गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 8

  मन का ढांचा-- जन्मों-जन्मों का


नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यग्शृण्वस्पृशग्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपग्श्वसन्।। 8।।


प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।। 9।।


और हे अर्जुन, तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आंखों को खोलता और मींचता हुआ भी, सब इंद्रियां अपने-अपने अर्थों में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निःसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।


तत्व को जानता हुआ पुरुष सब करते हुए भी ऐसा ही जानता है, जैसे मैं कुछ भी नहीं करता हूं। इंद्रियां बर्तती हैं अपने-अपने स्वभाव से। इंद्रियों के वर्तन को, तत्व को जानने वाला पुरुष, अपना कर्म नहीं मानता है। तत्व को जानने वाला पुरुष कर्ता नहीं होता, वरन इंद्रियों के कर्मों का मात्र साक्षी होता है।


इसे दोत्तीन आयामों से समझ लेना उपयोगी है।

एक, तत्व को जानने वाला पुरुष। कौन है जो तत्व को जानता है? ध्यान रहे, कृष्ण नहीं कहते, तत्वों को जानने वाला पुरुष। कहते हैं, तत्व को जानने वाला पुरुष।

तत्व एक ही है। वह जो जीवन के, गहन जीवन के प्राण में छिपा है, वह अस्तित्व एक ही है।

हम साधारणतः पांच तत्वों की बात करते हैं, वे तत्व नहीं हैं। मिट्टी है, पानी है, आग है, आकाश है, वायु है; वे वस्तुतः तत्व नहीं हैं। और विज्ञान तो एक सौ आठ तत्वों की बात करता है। लेकिन अब इधर विज्ञान को यह खयाल आना शुरू हुआ कि जो उसने एक सौ आठ तत्व सोचे थे, वे कोई भी तत्व नहीं हैं।

विज्ञान भी एक सौ आठ तत्वों की लंबी संख्या के बाद एक नए नतीजे पर पहुंच रहा है और वह यह कि ये एक सौ आठ तत्व भी एक ही तत्व के रूप हैं। उस तत्व को विज्ञान इलेक्ट्रिसिटी कहता है, विद्युत कहता है। कृष्ण उस तत्व को विद्युत नहीं कहते, चेतना कहते  हैं। शायद बहुत शीघ्र विज्ञान को स्वीकार कर लेना पड़ेगा कि वह तत्व चेतना ही है। क्यों? क्योंकि अब तक विज्ञान यह भी मानने को राजी नहीं था कि एक तत्व है। वह कहता था, एक सौ आठ तत्व हैं।

ऊपर से देखने पर अनंत तत्व मालूम पड़ते हैं जगत में। तत्वों के भीतर जब विज्ञान का प्रवेश हुआ, तो पता चला कि सभी तत्व एक ही तत्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जैसे एक ही सोने के बहुत-से आभूषण हों। रूप अलग हैं। वह जो रूपायित हुआ है, जो पीछे छिपा है, वह एक है। इसे विज्ञान अब स्वीकार करता है कि वह एक तत्व विद्युत ऊर्जा है, शक्ति है। अभी उसे धर्म की दूसरी बात से भी सहमत होना पड़ेगा। अब तक वह पहली बात से भी सहमत नहीं था कि तत्व एक है। वह कहता था, तत्व अनेक हैं।

अब तक विज्ञान  अनेक को मानता था। अब विज्ञान  एक को मानने लगा। वह कहता है, एक ही ऊर्जा है। पानी में भी वही ऊर्जा है और पत्थर में भी वही ऊर्जा है। उस ऊर्जा के कणों का विभिन्न जमाव है। बस, उसका ही सारा अंतर है। वह अंतर ठीक आभूषण जैसे सोने के विभिन्न जमाव से निर्मित होते हैं, वैसा ही अंतर है। और बहुत देर नहीं है कि एक तत्व को हम अब दूसरे तत्वों में रूपांतरित कर सकेंगे।

बहुत जमाने तक अल्केमिस्ट खोजते थे, कोई ऐसी तरकीब कि जिससे लोहा सोना हो जाए। अब बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि लोहा भी उसी ऊर्जा से बना है, जिससे सोना बना है। और लोहा सोना बन सकता है और सोना लोहा बन सकता है। ज्यादा देर नहीं है, मौलिक बात तय हो गई है कि दोनों को बनाने वाला संघटक एक ही तत्व है। इसलिए रूपांतरण हो सकता है।

ऐसे भी आप देखते हैं, कोयले को पड़ा हुआ। सोचते न होंगे कि हीरा भी कोयला है। हीरा भी कोयला है! हीरा भी कोयले का ही रूप है। लाखों साल तक जमीन के नीचे गर्मी में दबा रहने पर कोयला हीरे में रूपांतरित होता है। एक ही तत्व हैं; दोनों में कोई भी भेद नहीं है।

सारे तत्वों के भीतर एक है। धर्म की इस पहली घोषणा से विज्ञान  बहुत झिझकते-झिझकते राजी हो गया है। मजबूरी थी। विज्ञान सत्य को इनकार नहीं कर सकता है। अब दूसरा कदम और शेष रह गया है। और वह कदम यह है कि वह एक तत्व चेतन है या अचेतन? अब तक विज्ञान माने चला जाता है कि वह अचेतन है। यह उसका दूसरा आग्रह है। पहला आग्रह था, अनेक हैं तत्व। वह गिर गया। दूसरा आग्रह अभी शेष है कि वह तत्व अचेतन है।

धर्म का खयाल है कि वह तत्व अचेतन नहीं है। और उसके कारण हैं। क्योंकि धर्म का खयाल है कि निकृष्ट से श्रेष्ठ अगर जन्मता है, तो मानना होगा कि वह उसमें कहीं छिपा था, सदा मौजूद था। अगर बीज से वृक्ष पैदा होता है, तो चाहे दिखाई पड़ता हो और चाहे न दिखाई पड़ता हो, वृक्ष बीज में छिपा था, पोटेंशियली मौजूद था। अन्यथा पैदा नहीं हो सकता है। यदि चेतना पैदा हो रही है जगत में कहीं भी, और पदार्थ से ही पैदा हो रही है, तो समझना पड़ेगा कि वह पदार्थ में कहीं गहरे में छिपी है, मौजूद है। उसकी मौजूदगी को इनकार करना अवैज्ञानिक है, वैज्ञानिक नहीं। जो भी प्रकट हो सकता है, वह छिपा है और मौजूद है। अनमैनिफेस्टेड है, अव्यक्त है, अप्रकट है।

लेकिन विज्ञान कहता है कि एक ही चीज है अब जगत में, वह है विद्युत ऊर्जा। और धर्म भी कहता है, एक ही चीज है जगत में, वह है चेतना। यह चेतना अप्रकट हो सकती है विद्युत ऊर्जा में। मनुष्य में आकर विकसित होकर प्रकट हो जाती है।

एक छोटा बच्चा है। वह कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा। आज विज्ञान मानता है कि जवान और बूढ़े होने का बिल्ट-इन-प्रोग्रेम उसके जेनेटिक सेल में मौजूद है। वह जो बच्चे का पहला अणु है मां-बाप से मिला, उसमें उसकी पूरी जिंदगी का ब्लूप्रिंट, पूरा नक्शा मौजूद है। अन्यथा वह हो नहीं सकता।

एक बीज आप जमीन में गाड़ देते हैं। फिर उसमें से अंकुर निकलता है, फिर पत्ते आते हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि इस बीज में ठीक वैसे ही पत्ते आते हैं, जैसे इस बीज के पिता वृक्ष में थे। यह पत्तों का बिल्ट-इन-प्रोग्रेम अगर बीज के भीतर छिपा हुआ न हो, तो बड़ा चमत्कार है। यह वैसे ही पत्ते वापस कैसे आ सकते हैं? या तो फिर यह बीज अदभुत होशियार है, या फिर इस बीज के पीछे कोई बहुत बड़ा जादूगर बैठा है। इस बीज में भी वैसे ही फूल लगेंगे, जैसे उस वृक्ष में लगे थे, जिससे यह बीज आया है। वे ही वृक्ष की पत्तियां होंगी, वे ही शाखाएं होंगी। वही फैलाव होगा। वही रूप-रंग होगा। वही फूल फिर से खिलेंगे। और इस एक बीज से फिर करोड़ों बीज पैदा होंगे--वही बीज, जिनसे यह पैदा हुआ था। इस बीज के भीतर बिल्ट-इन, छिपा हुआ प्रोग्रेम है।

वैज्ञानिक आज कह सकते हैं कि बीज में वृक्ष पूरी तरह छिपा हुआ है। प्रकट होने की देर है। समय लगेगा प्रकट होने में। लेकिन जो प्रकट होगा, वह मौजूद था। कह सकते हैं, बीज वृक्ष है, अदृश्य; और वृक्ष बीज है, दृश्य हो गया।

लेकिन इतनी जगत में चेतना दिखाई पड़ती है, यह पदार्थ में अगर छिपी न हो, तो प्रकट कहां से होगी! यह भी बिल्ट-इन है, इसका भी पदार्थ में छिपा हुआ रूप है। फिर यह कहना गलत है कि पदार्थ में छिपी है, क्योंकि धर्म भी कहता है, एक ही तत्व है; और विज्ञान भी कहता है, एक ही तत्व है। पदार्थ में छिपी है, ऐसा कहने से दो तत्वों का खयाल आता है--पदार्थ है कुछ, चेतना उसमें छिपी है। इसलिए विज्ञान के हिसाब से भी कहना ठीक नहीं कि पदार्थ में छिपी है। धर्म के लिहाज से भी कहना ठीक नहीं कि पदार्थ में छिपी है। फिर तो यही कहना ठीक है कि विज्ञान जिसे विद्युत कहता है, धर्म उसे चेतना कहता है। और धर्म की बात ही ज्यादा सही मालूम पड़ती है। क्योंकि जो प्रकट होता है, वह कहीं मौजूद होना चाहिए। अन्यथा वह प्रकट नहीं हो सकता है।

कृष्ण कहते हैं, जो इस एक तत्व को जानता है।

इसलिए तत्वों की बात उन्होंने नहीं कही। एक ही काफी है। अज्ञानी बहुत चीजों को जानते हैं; ज्ञानी एक को ही जानता है। इसलिए कई बार ऐसा हो सकता है कि अज्ञानी के साथ ज्ञानी परीक्षा में हार जाए।


अज्ञानी बहुत चीजें जानता है। एक को छोड़कर सब जानता है। ज्ञानी सबको छोड़ देता है और एक को जानता है। लेकिन उस एक को जानकर वह सब जान लेता है। और अज्ञानी सबको जानकर कुछ भी नहीं जानता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, एक को जान लेता है जो--एक तत्व को--ऐसे ज्ञानवान व्यक्ति को, ऐसे सांख्य को उपलब्ध व्यक्ति को, इंद्रियों का कर्म अपना किया हुआ नहीं, इंद्रियों का ही किया हुआ मालूम पड़ता है।

यह दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है।

इंद्रियां आपके काम कर रही हैं, लेकिन निरंतर आप एक भ्रांत आइडेंटिटी, एक झूठा तादात्म्य कर लेते हैं और सोचते हैं, मैं कर रहा हूं। जब आपको भूख लगती है, तब आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। कृपा करके फिर से सोचना, भूख आपको लगती है या पेट को लगती है? भूख आपको लगती है या आपको पता चलती है?

इन दोनों में फर्क है। भूख का लगना एक बात है, भूख का पता लगना दूसरी बात है। आपके पेट में जब भूख लगती है, तब आपको पता चलता है कि भूख लगी है। लेकिन भूख तो पेट को ही लगती है। और पेट को जरा से में धोखा दिया जा सकता है। और आपकी भूख मिट जाएगी। एक शक्कर की गोली आपके पेट में डाल दी जाए, पेट धोखे में आ जाएगा। भूख मर जाएगी। आप कहेंगे, भूख खतम हो गई। शक्कर की गोली से भूख खतम नहीं होती। सिर्फ शक्कर की गोली से पेट खबर देना बंद कर देता है कि भूख लगी है। खबर आपको नहीं मिलती; भूख खतम हो जाती है।

भूख तो लगती है पेट को। पेट की इंद्रिय को भूख लगती है। लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी। कान को सुनाई पड़ता है, आप तो सिर्फ जानते हैं कि कान को सुनाई पड़ा। लेकिन आप कहते हैं, मुझे सुनाई पड़ता है। आंख से दिखाई पड़ता है, आपको तो पता चलता है कि आंख को दिखाई पड़ता है। आपको दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन आप कहते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है।

प्रत्येक इंद्रिय से हम अपने को जोड़ लेते हैं। असल में बहुत निकट है इंद्रिय, इसलिए जोड़ना आसानी से हो जाता है। आप चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मे से आपको दिखाई पड़ता है, तो भी आप सोचते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। चश्मे को दिखाई पड़ता है। चश्मे से आंख को दिखाई पड़ता है। आंख से आपको पता चलता है कि दिखाई पड़ रहा है। लेकिन चश्मा अलग हटाकर देखें, तब आपको पता चलेगा। तब आपको पता चलेगा कि नहीं, अब मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा। आप तो वहीं हैं, बीच से चश्मा हट गया। आंख बंद कर लें; आप तो अब भी वहीं हैं, जहां आंख खुली थी तब थे; लेकिन अब दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई आंख से पड़ता है। आंख यंत्र है, उपकरण है। सारी इंद्रियां काम करती हैं और आप अपने को जोड़ लेते हैं कि मैं। मुझे दिखाई पड़ता है; मुझे सुनाई पड़ता है; मुझे भूख लगती है; मुझे प्यास लगती है।

कृष्ण कहते हैं, जो उस एक तत्व को जान लेता है, वह यह भी जान लेता है, इंद्रियां अपना काम कर रही हैं, मैं कर्ता नहीं हूं। और इसलिए कई बार ऐसा भी हो जाता, कई बार ऐसा भी हो जाता है कि इन इंद्रियों के साथ निरंतर तादात्म्य के कारण आप अपने को यही समझ लेते हैं कि मैं इंद्रियों का जोड़ मात्र हूं। इंद्रियों का जोड़ मात्र! फिर उसका कभी पता नहीं चलता, जो जोड़ के पार है। जो ट्रांसेंडेंटल है, उसका कभी पता नहीं चलता।

इंद्रियों से यह जोड़ तोड़ देना पड़ेगा। इसे तोड़ने के दो उपाय हैं। एक तो निरंतर खयाल रखें कि जो इंद्रियों को हो रहा है, वह इंद्रियों को हो रहा है; आपको नहीं हो रहा है। इसकी रिमेंबरिंग चाहिए निरंतर, सतत स्मरण कि भूख पेट को लगी है; दर्द पैर में हो रहा है; कांटा हाथ में चुभा है; शरीर थक गया है। निरंतर, जिन-जिन क्रियाओं के पीछे आप निरंतर मैं का उपयोग करते हैं, बड़ी कृपा होगी, उसके पीछे उनसे संबंधित इंद्रियों का उपयोग करें। कहें कि पैर थक गया है।

और हैरानी होगी, यह बात अनुभव करने से फर्क मालूम पड़ेगा। जब आप कहेंगे, पैर थक गया है, तो इसका परिणाम चित्त पर बिलकुल दूसरा होगा, बजाय उसके, जब आप कहते हैं, मैं थक गया हूं। मैं बहुत बड़ी चीज है। पैर बहुत छोटी चीज है। पैर के थकने से जरूरी नहीं है कि मैं थक जाऊं। मैं बहुत ही और हूं। पैर से अपने को थोड़ा अलग करके देखना शुरू करें। इंद्रियों से थोड़ा दूर खड़े होकर देखना शुरू करें। जैसे-जैसे यह समझ गहरी होगी, वैसे-वैसे लगेगा, इंद्रियां अपना काम करती हैं। मैं कोई कर्ता नहीं हूं।

एक झेन फकीर से किसी ने जाकर पूछा, आपकी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती, तब मैं खाना दे देता हूं। जब नींद आती है, तो मैं बिस्तर लगा देता हूं। तो उस आदमी ने पूछा, किसके लिए? तो झेन फकीर ने कहा, जिसको नींद आती है, उसके लिए; जिसको भूख लगती है, उसके लिए। उस आदमी ने पूछा, आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! इस मकान में, इस झोपड़े में आप अकेले ही दिखाई पड़ते हैं, और तो कोई भी नहीं है!

उस फकीर ने कहा, जब मैं अज्ञानी था, तब मुझे भी एक ही दिखाई पड़ता था इस झोपड़े में। अब मुझे दो दिखाई पड़ते हैं। एक मैं, जो जानने वाला है; और एक वह, जो करने वाला है। जिसे भूख लगती है, वह मैं नहीं हूं। जिसे नींद आती है, वह मैं नहीं हूं। जो थक जाता है, वह मैं नहीं हूं। जो देखता है, जो सुनता है, वह मैं नहीं हूं। अब इस कमरे में एक वह भी है, जो थकता है; और एक वह भी है, जो कभी नहीं थका। एक वह भी, जो दुखी और सुखी होता रहता है; और एक वह भी, जो कभी दुखी और सुखी नहीं हुआ।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति इंद्रियों के काम को इंद्रियों का काम समझता है। जोड़ता नहीं अपने को, अलग जानता है। जितना यह ज्ञान बढ़ता जाता है कि मैं पृथक हूं, उतना ही इंद्रियां मालिक नहीं रह जातीं; गुलाम हो जाती हैं। उतना ही शरीर पर वश, शरीर की मालकियत आ जाती है।

लेकिन हम सारे लोग दुनिया में दूसरों की मालकियत करने में समय गंवा देते हैं, अपनी मालकियत का खयाल ही नहीं आ पाता। दूसरों की मालकियत! लेकिन ध्यान रहे, दूसरों की कितनी ही मालकियत आप कर लें, मालिक आप कभी न हो पाएंगे। मालिक तो सिर्फ वही हो सकता है, जो अपना मालिक हो जाता है। और दूसरों के जो मालिक होते हैं, वे गुलामों के भी गुलाम होते हैं।


असल में जिसको हम बांधते हैं, उससे हम बंध जाते हैं। जिसको हम गुलाम बनाते हैं, उसके हम गुलाम बन जाते हैं। इसलिए इस दुनिया में जितने ज्यादा गुलाम जिस आदमी के पास, उतनी बड़ी उसकी गुलामी। लेकिन दूसरे पर मालकियत का मजा बड़ा है।

और ध्यान रहे, दूसरे की मालकियत का मजा केवल उन्हीं को है, जिन्होंने अपनी मालकियत का रस नहीं जाना। जिसने एक बार भी अपनी मालकियत का रस जाना, वह इस दुनिया में किसी का मालिक न होना चाहेगा। क्योंकि वह जानता है कि किसी का मालिक होना, अपनी गुलामी के आधार रखना है। लेकिन हम बड़ा रस लेते हैं।

जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो कि पाएं कि जिंदगी गंवायी, थोड़ा मालिक होने का मजा लिया।

यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है। लेकिन इससे कम मूढ़ आदमी खोजना मुश्किल है। यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है; आप हंसते हैं इस पर। लेकिन जिंदगी के आखिर में अपना हिसाब करीब-करीब ऐसा पाएंगे कि थोड़ा बास होने का मजा लिया! हाथ में कुछ होगा नहीं। हाथ में तो केवल उनके कुछ होता है, जो अपने मालिक।

तो कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति जो तत्व को जान लेता, इंद्रियां अपना काम करती हैं, ऐसा जान लेता, और ऐसा जानते ही दूर खड़ा हो जाता है इंद्रियों के सारे धुएं के बाहर। इंद्रियों की बदलियों के बाहर सूरज के साथ एक हो जाता है।

वह जो सूरज के साथ एक हुआ है, वह मालिक है। उसकी कोई गुलामी नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है। ऐसे व्यक्ति के आनंद की कोई सीमा नहीं है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति का कोई अंत नहीं है। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन हम गंवा रहे हैं; तब तक हम जीवन से कुछ कमा नहीं रहे हैं। चाहे हम कितना ही कमाते हुए मालूम पड़ रहे हों, हम सिर्फ गंवा रहे हैं। यहां ढेर लग जाएगा धन का, और वहां जिंदगी चुक जाएगी। यहां सामान इकट्ठा हो जाएगा, और आदमी खो जाएगा। और यहां संसार की विजय-यात्रा पूरी हो जाएगी, और भीतर हम पाएंगे कि हम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हैं।

इंद्रियों पर थोड़ी जागरूकता लानी जरूरी है। इसलिए कृष्ण के ये वचन सिर्फ व्याख्या से समझ में आ जाएंगे, इस भूल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। ये सारे सूत्र साधना के सूत्र हैं।

लेकिन मजा है, हमारे मुल्क में लोग गीता का पाठ कर रहे हैं! सोचते हैं, पाठ से कुछ हो जाएगा। पाठ तोते भी कर लेते हैं। और पाठ करने वाले अक्सर धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। सब कंठस्थ हो जाता है। दोहराना आ जाता है। यंत्रवत गीता बोलने लगते हैं। सब अर्थ उन्हें पता हैं। सब शब्द उन्हें पता हैं। गीता पूरी कंठस्थ है। करने को कुछ बचता नहीं। कृष्ण अपना सिर ठोकते होंगे।

गीता के सूत्र साधना के सूत्र हैं। समझ लिया कि ठीक बात है, इंद्रियां अपना काम करती हैं। लेकिन कल सुबह फिर कहा कि मुझे भूख लगी है, तो गलती है। फिर समझे नहीं। फिर भीतर से थोड़ा सोचना चाहिए, मुझे भूख लगती है?

इंद्रियों के प्रत्येक कृत्य में खोजकर देखें, कर्ता आप नहीं हैं। इंद्रियों का समस्त कर्म प्रकृति से हो रहा है। आपकी कोई भी जरूरत नहीं है। कभी आप खयाल करते हैं! खाना तो आप मुंह में डाल लेते हैं; पचाते आप हैं? कौन पचाता है? खाना आप खाते हैं; पचाता कौन है? कभी पता चलता है, कौन पचा रहा है? इंद्रिय पचा रही है। पता ही नहीं चलता, कौन पचा रहा है! कौन इस रोटी को खून बना रहा है! मिरेकल घट रहा है पेट के भीतर।

अभी वैज्ञानिक फिलहाल समर्थ नहीं हैं। कहते हैं कि शायद अभी और काफी समय लगेगा, तब हम रोटी से सीधा खून बना सकेंगे। आपका पेट कर ही रहा है वह काम बिना किसी बड़े आइंस्टीन की बुद्धि के। इंद्रिय कुछ आइंस्टीन से कम बुद्धिमान मालूम नहीं पड़ती! प्रकृति कुछ कम रहस्यपूर्ण नहीं मालूम पड़ती।

वैज्ञानिक कहते हैं, और अगर हम किसी दिन रोटी से खून बनाने में समर्थ भी हो गए, तो एक आदमी का पेट जो काम करता है, उतना काम करने के लिए कम से कम एक वर्ग मील जमीन पर फैक्टरी बनानी पड़ेगी! एक पेट में जो काम चलता है, एक वर्ग मील का भारी कारखाना होगा, तब कहीं हम रोटी को खून तक ले जा सकते हैं। वह भी अभी सूत्र साफ नहीं हो सके। लेकिन आप रोज कर रहे हैं। कौन कर रहा है? आप कर रहे हैं? आप तो सो जाते हैं रात, तब भी होता रहता है। आप शराब पीकर नाली में पड़े रहते हैं, तब भी होता रहता है।


इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे भीतर फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे द्वारा बाहर के आकाश और जगत तक फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति का यंत्र हैं, वे अपना काम कर रही हैं, भूलकर उनसे अपने को न जोड़ें। जो इंद्रियों से अपने को जोड़ता है, वह अज्ञानी है। जो इंद्रियों से अपने को अलग देख लेता है, वह ज्ञानी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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