रविवार, 15 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 16 भाग 4

 आसुरी व्‍यक्‍ति की रूग्‍णताएं


प्रवृत्तिं च निवृत्ति च जना न विदरासरा:।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। 7।।

असत्यमप्रितष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्थरसंभूतं किमन्यत्काकैक्कुम्।। 8।।

एंता दृष्टिमवष्टथ्य नष्टमानोऽल्पबुद्धय:।

प्रभवन्‍ज्युक्कर्माण: क्षयाय जगतीऽहिता:।। 9।।


और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य—कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य—कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर—भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।

तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्रयरहित है और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्‍न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है?

हम प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सब का अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्‍न होते हैं।


और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य—कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य—कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर— भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।

तथा वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं कि जगत आश्चर्यरहित और सर्वथा झूठा है एवं बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए ही है। इसके सिवाय और क्या है?

इस प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

बहुत—सी बातें इस सूत्र में समझने जैसी हैं और गहरे में जाने जैसी हैं।

आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य में प्रवृत्त होने और अकर्तव्य से निवृत्त होने को नहीं जानते हैं.......।

क्या करने जैसा है, क्या करने जैसा नहीं है, इसका उन्हें कुछ भेद नहीं होता, वे जो आसुरी संपदा वाले लोग हैं। क्या कर्तव्य है? कर्तव्य की क्या परिभाषा है? किसे हम कहें कि यह करने जैसा है? योग कर्तव्य की परिभाषा करता है, जिससे भी आनंद बढ़ता हो, वही कर्तव्य है। और मजे की बात यह है कि जिससे हमारा आनंद बढ़ता है, उससे हमारे आस—पास जो हैं, उनका भी आनंद बढ़ता है। जिससे हमारे आस—पास जो हैं, उनका आनंद बढता है, उससे हमारा भी आनंद बढ़ता है। आनंद एक संयुक्त घटना है।

दुख भी संयुक्त घटना है। जिससे हमारा दुख बढता है, उससे हमारे आस—पास भी दुख बढ़ता है। जिससे हमारे आस—पास दुख बढ़ता है, उससे हमारा दुख भी बढ़ता है। दुख भी एक संयुक्त घटना है।

आप किसी दूसरे को दुखी करके सुखी नहीं हो सकते। चाहे क्षणभर को आप अपने को धोखा दें कि मैं सुखी हो रहा हूं? लेकिन यह असंभव है। यह नियम नहीं है। यह हो नहीं सकता। आप दूसरे को दुखी करके सिर्फ दुखी ही हो सकते हैं।

यह तो हो भी सकता है कि आप दूसरे को दुखी करें और वह दुखी न हो; लेकिन आप तो दुखी होंगे ही। क्योंकि अगर वह आदमी ज्ञानी हो, बोधपूर्ण हो, बुद्ध पुरुष हो, तो आपके दुखी करने से दुखी नहीं होगा। लेकिन आपकी दुखी करने की जो चेष्टा है, वह आपको तो निश्चित ही दुखी कर जाएगी।

जगत एक प्रतिध्वनि है। हम जो करते हैं, वह हम ही पर आकर बरस जाता है, चाहे थोड़ी देर—अबेर हो जाती हो। उसी देर—अबेर के कारण ही हम इस भ्रांति में पड़ जाते हैं कि इससे कोई संबंध नहीं है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम कुछ भी बुरा नहीं कर रहे हैं, फिर भी दुखी हैं।

उनकी गलती है। यह असंभव है। वे जरूर कुछ कर रहे हैं; वे जरूर कुछ करते रहे हैं। शायद वे सोचते हैं कि वह बुरा नहीं है, जो वे कर रहे हैं।

कर्तव्य क्या है? कर्तव्य निर्भर होगा लक्ष्य से। लक्ष्य तो एक है सभी का कि जीवन आनंद से भरपूर हो जाए। तो जिससे भी आनंद बढ़े, वही कर्तव्य है। और जिससे आनंद घटे, वही अकर्तव्य है। आनंद को हम कसौटी बना सकते हैं। जैसे सोने को पत्थर पर कसकर देख लेते हैं कि सही या गलत, शुद्ध या अशुद्ध, वैसे आनंद पर आप कसकर देखते रहें आपने कर्मों को।

और जिस कर्म से आनंद बढ़ता हो, समझना वह कर्तव्य है। फिर उसको ज्यादा सींचे, बढ़ाए, जीवन की सारी ऊर्जा उसमें लग जाने दें। जिस कर्म से दुख मिलता हो, उसे छोड़े, उससे अपने को हटाए, उसकी तरफ जीवन की ऊर्जा को मत बहने दें।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जानता ही नहीं कि क्या करने योग्य है, न जानता है कि क्या करने योग्य नहीं है। न कर्तव्य में उसकी प्रवृत्ति है, न अकर्तव्य से निवृत्ति है। वह अंधे आदमी की तरह कुछ भी किए चला जाता है। उस सब कनफ्यूजन, उस सब उपद्रव को जैसे वह अपने जीवन में खड़ा कर लेता है। कभी बाएं, कभी दाएं भागता है; कभी सीधा, कभी उलटा।

अगर मन उलझा हो, क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है, इसका बोध भी न हो, तो आपके सामने परमात्मा भी खड़ा हो, तो भी हल न होगा। आप स्वर्ग में भी पहुंच जाएं, तो कोई न कोई उपद्रव खड़ा कर लेंगे। आप जहां भी होंगे, वहां गलती अनिवार्य है।

सवाल यह नहीं है कि आप कहां हैं। सवाल यह है कि आपके पास देखने की दृष्टि तीक्ष्ण, स्पष्ट है; विवेकपूर्ण है, बांट सकती है या नहीं कि क्या सार है, क्या असार है; क्या कर्तव्य है, क्या अकर्तव्य है।

अक्सर लोग जीवनभर दौड़ते रहते हैं, बिना इसका ठीक से उनको पक्का पता हुए कि वे कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं। अगर लोग थोड़ी देर रुक जाएं इसके पहले कि कदम उठाएं, चलें, सोच लें कि कहा जाना है और सारी जीवन ऊर्जा को वहां नियोजित कर दें, तो जीवन में फल लग सकते हैं।

अधिक लोग बेफल मर जाते हैं, निष्फल मर जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि श्रम कम करते हैं। श्रम बहुत करते हैं। आसुरी संपदा वाले लोग दैवी संपदा वाले लोगों से ज्यादा श्रम करते हैं। 

ठीक साफ न हो कि क्या कर्तव्य है, क्या मैं करूं, क्यों करूं, और इसका क्या अंत होगा, इसकी ठीक—ठीक रूप—रेखा साफ न हो, तो आदमी करता बहुत है और पाता कुछ भी नहीं।

आसुरी वृत्ति के लोग बड़ा श्रम उठाते हैं, पर उनकी सब साधना निष्फल जाती है।

इसलिए उनमें न तो बाहर— भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है, और न सत्य भाषण ही।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति शुद्धि का विचार ही नहीं करता। वह उसके चिंतन में ही कभी नहीं आता, कि शुद्धि का भी कोई रस है, कि शुद्धि का भी कोई सुख है। जीवन उसका एक घोलमेल है, उसमें सभी कुछ मिला—जुला है। वह प्रार्थना भी करता रहेगा, दुकान की बात भी सोचता रहेगा। वह मंदिर में भी बैठा रहेगा, और वेश्याघर उसे पहुंच जाना है शीघ्रता से, उसकी योजना बनाता रहेगा। उसके जीवन में शुद्धि नहीं है। उसके जीवन में सब मिला हुआ है, कचरे की तरह सब इकट्ठा है। कोई एक स्वर नहीं है। बहुत स्वर हैं, विपरीत स्वर हैं।

शुद्धि का अर्थ इतना ही है कि जीवन की धारा एक स्वर से भरी हो, एक समस्वरता हो। और जब भी मैं जो कर रहा हूं, उस करने में मेरी निष्ठा इतनी पूरी हो कि दूसरा स्वर बीच में डावाडोल न करता हो।

अगर व्यक्ति का जीवन एक—एक क्षण भी इस भांति शुद्ध होने लगे, तो परमात्मा का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन आप कुछ भी कर रहे हों, एक काम कभी भी नहीं कर रहे हैं, हजार काम साथ कर रहे हैं! कुछ भी सोच रहे हों, एक विचार कभी नहीं है, हजार विचार विक्षिप्त की तरह भीतर दौड़ रहे हैं। आप एक बाजार हैं, एक भीड़। और भीड़ भी पागल। इस स्थिति का नाम अशुद्धि है।

कृष्ण कह रहे हैं, उसमें न तो बाहर की शुद्धि है, न भीतर की। न श्रेष्ठ आचरण है, न सत्य भाषण है। तथा वे आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित है।

यह वचन बड़ा क्रांतिकारी है।

आसुरी वृत्ति वाला व्यक्ति मानता है कि जगत में कोई रहस्य नहीं है; मानता है कि जगत एक तथ्य है, जिसमें न कोई आश्चर्य है, न कोई रहस्य है, कोई मिस्ट्री नहीं है। अगर हम विचार करें, तो बहुत—सी बातें साफ हो सकती हैं।

धार्मिक और अधार्मिक व्यक्ति में यही फासला है। धार्मिक व्यक्ति जीवन को एक रहस्य की भांति अनुभव करता है। यहां जो प्रकट है, वह सिर्फ सतह है, इस सतह के पीछे अप्रकट छिपा है। और वह अप्रकट ऐसा है कि कितना ही प्रकट होता जाए, तो भी शेष रहेगा।

रहस्य का अर्थ होता है, जिसे हम पूरा कभी न जान पाएंगे, जिसका अंतस्तल सदा ही अनजाना रहेगा। हम कितना ही जान लें, हमारी सब जानकारी बाहर ही बाहर रहेगी। भीतर की अंतरात्मा सदा अनजानी छूट जाएगी।

अगर इसे ठीक से खयाल में लें, तो विज्ञान आसुरी मालूम पड़ेगा। क्योंकि विज्ञान मानता है, जगत में सभी कुछ जाना जा सकता है—कम से कम मानता था। अभी नए कुछ वैज्ञानिक, आइंस्टीन के बाद, इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। अन्यथा विज्ञान की दृष्टि थी, सभी कुछ जाना जा सकता है। जो हमने जान लिया वह, और जो नहीं जाना है, वह भी अज्ञेय नहीं है, अननोएबल नहीं है। अज्ञात है, उसको भी हम कल जान लेंगे, परसों जान लेंगे। समय की बात है। सौ, दो सौ वर्षों में हम सब जान लेंगे, या हजार, दौ हजार वर्षों में। लेकिन धारणा यह थी विज्ञान की कि जगत पूरा का पूरा जाना जा सकता है।

अगर पूरा का पूरा जाना जा सकता है, तो परमात्मा की कोई जगह नहीं बचती। क्योंकि जिस दिन आप परमात्मा को भी जान लें प्रयोगशाला में और पदार्थों की भांति, जैसा आक्सीजन और हाइड्रोजन को जानते हैं, ऐसा परमात्मा को जान लें; जैसे आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाकर पानी बनाते हैं, ऐसा परमात्मा का विश्लेषण कर लें, मेल—जोल करके टयूब में उसको तैयार कर दें, जिस दिन आप परमात्मा को जान लेंगे पदार्थ की तरह—विज्ञान की यही धारणा है कि सभी कुछ हम जान लेंगे—उस दिन जानने को कुछ भी शेष नहीं बचेगा।

कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जगत में कोई रहस्य नहीं मानता। और दैवी संपदा वाला व्यक्ति मानता है कि जगत एक अनंत रहस्य है, एक पहेली, जिसे हम हल करने की कितनी ही कोशिश करें, हम हल न कर पाएंगे।

और वह जो सदा हल के बाहर छूट जाता है, वही परमात्मा है। वह जो हमारी सब कोशिश के बाद भी अज्ञेय, अननोएबल रह जाता है, जिसके पास जाकर हम अवाक हो जाते हैं, जिसके पास जाकर हमारा हृदय ठक से रुक जाता है, जिसके पास जाकर हमारे विचार की परंपरा एकदम टूट जाती है, जिसके पास हम अपना सुध—बुध खो देते हैं, जिसके पास हम मस्ती से तो भर जाते हैं, लेकिन जानकारी बिलकुल खो जाती है, उस तत्व का नाम ही परमात्मा है। वही है मिस्टीरियम, रहस्यमय।

तो कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, कोई रहस्य नहीं है। जगत तथ्यों का एक जोड़ है, सब जाना जा सकता है।

इसलिए आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को न तो जीवन में कोई काव्य दिखाई पड़ता, न कोई सौंदर्य दिखाई पड़ता, न कोई प्रेम दिखाई पड़ता; क्योंकि ये सभी तत्व रहस्यपूर्ण हैं। आसुरी संपदा वाला व्यक्ति जीवन को गणित से नापता है, सभी चीजों को नापता—तौलता है। और सभी चीजों को पदार्थ की तरह व्यवहार करता है। इस जगत में उसे कोई व्यक्तित्व नहीं दिखाई पड़ता। यह जगत जैसे एक मिट्टी का जोड़ है, पदार्थ का जोड़ है। और यहां जो भी घट रहा है, यह सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति देखता है कि जगत में एक रचना—प्रक्रिया है। जगत के पीछे चेतना छिपी है। और जगत के प्रत्येक कृत्य के पीछे कुछ राज है। और राज कुछ ऐसा है कि हम उसकी तलहटी तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम भी उस राज के हिस्से हैं; हम उसके स्रोत तक कभी न पहुंच पाएंगे, क्योंकि हम उसकी एक लहर हैं।

मनुष्य कुछ अलग नहीं है इस रहस्य से। वह इस विराट चेतना में जो लहरें उठ रही हैं, उसका ही एक हिस्सा है। इसलिए न तो वह इसके प्रथम को देख पाएगा, न इसके अंतिम को देख पाएगा। दूर खड़े होकर देखने की कोई सुविधा नहीं है। हम इसमें डूबे हुए हैं। जैसे मछली को कोई पता नहीं चलता कि सागर है। और मछली सागर में रहती है, फिर भी सागर का क्या रहस्य जानती है! वैसी ही अवस्था मनुष्य की है।

जितना ही ज्यादा दैवी संपदा की तरफ झुका हुआ व्यक्ति होगा, उतना ही तर्क पर उसका भरोसा कम होने लगेगा, उतना ही काव्य पर उसकी निष्ठा बढ़ने लगेगी, उतना ही वह जगत में सब तरफ उसे रहस्य की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगेगी। फूल खिलेगा, तो उसे परमात्मा का इंगित दिखाई पड़ेगा।

वैज्ञानिक के सामने भी फूल खिलता है, तो वैज्ञानिक उसमें कुछ तथ्यों की खोज करता है। वह देखता है कि फूल में जरूर कोई कारण है! क्यों खिला है? तो फूल की केमिकल परीक्षा करता है, जांच—पड़ताल करता है, उसके रसों की जांच—पड़ताल करता है, और एक नियम तय करता है कि इसलिए खिला है।

धार्मिक व्यक्ति, दैवी संपदा का व्यक्ति फूल का विश्लेषण नहीं करता, लेकिन फूल का जो संकेत है, जो सौंदर्य है, फूल का जो खिलना है, वह जो जीवन का प्रकट होना है, उस इशारे को पकड़ता है। और तब एक फूल उसके लिए परमात्मा का प्रतीक हो जाता है। तब एक छोटी—सी हिलती हवा में पत्ती भी उसके लिए परमात्मा का कंपन हो जाती है। तब यह सारा जगत परमात्मा का नृत्य हो जाता है।

परमात्मा से अर्थ है, रहस्य। परमात्मा से आप यह मत सोचना कि कहीं आकाश में कोई बैठा हुआ व्यक्ति। परमात्मा का अर्थ है, यह जगत रहस्यपूर्ण है। और जैसे ही यह जगत रहस्यपूर्ण होता है, वैसे ही हमारे हृदय में एक नया स्पंदन शुरू होता है।

आज अगर दुनिया में इतनी ऊब, इतनी उदासी, इतनी बोर्डम है, तो उसका कारण आसुरी संपदा वाली विचार—धारा का प्रभाव है। क्योंकि जीवन में जब कोई रहस्य न हो, तो रस भी न होगा। और जब सब चीजें मिट्टी—पत्थर का जोड़ हों..।

अगर दो व्यक्तियों में प्रेम हो जाए, वैज्ञानिक से पूछें, बायोलाजिस्ट से पूछें, तो वह कहता है कि कुछ खास बात नहीं, सिर्फ हार्मोन्स की ही बात है। इन दोनों व्यक्तियों में जो भीतर शरीर में हार्मोन्स बन रहे हैं, वह जो रासायनिक प्रक्रिया हो रही है, उसमें आकर्षण है। उस आकर्षण की वजह से इनको प्रेम वगैरह का खयाल पैदा हो रहा है। प्रेम सिर्फ खयाल है, असली चीज हार्मोनल आकर्षण है।

विज्ञान सभी चीजों को समझा देता है। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हम इस मुल्क में विज्ञान को अविद्या कहते थे। पुराने दिनों में ऋषियों ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, विद्या और अविद्या। विद्या उस ज्ञान को कहा है, जो दैवी संपदा की तरफ ले जाता है। और अविद्या उस ज्ञान को कहा है, जो आसुरी संपदा की तरफ ले जाता है।

विज्ञान अविद्या है। जानना तो वहा बहुत होता है, लेकिन फिर भी जानने का जो परम लक्ष्य है, वह चूक जाता है।

अगर हम वैज्ञानिक को कहें, भीतर आदमी के आत्मा है। तो वह शरीर को काटने को तैयार है, वह काटकर शरीर को देखने को तैयार है। काटने पर आत्मा मिलती नहीं। यह वैसे ही है, जैसे कि पिकासो का एक सुंदर चित्र हो, और हम कहें, बहुत सुंदर है। और वैज्ञानिक उसको काटकर, प्रयोगशाला में ले जाकर, सब रंगों को अलग करके, विश्लिष्ट करके और कह दे कि ये सब रंग अलग—अलग रखे हुए हैं, सौंदर्य कहीं भी नहीं है।

चित्र को काटकर सौंदर्य नहीं खोजा जा सकता। क्योंकि चित्र का सौंदर्य चित्र की परिपूर्णता में है, वह उसकी होलनेस में था, वह रंगों के जोड़ में था। जैसे ही तोड़ लिया, जोड़ समाप्त हो गए, सौंदर्य खो गया।

आदमी की आत्मा उसके अंग—अंग को काटकर नहीं पकड़ी जा सकती। वह उसकी समग्रता में है, वह सौंदर्य की तरह उसकी समग्रता में छिपी है। उसकी समग्रता अखंडित रहे, तो ही आत्मा को पहचाना जा सकता है। उसकी खंडित स्थिति हो, आत्मा खो गई। यह जगत अखंडता है। इस अखंडता के भीतर जो छिपा हुआ रहस्य है, उसका नाम परमात्मा है।

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित और सर्वथा झूठा है और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए है। इसके सिवाय और क्या है!

अगर कोई रहस्य नहीं, तो फिर कोई गंतव्य नहीं। अगर कोई छिपी हुई नियति नहीं, तो पहुंचने का कोई अर्थ नहीं, कहीं जाने को नहीं। फिर आप यहां हैं, और इस क्षण जिस बात में भी सुख मिलता हुआ मालूम पड़े, उसको कर लेना उचित है।

इस सारी दौड़ के पीछे दौड़ता हुआ कोई सूत्र नहीं है। जैसे एक माला हम बनाते हैं, उसमें मनके हैं और भीतर हर मनके के दौड़ता हुआ एक धागा है। वह धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके दिखाई पड़ते हैं। वह धागा सब मनकों को बांधे है, पर अदृश्य है।

दैवी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक कृत्य एक मनका है। और प्रत्येक मनके को वह भीतर के एक प्रयोजन से बांधे हुए है, एक लक्ष्य, एक जीवन की दिशा, एक जीवन की परिपूर्ण कृतकृत्यता का भाव। जीवन कहीं जा रहा है, एक नियति, वह उसका धागा है। तो वह जो भी कर रहा है, हर मनके को उस धागे में बांधता जा रहा है। कृत्य मनकों की तरह अलग—अलग हैं और उसका जीवन एक धागे की तरह सारे मनकों को सम्हाले हुए है, एक इंटीग्रेशन।

आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन में कोई धागा नहीं है। हर कृत्य टूटा हुआ मनका है। दो मनकों में कोई जोड़ नहीं है। इसलिए आसुरी संपदा वाला व्यक्ति करीब—करीब विक्षिप्त की तरह जीता है। उसकी न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। बस, हर क्षण जहां हवाएं ले जाएं, जो सूझ जाए वासना को, जो भीतर का धक्का आ जाए, या परिस्थिति जिस तरफ झुका दे, या लोभ जिस तरफ आकर्षित कर ले, बस वह वैसा दौड़ता चला जाता है।

जैसे आपके सामने एक सितार रखा हो और आप उसको ठोंकते जाएं, तार खींचते जाएं; और आपको सितार के शास्त्र का कोई भी ज्ञान न हो, संगीत की कोई प्रतीति न हो, दो स्वरों के बीच जोड़ का कोई अनुभव न हो, स्वरों का एक प्रवाह बनाने की कोई कला न हो, स्वरों की सरिता निर्मित न कर सकते हों, तो आप सिर्फ एक उपद्रव मचाएंगे। शोरगुल होगा बहुत, संगीत नहीं हो सकता। क्योंकि संगीत तो सभी सुरों को मनके की तरह जब आप धागे में बांधते हैं, तब पैदा होता है।

दैवी संपदा वाला व्यक्ति जीवन में संगीत निर्मित करने की चेष्टा में लगा रहता है। वह जो काम भी करता है, सोचता है कि यह मेरे पूरे जीवन में कहां बैठेगा, यह मेरे पूरे जीवन को क्या रंग देगा, इससे मेरा आज तक का जीवन किस मोड़ पर मुड़ जाएगा, यह मेरे पूरे जीवन को मिलकर कौन—सा नया अर्थ, अभिव्यक्ति देगा। इसलिए प्रत्येक कृत्य एक अर्थ, एक अभिप्राय, एक प्रयोजन और एक नियति के साथ मेल बनाता है।

आसुरी संपदा वाला व्यक्ति इस क्षण में उसे जो सूझता है, कर लेता है। उसका कृत्य टूटा हुआ है, आणविक है। और उसका लक्ष्य सिर्फ इतना है, आज भोग लूं, कल का क्या भरोसा है!

उमर खय्याम की रुबाइयात, अगर उसके गहरे सूफी अर्थ आपको पता न हों, तो आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का वक्तव्य मालूम पड़ेगा। उमर खय्याम की रुबाइयात में बड़ी मधुर कल्पना है। अगर आपको उसका सूफी रहस्य पता हो, तब तो वह एक अदभुत ग्रंथ है। सूफी रहस्य का पता न हो, तो आपको लगेगा, भोग का एक आमंत्रण है।

उमर खय्याम सुबह—सुबह ही पहुंच गया मधुशाला के द्वार पर। अभी कोई जागे भी नहीं; रात थके—मांदे नौकर सो गए हैं। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में, अभी सूरज भी नहीं निकला, वह दरवाजा खटखटा रहा है। भीतर से कोई आवाज देता है कि अभी मधुशाला के खुलने में देर है।

तो वह कहता है, लेकिन देर तक प्रतीक्षा करना संभव नहीं। एक क्षण के बाद का भरोसा नहीं। और यह क्षण चूक जाए पीने का, तो कौन आश्वासन देता है कि अगले क्षण मैं बचूंगा और पीने की मुझे सुविधा रहेगी! इसलिए द्वार खोलो। देर मत करो। सूरज निकलने के करीब हो गया। और सूरज ने अपनी किरणों का जाल फेंक दिया जगत पर। और जब किरणों का जाल जगत पर सूरज फेंक देता है, तो संध्या होने में ज्यादा देर नहीं।

वह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, उसे मृत्यु लगती है, बस आ रही है। क्षणभर हाथ में है, इसे भोग लूं? निचोड़ लूं? पी लूं। भोग ही लक्ष्य हो जाता है; योग बिलकुल खो जाता है।

ध्यान रहे, योग का अर्थ ही है, दो मनकों को जोड़ देना। जब जीवन के सारे मनके जुड़ जाएं, तो आप योगी हैं। और जीवन के मनकों का ढेर लगा हो, कोई धागा न हो जोड्ने वाला, तो आप भोगी हैं।

भोगी और योगी दोनों के पास मनके तो बराबर होते हैं। लेकिन योगी ने एक संगति बना ली, योगी ने सब मनकों को जोड़ डाला। उसके सब अक्षर जीवन के एक संयुक्त काव्य बन गए एक कविता बन गए। भोगी अक्षरों का ढेर लगाए बैठा है। उसके पास भाषाकोश है। सब अक्षरों का ढेर लगा हुआ है। लेकिन दो अक्षरों को उसने जोड़ा नहीं, इसलिए कोई कविता का जन्म नहीं हुआ है। और जीवन के अंत में, वह जो हमने धागा निर्मित किया है, वही हमारे साथ जाएगा, मनके छूट जाते हैं। मनके सब यहीं रह जाते हैं। इस प्रकार इस मिथ्या—ज्ञान को अवलंबन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अहित करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

इस मिथ्या—ज्ञान का अवलंबन करके—कि भोग ही सब कुछ है, योग जैसा कुछ भी नहीं, साधना कुछ भी नहीं है, पहुंचना कहीं भी नहीं है, जीवन का कोई गंतव्य, लक्ष्य नहीं है, जीवन एक संयोग है, एक दुर्घटना है, जिसके पीछे कोई अर्थ पिरोया हुआ नहीं है, शब्दों की एक भीड़ है, कोई सुसंगत काव्य नहीं—ऐसा जिसका मिथ्या—ज्ञान है और इसका अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव जिसका......।


इस तरह की धारणाओं में जो जीएगा, वह अपने स्वभाव को अपने हाथ से तोड़ रहा है, क्योंकि स्वभाव तो परम संगीत को उपलब्ध करने में ही छिपा है। स्वभाव तो परम नियति को प्रकट कर लेने में छिपा है। स्वभाव तो इस जगत का जो आत्यंतिक रहस्य है, उसके साथ एक हो जाने में छिपा है। मैं अपने स्वभाव को तभी उपलब्ध होऊंगा, जब मैं बिलकुल शून्य होकर, शांत होकर इस जगत के पूरे अस्तित्व के साथ अपने को एक कर लूं।

स्वभाव यानी परमात्मा। स्वभाव मिथ्या धारणाओं में नष्ट हो जाएगा, खो जाएगा।

और मंद हो गई है बुद्धि जिसकी…….।

और इस तरह की बातें जिस पर बहुत प्रभाव करेंगी, उसकी बुद्धि धीरे— धीरे मंद हो जाएगी। मंद होने का यह मतलब नहीं है कि उसका तर्क क्षीण हो जाएगा। अक्सर तो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति बड़ा तार्किक होता है, बड़ी प्रखर उसके पास तर्क की व्यवस्था होती है।

लेकिन फिर भी कृष्ण कहते हैं, मंद हो गई है बुद्धि जिसकी..। क्योंकि तर्क को हमने इस देश में कभी बुद्धि नहीं माना। तर्क को हमने बच्चों का खेल माना है। बुद्धि से तो हमारा प्रयोजन उस क्षमता से है, जो जीवन को आर—पार देख लेती है; जो जीवन के छिपे हुए रहस्य—परतों में उतर जाती है; जो जीवन के अंतःस्तल को स्पर्श कर लेती है, उसे हम बुद्धि कहते हैं।

आधुनिक युग में जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह केवल तर्क की व्यवस्था है। अगर कोई व्यक्ति काफी तर्क कर सकता है, आर्ग्यू कर सकता है, विवाद कर सकता है, तो हम कहते हैं, बड़ा बुद्धिमान है।

कृष्ण उसको बुद्धिमान कहते हैं, जिसने अपनी चेतना—ऊर्जा में, जीवन के परम रहस्य में प्रवेश का मार्ग खोज लिया है। जिसने अपनी चेतना को मार्ग बना लिया है, वही बुद्धिमान है।

मिथ्या धारणाओं का अवलंबन करके नष्ट हो गया स्वभाव जिनका, मंद है बुद्धि जिनकी, ऐसे व्यक्तियों को कृष्ण ने कहा कि वे आसुरी संपदा वाले हैं।

इसकी अपने भीतर तलाश करना। और जहां भी आसुरी संपदा का थोड़ा—सा भी झुकाव मिले, उसे उखाड़कर फेंक देना।

तो ध्यान रखना, जब भी नीचे उतरने का मन हो, तब अपने को रोकना। चाहे श्रम भी पड़े, तो भी दैवी संपदा की तरफ कदम रखना। वह पहाड़ की चढ़ाई है। पसीना उसमें आएगा, थकान भी होगी। लेकिन उसके मधुर फल हैं। और उसका अंतिम फल मोक्ष की मधुरता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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