ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।। १३ ।।
जो पुरुष 'ओम् इति' - ओम् इतना ही, जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है, इसका जप तथा मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है।
श्रीकृष्ण एक योगेश्वर, परमतत्त्व में स्थित महापुरुष, सद्गुरु थे। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि 'ओम्' अक्षय ब्रह्म का परिचायक है, तू इसका जप कर और ध्यान मेरा कर । प्राप्ति के हर महापुरुष का नाम वही होता है जिसे वह प्राप्त है, जिसमें वह विलय है इसलिये नाम ओम् बताया और रूप अपना । योगेश्वर ने 'कृष्ण-कृष्ण' जपने का निर्देश नहीं दिया लेकिन कालान्तर में भावुकों ने उनका भी नाम जपना आरम्भ कर दिया और अपनी श्रद्धा के अनुसार उसका फल भी पाते हैं; जैसा कि, मनुष्य की श्रद्धा जहाँ टिक जाती है वहाँ मैं ही उसकी श्रद्धा को पुष्ट करता तथा मैं ही फल का विधान भी करता हूँ ।
भगवान शिव ने 'राम' शब्द के जपने पर बल दिया। 'रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः ' 'रा और म के बीच में कबिरा रहा लुकाय । ' रा और म इन दो अक्षरों के अन्तराल में कबीर अपने मन को रोकने में सक्षम हो गये ।
श्रीकृष्ण ओम् पर बल देते हैं। ओ अहं स ओम् अर्थात् वह सत्ता मेरे भीतर है, कहीं बाहर न ढूँढ़ने लगे। यह ओम् भी उस परम सत्ता का परिचय देकर शान्त हो जाता है। वास्तव में उन प्रभु अनन्त नाम हैं; किन्तु जप के लिये वही नाम सार्थक है जो छोटा हो, श्वास में ढल जाय और एक परमात्मा का ही बोध कराता हो। उससे भिन्न अनेक देवी-देवताओं की अविवेकपूर्ण कल्पना में उलझकर लक्ष्य से दृष्टि न हटा दें।
प्राण- अपान के चिन्तन में 'कृष्ण' नाम का क्रम पकड़ में नहीं आता। बहुत से लोग कोरी भावुकतावश केवल 'राधे-राधे' कहने लगे हैं। आजकल अधिकारियों से काम न होने पर उनके सगे-सम्बन्धियों से, प्रेमी या पत्नी से 'सोर्स' लगाकर काम चला लेने की परम्परा है। लोग सोचते हैं कि कदाचित् भगवान के घर में भी ऐसा चलता होगा, अतः उन्होंने 'कृष्ण' कहना बन्द करके 'राधे-राधे' कहना आरम्भ कर दिया। वे कहते हैं- 'राधे-राधे ! श्याम 'मिला दे।' राधा एक बार बिछुड़ी तो स्वयं श्याम से नहीं मिल पायी, वह आपको कैसे मिला दे ? अतः अन्य किसी का कहना न मानकर श्रीकृष्ण के आदेश को आप अक्षरशः मानें, ओम् का जप करें। हाँ, यहाँ तक उचित है कि राधा हमारा आदर्श हैं, उतनी ही लगन से हमें भी लगना चाहिये । यदि पाना है तो राधा की तरह विरही बनना है।
प्रारम्भिक साधक नाम तो जपते हैं; किन्तु कृष्ण के स्वरूप का ध्यान करने में हिचकते हैं। वे अपनी अर्जित मान्यताओं का पूर्वाग्रह छोड़ नहीं पाते। वे किसी अन्य देवता का ध्यान करते हैं, जिसका योगेश्वर श्रीकृष्ण ने निषेध किया है । अत: पूर्ण समर्पण के साथ किसी अनुभवी महापुरुष की शरण लें। पुण्य-पुरुषार्थ सबल होते ही कुतर्कों का शमन और यथार्थ क्रिया में प्रवेश मिल जायेगा। योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार इस प्रकार 'ॐ' के जप और परमात्मस्वरूप कृष्ण के स्वरूप का निरन्तर ध्यान करने से मन का निरोध और विलय हो जाता है और उसी क्षण शरीर के सम्बन्ध का त्याग जाता है। केवल मरने से शरीर पीछा नहीं छोड़ता ।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः । । १४ । ।
"मेरे अतिरिक्त और कोई चित्त में है ही नहीं।"- अन्य किसी का चिन्तन न करता हुआ अर्थात् अनन्य चित्त से स्थिर हुआ जो अनवरत मेरा स्मरण करता है, उस नित्य मुझमें युक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ । आपके सुलभ होने से क्या मिलेगा?
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः । । १५ ।।
मुझे प्राप्त कर वे दुःखों के स्थानस्वरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते, बल्कि परमसिद्धि को प्राप्त होते हैं अर्थात् मुझे प्राप्त होना अथवा परमसिद्धि को प्राप्त होना एक ही बात है। केवल भगवान ही ऐसे हैं, जिन्हें पाकर उस पुरुष का पुनर्जन्म नहीं होता। फिर पुनर्जन्म की सीमा कहाँ तक है?
यथार्थ गीता