसलिए गीता का हर अध्याय अंत में कहता है, गीता का अठारहवां संवाद उपनिषद समाप्त। उपनिषद का अर्थ होता है, जहां गुरु और शिष्य इतने आत्मीय हैं कि दो नहीं हैं, जहां एक ही चेतना दोनों में बहती है। वहीं जीवन की गुह्यतम बातें कही जा सकती हैं।

गहन श्रद्धा और प्रेम में मैंने तुझसे गोपनीय से गोपनीय ज्ञान कहा। इस रहस्ययुक्त ज्ञान को संपूर्णता से.......।

इसमें जल्दी मत करना। और जो मैंने कहा है, उसे उसकी समग्रता में देखना। कोई एक हिस्सा मत चुन लेना, जो कि हमारे मन की आदत है।

तुम्हें जो ठीक लगता है, वह चुन लेते हो; जो ठीक नहीं लगता, वह छोड़ देते हो। तब भ्रांति होगी, मिथ्या हो जाएगा निर्णय।

जो मैंने कहा है, उसको उसकी पूरी समग्रता में, अच्छी प्रकार से विचारकर, फिर तू जैसा चाहता है, वैसा ही कर।

कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि जो मैं कहता हूं वह तू कर। कोई गुरु नहीं कहता। सारा नक्शा साफ कर दिया है। पर कृष्ण कहते हैं, ठीक से विचार करके! क्योंकि बहुत संभावना यह है कि तू बिना विचार किए जो तू कहे चला जा रहा है, बिना सोचे, बिना मनन किए, बिना ध्यान किए, अगर तूने उस पर ही आग्रह रखा, तो तू पूरी दृष्टि को न फैला सकेगा और स्थिति को उसकी समग्रता में न देख सकेगा। सारी बात मैंने तुझसे कह दी, अब तू पूरी बात को ठीक से विचार कर ले।

यह बड़ा मजेदार शब्द है, विचार। जब मन में बहुत विचार होते हैं, तब तुम विचार कर ही नहीं सकते। जब मन में कोई विचार नहीं होता, तभी विचार कर सकते हो। जब मन में ही विचार होते हैं, तो विचार कैसे करोगे? यह तो ऐसा हुआ कि दर्पण में बहुत—से चित्र पहले से ही बने हैं, और तुम भी उसमें खड़े हो गए। सब अस्तव्यस्त, अराजक होगा। दर्पण खाली है, तुम सामने खड़े हुए, प्रतिबिंब बनता है।

विचार की दशा विचारों की दशा नहीं है। विचार की दशा ध्यान की दशा है। विचारों की दशा तो तरंगों की दशा है। झील पर तरंगें ही तरंगें हैं, चांद टूट—टूट जाता है, प्रतिबिंब बनता नहीं। हजार चांद होकर बिखर जाते हैं। चांदी फैल जाती है पूरी झील पर। लेकिन चांद कहीं दिखाई नहीं पड़ता।

फिर तरंगें सो गयीं, लहरें खो गयीं, हवाएं बद हो गयीं, झील मौन हुई, चांदी सिकुड़ने लगी चांद की, खंड जुड्ने लगे। एक प्रतिबिंब रह गया। झील दर्पण बन गयी।

विचार तो तभी संभव है, जब सारे विचार खो जाएं। यह बड़ी उलटी बात लगेगी सुनकर। क्योंकि तुम सोचते हो, बहुत विचार हों, तभी विचार होता है।





बहुत विचारों के कारण ही विचार नहीं होता। विचार की अवस्था विचारों की दशा नहीं है। विचार की अवस्था निर्विचार अवस्था है। तब अंतर्दृष्टि होती है, तब दर्शन होता है, दिखाई पड़ता है।

तो कृष्ण ने कहा कि सब मैंने तुझसे कह दिया। कुछ कहने से बचाया नहीं, मुट्ठी पूरी खोल दी है। जो नहीं कहा जाना चाहिए, वह भी कहा है।

क्यों ऐसा कृष्ण कहते हैं कि गुप्त है यह ज्ञान? यह नहीं कहा जाना चाहिए, ऐसा ज्ञान है। क्योंकि इसमें खतरे हैं।

खतरे ये हैं कि आदमी संसार में रहे, हो संसारी ही, और समझने लगे कि मैं संन्यासी हो गया। करे तो कर्म वासना से, लेकिन अपने को धोखा दे कि मेरी कोई फलाकांक्षा नहीं है। हत्या तो करे खुद, कहे, परमात्मा ने करवाई! चोरी करने खुद जाए; और कहे, मैं क्या करूं; सब उसी पर छोड़ दिया है। अब वह जो करवाता है!

इसलिए यह ज्ञान गुप्त है और नहीं कहने योग्य है। वह भी मैंने तुझसे कहा, ताकि सारी स्थिति तुझे साफ हो जाए। फिर तू विचार से देख ले। फिर तू ध्यान से देख ले। और फिर तू जैसा चाहे, वैसा कर। गुरु तो सारी बात स्पष्ट कर देता है और हट जाता है। असदगुरु, स्पष्ट तो कुछ नहीं करता, छाती पर सवार हो जाता है। सदगुरु सारी बातें साफ कर देता है, फिर हट जाता है। फिर कोई सवाल न रहा। अब तेरे पास आंख दे दी, देखने का ढंग दे दिया, अब तू देख ले। और उस देखने से, उस दृष्टि से ही जो तेरे भीतर आविर्भूत हो जाए, उसके अनुसार चल।

लोग सोचते हैं, कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में उतरवा दिया; गलत  बात है। लोग सोचते हैं, कृष्ण ने समझा—समझाकर युद्ध में डलवा दिया; गलत बात है। कृष्ण ने तो सिर्फ स्थिति साफ कर दी। दोनों मुट्ठिया खुली खोल दीं; कुछ छिपाया नहीं। और फिर अर्जुन को परिपूर्ण रूप से स्वतंत्र कर दिया कि अब तू निर्णय कर ले।

अगर अर्जुन यह तय करता कि मैं युद्ध से जाता हूं तो भी कृष्ण प्रसन्न होते। अर्जुन ने अगर यह तय किया कि मैं युद्ध करता हूं तो भी कृष्ण प्रसन्न हैं। कृष्ण की प्रसन्नता इसमें है कि अर्जुन ने देखने की क्षमता पा ली।

और जब अर्जुन ने गौर से देखा होगा, तो पाया होगा, अपने किए कुछ भी तो नहीं होता। कभी नहीं हुआ है। वह बड़ी से बड़ी भ्रांति है कि मेरे किए कुछ होता है। सब बिना किए हो रहा है, समग्र के किए हो रहा है। जैसे यह देखा होगा, यह दृष्टि उठी होगी, फिर अर्जुन ने कहा, अब जो हो तेरी मर्जी।

मर्जी युद्ध की थी, युद्ध हुआ। मर्जी युद्ध की न होती, अर्जुन संन्यस्त हो जाता। लेकिन अर्जुन की मर्जी से नहीं हुआ, अर्जुन मुक्त है। अर्जुन ने उसकी मर्जी पर अपने को छोड़ दिया। यही उसका संन्यास है।

संन्यास यानी परमात्मा के प्रति समर्पण। वह संसार में रखे, तो संसार ही संन्यास। वह संसार से हटा दे, तो हट जाना संन्यास। उसके साथ कोई ऐसे चलने लगे, जैसे नदी में कोई बहने लगे, तेरे न। किसी घाट पर पहुंचने की आकांक्षा न रही। जहां पहुंचा दे। पहुंचा दे, तो वही घाट। मझधार में डुबा दे, तो वही मंजिल। पूर्ण समर्पण  संन्यास है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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