शनिवार, 2 जुलाई 2022

नारद देवलोक में

“कहिये देवेन्द्र! आज तो आप अत्यंत प्रसन्न प्रतीत हो रहे हैं। अप्सरायें हैं, सोमरस है... तात्पर्य, राग-रंग का सम्पूर्ण आयोजन है.... और वह भी ऐसे समय में, जब रावण किसी भी समय आप पर आक्रमण करने हेतु प्रस्तुत है।"

 नारद ने आश्चर्य का प्रदर्शन करते हुए कहा-

 “जब रावण के तत्काल आक्रमण का कोई भय नहीं था, तब आप व्यथित थे; आपके स्वभाव का यह विलोम भाव तो नारद के लिये रहस्य बन गया है।" 

उनकी उँगलियाँ अनजाने ही वीणा के तारों को छेड़ रही थीं।

“प्रणाम देवराज! सब आपकी महिमा हैं। आपके ही मार्गदर्शन से हम देव अपनी उस मनःस्थिति से उबरने में समर्थ हुए हैं, और अब आपकी ही योजना के क्रियान्वयन में लगे हुए हैं। ”

 नारद के आगमन से नृत्यरत अप्सरायें भी रुक गयी थीं। देवों के उपरान्त उन सभी ने भी नारद को प्रणाम किया। नारद ने भी आशीर्वाद दिया।


“जानकर सन्तोष हुआ | " 

नारद बोले । फिर अप्सराओं की ओर संकेत करते हुए बोले- “अच्छा अब  तनिक इस रागरंग की सभा को विसर्जित कीजिये। थक गयी होंगी ये अप्सरायें, इन्हें विश्राम करने दीजिये । "


“क्यों मुनिवर? नृत्य और संगीत तो मन को आनंद देते हैं, क्या ये अप्सरायें सुन्दर नहीं लग रहीं आपको ? आदेश हो तो उर्वशी या रम्भा को आमंत्रित किया जाये?"

 इन्द्र ने चुटकी ली।

 “अरे नहीं देवेन्द्र! इन्हें विश्राम ही करने दीजिये, मुझे तो जबसे नारायण ने मोहिनी प्रकरण में  मूर्ख बनाया था, तभी से सुन्दरियों को देखकर भय होने लगता है, अपना वही वानर रूप स्मरण होने लगता है। "

इन्द्र सहित सभी देव, देवर्षि के अभिनय पर हँस पड़े। अग्निदेव हठात बोल पड़े

“देवर्षि! इस समय आपके नारायण यहाँ हैं कहाँ, और हममें से किसी का साहस नहीं कि आपके साथ वैसा कोई कृत्य करें।”

“नारद पर तो कृपा ही बनाये रखिये; मुझे तो अब समस्त नारियाँ मातावत् ही प्रतीत होती हैं,और माता की शारीरिक सुन्दरता या कुरूपता कोई अर्थ नहीं रखती। माता का तो मन देखा जाता है, और वह सदैव अतीव सुन्दर ही होता है । "

“जैसी आपकी आज्ञा !”

 कहते हुए इन्द्र ने सबको जाने का संकेत किया, सब अप्सरायें और वादक, सारा सामान समेटकर प्रस्थान कर गये।

"मुनिवर ! सोमरस चलेगा?”

 इन्द्र ने पुन: चुटकी ली। 

“आ गये न अपने वास्तविक रूप में देवेन्द्र! किन्तु यह तो कहना ही पड़ेगा कि आप अच्छे आतिथेय नहीं हैं।”

“अरे! ऐसा आक्षेप क्यों मुनिवर? देवेन्द्र तो आपको सोमरस पान का निमंत्रण दे रहे हैं।”

 हँसते हुए पंचम आदित्य बोलें।

 “हाँ! हाँ! ऐसा निमन्त्रण तो देवेन्द्र बड़ी कृपणता से ही देते हैं।" अष्टग वसु ने बात को आगेबढ़ाया।

 “सोमरस पान आप लोगों को ही शोभा देता है; नारद की मदमत्त होकर किसी कोने में अचेत पड़े रहने की कोई आकांक्षा नहीं है; वैसे सुना है कि इस बार नंदन कानन में सुस्वादु फलों की बहार आई हुई है। नारद तो उन फलों को चखने के चाव से आया था, उसके लिये आपके देवेन्द्र पूछ ही नहीं रहे। चतुर कृपण ऐसा ही करते हैं; व्यक्ति को जिस वस्तु की चाह नहीं होती, उसके लिए वही प्रस्तुत करते हैं। जिसकी चाह होती है वह छुपा लेते हैं।”

 “इतनी छोटी से बात मुनिवर! अभी लीजिये..."

 कहते हुये इन्द्र ने ताली बजाई। जैसे जादू के जोर से एक चर उपस्थित हो गया- 

“जाओ, नंदन से छाँट-छाँटकर सर्वश्रेष्ठ ताजे फल लेकर आओ।” “रुको तुम! कहीं नहीं जाना है।" 

उस चर को रोकते हुए नारद बोले-

 “फलों का वास्तविक आनंद तो अपने हाथ से तोड़कर खाने में ही हैं; नारद को फलों से तृप्त करना हैं तो नंदन में ही चलिये। ” 

नारद ने हँसते हुए कहा । उनका लहजा देखकर सारे देव भी हँसने लगे। इसी बीच किसी ने चर को इशारा कर दिया, वह वापस चला गया।

“चलिये ऐसा ही सही।”

 देवेंद्र अपनी हँसी रोकने का प्रयास करते हुए बोले- 

“मुनिवर का मंतव्य यदि कोई समझ जाये, तब फिर इनकी विशेषता ही क्या रह जाये। चलिये भाई सब लोग, नर्तन तो हमें करना ही पड़ेगा मुनिवर की बीन पर” 

एक समवेत अट्टहास गूँज गया सभाभवन में। सब उठ खड़े हुए और नंदन कानन की ओर चल पड़े।

 “हाँ तो देवेन्द्र! क्या उपलब्धियाँ हैं आपके गुरुकुलों की?" अट्टहास थमने के बाद मार्ग में नारद ने प्रश्न किया।

“उत्साहजनक हैं मुनिवर! कई लक्ष दुर्जेय वानर योद्धा प्रशिक्षित किये जा चुके हैं, युद्ध का समय आते-आते यह संख्या अभी और बढ़ेगी।”

“मुझे तो प्रसन्नता है देवेन्द्र कि आप अपनी हताशा से बाहर आ गये। यही सबसे बड़ा उपाय है; अभी पूर्व की भेंट में किस प्रकार इस योजना को व्यर्थ बता रहे थे |”

 “देव क्षमा प्रार्थी हैं मुनिवर ! हम अपनी हताशा में आपके कौटिल्य का उचित मूल्यांकन नहीं कर पाये।” 

इन्द्र ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा|

 “तात्पर्य? आप नारद को कुटिल व्यक्ति की संज्ञा प्रदान कर रहे हैं? आप नारद का अपमान कर रहे हैं?” 

नारद ने अभिनय पूर्वक कहा।

“अन्यथा क्यों ले रहे हैं देवर्षि! कौटिल्य तो राजनीति का सर्वोच्च गुण हैं; मुझे तो प्रतीत होता हैं आपने इस गुण में अब अपने नारायण को भी बहुत पीछे छोड़ दिया है।”

“क्या बात करते हैं देवेन्द्र! नारायण अद्वितीय हैं; नारद ने जो भी गुण ग्रहण किये हैं, उन्हीं की कृपा हैं... उन्हीं की प्रेरणा हैं।”

“यह तो आपकी महानता है देवर्षि, जो आप श्रेय स्वीकार करने में संकोच कर रहे हैं, अन्यथा आज यदि देव स्वयं को किसी सीमा तक चिन्तामुक्त अनुभव कर रहे हैं, तो इसके नेपथ्य में सम्पूर्ण उद्योग भी आपका है, और सम्पूर्ण कौशल भी आपका ही हैं। सम्पूर्ण योजना और उसका सटीक क्रियान्वयन आपने ही तो किया है, हम देव तो हताश - निराश बैठे मन ही मन पितामह को अभिशाप दे रहे थे ।”

“यही तो हमारा मिथ्या अहंकार होता है देवेन्द्र, यही आपमें और नारद में अन्तर है; आप स्वयं को  कर्ता मानते हैं, और नारद स्वयं को मात्र माध्यम मानता है। जो करता है वह दैव करता है, जो करवाता है वह दैव करवाता है। आप विचार कीजिये, नारद ने क्या किया... नारद ने नारायण की प्रेरणा से बालि के मन में एक बीज रोपा, किन्तु उस बीज को उचित समय पर अंकुरित होने का अवसर तो दैव ही प्रदान करेगा। किस प्रकार करेगा, यह तो वही जानता होगा किन्तु करेगा अवश्य यह नारद का विश्वास है। इसी भाँति नारद ने नारायण की प्रेरणा से जामदग्नेय की महान योद्धा बनने की लालसा की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त किया, किन्तु उचित समय पर अर्जुन से जो कुछ करवाया, वह तो दैव ने ही करवाया। ... अगर नारद कुछ भी करने में समर्थ हो पाया, तो तभी हो पाया जब दैव ने उस कार्य को होने देने का मन बना लिया। यदि दैव की इच्छा न होती तो क्या नारद, बालि के मन में संदेह का रोपण कर पाता? अथवा महर्षि जमदग्नि, 'राम' को विश्वामित्र के आश्रम भेजने को सहमत होते?... कदापि नहीं होते।”

 नारद, इन्द्र की आँखों में झाँकते हुये कुछ क्षण मौन रहे, फिर अचानक अपना गाम्भीर्य त्यागते हुए पुन: चुटकी ले उठे

"देवेन्द्र! नारद का परामर्श मानते हुए आप जितना शीघ्र स्वयं को इस कर्ता भाव से मुक्त कर लेंगे, उतना ही शीघ्र आप भी नारद के समान उन्मुक्त हो जायेंगे" 

कहते हुए नारद हँसे, अपनी वीणा के तार छेड़े और फिर आगे बोले-

 “किन्तु नारद जानता है कि आप यह नहीं कर पायेंगे, क्योंकि दैव आपके ऊपर यह कृपा करना नहीं चाहता |" 

“देवर्षि ! क्या आप कभी बिना कटाक्ष किये भी रह सकते हैं?" इन्द्र ने हँसते हुए कहा। आज देवेन्द्र प्रसन्न थे, अन्यथा नारद के कटाक्ष बहुधा उन्हें तिलमिला देते थे।

“लीजिये, वार्ता के मध्य जान ही नहीं पड़ा कि कब नंदन आ गया।" 

मरुत ने कानन में प्रवेश करते हुए नारद से प्रश्न किया-

 “आप तो स्वयं तोड़कर खायेंगे फल?”

नंदन - कानन.... स्वर्ग का प्रसिद्ध उपवन, उसकी विशेषताओं के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। बस इतना ही बहुत हैं कि उसका सौन्दर्य वर्णनातीत था; उसके पुष्प, उसके फल, उसकी लतायें... उसकी प्रत्येक सज्जा वर्णनातीत थी |

 “सेवकों को ही लाने दें देवराज, अन्यथा उन्हें अच्छा नहीं प्रतीत होगा; वे सोचेंगे कि नारद उनके कार्य में अनुचित हस्तक्षेप कर रहा है।" 

मरुत के कटाक्ष की उपेक्षा करते हुये नारद बोलो

“अच्छा देवर्षि! जामदग्नेय ने अर्जुन को तो समाप्त कर दिया, उस विशेष दिवस में स्थितियाँ उसके पक्ष में थीं, किन्तु क्या वह एकाकी सम्पूर्ण हैहय साम्राज्य को समाप्त कर पायेगा ?”

 “वह अपराजेय हैं देवेन्द्र! आपको क्या ज्ञात नहीं कि भार्गव, मात्र हैहयों के ही नहीं, सम्पूर्ण महिष्मती साम्राज्य के समस्त क्षत्रिय वंशों के कुलगुरु हैं? जमदग्नि के उपरांत अब 'राम' ही परम्परानुसार उन सबका कुलगुरु है? सब उसका हृदय से सम्मान करते हैं। अब अर्जुन के पुत्रों का अंत निकट ही हैं। महिष्मती के हैहयों के अतिरिक्त समस्त क्षत्रिय वंश, अर्जुन के पुत्रों को कुलगुरु की हत्या का दोषी मान रहे हैं, जनता उन्हें कुलगुरु की हत्या का दोषी मान रही है। अर्जुन के जीवित रहते किसी की सामर्थ्य नहीं थी उसका विरोध करने की, किन्तु अब अर्जुन के उपरान्त और राम जैसे अजेय योद्धा का नेतृत्व मिल जाने पर ... आपको क्या प्रतीत होता हैं वे हैहयों के प्रति विद्रोह नहीं कर उठेंगे? राम उन सबका नेतृत्व करने जा रहा है, अब वह एकाकी नहीं है, आप उस ओर से निश्चिंत रहियो अति शीघ्र ही हैहयों के सर्वनाश की सूचना आपको मिलेगी।"

देवों के चेहरों की दमक अनायास और बढ़ गयी।

 “आप तो बस एक बार पराजित होने के लिये मानसिक रूप से स्वयं को तैयार कर लें।”

“अब हम हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है; वध हम उसका कर नहीं सकते प्रयास करके ही क्या कर लिया, पितामह के सम्मुख हम सब विवश हैं।" 

"अपने मन से भ्रम निकाल दीजिये देवराज! इस बार रण में मेघनाद भी होगा, वह रावण से भी ज्यादा पराक्रमी है। अब आप प्रयास करके भी रावण को परास्त नहीं कर पायेंगे, दूसरी ओर आपको यह समर, नारायण की अनुपस्थिति में ही करना पड़ेगा । " 

“कैसा अशुभ भाषण कर रहे हैं देवर्षि! विष्णु हमारे पक्ष से युद्ध भला क्यों नहीं करेगा? उसने सदैव ही इन्द्र का साथ दिया है, वह इन्द्र का सहोदर है। ”

“देवराज! आप समझने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे? नारायण, मात्र युद्ध करने हेतु युद्ध नहीं करते; वे युद्ध करते हैं तो प्रतिपक्ष का सम्पूर्ण दलन करने हेतु करते हैं; पूर्व के समस्त समर क्या इसका प्रमाण नहीं हैं?"

इन्द्र ने सहमति व्यक्त की।

“वे जब भी युद्धरत होते हैं, तो प्रतिपक्षी के प्राणों को उसके शरीर से मुक्ति अवश्य प्रदान करते हैं, उनके सुदर्शन चक्र के प्रहार से आज तक कोई जीवित नहीं बचा।”

इन्द्र ने पुन: सहमति व्यक्त की।

 “नारायण ने एक बार ही भूल की थी, जिसका उन्हें आज तक पश्चाताप हैं; उन्होंने माल्यवान और सुमाली को जीवित छोड़ दिया था। किन्तु यूँ ही तो नहीं छोड़ दिया था... ये दोनों तो नारायण को माली पर चक्र का प्रहार करते देखकर ही रण छोड़कर भाग गए  थे... और ऐसे भागे कि फिर खोजे ही नहीं मिले। मिले, तो माल्यवान संन्यास ले चुका था, वह प्रायाश्चित कर रहा था। ऐसे व्यक्ति पर अकारण वार करना तो पराक्रम नहीं कहलाता ? सुमाली तब जाकर प्रकट हुआ, जब वह वृद्ध हो चुका था, जब उसके दौहित्र ; पुत्री के पुत्रद्ध पितामह से वर प्राप्त कर चुके थे। अब उसके वध का कोई अर्थ नहीं है, अब तो रावण का विनाश करना आवश्यक है ... और रावण, पितामह के वचनों के चलते देवों के लिये अवध्य है। तो देवराज! जब नारायण रावण का वध कर ही ... नहीं सकते, तो फिर उनके युद्धक्षेत्र में आने का कोई अर्थ ही नहीं है। वे कदापि युद्ध नहीं करेंगे। रावण यदि क्षीरसागर पर आक्रमण कर देगा, तब भी वे किसी भी बहाने से युद्ध को टाल ही देंगे, भले ही पराजय स्वीकार करने का अभिनय क्यों न करना पड़े। 

" “क्या इसके...” 

इन्द्र ने कुछ कहना चाहा, किन्तु नारद ने हाथ उठाकर उन्हें रोकते हुये अपनी बात जारी रखी

“यद्यपि नारद को पूर्ण विश्वास है कि अपनी सामर्थ्य भर, सुमाली, रावण को कदापि नारायण से नहीं उलझने देगा। वह उनके व्यक्तित्व से भलीभाँति परिचित है; और आप पर विजय प्राप्त करने के बाद लंकेश्वर को किसी अन्य विजय की आवश्यकता भी नहीं रह जायेगी। हाँ, एक कार्य यदि इस युद्ध में आप कर पायें तो नारद व्यक्तिगत रूप से आपका आभारी रहेगा ।”

 "वह क्या?" 

इन्द्र ने आश्चर्य के साथ पूछा। 

“विगत में नारायण से जो भूल हुई थी, उसे आप सुधार दें। "

“तात्पर्य क्या हैं आपका? देवर्षि, आप बात स्पष्ट कहा करें।”

“इस सुमाली नाम के कंटक को निपटा डालें, इस युद्ध के उपरांत आपके पास इसका अवसर कदापि नहीं होगा।" 

“यह कार्य हो जायेगा देवर्षि, वह तो पितामह के रक्षा कवच से बाहर हैं, हम सब अपना ध्यान विशेष रूप से उसी पर केन्द्रित करेंगे।"

 समस्त देवों ने एक स्वर से कहा 

 “अब आप कहिये देवेन्द्र, क्या कह रहे थे?”


“आपने कहा कि भले ही विष्णु को पराजय का अभिनय ही क्यों न करना पड़े, वह रावण से युद्ध नहीं करेगा- क्या इसके लिये वह आलोचना का पात्र नहीं बनेगा?" 

“किसी महत् उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आलोचना स्वीकार करने से कब भयभीत हुये हैं नारायण ? उनका तो सूत्र - वाक्य ही है 'साध्य की शुचिता महत्त्वपूर्ण है, उसके लिये यदि साधन की शुचिता का त्याग भी करना पड़े तो करणीय है।'... फिर यह बात आप कह रहे हैं, जो आलोचना के पात्र बनते ही रहते हैं!”

 नारद ने कटाक्ष कर दिया

 “देवर्षि!”

 इन्द्र आहत स्वर में बोल पड़े।


नारद ने मुस्कुराते हुये इन्द्र को देखा, फिर बोल पड़े- 

“छोड़िये जाने दीजिये.... तो देवराज! निष्कर्ष यही है कि अपने सम्पूर्ण पराक्रम से युद्ध करने के बाद भी इस समय पराजित होना आपकी नियति है... रावण का पक्ष पितामह के वचनों के कवच के बिना भी इस समय आपसे प्रबल है... अब ?" 

"देखेंगे।" 

इन्द्र के स्वर में निराशा थी।

थोड़े से मौन के बाद इन्द्र पुनः बोला

“देवर्षि! एक शंका है। "

“पूछिये।”

“ये जो दक्षिणापथ में हमारे गुरुकुल चल रहे हैं, इनमें अत्यंत प्रतिभाशाली योद्धा सामने आ रहे हैं; आपने बालि और सुग्रीव में फूट अवश्य डलवा दी है, इससे हम देव प्रसन्न भी हैं, किन्तु ये सब योद्धा तो संग्राम के समय बालि के साथ ही होंगे, वही तो वानरराज हैं, और बालि तो रावण का मित्र है, ऐसी स्थिति में आपके इस उद्योग का क्या लाभ होगा?”

“देवेन्द्र! क्या सत्य ही इतने भोले हैं आप? वानर योद्धा अब दो अलग-अलग पक्षों में रहेंगे, किन्तु यह आज की स्थिति है। सर्वश्रेष्ठ वानर योद्धा हनुमान तो अभी से सुग्रीव के पक्ष में है, धीरे-धीर अन्य भी आयेंगे; और नारद का प्रयास तो यही रहेगा कि समय आने पर बालि के स्थान पर किष्किंधा का सिंहासन सुग्रीव के पास हो, ताकि समस्त वानर पक्ष राम के साथ खड़ा हो।"

“कैसे होगा मुनिवर ? क्या सुग्रीव कभी बालि को परास्त कर सकता है?”

“नहीं, किन्तु कुछ तो राम के करने के लिए भी छोड़िये; समय की प्रतीक्षा कीजिये, इसका भी मार्ग मिलेगा।"

"करेंगे देवर्षि ! करनी ही पड़ेगी । "

"वैसे देवेन्द्र! अन्य कौन-कौन से उल्लेखनीय वानर योद्धा हैं, जिन पर आपको गर्व हो रहा हो । ”

 “ हनुमान का नाम तो आपने स्वयं ही लिया अभी ।"

 यह स्वर अब तक शांत भाव से सारा वार्तालाप सुन रहे पवन देव का था। 

“मेरा पुत्रवत, और सूर्यदेव का यह शिष्य, स्वयं में रावण और कुंभकर्ण दोनों को पराजित करने की सामर्थ्य रखता है । " 

“इसी क्रम में... “ 

इन्द्र ने आगे बताना आरंभ किया- 

“सुग्रीव स्वयं, कुबेर का शिष्य गन्धमादन, विश्वकर्मा का शिष्य नल, अग्निदेव का शिष्य नील, अश्विनी कुमारों के शिष्य मैन्द और द्विविद, वरुण के शिष्य सुषेण, पर्जन्य के शिष्य शरभ, ये विशेष उल्लेखनीय हैं; शेष तो मैंने पहले ही बताया कई लक्ष वानर योद्धा गढ़े गये हैं, और अभी भी गढ़े जा रहे हैं। ... और फिर स्वयं पितामह के पुरातन शिष्य, वार्धक्य की ओर अग्रसर जाम्बवान भी तो हैं। वे वृद्ध हो गये हैं तो भी उनके पराक्रम में कोई न्यूनता नही आयी है। हनुमान के पिता केसरी भी तो हैं....."

 “बस-बस देवराज ! पूरी सूची बताने की आवश्यकता नहीं है। आप लोगों की मुखमुद्रा बता रही हैं कि आप अपने शिष्यों की प्रगति से पूर्णतया संतुष्ट हैं।” 

“पूर्णत: मुनिवर ! हमें तो स्वप्न में भी आभास नहीं था कि इन वनवासियों में इतना पराक्रम छिपा हो सकता है; पराक्रम में ही नहीं मुनिवर, वे बुद्ध में भी किसी से कम नहीं हैं।”

***

नारद का विश्वास अन्यथा नहीं था। लगभग एक वर्ष के अन्तराल में जामदग्नेय राम ने हैहय वंश का सम्पूर्ण विनाश कर डाला। इसके लिये उसे इक्कीस बार युद्ध करना पड़ा। नारद के विश्वास के अनुरूप ही महिष्मती क्षेत्र के समस्त क्षत्रिय कुल एक-एक कर उसके पक्ष में आते चले गये थे। उनके इस महान पराक्रम के लिये मानव जाति ने उन्हें षष्ठ विष्णु की मानद उपाधि से विभूषित किया।

विष्णु की उपाधि उस काल में भारत की जनता की आस्था और श्रद्धा का प्रतीक थी। यह कोई औपचारिक उपाधि नहीं थी, जो किसी व्यक्ति, संस्था या राज्य द्वारा प्रदान की जाती हो, यह तो जनहित में किसी असंभावित से कार्य को अपने पराक्रम और चातुर्य से संभव बना देने वाले व्यक्ति को प्राप्त होती थी। श्रद्धा में डूबा कोई भी व्यक्ति अनायास ही इसका सूत्रपात कर देता था, और यदि जनता इससे सहमत होती थी, तो शनैः-शनै: इसे मान्यता देती चली जाती थी। परशुराम के पराक्रम के लिये जनता एक मत से उनकी आभारी थी।

सुलभ अग्निहोत्री 


शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

जनक दुलारी सीताजी

जनक कोई पुस्तक खोले अध्ययन-मनन में मग्न थे। वे वास्तव में विद्या- व्यसनी थी। आर्यावर्त में एकमात्र मिथिला का ही साम्राज्य था, जहाँ शूद्रों और स्त्रियों के अध्ययन पर कोई प्रतिबंध नहीं था। यह अलग बात है कि जनक के प्रोत्साहन के बाद भी अत्यल्प मात्रा में ही ये लोग गुरुकुल जाने में रुचि लेते थे। तभी उनकी दोनों पुत्रियों के आगमन के कलरव ने उनका ध्यान भंग किया। पुत्रियाँ अभी हाल ही में अपना गुरुकुल का अध्ययन पूर्ण कर मिथिला वापस आ गयी थीं। उनके आगमन के साथ ही बहुत दिनों तक नीरव रहे राजप्रासाद में पुन: कोलाहल की भी वापसी हुई थी।

जनक का निवास, राजा का निवास था मात्र इसीलिये उसे राजप्रासाद कहा जा सकता था, अन्यथा वह भी मिथिला के सामान्य निवासियों के भवनों के समान ही था। जनक राजर्षि थे, उनके निवास में भोग विलास का कोई उपक्रम नहीं था। दास-दासी भी बहुत अधिक नहीं थे। बड़ी पुत्री सीता की वयस चौदह वर्ष के लगभग हो गयी थी। सर्वांग सुंदरी- दूध में जैसे हल्की सी केसर मिश्रित कर दी गयी हो। ऐसा रंग, खूब ऊँचा कद, नितम्बों से भी नीचे आती वेणी, मीन भी लजा जाये ऐसे विशाल- चंचल नयन, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे अधरों पर सदैव विलास करती स्मित... विधाता ने जैसे पूरे मन से गढ़ा था उसे। वह जितनी सुन्दर थी उतनी ही विदुषी भी थी, और उतनी ही संस्कारवान भी । योद्धा भी वह बुरी कदापि न थी। ये समस्त गुण छोटी पुत्री उर्मिला में भी थे, किन्तु सीता कुछ विशेष ही थी ।

“पिता! अथर्ववेद को कुछ लोग वेद क्यों नहीं स्वीकारते?” 
सीता, प्रश्न कर रही थी । 
“पुत्री, यह तो वे लोग ही सही बता सकते हैं, मैं कैसे बता दूँ उनकी ओर से?” जनक ने मंद स्मित के साथ कहा।

“आप मुझसे उपहास कर रहे हैं?”

“अरे ! इतना दुस्साहस कैसे कर सकता है जनक ? यदि सीता कहीं रूठ गयीं, तो जनक तो कहीं का नहीं रह जायेगा, क्यों उर्मिला!"

“हाँ सीता ही तो आपकी सगी है, उर्मिला तो कहीं पड़ी मिल गयी थी । ” 
उर्मिला ने मुँह बनाते हुए कहा। सीता वास्तव में सभी की विशेष दुलारी थी, किन्तु इससे उर्मिला को कोई शिकायत नहीं थी । उसे भी तो अपनी दीदी, विश्व में सबसे अच्छी लगती थी; वह थी ही इतनी अच्छी । कम दुलारी उर्मिला भी नहीं थी, और सीता के तो उसमें प्राण बसते थे ।

“ बताइये न!”
 सीता ने जनक से लड़ियाते हुई बोली। उसने उर्मिला की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था। ध्यान देने की कोई आवश्यकता भी तो नहीं थी। वह क्या जानती नहीं थी कि उर्मिला को उससे कितना स्नेह हैं।

“पुत्री! कोई विशेष कारण नहीं है; कुछ पुरातनपंथी विचारधारा के लोग होते हैं, जो किसी नवीन को स्वीकार नहीं करना चाहते, बस वे ही अथर्व को वेद नहीं स्वीकार करते |”
“आप करते हैं?" 
“हाँ, मैं तो करता हूँ!”
“अच्छा, तो आप क्यों करते हैं?”
“बड़ा विकट प्रश्न है यह तो ।” जनक अपनी हँसी को रोकने का प्रयास करते हुए बोले । 
 “हँसिये मत ! उत्तर दीजिये सीधे से।”

इस बीच पीछे से आकर उर्मिला ने उनके गले में हाथ पिरो दिये थे और उनके सिर पर अपनी ठोढ़ी टिकाये दोनों के वार्तालाप का आनंद ले रही थी ।

"वेद क्या हैं?”
 जनक ने थोड़ा गंभीर होते हुए प्रतिप्रश्न किया, फिर स्वयं ही उत्तर भी दिया।
 "वेद, ज्ञान का कोष हैं; तो अब अथर्व वेद भी तो ज्ञान का कोष हैं, आयुर्वेद का जनक है अथर्ववेद, अतीन्द्रिय शक्तियों का ज्ञान देता हैं अथर्ववेद, प्रकृति के कुछ अनसुलझे रहस्यों को समझने का प्रयास करता है अथर्ववेद; और भी बहुत कुछ है उसमें, तो फिर उसे भला वेद क्यों न स्वीकार किया जाए ?"

“तो फिर कुछ लोग उसे वेद क्यों नहीं स्वीकार करना चाहते?”

“बताया तो, वे पुरातनपंथी लोग हैं, वे किसी नवीन को सहजता से स्वीकार नहीं कर सकते; ऐसे लोग तर्क की उपेक्षा कर, मात्र भावना को प्रश्रय दिया करते हैं।” जनक ने सीता के गालों पर
चुटकी लेते हुए कहा

“उई! खेल मत कीजिये, सही से समझाइये, नहीं तो मैं माता से शिकायत कर दूँगी।”

“अरे नहीं, ऐसा मत कर देना, बताता हूँ... बताता हूँ !” जनक ने डरने का अभिनय करते हुए कहा । जनक के अभिनय पर उर्मिला हँस पड़ी। सीता अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक उनके मुख की ओर देख रही थी।

“देखो, पहले ऋग्वेद की सर्जना हुई, फिर..." 
“सर्जना नहीं हुई पिता, ऋषियों ने मंत्रों के दर्शन किये।” पहली बार उर्मिला ने अपनी सम्मति देने का प्रयास किया। जनक ने बड़े प्रयास से अपनी हँसी रोकी, और अपने गले में पड़ी उर्मिला की हथेलियाँ पकड़कर उसे सामने खींचकर उसकी आँखों में देखते हुए पूछा

“अच्छा, किसने बताया यह ?”

“ऋषिका मैत्रेयी ने, ऋषि याज्ञवल्क्य ने, और भी सब तो यही कहते हैं। ”
 “तुम उनकी बात सही से समझीं नहीं पुत्री ।”

“कैसे नहीं समझी? सबने स्पष्ट यही कहा है। " 
“अरे कैसे समझाऊँ तुझे?” जनक अपनी सुदीर्घ जटाओं पर हाथ फेरते हुये जैसे अपने आप से बोले-
 “अच्छा हाँ?” जैसे उन्हें समझ आ गया हो-
 “देख, तेरी दीदी कभी-कभी कविता करती है ?"

“हाँ, करती हूँ!”
 उर्मिला बोलती, उससे पहले ही सीता ने गर्व से छाती फुलाते हुए कहा ।
 “अच्छा, क्या जब मन हो तब कविता कर सकती है यह?”
 फिर उन्होंने सीता से पूछा-
 “यदि में कहूँ कि चल अभी मुझे कविता लिखकर दिखा, तो लिख देगी?”

“ऐसे कैसे ? कविता तो बड़ी कठिनता से बनती है; यह कोई गणित का प्रश्न तो नहीं है जो बस सूत्र लगाया और हल हो गया।" फिर जैसे कुछ समझ में आया हो-
 “किन्तु नहीं, कभी-कभी तो अकस्मात स्वतः बन जाती है तो कभी कई-कई दिन मनन करते रहो नहीं बनती, सच में मेरे वश में नहीं होता कविता करना; वह जब उसकी अपनी इच्छा होती है तभी बनती है।” 
सीता ने उत्तर दिया।
“यही बात है।” जनक किसी बच्चे की तरह ताली बजाते हुए बोले- “तो सत्य यह है कि कविता तुम नहीं करतीं, वह अपने आप होती है; परंतु कहती यह हो कि मैंने की है।" 
फिर उर्मिला की ओर देखते हुए बोले- “देखा।"

"ऐसा कैसे ? करती तो मैं ही हूँ।" सीता ने प्रतिवाद किया। 
“अरे! अभी तुमने ही तो कहा जब उसकी इच्छा होती है तो बन जाती है, क्या असत्य बोला था तुमने?"
 “नहीं, किन्तु ... “ सीता गड़बड़ा गई, फिर पिता की बाँह झकझोरते हुए बोली-
 “क्या आप भी ! ... मेरे प्रश्न का उत्तर तो दिया नहीं, उल्टे मेरी कविता का उपहास करने लगे; मेरा यश अच्छा नहीं लगता आपको?”

“अरे! रूठती क्यों हैं? तेरे प्रश्न का भी उत्तर दे रहा हूँ, पहले इस उर्मिला को तो उत्तर दे लूँ ” 
जनक उसके सिर को प्यार से सहलाते हुए कहा- 
"देख, जैसे कविता करना तेरे वश में नहीं है, वह अपने आप बनती है; कविता बनाते समय तू लेखनी दाँतों से चबाते हुए शून्य में निहारा करती है, जैसे शून्य में कुछ देख रही हो और फिर लिखने लगती हैं। " 
 “मैं लेखनी चबाती हूँ? फिर उपहास किया आपने?” सीता ने उनका हाथ झटक दिया

“अरे! छोड़ उस बात को, मैंने अपने शब्द वापस ले लिये; किन्तु उस समय लगता तो ऐसा ही है कि तू शून्य में कविता की पंक्तियाँ देखती हैं और फिर उन्हें लिपिबद्ध कर देती है । "
 “हाँ! देखने वाले को प्रतीत तो ऐसा हो सकता है।” सीता कुछ सोचती हुई बोली।

“आई बात समझ में; ऐसे ही ऋषिगण भी शून्य में देखते होंगे और फिर मंत्र लिख देते होंगे, तो समझा यह गया कि वे मंत्र को देख रहे हैं, यही बात है न?”
 उर्मिला कुछ इस प्रकार बोली जैसे कोई बहुत बड़ा रहस्य समझ लिया हो ।
 “कुछ-कुछ यही बात है।" परंतु एक बात और- "जब ऋषियों ने वेद-मंत्रों की सर्जना आरंभ की, तब मनुष्य को लेखनी का ज्ञान ही नहीं था, तो उस समय ऋषियों ने मंत्र लिखे नहीं, बस उनका सृजन किया और कंठस्थ कर लिया, फिर अपने शिष्यों को कंठस्थ करा दिया; ऐसे ही कई पीढ़ियों तक यही क्रम चलता रहा। धीरे-धीरे वेद समृद्ध होते रहे।”

“अर्थात् पीढ़ियों तक वेदों की रचना चलती रही?”

“और क्या ! ऋक् के बाद कुछ ऋषियों ने यजुः पर कार्य आरम्भ कर दिया, उसके बाद कुछ अन्य ऋषियों ने साम् पर कार्य आरम्भ कर दिया। इस प्रकार पहले यह वेदत्रयी हमारे सामने आई। उस समय सब लोग तीन ही वेद जानते थे। फिर कुछ काल बाद कुछ ऋषियों ने अथर्व वेद की सर्जना आरंभ की; एक बात और जान लो जब वेदत्रयी की सर्जना हुई, तब उनके सर्जक ऋषियों ने उन्हें वेद नहीं कहा था, वेद तो उनके महत्त्व को देखते हुए बाद में कहा गया । "
“तो पहले वेदों को क्या कहा ऋषियों ने?” उर्मिला ने प्रश्न किया

“पहले तो ऋषियों ने उन्हें स्मृति कहा, क्योंकि वे स्मृति के माध्यम से सुरक्षित रखे गये थे... इसे इस प्रकार समझो कि यह वह ज्ञान था जिससे ऋषिगण चाहते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ भी लाभान्वित होती रहें, इसीलिये उन्होंने इस ज्ञान को अपने शिष्यों की स्मृति में सुरक्षित कर दिया शिष्य इसे अपने शिष्यों की स्मृति में सुरक्षित करते गये। पीढ़ियों तक यही क्रम चलता रहा, फिर जब मनुष्य ने लिखना सीखा, तब वेदों को लिपिबद्ध कर दिया गया। " “सच में पिता ?” सीता ने आश्चर्य से कहा ।
“हाँ सच में! फिर जब अथर्व की रचना हुई तो उस समय वेदपाठी तीन ही वेद जानते थे- ऋक्, यजु: और सामा कुछ उत्साही और नवीन का स्वागत करने वाले ऋषियों ने अथर्व को भी वेद की संज्ञा देना आरंभ कर दिया, किन्तु बहुसंख्य इसके विरोध में ही रहे। धीरे-धीरे अथर्व की भी स्वीकार्यता बढ़ती गयी; फिर भी आज भी अनेक ऋषि और वेदपाठी अथर्व को वेद के रूप में स्वीकार नहीं करते। तुम्हें पता है कि अभी कुछ काल पूर्व तक अथर्व को अन्य वेद शाखाओं के ऋषि अत्यंत हैय दृष्टि से देखते थे। कुछ कट्टर परंपरावादी आज भी ऐसे ही हैं, किन्तु अधिकांश ने अब अथर्व को भी मान्यता दे ही दी हैं। ”

“अर्थात यह और कुछ नहीं, मात्र नवीन और पुरातन का ही द्वन्द्व है ?" 
"हाँ! ... अच्छा जाओ अब माता के पास जाओ, उनका हाथ बटाओ जाकर" 
“... और मुझे अध्ययन करने दो।" खिलखिलाकर हँसते हुए उर्मिला ने जनक का वाक्य पूरा किया। जनक मुस्कुराकर रह गये। बड़ी हो गयीं है अब दोनों, इनके विवाह के विषय में सोचना पड़ेगा।

सुलभ अग्निहोत्री 





 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...