शनिवार, 27 अगस्त 2022

रामनाम जान्यो नहीं 2

रामनाम जान्यो नहीं, इसका अर्थ समझ लेना। जिन्होंने भी ईश्वर को मान रखा है, वे ईश्वर को कभी नहीं जान सकेंगे।
इस दुनिया में सबसे ज्यादा झूठे लोग वे आस्तिक हैं जिन्होंने बिना तलाश किए, बिना खोजे, बिना किसी अन्वेषण के, और ईश्वर को स्वीकार कर लिया है। मानो मत अगर जानना है तो। जानने का पहला कदम है--मानने से मुक्त हो जाना।
कुछ लोग हैं जो बैठे-बैठे किताब में राम-राम, राम-राम लिखते रहते हैं। कुछ लोग हैं जो दुकान पर बैठे-बैठे हाथ में माला लिए रहते हैं और माला को थैली में छिपाए रखते हैं, और भीतर-भीतर गुरिए सटकाते रहते हैं।
एक बात पक्की समझ लेना--रहीम कहते हैं--कि जब मौत के दूत तुम्हारे द्वार पर खड़े हो जाएंगे तो तुम्हारी धोखाधड़ी की पूजा-प्रार्थना को नहीं मानेंगे। मौत को तो केवल वही जीत पाता है जो अपने भीतर के अमृत को जान लेता है।
और उसी अमृत का नाम राम है, या कहो रहीम, या कहो रहमान, या कहो अल्लाह--कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर जो अमृत छिपा है, उसको जिसने जान लिया, फिर मौत उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।

परमात्मा तो राजी है प्रकट होने को, प्रतीक्षा कर रहा है। पुकार दो! दस्तक दो! और किसी और के द्वार पर दस्तक नहीं देनी है, अपने ही द्वार पर दस्तक देनी है। और परमात्मा कहीं और नहीं छिपा है, तुम्हारे भीतर छिपा है। परमात्मा यानी तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारा स्वरूप। तुम उससे ही बने हो। तुम्हारे रोएं-रोएं में वही व्याप्त है। मगर बेहोश, नींद में खोए, हजार सपनों में दबे भूल ही गए हो कि तुम कौन हो।
"रामनाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि।।'
और टालना मत, मत कहना कि कल। जिसने कल पर टाला, उसने सदा के लिए टाला।
करीब मौत खड़ी है, जरा ठहर जाओ।
फिजां से आंख लड़ी है, जरा ठहर जाओ।।
थकी-थकी सी फिजाएं, बुझे-बुझे तारे।
बड़ी उदास घड़ी है, जरा ठहर जाओ।।
नहीं उम्मीद कि हम आज की सहर देखें।
ये रात हम पे कड़ी है, जरा ठहर जाओ।।
अभी न जाओ कि तारों का दिल धड़कता है।
तमाम रात पड़ी है, जरा ठहर जाओ।।
फिर इसके बाद कभी हम न तुमको रोकेंगे।
लबों पे सांस अड़ी है, जरा ठहर जाओ।।
दमे-फिराक में जी भर के तुझ को देख तो लें।
ये  फैसले  की  घड़ी  है,  जरा  ठहर  जाओ।।
मौत हमेशा करीब खड़ी है। और हमेशा यह फैसले की घड़ी है। इसे टालना मत, स्थगित मत करना, कहना मत कि कल। 

हरिओम सिगंल
ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 




 

रामनाम जान्यो नहीं

 रामनाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।

कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि।।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

राम से अर्थ मत ले लेना दशरथ-पुत्र राम का, नहीं तो भूल हो जाएगी। राम तो दशरथ-पुत्र राम से बहुत पुराना नाम है। स्वभावतः, नहीं तो दशरथ अपने बेटे को राम नाम कैसे देते? नाम तो पुराना रहा होगा। नाम तो पहले से रहा होगा। और भी राम हो चुके थे, परशुराम हो चुके थे। उनका कुल नाम का मतलब इतना ही है--फरसे वाले राम।

 नारद को एक सुबह बाल्मीकि ने अपनी वीणा पर संगीत छेड़े जंगल से गुजरते देखा। रोका, और कहा कि जो भी हो तुम्हारे पास रख दो! बहुत लोगों को रोका होगा जिंदगी में, वही उसका धंधा था, लेकिन नारद जैसा व्यक्ति उसे पहली बार मिला था। उसी ने उसके जीवन में क्रांति ला दी।

 न तो नारद भागे, न गिड़गिड़ाए, न लड़ने को तैयार हुए। बाल्या ठिठका। यह आदमी नये ढंग का था। कहा कि समझे नहीं क्या? मैं कहता हूं जो भी पास हो, मुझे दे दो।

नारद ने कहा, पास तो मेरे बहुत कुछ है, मगर तुम ले सकोगे? पास तो मेरे राम है, मगर लेने की तुम्हारी तैयारी है? मैं तो खोजता ही फिरता हूं उन दीवानों को जो राम को लेने के लिए तत्पर हों। क्या तुमने मुझे पागल समझा है? किसलिए यह वीणा बजा रहा हूं? और किसलिए यह गीत है? और किसलिए यह दूर जंगलों में भटक रहा हूं? अरे उन्हीं की तलाश है जो लेने को राजी हैं। तू लेने को राजी है?

यह और मुश्किल बात थी। इस धन का नाम तो बाल्या ने सुना ही नहीं था। यह कौन सा धन है राम? न कोई पहचान थी, न कोई परिचय था इस धन से।

पूछा कि यह क्या है? सुना नहीं। ये जेवर कभी देखे नहीं। ये आभूषण परिचित नहीं। तुम किस राम की बात कर रहे हो?

नारद ने कहा, मेरे भीतर अनंत का संगीत उठा है, अनाहत नाद उठा है। मेरे भीतर की हृदयत्तंत्री बज उठी है। और अब एक ही आकांक्षा है, एक ही अभीप्सा है कि कितना बांटूं! कितना बांटूं! कितनों को बांट सकूं! यह अपूर्व धनराशि, जितना बांटो बढ़ती जाती है। तुम मुझे लूट न सकोगे। और बाल्या, मैं तुझे सावधान करता हूं कि मुझे लूटने चला तो खुद लुट जाएगा! यह सौदा बड़ा मंहगा है। तू सोच ले। अगर तू लुटेरा है तो हम भी लुटेरे हैं। और तू क्या खाक लूटेगा! बाहर की कुछ चीजें छीन सकता है, तो ज्यादा मेरे पास कुछ है नहीं। यह वीणा है, यह तेरी रही। मगर यह वीणा तो केवल उपकरण है, यह तो भाषांतर का एक उपाय है। जो मेरे भीतर है, उसे कोई भी छीन नहीं सकता। मृत्यु भी नहीं छीन सकती। तू अपनी तलवार म्यान में वापस रख ले। नाहक तेरा हाथ दुखने लगा होगा। मुझे तुझ पर दया आती है। मगर मैं देने को राजी हूं। मगर यह मामला यूं है कि लेने वाला पहले राजी होना चाहिए।

बाल्या ने पूछा, क्या करना होगा लेने के लिए?

तो नारद ने कहा, यह जो राम है, यह जो शब्द है राम, इसकी गुहार मचानी होगी। यह तेरे हृदय में, तेरी श्वासों में यूं ओत-प्रोत हो जाए कि जागे तो जागे, सोए तो सोए, मगर अहर्निश राम की धारा तेरे भीतर चलती रहे। तेरे हृदय की धड़कन राम का गीत बन जाए। तेरी श्वास-श्वास राम का ही अनुच्चार हो जाए। तू चुप भी रहे तो भी तेरे भीतर नाद बजता ही रहे--अखंड, अहर्निश। तब तू जीवन की परम संपदा को पाएगा। तू क्या फिजूल की बातें इकट्ठी करने में लगा है! यह चार दिन की जिंदगी है। यह कचरा इकट्ठा करके क्या करेगा? और जिस ढंग से तू इकट्ठा कर रहा है, मंहगा सौदा है। बहुत पछताएगा पीछे। मिली थी जिंदगी क्या पाने को और कचरा इकट्ठा करने में गंवा दी!

नारद की वह अपूर्व प्रतिमा, नारद का वह अदभुत रूप, वह अपूर्व क्षण, जंगल का वह सन्नाटा, वीणा पर छिड़ा हुआ मद्धम-मद्धम राम का गीत, नारद की वह आंच--बाल्या अभिभूत हो गया। अक्सर यूं होता है कि जिनको तुम तथाकथित संत कहते हो, वे ज्यादा चालबाज होते हैं, ज्यादा हिसाबी-किताबी होते हैं। बाल्या सीधा-सादा आदमी था।  अक्सर यूं होता है कि सीधे-सादे लोग,  कहीं ज्यादा निर्दोष होते हैं। बात चोट कर गई।

बाल्या को नारद ने प्रभु-स्मरण की कीमिया दी। मगर बेपढ़ा-लिखा आदमी था, इसलिए कहानी बड़ी प्रीतिकर है कि वह भूल गया कि राम-राम राम-राम जपना है, वह मरा-मरा मरा-मरा जपता रहा। यूं तुम जोर-जोर से राम-राम राम-राम राम-राम जपोगे तो वह मरा-मरा मरा-मरा प्रतीत होने लगेगा। एक राम दूसरे पर चढ़ जाएगा। एक राम दूसरे से मिल जाएगा, बीच में जगह न रह जाएगी। तो राम-राम लिखा है कि मरा-मरा लिखा है, तय करना मुश्किल हो जाएगा। बेपढ़ा-लिखा आदमी था। लेकिन कहानी कहती है कि वह मरा-मरा जप कर परम सिद्धावस्था को उपलब्ध हुआ।

यह राम के जीवन के पहले की घटना है। राम पुराना नाम है।

और यह भी प्रीतिकर है स्मरण रखना कि बाल्या जब मरा-मरा जप कर...खयाल रखना, सवाल भाव का है, विधि का नहीं। लोग विधियों को ही बिठाने में मर जाते हैं, भाव की चिंता ही नहीं लेते! लोग संस्कृत कंठस्थ करने में मर जाते हैं। सोचते हैं कि मंत्र जब तक भाषा की दृष्टि से शुद्ध न होगा तब तक कैसे सिद्ध होगा! और यह अपूर्व कथा हमारे पास है कि भाषा की अशुद्धि तो दूर, राम और मरा में क्या लेना-देना है! सच पूछो तो बात ही उलटी हो गई। राम यानी जीवन का परम सूत्र और मरा यानी मृत्यु। राम यानी जीवन! जो जीवन को पा सका मृत्यु को जप कर, किस बात की सूचना है? इस बात की सूचना है कि असली सवाल भाव का है; असली सवाल त्वरा का है; असली सवाल भीतर की आकांक्षा का है, अभीप्सा का है; बाहरी सवाल नहीं है।

और बाल्या भील ने ही राम की कथा लिखी। यह भी बात बहुत सोचनीय है कि राम के पहले बाल्या भील ने राम की कथा लिखी। राम बाद में हुए, कथा पहले आई। राम की पूरी कहानी बाल्या भील ने लिखी। जिसके हृदय में परमात्म की प्रतीति हुई हो, उस हृदय से जो भी निकले वह सच हो जाता है। जिस हृदय में राम का साक्षात्कार हुआ हो, उस हृदय से असत्य के निकलने की संभावना ही नहीं रह जाती। इसलिए कथा पहले लिखी और फिर कहानी घटी। घटना पड़ा, मजबूरी थी। बाल्मीकि लिख गए तो वैसा ही होना जरूरी था।

एक बात स्मरण रखना कि रहीम का कोई संबंध दशरथ के बेटे राम से नहीं है, न मेरा कोई संबंध। राम तो केवल एक प्रतीक है। हमारे पास एक पूरा ग्रंथ है, विष्णु-सहस्रनाम, जिसमें भगवान के हजार नाम उल्लेख किए गए हैं। हजार प्रतीक है अनंत का। सभी नाम उसके हैं। इसलिए नाम पर मत अटकना।

यह जो कहा है रहीम ने: "रामनाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।'

रामनाम तो तुम सभी जानते हो। रामनाम कौन नहीं जानता? लेकिन इस जानने की बात नहीं है। जानने से मतलब जानना है, मानना नहीं। जानने से अर्थ साक्षात्कार है। जानने से अर्थ प्रतीति है, स्वाद है, अनुभूति है। यूं तो कोई भी राम का नाम जानता है। सारी दुनिया राम का नाम जानती है। हर साल तो राम की कथा देखते हो, राम की कथा सुनते हो, रामलीला देखते हो। लेकिन यह जानना नहीं है। मानना कभी भी जानना नहीं बन पाता। और जिसने मानने से शुरू किया है, वह जानने से वंचित रह जाता है। इसलिए पहला कदम जानने की तरफ है--मानने को छोड़ देना। मानना यानी झूठ। और झूठ से यात्रा शुरू करके कोई कैसे सत्य तक पहुंच सकता है? गलत से चलोगे तो गलत तक ही पहुंचोगे। पहला कदम बहुत जरूरी है, सोच कर उठाना। क्योंकि पहला कदम ही मंजिल की दिशा और मंजिल का अंतिम स्वभाव निर्णय करता है। सच पूछो तो पहला कदम आधी यात्रा है।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

इससे यह मत समझ लेना कि तुम्हें तो रामनाम पता है, तो यह रहीम का सूत्र तुम्हारे लिए नहीं। यह तुम्हारे लिए ही है। रहीम खुद तो मुसलमान थे, फिर भी बात बड़ी गहरी कही--रामनाम जान्यो नहीं। और मुसलमान के ओंठों से यह बात और भी गहरी हो जाती है।

साफ है कि रहीम के मन में कोई अंधश्रद्धा नहीं थी हिंदू या मुसलमान होने की। कोई पक्षपात नहीं था। कोई सिद्धांतों की दीवाल नहीं थी। आंखें साफ थीं। चीजों को वैसा ही देख सकते थे, जैसी हैं। दर्पण की तरह निर्मल रहे होंगे।

"रामनाम जान्यो नहीं।'

मानो मत अगर जानना है। मानने को गिरा दो अगर जानना है। पीड़ा होगी गिराने में, क्योंकि सदियों-सदियों से माना है, पूजा है, आराधा है, हृदय के मंदिर में प्रतिष्ठापित किया है। गिराओगे, लगेगा मंदिर खाली हुआ।


हरिओम सिगंल

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 




मृत्यु

मृत्यु के संबंध में पहली बात आपसे यह कहना चाहूंगा कि मृत्यु से अधिक असत्य और कुछ भी नहीं है। लेकिन मृत्यु ही सत्य मालूम होती है। न केवल सत्य मालूम होती है, बल्कि जीवन का केंद्रीय सत्य भी वही मालूम होती है। और ऐसा प्रतीत होता है कि सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। और चाहे हम भूल जाते हों, भुला देते हों, लेकिन फिर भी मृत्यु चारों तरफ निकट ही खड़ी रहती है। अपनी छाया से भी ज्यादा अपने पास मृत्यु है।

जीवन का जो रूप हमने दिया है, वह भी मृत्यु के भय के कारण ही दिया है। मृत्यु के भय ने समाज बनाया है, राष्ट्र बनाए हैं, परिवार बनाए हैं, मित्र इकट्ठे किये हैं। मृत्यु के भय ने धन इकट्ठे करने की दौड़ दी है, मृत्यु के भय ने पदों की आकांक्षा दी है, और सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि मृत्यु के भय ने ही हमारे भगवान और हमारे मंदिर भी खड़े कर दिए हैं। मृत्यु से भयभीत घुटने टेक कर प्रार्थना करते हुए लोग हैं। मृत्यु से भयभीत आकाश की तरफ, परमात्मा की तरफ हाथ जोड़े हुए लोग हैं। और मृत्यु से ज्यादा असत्य कुछ भी नहीं है। इसीलिए मृत्यु को सत्य मानकर हमने जो भी जीवन की व्यवस्था की है, वह सब भी असत्य हो गई है।

लेकिन मृत्यु का असत्य हमें कैसे पता चले? यह हम कैसे जान पाएं कि मृत्यु नहीं है? और जब तक हम यह न जान पाएं, तब तक हमारा भय भी विलीन नहीं होगा। और जब तक हम यह न जान पाएं कि मृत्यु असत्य है, तब तक जीवन हमारा सत्य नहीं हो सकता है। जब तक मृत्यु का भय है, तब तक जीवन सत्य नहीं हो सकता है। और जब तक मृत्यु से हम डरे हुए कांप रहे हैं, तब तक जीवन को जीने की क्षमता भी हम नहीं जुटा सकते।

जीवन को केवल वही जी सकता है, जिसके सामने से मृत्यु की छाया विदा और विलीन हो गई है। कंपता हुआ मन कैसे जीएगा? डरा हुआ मन कैसे जीएगा? और मौत जब प्रतिपल आती हुई मालूम पड़ती हो तो हम कैसे जीएं? हम कैसे जी सकते हैं?

और हम कितना ही भुलाए रखें मृत्यु को, वह भूली नहीं रहती। मरघट हम गांव के बाहर बनाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, वह दिखाई पड़ ही जाता है। रोज कोई न कोई मरता है, रोज कहीं न कहीं मृत्यु घटित होती है और हमारे जीवन की सारी की सारी नींव हिल जाती है। और प्रत्येक बार जब भी मृत्यु घटती हुई दिखाई पडती है, तभी हम जानते हैं कि मैं भी मरूंगा। जब हम किसी की मृत्यु पर रोते है, तब हम सिर्फ उसकी मृत्यु पर ही नहीं रोते, अपनी मृत्यु की खबर पर भी रोते हैं। और जब हम दुखी और पीड़ित होते हैं दूसरे की मृत्यु देखकर, तब हम दूसरे की मृत्यु को देखकर ही दुखी और पीड़ित नहीं होते, उसमें हमारे मरने की संभावना भी प्रकट हो गई होती है।

हर मृत्यु हमारी मृत्यु भी है। और ऐसे जब तक हम घिरे रहें, तब तक हम कैसे जी सकेंगे? तब तक जीना असंभव है। तब तक हमें जीवन का पता भी नहीं चल सकता, न उसके आनंद का, न उसके सौंदर्य का, न उसके रस का। तब तक जीवन का जो परम सत्य है—परमात्मा, उसके मंदिर के द्वार पर भी हम नहीं पहुंच सकते।

मृत्यु के भय ने एक तरह के मंदिर निर्मित किए हैं, वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। और मृत्यु के भय से एक तरह की प्रार्थनाएं निर्मित हुई हैं, वे भी परमात्मा की प्रार्थनाएं नहीं हैं। परमात्मा के मंदिर पर तो वह पहुंचता है, जो जीवन के आनंद से परिपूरित हो जाता है। और परमात्मा की सीढ़ियां जीवन के सौंदर्य और जीवन के रस से भरी हुई हैं। और परमात्मा के द्वार की घंटियां सिर्फ उनके लिए बजती हैं, जो सब तरह के भय से मुक्त होकर अभय हो जाते हैं।
तब तो बडी कठिनाई मालूम पड़ती है। हम मृत्यु से भरे हुए जीना चाहते हैं। ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है। दो में से एक ही बात सत्य हो सकती है। ध्यान रहे, यदि जीवन सत्य है, तो मृत्यु सत्य नहीं हो सकती, और अगर मृत्यु सत्य है, तो जीवन सिर्फ एक सपना होगा—एक झूठ। वह सत्य नहीं हो सकता है। ये दोनों बातें एक साथ होनी असंभव हैं।

लेकिन हमने इन दोनों बातों को एक साथ पकड़ रखा है। ऐसा भी लगता है कि हम जीते हैं, और ऐसा भी लगता है कि हम मरेंगे।
कुछ लोग झुठलाने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग मृत्यु से भय के कारण ही यह मान लेते हैं कि आत्मा अमर है—सिर्फ भय के कारण। जानते नहीं हैं, सिर्फ मान लेते हैं। कुछ लोग रोज सुबह उठकर यह दोहरा रहे हैं—मंदिरों में बैठकर, मस्जिदों में बैठकर—कि आत्मा अमर है, आत्मा कभी नहीं मरती, आत्मा अमर है। और वे इस भ्रम में हैं कि शायद बार—बार दोहराने से आत्मा अमर हो जाएगी। और शायद वे इस खयाल में हैं कि बार—बार दोहराने से मौत को झूठा किया जा सकता है। मौत झूठी नहीं होती है दोहराने से। मौत तो सिर्फ जानने से झूठी हो सकती है।

ध्यान रहे, यह बहुत आश्चर्य की बात है कि हम जिस बात को दोहराते हैं, उससे विपरीत को हम सदा स्वीकार करते हैं। जब एक आदमी कहता है कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर है, और इसको दोहराता है, तब वह इस बात का पता देता है कि भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा, मुझे मरना पड़ेगा। अगर वह यह जानता है कि मैं मरूंगा नहीं, तो अब इस बात को दोहराने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसे सिर्फ दोहराता वही है, जो डरा हुआ है।

हम सब तो मृत्यु की तरफ पीठ करके भागते रहते हैं, तो मृत्यु को देख कैसे सकेंगे। हम तो सब मृत्यु की तरफ आख बंद कर लेते हैं। बाहर कोई मरता हो, रास्ते पर किसी की लाश निकलती हो, तो मां अपने बेटे को घर के भीतर बंद कर लेती है और कहती है कि बाहर मत जाओ, कोई मर गया है। मरघट इसीलिए गांव के बाहर बनाते हैं ताकि वह बार—बार दिखाई न पड़े। मौत आमने — सामने न आ जाए। अगर किसी से मरने की बात करो तो वह कहेगा, ये बातें मत करिए।

मृत्यु हमारी ही छाया है। और अगर हम उससे भागते रहे तो हम उसके सामने कभी खड़े होकर पहचान न पाएंगे कि वह क्या है।
 वही मृत्यु से डरते हुए हम अनेक जीवन जी लेते हैं, और फिर भी पहचान नहीं पाते और देख नहीं पाते। और हम इतने भयभीत और इतने डरे हुए लोग हैं कि जब मौत सामने आती है, जब वह पूरी छाया हमें घेरती है, तब हम डर के कारण बेहोश हो जाते हैं।
कोई भी आदमी साधारणत: मरते क्षण होश में नहीं रहता। अगर होश में एक बार रह जाए, तो फिर मृत्यु का भय उसके लिए सदा के लिए विलीन हो जाए। अगर वह एक दफा देख ले कि मरना यानी क्या, मरने में होता क्या है, तो फिर दुबारा उसे मृत्यु का भय न रहे, क्योंकि मृत्यु ही न रहे। और ऐसा नहीं है कि वह मृत्यु पर विजय पा ले। विजय तो हम उस पर पाते हैं जो हो। सिर्फ जानने से ही मृत्यु मिट जाती है। विजय पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता है।

लेकिन हम भी बहुत बार मरे हैं। लेकिन जब भी मरे हैं, तब बेहोश हो गए हैं। बेहोशी में ही मरते हैं, फिर बेहोशी में ही नया जन्म हो जाता है। न हम मृत्यु को देख पाते हैं, न जन्म को देख पाते हैं। और इसलिए हम कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि जीवन शाश्वत है। मृत्यु और जन्म बीच में आए हुए पड़ाव से ज्यादा नहीं हैं, जहां हम वस्त्र बदल लेते हैं।

हरिओम सिगंल
ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 




 

आत्मा परमात्मा

 परमात्मा तो एक ही है, आत्मा तो वस्तुत: एक ही है, लेकिन शरीर दो प्रकार के हैं। एक शरीर जिसे हम स्थूल शरीर कहते हैं, जो हमें दिखाई पड़ता है, एक शरीर जो सूक्ष्म शरीर है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्यु होती है, तब स्थूल शरीर तो गिर जाता है, लेकिन जो सूक्ष्म शरीर है, वह जो सटल बाडी है, वह नहीं मरती है। आत्मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है, एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर। मृत्यु के समय स्थूल शरीर गिर जाता है। यह जो मिट्टी —पानी से बना हुआ शरीर है, यह जो हड्डी—मांस —मज्जा की देह है, यह गिर जाती है। फिर अत्यंत सूक्ष्म विचारों का, सूक्ष्म संवेदनाओं का, सूक्ष्म वायब्रेशंस का, सूक्ष्म तंतुओं का शरीर शेष रह जाता है।

वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्मा के साथ फिर यात्रा शुरू करता है और फिर नए जन्म के लिए स्थूल शरीर में प्रवेश करता है। जब एक मां के पेट में नई आत्मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्म शरीर का प्रवेश। मृत्यु के समय सिर्फ स्थूल शरीर गिरता है, सूक्ष्म शरीर नहीं। लेकिन परम मृत्यु के समय—जिसे हम मोक्ष कहते हैं —उस परम मृत्यु के समय स्थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्म शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्मा का कोई जन्म नहीं होता, फिर वह आत्मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता है, वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। आत्मा का तत्व एक है। उस आत्मा के तत्व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते हैं—एक स्थूल शरीर और एक सूक्ष्म शरीर। स्थूल शरीर से हम परिचित हैं, सूक्ष्म शरीर से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते हैं जो आत्मा है।

सामान्य आंखें देख पाती हैं स्थूल शरीर को। योग —दृष्टि, ध्यान देख पाता है सूक्ष्म शरीर को। लेकिन ध्यानातीत, बियांड योग, सूक्ष्म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्यान से भी जब व्यक्ति ऊपर उठ जाता है, तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्मा का अनुभव है।

साधारण मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है। परमात्मा एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत हैं, स्थूल शरीर अनंत हैं। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह है कॉजल बाडी। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वही नए स्थूल शरीर ग्रहण करता है। हम यहां देख रहे हैं कि बहुत से बल्‍ब जले हुए हैं। विद्युत तो एक है, विद्युत बहुत नहीं है। वह ऊर्जा, वह शक्ति, वह इनर्जी एक है, लेकिन दो अलग बल्बों से वह प्रकट हो रही है। बल्‍ब का शरीर अलग — अलग है, उसकी आत्मा एक है। हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों का, दो वेहिकल्स का प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्म उपकरण है, सूक्ष्म देह; और दूसरा उपकरण है, स्थूल देह।

हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रुक जाता है। यह जो स्थूल देह तक रुक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर भी रुक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्म शरीरों पर रुक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्म शरीर के भी आगे चले जाते हैं, वे कहेंगे, परमात्मा एक है, आत्मा एक है, ब्रह्म एक है।

मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। मैंने जो आत्मा के प्रवेश के लिए कहा, उसका अर्थ है वह आत्मा जिसका अभी सूक्ष्म शरीर गिर नहीं गया है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्मा परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाती है, उसका जन्म —मरण बंद हो जाता है। आत्मा का तो कोई जन्म —मरण है ही नहीं, वह तो न कभी जन्मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्म शरीर है, वह भी समाप्त हो जाने पर कोई जन्म —मरण नहीं रह जाता है। क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही कारण बनता है नए जन्मों का।

सूक्ष्म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाएं, हमारी वासनाएं, हमारी इच्छाएं, हमारे अनुभव, हमारा शान, इन सबका जो संग्रहीभूत, जो इंटिग्रेटेड सीड है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्म शरीर है। वही हमें आगे की यात्राओं पर ले जाता है। लेकिन जिस मनुष्य के सारे विचार नष्ट हो गए, जिस मनुष्य की सारी वासनाएं क्षीण हो गईं, जिस मनुष्य की सारी इच्छाएं विलीन हो गईं, जिसके भीतर अब कोई भी इच्छा शेष न रही, उस मनुष्य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्म की कोई वजह नहीं रह जाती।

हरिओम सिगंल 

ओशो रजनीश  के प्रवचनो पर आधारित 





बच्चे का जन्म

 दो पुरुष और स्त्री के मिलने पर जिस बच्चे का जन्म होता है, वह उन दोनों व्यक्तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता है, कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयरफुल, कितने प्रार्थनापूर्ण हृदय से वे एक—दूसरे के पास आए हैं, इस पर निर्भर करेगा कि कितनी ऊंची आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है। कितनी विराट आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी महान दिव्य चेतना उस घर को अपना अवसर बनाती है, यह इस पर निर्भर करेगा।

मनुष्य —जाति क्षीण और दीन और दरिद्र और दुखी होती चली जा रही है। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य के दांपत्य का विकृत होना है। और जब तक हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को सुकृत सुसंस्कृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्पिचुलाइज नहीं कर लेते, तब तक हम मनुष्य के भविष्य को सुधार नहीं सकते हैं। और इस दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है, जिन लोगों ने गृहस्थ जीवन की निंदा की है और संन्यासी जीवन का बहुत ज्यादा शोरगुल मचाया है। उनका हाथ है। क्योंकि एक बार जब गृहस्थ जीवन कंडेम्ह हो गया, निंदित हो गया, तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़ दिया। 

नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं संन्यास के रास्ते से बहुत थोड़े से लोग ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। बहुत थोड़े से लोग, कुछ विशिष्ट तरह के लोग, कुछ अत्यंत भिन्न तरह के लोग, संन्यास के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचते हैं ।अधिकतम लोग गृहस्थ के रास्ते से और दांपत्य के रास्ते से ही परमात्मा तक पहुंचते हैं। और आश्चर्य की बात है यह कि गृहस्थ के मार्ग से पहुंच जाना अत्यंत सरल और सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। आज तक का सारा धर्म संन्यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के लिए विकसित नहीं हो सका। और अगर गृहस्थ के लिए धर्म विकसित होता, तो हमने जन्म के पहले क्षण से विचार किया होता कि कैसी आत्मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्मा को पुकारना है, कैसी आत्मा को प्रवेश देना है जीवन में।

अगर धर्म की ठीक —ठीक शिक्षा हो सके और एक—एक व्यक्ति को अगर धर्म की दिशा में ठीक विचार, कल्पना और भावना दी जा सके, तो बीस वर्षों में आनेवाली मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है।

वह आदमी पापी है जो आदमी आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज हैं—चाहे उसने बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किये हों —जिन बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है। वह आदमी अपराधी है, सारी संततियों के सामने वह अपराधी रहेगा।

कौन हमारे भीतर प्रविष्ट होता है, इस पर निर्भर करता है सारा भविष्य। हम शिक्षा की फिक्र करते हैं, हम वस्त्रों की फिक्र करते हैं, हम बच्चों के स्वास्थ्य की फिक्र करते हैं, लेकिन बच्चों की आत्मा की फिक्र हम बिलकुल ही छोड़ दिये हैं। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य —जाति पैदा नहीं हो सकती।

वह जो पहले दिन अणु बनता है मां के पेट में, वह अणु आपके पूरे शरीर की रूपाकृति अपने में छिपाए हुए है। पचास साल बाद आपके बाल सफेद हो जाएंगे, यह संभावना भी उस छोटे —से बीज में छिपी हुई है। आपकी आख का रंग कैसा होगा, यह संभावना भी उस बीज में छिपी हुई है। आपके हाथ कितने लंबे होंगे, आप स्वस्थ होंगे कि बीमार, आप गोरे होंगे कि काले, कि बाल घुंघराले होंगे, ये सारी बातें उस छोटे —से बीज में पोटेंशियली छिपी हुई हैं। वह छोटी देह है, एटामिक बाडी है, अणु शरीर है, उस अणु शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। उस अणु शरीर की जो संरचना है, उस अणु शरीर की जो स्थिति है, जो सिचुएशन है, उसके अनुकूल आत्मा उसमें प्रवष्टि होती है।

और दुनिया में जो मनुष्य —जाति का जीवन और चेतना रोज नीचे गिरती जा रही है, उसका एक मात्र कारण है कि दुनिया के दंपति श्रेष्ठ आत्माओं के जन्म लेने की सुविधा पैदा नहीं कर रहे हैं। जो सुविधा पैदा की जा रही है, वह अत्यंत निकृष्ट आत्माओं के पैदा होने की सुविधा है। आदमी के मर जाने के बाद जरूरी नहीं है कि उस आत्मा को जल्दी ही जन्म लेने का अवसर मिल जाए। साधारण आत्माएँ जो न बहुत श्रेष्ठ होती हैं, न बहुत निकृष्ट होती हैं, तेरह दिन के भीतर नए शरीर की खोज कर लेती हैं। लेकिन बहुत निकृष्ट आत्माएं भी रुक जाती हैं, क्योंकि उतना निकृष्ट अवसर मिलना मुश्किल होता है। उन निकृष्ट आत्माओं को ही हम प्रेत और भूत कहते हैं। बहुत श्रेष्ठ आत्माएं भी रुक जाती हैं, क्योंकि उतने श्रेष्ठ अवसर का उपलब्ध होना मुश्किल होता है। उन श्रेष्ठ आत्माओं को ही हम देवता कहते हैं।

पहली पुरानी दुनिया में भूत—प्रेतों की संख्या बहुत ज्यादा थी और देवताओं की संख्या बहुत कम। आज की दुनिया में भूत —प्रेतों की संख्या बहुत कम हो गई है और देवताओं की संख्या बहुत। क्योंकि देव पुरुषों को पैदा होने का अवसर कम हो गया है, भूत—प्रेतों को पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से उपलब्ध हुआ है। तो जो भूत—प्रेत रुके रह जाते थे मनुष्य के भीतर प्रवेश करने से, वे सारे के सारे मनुष्य —जाति में प्रविष्ट हो गए हैं। इसीलिए आज भूत—प्रेतों का दर्शन मुश्किल हो गया है, क्योंकि उसके दर्शन की कोई जरूरत नहीं। आप आदमी को ही देख लें और उसके दर्शन हो जाते हैं। और देवता पर हमारा विश्वास कम हो गया है, क्योंकि देव पुरुष ही जब दिखाई न पड़ते हों, तो देवता पर विश्वास करना बहुत कठिन है।

एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्तविकता थी, उतनी ही एक्चुअलटी थी जितना कि, हमारे जीवन के और दूसरे सत्य हैं। अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें, तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि वे देवताओं के संबंध में जो बात कह रहे हैं, वह किसी कल्पना के देवता के संबंध में बात कह रहे हों। नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर रहे हैं जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है। वे ऐसे देवता की बात कर रहे हैं जो जैसे पृथ्वी पर चलता है, उनके अत्यंत निकट है। हमारा देव लोक से सारा संबंध विनष्ट हुआ है, क्योंकि हमारे बीच ऐसे पुरुष नहीं जो सेतु बन सकें, जो ब्रिज बन सकें, जो देवताओं और मनुष्यों के बीच में खड़े होकर घोषणा कर सकें कि देवता कैसे होते हैं। और इसका सारा जिम्मा मनुष्य—जाति के दांपत्य की जो व्यवस्था है, उस पर निर्भर है। विवाह हम बिना प्रेम के कर रहे हैं। जो विवाह बिना प्रेम के होगा, उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनों के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं होता, जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है। उनका प्रेम केवल साथ रहने की वजह से पैदा हो गया साहचर्य होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का आंदोलन नहीं होता, जो दो प्राणों को एक कर देता है। प्रेम के बिना जो बच्चे पैदा होते हैं पृथ्वी पर, वे बच्चे प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते, वे देवता जैसे नहीं हो सकते। उनकी स्थिति भूत—प्रेत जैसी ही होगी, उनका जीवन घृणा, क्रोध और हिंसा का ही जीवन होगा। जरा सी बात फर्क पैदा करती है। अगर व्यक्तित्व की बुनियादी हार्मनी, अगर व्यक्तित्व की बुनियादी लयबद्धता नहीं है तो अदभुत परिवर्तन होते हैं।


हरिओम सिगंल 

ओशो रजनीश के प्रवचनो पर आधारित 



आत्मा का आरंभ

 मां और बाप मिलकर क्या करते हैं? एक पुरुष और एक स्त्री मिलकर क्या करते हैं स्त्री के पेट में? आत्मा को जन्म नहीं देते।  वे सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रविष्ट हो सकती है। मां का और पिता का अणु मिलकर  एक अवसर, एक सिचुएशन पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रवेश पा सकती है। कल यह हो सकता है कि हम टेस्ट —टयूब में यह सिचुएशन पैदा कर दें। इससे कोई आत्मा पैदा नहीं हो रही है। मां का पेट भी तो एक टेस्ट—टयूब है, एक यांत्रिक व्यवस्था, वह प्राकृतिक है। कल विज्ञान यह कर सकता है कि प्रयोगशाला में जिन—जिन रासायनिक तत्वों से पुरुष का वीर्याणु बनता है और स्त्री का अणु बनता है, उन —उन रासायनिक तत्वों की पूरी खोज और प्रोटोप्लाज्म की पूरी जानकारी से यह हो सकता है कि हम टेस्ट —टयूब में रासायनिक व्यवस्था कर लें। तब जो आत्माएं कल तक मां के पेट में प्रविष्ट होती थीं, वे टेस्ट—टयूब में प्रविष्ट हो जाएंगी। लेकिन आत्मा पैदा नहीं हो रही है, आत्मा अब भी आ रही है। जन्म की घटना दोहरी घटना है —शरीर की तैयारी और आत्मा का आगमन, आत्मा का उतरना।

आत्मा के संबंध में आने वाले दिन बहुत खतरनाक और अंधकारपूर्ण होने वाले हैं, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक घोषणा आदमी को यह विश्वास दिला देगी कि आत्मा नहीं है। इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी के भीतर जाने का जो संकल्प था, वह क्षीण होगा।

आत्मा अमर है, यह कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडियोलाजी नहीं है। यह कुछ लोगों का अनुभव है। और अनुभव की तरफ जाना हो तो ही अनुभव हल कर सकता है इस समस्या को कि क्या है जीवन, क्या है मौत। और जैसे ही यह अनुभव होगा, ज्ञात होगा कि जीवन है, मौत नहीं है। जीवन ही है, मृत्यु है ही नहीं।

फिर हम कहेंगे, लेकिन यह मृत्यु तो घट जाती है। उसका कुल मतलब इतना है कि जिस घर में हम निवास करते थे, उस घर को छोड्कर दूसरे घर की यात्रा शुरू हो जाती है। जिस घर में हम रह रहे थे, उस घर से हम दूसरे घर की तरफ यात्रा करते हैं। घर की सीमा है, घर की सामर्थ्य है। घर एक यंत्र है, यंत्र थक जाता है, जीर्ण हो जाता है, और हमें पार हो जाना होता है।

अगर विज्ञान ने व्यवस्था कर ली, तो आदमी के शरीर को सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष भी जिलाया जा सकता है। लेकिन उससे यह सिद्ध नहीं होगा कि आत्मा नहीं है। उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि आत्मा को कल तक घर बदलने पड़ते थे, अब विज्ञान ने पुराने ही घर को फिर से ठीक कर देने की व्यवस्था कर दी है। उससे यह सिद्ध नहीं होगा, इस भूल में कोई वैज्ञानिक न रहे कि हम आदमी की उम्र अगर पांच सौ वर्ष कर लेंगे, हजार वर्ष कर लेंगे, तो हमने सिद्ध कर दिया कि आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। नहीं, इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैकेनिजम शरीर का जो था, उसे आत्मा को इसीलिए बदलना पड़ता था कि वह जराजीर्ण हो गया था। अगर उसको रिप्लेस किया जा सकता है, हृदय बदला जा सकता है, आंख बदली जा सकती है, हाथ—पैर बदले जा सकते हैं, तो आत्मा को शरीर बदलने की कोई जरूरत न रही। पुराने घर से ही काम चल जाएगा। रिपेयरमेंट हो गया। उससे कोई आत्मा नहीं है, यह दूर से भी सिद्ध नहीं होता।

अगर आदमी को यह समझ में आने लगे कि ठीक है, उम्र बढ़ गई, बच्चे टेस्ट—टयूब में पैदा होने लगे, अब कहां है आत्मा? इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी का जो प्रयास चलता था अंतस की खोज का, वह बंद हो जाएगा। और यह बहुत दुर्भाग्य की घटना घटने वाली है, जो आने वाले वर्षों में घटेगी। इधर पिछले  वर्षों में उसकी भूमिका तैयार हो गई है।

दुनिया में आज तक पृथ्वी पर दीन लोग रहे हैं, दरिद्र लोग रहे हैं, दुखी लोग रहे हैं, बीमार लोग रहे हैं, उनकी उम्र कम थी, उनके पास भोजन न था अच्छा, कपड़े न थे अच्छे। लेकिन आत्मा की दृष्टि से दरिद्र लोगों की संख्या जितनी आज है, उतनी कभी भी नहीं थी। और उसका कुल एक ही कारण है कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो भीतर जाने का सवाल क्या है। एक बार अगर मनुष्य—जाति को यह विश्वास आ गया कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो वहां जाने का सवाल खतम हो जाता है।

आने वाला भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण और खतरनाक हो सकता है। इसलिए हर कोने से इस संबंध में प्रयोग चलते रहने चाहिए कि ऐसे कुछ लोग खड़े होकर घोषणा करते रहें —सिर्फ शब्दों की और सिद्धातों की नहीं, गीता, कुरान और बाइबिल की पुनरुक्ति की नहीं, बल्कि घोषणा कर सकें जीवंत —कि मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं। और न केवल यह घोषणा शब्दों की हो, यह उनके सारे जीवन से प्रकट होती रहे, तो शायद हम मनुष्य को बचाने में सफल हो सकते हैं। अन्यथा विज्ञान की सारी की सारी विकसित अवस्था मनुष्य को भी एक यंत्र में परिणत कर देगी। और जिस दिन मनुष्य—जाति को यह खयाल आ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है, उस दिन से शायद भीतर के सारे द्वार बंद हो जाएंगे। और उसके बाद क्या होगा, कहना कठिन है।

आत्मा तो है, लेकिन उसको जानने और पहचानने के सारे द्वार बंद होते जा रहे हैं। जीवन तो है, लेकिन उस जीवन से संबंधित होने की सारी संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। इसके पहले कि सारे द्वार बंद हो जाएं, जिनमें थोड़ी भी सामर्थ्य और साहस है, उन्हें अपने ऊपर प्रयोग करना चाहिए और चेष्टा करनी चाहिए भीतर जाने की, ताकि वे अनुभव कर सकें। और अगर दुनिया में सौ दो सौ लोग भी भीतर की ज्योति को अनुभव करते हों, तो कोई खतरा नहीं है। करोडों लोगों के भीतर का अंधकार भी थोड़े से लोगों की जीवन—ज्योति से दूर हो सकता है और टूट सकता है। एक छोटा—सा दीया और न मालूम कितने अंधकार को तोड देता है।

अगर एक गांव में एक आदमी भी है, जो जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस गांव का पूरा वातावरण, उस गांव की पूरी की पूरी हवा, उस गांव की पूरी की पूरी जिंदगी बदल जाएगी। एक छोटा —सा फूल खिलता है और दूर —दूर के रास्तों पर उसकी सुगंध फैल जाती है। एक आदमी भी अगर इस बात को जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस एक आदमी का एक गांव में होना पूरे गांव की आत्मा की शुद्धि का कारण बन सकता है।

जो लोग केवल सोचते हैं कि हम विचार करेंगे कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है, वे लाख विचार करें, जन्म—जन्म विचार करें, उन्हें कुछ भी पता नहीं चल सकता है। क्योंकि हम विचार करके विचार करेंगे क्या? केवल उसके संबंध में विचार किया जा सकता है जिसे हम जानते हों। जो नोन है, जो ज्ञात है, उसके बाबत विचार हो सकता है। जो अननोन है, जो अज्ञात है, उसके बाबत कोई विचार नहीं हो सकता। आप वही सोच सकते हैं, जो आप जानते हैं।

कभी आपने खयाल किया कि आप उसे नहीं सोच सकते हैं, जिसे आप नहीं जानते। उसे सोचेंगे कैसे? हाउ टु कन्सीव इट? उसकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? उसकी धारणा ही कैसे हो सकती है जिसे हम जानते ही नहीं हैं? जीवन हम जानते नहीं, मृत्यु हम जानते नहीं। सोचेंगे हम क्या? इसलिए दुनिया में मृत्यु और जीवन पर दार्शनिकों ने जो कहा है, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। फिलासफी की किताबों में जो भी लिखा है मृत्यु और जीवन के संबंध में, उसका कौड़ी भर मूल्य नहीं है। क्योंकि वे लोग सोच —सोच कर लिख रहे हैं। सोच कर लिखने का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ योग ने जो कहा है जीवन और मृत्यु के संबंध में, उसके अतिरिक्त आज तक सिर्फ शब्दों का खेल हुआ है। क्योंकि योग जो कह रहा है वह एक एक्सिस्टेंशियल, एक लिविंग, एक जीवंत अनुभव की बात है।




हरिओम सिगंल

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 



शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

जीवन क्या है और मृत्यु क्या है।

 जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को ही हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती है। सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है।

जगत में कुछ शब्द बिलकुल ही झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव—गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां—जहां हम खड़े हैं, वहां —वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं।

करोड़ों —करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, और अगर मैं यह कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।

हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा—सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा।

मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख ही नहीं उठाते हैं। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं। इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का।

जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। या तो हमें पता है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं। लेकिन हम सारे लोग तो मृत्यु से भयभीत हैं।

मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है —जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है —श्वास—श्वास में, कण—कण में, चारों ओर, भीतर—बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हों। इसका 'एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है, अचेतन है, अनकाशस है, बेहोश है।

एक आदमी सोया हो तो उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं? क्या हूं? कहां से हूं? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता कि मैं हूं भी या नहीं हूं? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था, नींद में तो इसका भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया, उसे यह भी पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर यह पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका यह अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है, सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था, लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं। जरूर मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता है कि मैं हूं या नहीं हूं? या क्या हूं।

इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसलिए उसे जीवन का ही पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।

यह मौत से डरा हुआ आदमी अपने को मजबूत करने के लिए दोहराता है कि आत्मा अमर है। वह यह कह रहा है कि नहीं, नहीं, मुझे नहीं मरना पड़ेगा, आत्मा अमर है। लेकिन भीतर प्राण कांप रहे हैं और वह ऊपर से कह रहा है कि आत्मा अमर है। जो आदमी जानता है कि आत्मा अमर है, उसे एक बार भी यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आत्मा अमर है। क्योंकि वह जानता है, बात खतम हो गई।

लेकिन यह मौत से डरने वाले लोग मौत से डरते हैं, जीवन को जान नहीं पाते हैं, और फिर बीच में एक नई तरकीब और एक नया धोखा पैदा करते हैं कि आत्मा अमर है।

इसीलिए तो आत्मा को अमर मानने वाले लोगों से ज्यादा मौत से डरनेवाली कौम खोजनी कठिन है। इस देश में ही यह दुर्भाग्य घटित हुआ है। इस देश में आत्मा की अमरता माननेवाले सर्वाधिक लोग हैं पृथ्वी पर, और इस देश में मौत से डरने वाले कायरों की संख्या भी सर्वाधिक है। ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो गईं?

जो जानते हैं कि आत्मा अमर है, उनके लिए तो मृत्यु हो गई समाप्त, उनके लिए तो भय हो गया विसर्जित, उन्हें तो अब कोई मार नहीं सकता। उन्हें तो अब कोई नहीं मार सकता। और दूसरी बात भी ध्यान में ले लेना न उन्हें कोई मार सकता है और न अब वे इस भ्रम में हो सकते हैं कि मैं किसी को मार सकता हूं। क्योंकि मारने की घटना ही खतम हो गई। और इस राज को थोडा समझ लेना जरूरी है। जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, वे मौत से डरे हुए हैं और दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और साथ ही ऐसे मौत से डरने वाले लोग अहिंसा की भी बहुत बात करेंगे। इसलिए नहीं कि वे किसी को न मारे, बल्कि इसलिए कि बहुत गहरे में कोई उन्हें मारने को तैयार न हो जाए। दुनिया अहिंसक होनी चाहिए! क्यों? कहेंगे तो वे यही कि किसी को भी मारना बुरा है, लेकिन बहुत गहरे में वे यह कह रहे हैं कि कोई मुझे मार न डाले। किसी को भी मारना बुरा है! लेकिन अगर उन्हें पता चल गया है कि मृत्यु होती ही नहीं, तो न मरने का डर है, न मारने का डर है और न ये बातें अर्थपूर्ण रह गईं।

कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि तू भयभीत मत हो, क्योंकि तू जिन्हें सामने खडा देख रहा है, वे बहुत बार रहे हैं पहले भी। तू भी था, मैं भी था, हम सब बहुत बार थे और हम सब बहुत बार होंगे। जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता। इसलिए न मरने का डर नहीं है, न मारने का डर है। सवाल है जीवन को जीने का। और जो मरने और मारने दोनों से डरते हैं, वे जीवन की दृष्टि में एकदम नपुंसक और इंपोटेंट हो जाते हैं। जो न मर सकता है, न मार सकता है, वह जानता ही नहीं कि जो है वह न मारा जा सकता है, न मर सकता है

कैसी होगी वह दुनिया जिस दिन सारा जगत जानेगा भीतर से कि आत्मा अमर है! उस दिन मृत्यु का सारा भय विलीन हो जाएगा! उस दिन मरने का भय भी विलीन हो जाएगा, मारने की धमकी भी विलीन हो जाएगी। उसी दिन युद्ध विलीन होंगे, उसके पहले नहीं।

एक अदभुत प्रवंचना आदमी पैदा करता है। जिन बातों को वह नहीं जानता है, उन बातों को भी वह दिखाने की इस भांति कोशिश करता है कि जैसे हम जानते हैं। भय के कारण, भीतर है भय, भीतर वह जानता है कि मरना पड़ेगा, लोग रोज मर रहे हैं। भीतर वह देखता है कि शरीर क्षीण हो रहा है, जवानी गई, बुढ़ापा आ रहा है। देखता है कि शरीर जा रहा है। लेकिन भीतर दोहरा रहा है कि आत्मा अजर— अमर है।

मौत में होता क्या है? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केंद्र पर पहुंचती है। जो ऊर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने —कोने तक फैली हुई है, वह सारी ऊर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है। जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ आएगा, अंधकार घिरने लगेगा। प्रकाश सिकुड़ कर फिर दीये के पास आ जाएगा। अगर हम और धीमा करते जाएं और धीमा करते जाएं, तो फिर प्रकाश बीज —रूप में, अनुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।

प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केंद्र पर। नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुड़ाव है, इसी सिकुडाव से, इसी संकुचन से पता चलता है कि मरा! मैं मरा! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है। हाथ—पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया। ये सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर तो किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था। ऊर्जा वापस लौटने लगी है। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। लगता है कि मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं? डूब रहा हूं? समाप्त हो रहा हूं।

और इस घबराहट के कारण कि मैं मर रहा हूं, इस चिंता और उदासी के कारण, इस पीड़ा, इस एंग्विश के कारण, यह एंग्झायटी कि मैं मर रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं यह इतनी ज्यादा चिंता पैदा कर देती है मन में कि वह उस मृत्यु के अनुभव को भी जानने से वंचित रह जाता है। जानने के लिए चाहिए शांति। हो जाता है इतना अशांत कि मृत्यु को जान नहीं पाता।

बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने व्याकुल और बेचैन और परेशान हो गए हैं कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना, कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस—पास से, लेकिन हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे।

एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग और यह शरीर अलग, तो मौत खतम हो गई। मृत्यु नहीं है फिर। और फिर तो शरीर के बाहर आकर खड़े होकर देखा जा सकता है।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

हरिओम सिगंल 



कामोत्तेजना

 यततो हापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥६०॥


अन्वय :- कौन्तेय! हि प्रमाधीनि इन्द्रियाणि यततः विपश्चितः पुरुषस्य अपि मनः प्रसभं हरन्ति ।


अर्थ : हे कौन्तेय! क्योंकि प्रमथनस्वभाववाली (यानी प्रमथनशील) इन्द्रियाँ यत्न करते हुए विवेकशील पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।


व्याख्या:- यहाँ भगवान् अर्जुन को 'कौन्तेय' यानी हे कुन्ती पुत्र सम्बोधन देकर यह बताते हैं कि प्रातः स्मरण मात्र से पवित्र कर देने वाली माता कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न होने से ही तूने युद्ध के समय स्थितप्रज्ञ जैसे सूक्ष्म प्रश्न किया है। अन्यथा ऐसा प्रश्न कौन कर सकता है ? इससे तुम्हारी माता की विलक्षणता ज्ञात होती है। आत्मसाक्षात्कार के बिना विषयासक्ति नहीं छूटती और विषयासक्ति के न छूटने पर निश्चय करके यत्न करने वाले विवेकशील पुरुष के भी मन को मधे डालने वली बलवती श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और प्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती (विषयों की ओर खींच लेती हैं। 

मनुस्मृति में लिखा है कि 'बलवानिद्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति (मनु. २।२१५) बलवान् इन्द्रियों का समूह ज्ञानी को भी (विषयों की ओर खींच लेता है ।। २१५।। इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आत्मसाक्षात्कार के अधीन है और आत्मदर्शन इन्द्रिय-विजय के अधीन है; अतएव ज्ञाननिष्ठा की प्राप्ति बड़ी कठिन है। यहाँ 'हि' शब्द निश्चयार्थक है। विपश्चित पुरुष के भी मन को इन्द्रियाँ मथ डालती हैं। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका का कथन यहाँ उपयुक्त है। 

श्रीवेदव्यास जी अपने शिष्य जैमिनि ऋषि को भगवान् के इसी श्लोक की व्याख्या समझा रहे थे। इस पर जैमिनि ने कहा कि ज्ञानी के मन को इन्द्रियाँ विचलित नहीं कर सकती हैं। इसलिए यह भगवान् का कहा हुआ 'विपश्चितः' पद नहीं है। श्रीमान् इसे हटा कर दूसरा पद लगा दें। इस पर श्रीव्यास जी जैमिनि को प्रमथन करने वली इन्द्रियों का अनुभव कराने के लिये अपने योगबल से अत्यन्त सुन्दरी स्त्री बनकर अन्य सखियों के साथ उनके सामने क्रीड़ा करने लगे। यद्यपि जैमिनि ऋषि एकान्त वास करने वाले, जंगल में गुफा बनाकर उसमें धूप आदि आने के लिये ऊपरी भाग में झरोखा बनाकर बहुत सावधानी के साथ रहते थे, परन्तु जब उस माघ के महीने में बूंद पड़ने से भीग कर साथ की सभी स्त्रियाँ भाग गईं तो अकेली सुन्दरी कन्या को देखकर जैमिनि को दया आ गई और उसके अनुनय को स्वीकार कर अपनी गुफा में उसे रात्रि निवास करने की उन्होंने आज्ञा प्रदान कर दी। स्वयं बाहर रहकर गुफा में जाती हुई कन्या को उपदेश दिया कि रात्रि में मेरे समान ही रूप बनाकर एक ब्रह्मराक्षस तुम्हारे पास यदि जाय तो अन्दर से बन्द किये द्वार को मत खोलना। वह हमारे सदृश अवाज भी करेगा फिर भी तुम सावधानीपूर्वक रहना अर्धरात्रि जब होने लगी तो जैमिनि ऋषि का मन कन्या के भीगने की स्थिति में देखें हुए अंग-प्रत्यंगों के स्मरण से व्याकुल हो उठा और उसके अत्यन्त पतले वस्त्रों से झलकते कमनीय सौन्दर्य को स्मरण कर कामातुर हो गुफा के द्वार पर जाकर खोलने के लिये आवाज देने लगे ।

 स्वामीजी के दिये हुए उपदेश को सुनकर जब वह किसी प्रकार भी द्वार खोलने को राजी नहीं हुई तो क्षुब्ध मन वाले जैमिनि ऋषि गुफा के ऊपर पहुँच कर झरोखे को पत्थर से तोड़ कर नीचे आने के लिये लटक गये। इतने में श्रीव्यास जी ने ऊपर से उनकी शिखा पकड़ ली और कन्या ने उनका चरण पकड़ लिया। अन्त में लज्जित होने पर श्रीव्यास जी ने शिखा छोड़ दी और कन्या भी तिरोहित हो गई जिससे वे निराधार गुफा में गिर पड़े और उसमें रखी कील के भैंसन से शरीर से रक्त निकलने लगा जिससे लिखी गई पुस्तक का नाम 'रक्त-गीता' पड़ा। इससे सिद्ध हो गया कि यत्न करते हुए ज्ञानी को भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ निश्चय करके भ्रष्ट कर देती हैं ||६०||

श्रीत्रिदण्डी स्वामीजी महाराज प्रेणीत श्रीमद्भगवद्गीता - व्याख्यामृतसरिता से




बुधवार, 24 अगस्त 2022

आत्मा

 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥


न- कभी नहीं एनम् - इस आत्मा को; छिन्दन्ति खण्ड-खण्ड कर सकते हैं; शस्त्राणि - हथियार न - कभी नहीं; एनम् - इस आत्मा को दहति जला सकता है; पावक:-अग्नि, न- कभी नहीं; च-भी; एनम् - इस आत्मा को क्लेदयन्ति - भिगो सकता है आपः- जलः न कभी नहीं शोषयति-सुखा सकता है; मारुतः :-वायु।


यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।


तात्पर्य सारे हथियार-तलवार, आग्नेयास्त्र, वर्षा के अस्त्र, चक्रवात आदि आत्मा को मारने में असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक आग्नेयास्त्रों के अतिरिक्त मिट्टी, जल, वायु, आकाश आदि के भी अनेक प्रकार के हथियार होते थे । यहाँ तक कि आधुनिक युग के नाभिकीय हथियारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों में की जाती है, किन्तु पूर्वकाल में विभिन्न पार्थिव तत्त्वों से बने हुए हथियार होते थे। आग्नेयास्त्रों का सामना जल के (वरुण) हथियारों से किया जाता था, जो आधुनिक विज्ञान के लिए अज्ञात हैं । आधुनिक विज्ञान को चक्रवात हथियारों का भी पता नहीं है। जो भी हो, आत्मा को न तो कभी खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न किन्हीं वैज्ञानिक हथियारों से उसका संहार किया जा सकता है, चाहे उनकी संख्या कितनी ही क्यों न हो ।

आत्मा, न जन्म लेता है, न मरता है; न उसका प्रारंभ है, न उसका अंत है--जब हम ऐसा कहते हैं, तो थोड़ी-सी भूल हो जाती है। इसे दूसरे ढंग से कहना ज्यादा सत्य के करीब होगा: जिसका जन्म नहीं होता, जिसकी मृत्यु नहीं होती, जिसका कोई प्रारंभ नहीं है, जिसका कोई अंत नहीं है, ऐसे अस्तित्व को ही हम आत्मा कहते हैं।


जब हम कहते हैं, आत्मा का कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, तो समझ लेना चाहिए। दूसरी तरफ से समझ लेना उचित है कि जिसका कोई जन्म नहीं, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, उसी का नाम हम आत्मा कह रहे हैं। आत्मा का अर्थ है--अस्तित्व।
लेकिन हमारी भ्रांति वहां से शुरू होती है, आत्मा को हम समझ लेते हैं मैं। मेरा तो प्रारंभ है और मेरा अंत भी है। लेकिन जिसमें मैं जन्मता हूं और जिसमें मैं समाप्त हो जाता हूं, उस अस्तित्व का कोई अंत नहीं है।

जब वे यह कह रहे हैं कि आत्मा को न जलाया जा सकता है, न डुबाया जा सकता है पानी में, न नष्ट किया जा सकता है, तो वे यह कह रहे हैं कि आत्मा कोई वस्तु नहीं है;  वस्तु उसमें नहीं है। आत्मा सिर्फ अस्तित्व का नाम है।  वस्तुओं का अस्तित्व होता है, आत्मा स्वयं अस्तित्व है। इसलिए आग न जला सकेगी, क्योंकि आग भी अस्तित्व है। पानी न डुबा सकेगा, क्योंकि पानी भी अस्तित्व है।

इसे ऐसा समझें कि आग भी आत्मा का एक रूप है, पानी भी आत्मा का एक रूप है, तलवार भी आत्मा का एक रूप है, इसलिए आत्मा से आत्मा को जलाया न जा सकेगा। आग उसको जला सकती है, जो उससे भिन्न है। आत्मा किसी से भी भिन्न नहीं। आत्मा अस्तित्व से अभिन्न है, अस्तित्व ही है।

अगर हम आत्मा शब्द को अलग कर दें और अस्तित्व शब्द को विचार करें, तो कठिनाई बहुत कम हो जाएगी। क्योंकि आत्मा से हमें लगता है, मैं। हम आत्मा और ईगो को, अहंकार को पर्यायवाची मानकर चलते हैं। इससे बहुत जटिलता पैदा हो जाती है। आत्मा अस्तित्व का नाम है। उस अस्तित्व में उठी हुई एक लहर का नाम मैं है। वह लहर उठेगी, गिरेगी; बनेगी, बिखरेगी; उस मैं को जलाया भी जा सकता है, डुबाया भी जा सकता है।  आत्मा से मैं का कोई भी लेना-देना नहीं है, दूर का भी कोई वास्ता नहीं है।

हम कृष्ण की बात सुनकर प्रफुल्लित भी होते हैं। जब सुनाई पड़ता है कि आत्मा को जलाया नहीं जा सकता, तो हमारी रीढ़ सीधी हो जाती है। हम सोचते हैं, मुझे जलाया नहीं जा सकता। जब हम सुनते हैं, आत्मा मरेगी नहीं, तो हम भीतर आश्वस्त हो जाते हैं कि मैं मरूंगा नहीं। इसीलिए तो  बूढ़ा होने लगता है आदमी, तो गीता ज्यादा पढ़ने लगता है। मृत्यु पास आने लगती है, तो कृष्ण की बात समझने का मन होने लगता है। मृत्यु कंपाने लगती है मन को, तो मन समझना चाहता है, मानना चाहता है कि कोई तो मेरे भीतर हो, जो मरेगा नहीं, ताकि मैं मृत्यु को झुठला सकूं।

इसलिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में जवान दिखाई नहीं पड़ते। क्योंकि अभी मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। अभी इतना भय नहीं, अभी पैर कंपते नहीं। वृद्ध दिखाई पड़ने लगते हैं। सारी दुनिया में धर्म के आस-पास बूढ़े आदमियों के इकट्ठे होने का एक ही कारण है कि जब मैं मरने के करीब पहुंचता है, तो मैं जानना चाहता है कि कोई आश्वासन, कोई सहारा, कोई भरोसा, कोई प्रामिस--कि नहीं, मौत को भी झुठला सकेंगे, बच जाएंगे मौत के पार भी। कोई कह दे कि मरोगे नहीं--कोई अथारिटी, कोई प्रमाण-वचन, कोई शास्त्र!
इसीलिए आस्तिक, जो वृद्धावस्था में आस्तिक होने लगता है, उसके आस्तिक होने का मौलिक कारण सत्य की तलाश नहीं होती, मौलिक कारण भय से बचाव होता है, फियर से बचाव होता है। और इसलिए दुनिया में जो तथाकथित आस्तिकता है, वह भगवान के आस-पास निर्मित नहीं, भय के आस-पास निर्मित है। और अगर भगवान भी है उस आस्तिकता का, तो वह भय का ही रूप है; उससे भिन्न नहीं है। वह भय के प्रति ही सुरक्षा है, सिक्योरिटी है।

तो जब कृष्ण यह कह रहे हैं, तो एक बात बहुत स्पष्ट समझ लेना कि यह आप नहीं जलाए जा सकेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ना। इसमें तो बहुत कठिनाई नहीं है। घर जाकर जरा आग में हाथ डालकर देख लेना, तो कृष्ण एकदम गलत मालूम पड़ेंगे। एकदम ही गलत बात मालूम पड़ेगी। गीता पढ़कर आग में हाथ डालकर देख लेना कि आप जल सकते हैं कि नहीं! गीता पढ़कर पानी में डुबकी लगाकर देख लेना, तो पता चल जाएगा कि डूब सकते हैं या नहीं!

लेकिन कृष्ण गलत नहीं हैं। जो डूबता है पानी में, कृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। जो जल जाता है आग में, कृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन क्या आपको अपने भीतर किसी एक भी ऐसे तत्व का पता है, जो आग में नहीं जलता? पानी में नहीं डूबता? अगर पता नहीं है, तो कृष्ण को मानने की जल्दी मत करना। खोजना, मिल जाएगा वह सूत्र, जिसकी वे बात कर रहे हैं।

कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसा है कि वह जो आत्मा है, वह मरणधर्मा नहीं है। पूछें, क्यों? तो क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसा है। वह जो आत्मा है, वह आत्मा जल नहीं सकती, जन्म नहीं लेती, मरती नहीं। क्यों? कृष्ण कहेंगे, ऐसा है। अगर तुम पूछो कि कैसे हम जानें उस आत्मा को, तो रास्ता बताया जा सकता है--जो नहीं मरती, जो नहीं जन्मती। लेकिन अगर पूछें कि क्यों नहीं मरती? तो कृष्ण कहते हैं, कोई उपाय नहीं है। यहां जाकर सब निरुपाय हो जाता है।  यहां जाकर बुद्धि एकदम थक जाती और गिर जाती है।
लेकिन बुद्धि क्यों ही पूछती है। उसका रस क्यों में है। क्योंकि अगर आप क्यों पूछें, तो बुद्धि कभी न गिरेगी और कभी न थकेगी, कभी न मरेगी। वह पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी।

यथारुप गीता तथा भगवान रजनीश के प्रवचनों पर आधारित
हरिओम सिगंल 




सोमवार, 22 अगस्त 2022

कर्म करना

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥


कर्मणि-कर्म करने में; एव निश्चय ही; अधिकार:-अधिकार; ते तुम्हारा मा कभी नहीं; फलेषु - (कर्म) फलों में कदाचन कदापि मा- कभी नहीं; कर्म-फल-कर्म का फल हेतुः - कारण: भूः - होओ; मा-- कभी नहीं, ते तुम्हारी सङ्गः- आसक्ति; अस्तु हो; अकर्मणि-कर्म न करने में ।

तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।

कर्मयोग का आधार-सूत्र: अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है। लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे।

कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है।

इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है।

इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है।

स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है।

इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है।

जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, आप्टिमम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की मैक्सिमम, अधिकतम संभावना है और लघुतम, मिनिमम मिलने की संभावना है।

जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए--कि कोई कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता--इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती हैं।

और जब आप फलाकांक्षा करते हैं, तब आपको पता है, आप अश्रद्धा कर रहे हैं! शायद इसको कभी सोचा न हो कि फलाकांक्षा अश्रद्धा, गहरी से गहरी अनास्था, और गहरी से गहरी नास्तिकता है। जब आप कहते हैं, फल भी मिले, तो आप यह कह रहे हैं कि अकेले कर्म से निश्चय नहीं है फल का; मुझे फल की आकांक्षा भी करनी पड़ेगी। आप कहते हैं, दो और दो चार जोड़ता तो हूं, जुड़कर चार हों भी। इसका मतलब यह है कि दो और दो जुड़कर चार होते हैं, ऐसे नियम की कोई भी श्रद्धा नहीं है। हों भी, न भी हों!

जितना अश्रद्धालु चित्त है, उतना फलातुर होता है। जितना श्रद्धा से परिपूर्ण चित्त है, उतना फल को फेंक देता है--जाने समष्टि, जाने जगत, जाने विश्व की चेतना। मेरा काम पूरा हुआ, अब शेष काम उसका है।

फल की आकांक्षा वही छोड़ सकता है, जो इतना स्वयं पर, स्वयं के कर्म पर श्रद्धा से भरा है। और स्वभावतः जो इतनी श्रद्धा से भरा है, उसका कर्म पूर्ण हो जाता है, टोटल हो जाता है--टोटल एक्ट। और जब कर्म पूर्ण होता है, तो फल सुनिश्चित है। लेकिन जब चित्त बंटा होता है फल के लिए और कर्म के लिए, तब जिस मात्रा में फल की आकांक्षा ज्यादा है, कर्म का फल उतना ही अनिश्चित है।

करें कर्म, वह हाथ में है; अभी है, यहीं है। फल को छोड़ें। फल को छोड़ने का साहस दिखलाएं। कर्म को करने का संकल्प, फल को छोड़ने का साहस, फिर कर्म निश्चित ही फल ले आता है। लेकिन आप उस फल को मत लाएं, वह तो कर्म के पीछे छाया की तरह चला आता है। और जिसने छोड़ा भरोसे से, उसके छोड़ने में ही, उसके भरोसे में ही, जगत की सारी ऊर्जा सहयोगी हो जाती है।

जैसे ही हम मांग करते हैं, ऐसा हो, वैसे ही हम जगत-ऊर्जा के विपरीत खड़े हो जाते हैं और शत्रु हो जाते हैं। जैसे ही हम कहते हैं, जो तेरी मर्जी; जो हमें करना था, वह हमने कर लिया, अब तेरी मर्जी पूरी हो; हम जगत-ऊर्जा के प्रति मैत्री से भर जाते हैं। और जगत और हमारे बीच, जीवन-ऊर्जा और हमारे बीच, परमात्मा और हमारे बीच एक हार्मनी, एक संगीत फलित हो जाता है। जैसे ही हमने कहा कि नहीं, किया भी मैंने, जो चाहता हूं वह हो भी, वैसे ही हम जगत के विपरीत खड़े हो गए हैं। और जगत के विपरीत खड़े होकर सिवाय निराशा के, असफलता के कभी कुछ हाथ नहीं लगता है। इसलिए कर्मयोगी के लिए कर्म ही अधिकार है। फल! फल परमात्मा का प्रसाद है।

गीता यथारुप तथा ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित 



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...