गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 8

 


 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।

युक्त इच्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाग्चनः।। 8।।


और ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है अंतःकरण जिसका, विकाररहित है स्थिति जिसकी और अच्छी प्रकार जीती हुई हैं इंद्रियां जिसकी तथा समान है मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण जिसको, वह योगी युक्त अर्थात भगवत की प्राप्ति वाला है, ऐसा कहा जाता है।



इस श्लोक में पिछले सूत्र में कुछ और नई दिशाएं संयुक्त की गई हैं। ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो!

ज्ञान कहते हैं स्वयं को जान लेने को। विज्ञान कहते हैं पर को जान लेने को। विज्ञान का अर्थ है, दूसरे को जानने की जो व्यवस्था है। ज्ञान का अर्थ है, स्वयं को जान लेने की जो व्यवस्था है।

कृष्ण कहते हैं, तृप्त है जो ज्ञान-विज्ञान से। इसका क्या अर्थ होगा? इसका क्या यह अर्थ होगा कि जो व्यक्ति आत्मज्ञानी है, योगारूढ़ है, योग को उपलब्ध है, क्या वह समस्त विज्ञान को जानकर तृप्त हो गया है?

ऐसा अर्थ लेने की कोशिश की गई है, जो गलत है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो इस हमारे भारत में, जहां हमने बहुत योगारूढ़ व्यक्ति पैदा किए, हमने समस्त विज्ञानों का सार खोज लिया होता। वह हमने नहीं खोजा। तब तो हमारा एक योगी समस्त आइंस्टीनों और समस्त न्यूटनों और समस्त प्लांकों का काम पूरा कर देता। तब तो कोई बात ही न थी। तब तो अणु का रहस्य हम खोज लिए होते। तब तो समस्त विराट ऊर्जा का जो भी रहस्य है, हमने खोज लिया होता। इसलिए जो इसका ऐसा अर्थ लेता हो, वह गलत लेता है। ऐसा इसका अर्थ नहीं है। इसका अर्थ और गहरा है। यह बहुत ऊपरी अर्थ भी है, यह बहुत गहरा अर्थ भी नहीं है।

समस्त ज्ञान-विज्ञान से आत्मा है तृप्त जिसकी!

विज्ञान से तृप्ति का अर्थ है, जिसके जीवन से कुतूहल विदा हो गया। कुतूहल, क्यूरिआसिटी विदा हो गई। असल में क्यूरिआसिटी बहुत बचकाने मन का लक्षण है।

यह बहुत सोचने जैसी बात है। जितनी छोटी उम्र, उतना कुतूहल होता है--यह कैसा है, वह कैसा है? यह क्यों हुआ, यह क्यों नहीं हुआ? जितना छोटा मन, जितनी कम बुद्धि, उतना कुतूहल होता है।

इसलिए एक और बड़े मजे की बात है कि जिस तरह बच्चे कुतूहल से भरे होते हैं, इसी तरह जो सभ्यताएं बचकानी होती हैं, वे विज्ञान को जन्म देती हैं। बहुत हैरानी होगी! जो सभ्यताएं जितनी चाइल्डिश होती हैं, उतनी साइंटिफिक हो जाती हैं।

योरोप या अमेरिका एक अर्थों में बहुत बचकाने हैं, बहुत बालपन में हैं, इसलिए वैज्ञानिक हैं। कुतूहल भारी है। चांद पर क्या है, जानना है! कुतूहल भारी है। मंगल पर क्या है, जानना है! जानते ही चले जाना है। कुतूहल का तो कोई अंत नहीं है। क्योंकि संसार का कोई अंत नहीं है।

इसलिए कोई सोचता हो कि जब मैं सब जान लूंगा, तब तृप्त होऊंगा, तो वह पागल है। वह सिर्फ पागल हो जाएगा।

ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जिसका मन, इसका अर्थ? इसका अर्थ है, जिसका कुतूहल चला गया। जो इतना प्रौढ़ हो गया कि अब वह यह नहीं पूछता कि ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है।

फर्क समझें। बच्चे पूछते हैं, ऐसा क्यों है? वृक्ष के पत्ते हरे क्यों हैं? गुलाब का फूल लाल क्यों है? आकाश में तारे क्यों हैं? प्रौढ़ व्यक्ति कहता है, ऐसा है। वह कहता है, ऐसा है। क्योंकि अगर पत्ते वृक्ष के पीले होते, तो भी तुम पूछते कि पीले क्यों हैं? अगर वृक्ष पर पत्ते न होते, तो तुम पूछते कि पत्ते क्यों नहीं हैं?

प्रौढ़ व्यक्ति जानता है, जगत ऐसा है। इसलिए प्रौढ़ सभ्यताओं ने विज्ञान को जन्म नहीं दिया, प्रौढ़ सभ्यताओं ने धर्म को जन्म दिया। जब भी सभ्यता अपने प्राथमिक चरण में होती है, तो विज्ञान को जन्म देती है; और जब सभ्यता अपने शिखर पर पहुंचती है, तो धर्म को जन्म देती है। धर्म उस प्रौढ़ मस्तिष्क की खबर है, जो कहता है, चीजें ऐसी हैं।

कुतूहल व्यर्थ है, बचकाना है। बच्चे करें, ठीक। कुतूहल बचपन है।

तो जब कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है जो, जिसके अब कोई प्रश्न न रहे! उसका यह मतलब नहीं है कि जिसको सब उत्तर मिल गए। सब उत्तर कभी किसी को मिलने वाले नहीं हैं। और अगर किसी दिन सब उत्तर मिल गए, तो उससे खतरनाक कोई स्थिति न होगी। जिस दिन सब उत्तर मिल जाएंगे, उस दिन मरने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और जिस दिन सब उत्तर मिल जाएंगे, उसका यही अर्थ होगा कि परमात्मा सीमित है, अनंत नहीं है, असीम नहीं है। जो असीम है सत्य, उसके बाबत सब उत्तर कभी नहीं मिल सकते।

सब उत्तर कामचलाऊ हैं। कल नए प्रश्न खड़े हो जाएंगे और सब उत्तर बिखर जाते हैं। जब न्यूटन एक उत्तर देता है, तो बिलकुल सही मालूम पड़ता है। बीस-पच्चीस साल बीत नहीं पाते हैं कि दूसरा आदमी नए सवाल खड़े कर देता है और न्यूटन के सब उत्तर बिखर जाते हैं। फिर आइंस्टीन उत्तर देता है, पुराने उत्तर बिखर जाते हैं। अब तो हर दो साल में उत्तर बिखर जाते हैं, नए सवाल खड़े हो जाते हैं। सब पुराने उत्तर एकदम गिर जाते हैं।

प्रौढ़ व्यक्ति जानता है कि सब उत्तर मनुष्य के द्वारा निर्मित हैं और अस्तित्व निरुत्तर है। अस्तित्व निरुत्तर है, इसीलिए अस्तित्व रहस्य है।

रहस्य का मतलब होता है, निरुत्तर। जहां से कोई उत्तर कभी नहीं आएगा। कोई चरम उत्तर नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि बस, यह उत्तर हो गया। कोई ऐसा नहीं है।  उत्तर हैं, लेकिन कोई उत्तर नहीं है, जो कह दे कि बस, यह उत्तर हो गया; अब कोई सवाल उठने का सवाल न रहा। कुतूहल पैदा होता ही चला जाएगा। और हर नया उत्तर नए प्रश्नों के कुतूहल पैदा कर जाता है।

जब कोई व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है कि किसी प्रश्न का कोई अंतिम उत्तर नहीं है, तब वह प्रश्न ही छोड़ देता है। उस प्रश्न-गिरी हुई स्थिति का नाम, विज्ञान-ज्ञान से तृप्त हो जाना है। वह व्यक्ति प्रौढ़ हुआ। उस व्यक्ति का अब कोई कुतूहल न रहा। अब वह राह से गुजर जाता है बिना पूछे, क्योंकि वह जानता है कि पूछ-पूछकर भी कुछ नहीं पाया जा सकता है। और सब उत्तर सिर्फ नए प्रश्नों को जन्म देने वाले सिद्ध होते हैं। न वह अब यह पूछता है कि मैं कौन हूं? न वह अब यह पूछता है कि तू कौन है? वह पूछता ही नहीं।

क्या होगा? जब कोई नहीं पूछता है, तब कौन-सी घटना घटेगी? जब चित्त कोई भी प्रश्न नहीं पूछता, तब बड़े रहस्य की बात है। जब कोई भी प्रश्न नहीं होता चित्त में, सब प्रश्न गिर जाते हैं, तब चित्त इतना मौन होता है, इतना शांत होता है कि किसी दूसरे मार्ग से जीवन के रहस्य के साथ एक हो जाता है। उत्तर नहीं मिलता, लेकिन जीवन मिल जाता है। उत्तर नहीं मिलता, लेकिन अस्तित्व मिल जाता है। वही उत्तर है। रहस्य के साथ आत्मसात हो जाता है।

एक ढंग है, पूछकर जानने का; और एक ढंग है, न पूछकर जानने का। न पूछकर जानने का ढंग, धर्म का ढंग है। पूछकर जानने का ढंग, विज्ञान का ढंग है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान दोनों से जो तृप्त हो गया। प्रौढ़ हो गया, मैच्योर हुआ, अब पूछता ही नहीं। क्योंकि कहता है, सब पूछना बच्चों का पूछना है। और सब उत्तर थोड़े ज्यादा उम्र के बच्चों के द्वारा दिए गए उत्तर हैं। और कोई फर्क नहीं है। थोड़ी छोटी उम्र के बच्चे सवाल पूछते हैं; थोड़ी बड़ी उम्र के बच्चे सवालों का जवाब दे देते हैं।

कभी आपने घर में खयाल किया कि अगर आपके घर में दो बच्चे हैं, एक छोटा है, एक थोड़ा बड़ा है। आपसे सवाल पूछते हैं; आप जवाब देते हैं। आप जरा घर के बाहर चले जाएं। छोटा बच्चा बड़े बच्चे से सवाल पूछने लगता है, बड़ा बच्चा छोटे बच्चे को जवाब देने लगता है। वही काम जो आप कर रहे थे, वह करने लगता है!

ये सब सवाल-जवाब बच्चों के बीच हुई चर्चाएं हैं। प्रौढ़ता उस क्षण घटित होती है, जहां कोई सवाल नहीं है, जहां कोई जवाब नहीं है, जहां इतना परम मौन है कि पूछने का भी कोई--कोई पूछने का भी विघ्न नहीं है।

तो कृष्ण कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से जो तृप्त है।

नहीं, ऐसा नहीं कि सब ज्ञान-विज्ञान जान लिया। बल्कि ऐसा कि सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब जानने की चेष्टा को ही व्यर्थ जाना। सब कुतूहल व्यर्थ जाने। सब पूछना व्यर्थ जाना। फ्यूटिलिटी जाहिर हो गई कि कुछ पूछने से कभी कुछ मिला नहीं। यही अंतर है फिलासफी और धर्म का। यही अंतर है दर्शन और धर्म का।

दार्शनिक पूछे चले जाते हैं। वे बूढ़े हो गए बच्चे हैं, जिनका बचपन हटा नहीं। वे पूछे चले जाते हैं। वे पूछते हैं, जगत किसने बनाया? और पूछते हैं कि फिर उस बनाने वाले को किसने बनाया? और फिर पूछते हैं कि उस बनाने वाले को किसने बनाया? और पूछते चले जाते हैं। और उन्हें कभी खयाल भी नहीं आता कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं! इसका कोई अंत होगा? इसका कोई भी तो अंत नहीं होने वाला है।

अज्ञान अपनी जगह रहेगा। ये सारे उत्तर अज्ञान से दिए गए उत्तर हैं। इनसे कुछ हल नहीं होगा। प्रश्न फिर खड़ा हो जाएगा। पूछते हैं, जगत किसने बनाया? कहते हैं, ईश्वर ने बनाया। अज्ञान में दिया गया उत्तर है। सच तो यह है कि अज्ञानी ही पूछते रहते हैं, अज्ञानी ही उत्तर देते रहते हैं!

उत्तर और प्रश्नों में जगत की पहेली हल होने वाली नहीं है। तो कहते हैं कि जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, ऐसे भगवान ने यह संसार बना दिया। भगवान को भी कुम्हार बनाने से नहीं चूकते! उसको कुम्हार बना दिया। घड़ा कैसे बनेगा बिना कुम्हार के? तो जगत कैसे बनेगा बिना भगवान के? तो एक महा कुम्हार, उसने घड़े की तरह जगत को बना दिया।

लेकिन कोई बच्चा जरूर पूछेगा कि यह तो हम समझ गए कि जगत उसने बना दिया, लेकिन उसको किसने बनाया? तो जो जरा धैर्यवान हैं, वे फिर कुछ और उत्तर खोजेंगे। कोई अधैर्यवान हैं, तो डंडा उठा लेंगे। वे कहेंगे, बस, अतिप्रश्न हो गया! अब आगे मत पूछो, नहीं सिर खोल देंगे!

जब अतिप्रश्न ही कहना था, तो पहले प्रश्न पर ही कह देना था कि व्यर्थ मत पूछो। क्योंकि फर्क क्या पड़ा! बात तो वहीं की वहीं खड़ी है। राज वहीं का वहीं खड़ा है। सिर्फ प्रश्न पहले जगत के साथ लगा था कि किसने बनाया, अब वही प्रश्न परमात्मा के साथ लग गया कि किसने बनाया। अल्टिमेट के साथ जुड़ा है वह, अल्टिमेट के साथ ही जुड़ा हुआ है। पहले जगत आखिरी था, अब परमात्मा आखिरी है। हम पूछते हैं, उसको किसने बनाया? और अगर आप कहते हैं कि वह बिना बनाया, स्वयंभू है, तो फिर पहले जगत को ही स्वयंभू मान लेने में कौन-सी अड़चन आती थी?

दार्शनिक बच्चों के कुतूहल में पड़े हुए लोग हैं। इसलिए सब फिलासफी चाइल्डिश होती है। कितने ही बड़े दार्शनिक हों, कितने ही गुरु-गंभीर उन्होंने ग्रंथ लिखे हों, चाहे हीगल हों और चाहे बड़े मीमांसक हों, कितने ही उन्होंने गुरु-गंभीर ग्रंथ लिखे हों और कितने ही बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग किया हो और कितना ही जाल बुना हो, अगर बहुत गहरे में उतरकर देखेंगे, तो छिपा हुआ बच्चा पाएंगे, जो कुतूहल कर रहा है,  कि यह क्यों है, वह क्यों है! फिर अपने ही उत्तर दे लेता है। खुद के ही सवाल हैं और खुद के ही जवाब हैं और खुद का ही खेल है।

कृष्ण कहते हैं, जो तृप्त हुआ इस सब बचकानेपन से। जो प्रौढ़ हुआ, जो कहता है, पूछना ही व्यर्थ है, क्योंकि उत्तर कौन देगा! जो इतना प्रौढ़ हुआ कि कहता है कि चीजों का स्वभाव ऐसा है। कोई सवाल नहीं है। आग जलाती है और पानी ठंडा है। ऐसा है। ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है।

महावीर का एक वचन है बहुत कीमती, जिसमें उन्होंने कहा है, वत्थूस्वभावो धम्म, वस्तु के स्वभाव को जान लेना ही धर्म है। ऐसा जान लेना कि ऐसा वस्तुओं का स्वभाव है; इसका यह स्वभाव है, उसका वह स्वभाव है; बस, इतना ही जान लेना धर्म है। मगर ऐसा जानना तभी संभव हो सकता है, जब ज्ञान-विज्ञान की वह जो जिज्ञासा है--अनंत जिज्ञासा है, दौड़ाती ही रहती है कि और जानूं, और जानूं--वह शांत हो जाए, तृप्त हो जाए।

तो कृष्ण कहते हैं, जिसकी जिज्ञासा, जिसका कुतूहल क्षीण हुआ, जो प्रौढ़ हुआ। जिसने अस्तित्व को स्वीकार किया और पूछना बंद किया। और जिसने जाना कि मैं एक लहर हूं इस विराट सागर में, क्या पूछूं? किससे पूछूं? कौन देगा जवाब? मैं खुद ही जवाब हूं। चुप हो जाऊं, मौन हो जाऊं, उतरूं गहरे में। जानूं कि अस्तित्व क्या है! पूछूं न, उत्तर की तलाश न करूं, अनुभव की तलाश करूं। उस अनुभव में जो फलित होता है, उस अनुभव में व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है, ऐसा जानने वालों ने कहा है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा जानने वालों ने कहा है। ऐसा कहा जाता है।


ऐसा कृष्ण इसलिए कहते हैं कि मेरा कोई दावा नहीं है कि ऐसा मैं कहता हूं। जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने ऐसा ही कहा है। मैं कोई दावेदार नहीं हूं। कृष्ण ऐसा नहीं कहते कि ऐसा मैं ही कह रहा हूं। ऐसा उन्होंने भी कहा है, जो जानते हैं। ज्ञान ऐसा कहता है। इससे व्यक्ति को विदा करने की कोशिश है।


और ध्यान रहे, ज्ञानी में व्यक्ति नहीं रह जाता। बोले, तो भी नहीं रह जाता। मैं कहे, तो भी नहीं रह जाता। ये सिर्फ कामचलाऊ बातें रह जाती हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ऐसा कहा जाता है। ऐसा मैं भी कहता हूं। ऐसा और भी कहते हैं। ऐसा जो भी जानते हैं, वे कहते हैं। ऐसा ज्ञान का कथन है। ऐसा ज्ञान कहता है।

समस्त द्वंद्वों से पार, कुतूहल से पार, व्यर्थ जानने की दौड़ और जिज्ञासा से पार, प्रौढ़ हुआ चित्त, समतुल हुआ चित्त, निर्द्वंद्व हुआ चित्त, समबुद्धि में ठहरा हुआ चित्त, अकंप हुआ चित्त, परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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