गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 21

 जीवन की परम धन्यता--स्वधर्म की पूर्णता में

देही नित्यमध्योऽहं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।। ३०।।
स्वधर्मपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि
धर्म्याद्धि युद्धाच्छे्रयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।। ३१।।


हे अर्जुनयह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य हैइसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए तू शोक करने को योग्य नहीं है।
और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं हैक्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।


कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दोतो भी क्षत्रिय होऔर क्षत्रिय के लिए युद्ध से भागना श्रेयस्कर नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी हैकई कारणों से।
एक तो विगत पांच सौ वर्षों मेंसभी मनुष्य समान हैंइसकी बात इतनी प्रचारित की गई है कि कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगीबहुत अजीब लगेगीकि तुम क्षत्रिय हो।  सारी पृथ्वी परउन सारे लोगों नेजिन्होंने सोचा है और जीवन को जाना हैबिलकुल ही दूसरी उनकी धारणा थी। वह धारणा यह थी कि कोई भी व्यक्ति एक समान नहीं है। 



और दूसरी धारणा उस असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैंव्यक्तियों के विभिन्न प्रकार हैं। बहुत मोटे मेंइस देश के मनीषियों ने चार प्रकार बांटे हुए थे। वे चार वर्ण थे। वर्ण की धारणा भी बुरी तरहबुरी तरह निंदित हुई। इसलिए नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं हैबल्कि इसलिए कि वर्ण की धारणा मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए। वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर रहे हैंअत्यंत प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं। संग-साथ से सिद्धांत तक मुसीबत में पड़ जाते हैं!

कृष्ण उससे कहते हैं कि तू जो छोड़ने की बात कर रहा हैवह उपाय नहीं है कोईकठिन है। तू क्षत्रिय हैयह जान। और अब शेष यात्रा तेरी क्षत्रिय की तरह गौरव के ढंग से पूरी हो सकती हैया तू अगौरव को उपलब्ध हो सकता है और कुछ भी नहीं। तो वे कहते हैं कि या तो तू यश को उपलब्ध हो सकता है क्षत्रिय की यात्रा सेया सिर्फ अपयश में गिर सकता है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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