मंगलवार, 20 सितंबर 2022

जीव ईश्वर का मिलन

 परिपूर्ण आनन्दमय श्रीकृष्ण को कोई सुख भोगने की इच्छा ही नहीं होती। प्रभु ने यह लीला गोपियों को परमानन्द देने के लिए की है और योगमाया का आश्रय लिया है। भगवान् ने आज क्रीड़ा करने की इच्छा की है, बाँसुरी बजाई है, गोपियों को बुलाया है। बाँसुरी की ध्वनि गोपियों के कान में पड़ती है। गोपियाँ परमात्मा से मिलने की तीव्र भावना लेकर दौड़ पड़ती हैं। उस समय गोपियाँ जो काम कर रही थीं, उसे छोड़कर दौड़ पड़ती हैं?

बाँसुरी की आवाज सुनाई दी। उसने सोचा कि भगवान् मुझे बुला रहे हैं। वह जल्दी में काजल लगाने के बदले कुमकुम लगाकर उधर दौड़ी। यदि गोपी में स्त्रीत्व होता, तो वह ऐसा कदापि नहीं करती। हम दर्पण में मुँह देखकर सब ठीक कर बाहर निकलते हैं।  गोपियों में स्त्री-भाव नहीं है। रासलीला में किसी स्त्री को प्रवेश नहीं मिला है। उसमें तो शुद्ध जीव ही जा सकता है, जिसके वासना का पर्दा दूर हो गया हो, जिसमें लौकिक नाम-रूप की पूर्ण विस्मृति हो ।

भगवान् गोपियों से कहते हैं कि तुम बहुत भाग्यशाली हो । महाभागा हो, बहुत भाग्यशाली वह है, जिसे भगवान् से मिलने की तीव्र इच्छा हो।  भाग्यशाली वह होता है, जो परमात्मा से मिलने के लिए आतुर हो । भगवान् कहते हैं, 

"तुम बड़ी भाग्यशाली हो। तुम इस समय क्यों आईं ? सुन्दर रात्रि है। इसमें तुम वृन्दावन की शोभा देखो। इसके बाद अपने घर जाओ, अपने पति के पास जाओ।" 

 श्रीकृष्ण किसी को सुख नहीं देते। वे आनन्द देते हैं। यह संसार सुख-दुःख से भरा हुआ है। जो सुख देता है, वही दुःख का कारण बनता है। यहाँ न सुख है, न दुःख है। श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। सभी को आनन्द देते हैं। उन्होंने गोपियों से कहा कि तुम्हें सुख तुम्हारे पति देंगे। तुम उनके पास जाओ। गोपियाँ कहती हैं कि जिसे सुख की इच्छा है, वह पति या पत्नी के पास जाएगा। जिसे सुख की इच्छा नहीं है, वह परमात्मा के पास आता है। हमें कोई सुख नहीं चाहिए। श्रीकृष्ण गोपीयों को स्त्री - धर्म समझाते हैं और घर जाने की आज्ञा देते हैं।

कृष्ण ने गोपीयों से कहा है कि,

 "पति रोगी हो, दरिद्री हो तो भी उसमें परमात्मा की भावना रखकर सेवा करने से स्त्री का यह लोक सुधरता है और परलोक भी सुधरता है। रात्रि काल में तुम क्यों बाहर आती हो? तुम्हारा पति तुम्हारी प्रतीक्षा करता होगा। पति में परमात्मा की भावना रखो।"

 श्रीकृष्ण ने गोपियों को घर जाने की आज्ञा दी है। 

 पुरुष को जल्दी मुक्ति नहीं मिलती; किन्तु स्त्री को भगवान् जल्दी मिल जाते हैं। स्त्री को भगवान् के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। उसका हृदय कोमल होता है। यदि स्त्री घर के एक-एक जीव में ईश्वर का भाव रखकर उसकी सेवा करे और भगवान् का स्मरण करें, तो उसे अनायास ही मुक्ति मिल जाती है। क्यों कि उसका हृदय अत्यन्त कोमल होता है। पुरुष अपने व्यवसाय में जो पाप करता है, उसका पूरा फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है। यदि वह पैसे से कोई दान पुण्य करे, तो उसमें स्त्री का भी आधा भाग होता है। जो स्त्री अपने पति में परमात्मा का भाव रखकर उसकी सेवा करती है, उसे ही पुण्य मिलता है।

भगवान् गोपियों से कहते हैं,

 "स्त्री का इधर-उधर भटकना ठीक नहीं है। फिर तुम सब क्यों इधर-उधर भटक रही हो?"

श्रीकृष्ण गोपियों को स्त्री - धर्म समझाते हैं और गोपियाँ उसका उत्तर आत्मधर्म से देती हैं। वे भगवान् से कहती हैं कि,

" जो स्त्री होगी, वह स्त्री - धर्म का पालन करेगी। जो स्त्री न हो, उसे स्त्री-धर्म का पालन करने की क्या आवश्यकता है? मेरा मन रिक्त है। मैंने सबका त्याग कर दिया है और स्त्रीत्व का भी त्याग कर दिया है। गोपियों में स्त्रीत्व नहीं है।"

 श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ दुःख रूप है ऐसा समझकर जो बुद्धि पूर्वक त्याग किया जाये वह सच्चा त्याग है।  गोपियाँ सब बातें समझकर त्याग करती हैं।  श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ दुःख रूप ही है। ऐसा मानकर उन्होंने सर्वस्व का त्याग किया है और कृष्ण के चरणों का सहारा लिया है। 

"हे नाथ! आप निष्ठुर मत बनिए।"

गोपियों ने कहा-,

 प्रभु ने कहा कि

" मैं निष्ठुर नहीं हूँ। मैं तुम्हारा प्रेम जानता हूँ, किन्तु मुझे धर्म बहुत प्रिय है। तुम अपना धर्म छोड़ रही हो। अपने पति की सेवा करना तुम्हारा धर्म है। "

एक गोपी ने कहा कि ,

"महाराज, आपने मुझे अपना धर्म समझाया। अब यह समझाइये कि धर्म का फल क्या होता है ? अथवा धर्म करने से क्या होता है? "

श्रीकृष्ण उन्हें समझाते हैं कि,

 "प्रभु ने जिसका जो धर्म निश्चित किया है उसे फल की अपेक्षा छोड़कर पालन करके अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, इससे उसका पाप नष्ट हो जाता है। धर्म का फल है पाप का विनाश करना।"

 यह सुनकर गोपियों ने पूछा कि ,

"पाप का विनाश होने के बाद क्या होता है? यदि धर्म का फल पाप का विनाश है तो पाप के नाश का फल क्या है?" 

प्रभु ने कहा कि, 

"जिसके पाप का विनाश होता है, उसका मन शुद्ध हो जाता है। अर्थात् पापनाश का फल है मन की शुद्धि।"

 गोपियों ने कहा कि, 

"अब यह बताइए  कि मन की शुद्धि का क्या फल होता है?"

 भगवान् ने कहा कि,

 "जिसका मन शुद्ध होता है उसे परमात्मा मिलता है।" 

गोपियों ने कहा कि,

 'हमारा मन शुद्ध है। इसीलिए तो हमें आप मिले। यदि धर्म का फल पापनाश है, पापनाश का फल मन-शुद्धि है, मन-शुद्धि का फल परमात्मा की प्राप्ति है तो परमात्मा के मिलने के बाद धर्म पालने की क्या आवश्यकता है? फल हाथ में आने के बाद कोई वृक्ष को नहीं पकड़ने जाता । परमात्मा फल-स्वरूप मिलता है। साधन की अपेक्षा साध्य के हाथ में आ जाने पर साध्य छोड़कर साधन कौन पकड़ने जाए? आज तक हमने धर्म का बहुत पालन किया और हमारा मन शुद्ध हो जाने पर आप मिले हैं। मन की शुद्धि के बिना परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन का लाभ मिल ही नहीं सकता। अब आपको छोड़कर हमें धर्म पालने की जरूरत नहीं रहती। आपने हमें धर्म का जो उपदेश दिया है उसका हमने ठीक तरह पालन किया। हमारा मन शुद्ध हो गया है। इसीलिए आपके दर्शन हुए हैं। आपको छोड़ हम धर्म पालने के लिए कहाँ जाएँ? हमने आपके चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण किया है। नाथ! हम पर कृपा कीजिए ।"

प्रभु ने गोपियों से कहा कि,

 "सखियो ! क्या तुम मुझे मानती हो?"

 सखियों ने कहा, 

'हाँ हम आपको मानती हैं। ' 

भगवान् ने कहा,

 'तो मेरी आज्ञा है कि तुम यहाँ से अपने घर जाओ। तुम्हारे पति के शरीर में भी मैं ही निवास करता हूँ। क्या मैं यहाँ जो खड़ा हूँ, उतना ही हूँ? मैं सबका आधार हूँ। तुम अपने पति के शरीर में विराजने वाले परमात्मा से मिलो।'

यह सुनकर गोपी ने बहुत सुन्दर जबाब दिया,

 "पति के शरीर में परमात्मा है और पत्नी के शरीर में जो परमात्मा है, वह माया से ढँका हुआ है। पति-पत्नी में विद्यमान परमात्मा वासना के स्पर्श से दूषित है। आप वासना रहित शुद्ध परमात्मा हैं, पूर्ण निष्काम हैं। मैं वासना का पर्दा फेंककर यहाँ आयी हूँ, पूर्ण निर्वसन होकर आई हूँ। जहाँ वासना का स्पर्श है, वहाँ हमें परमात्मा से नहीं मिलना है। जो वासना-रहित है, शुद्ध है। उस परमात्मा से मैं मिलने आई हूँ।"

 प्रभु ने यह बात सुनी। वे मन में विचार करते हैं कि मुझे किसी ने भी ऐसा उत्तर नहीं दिया। फिर कहा कि,

 "तुम्हारी बात सुनकर मुझे बहुत आनन्द होता है, किन्तु मेरी इच्छा है कि तुम अपने घर जाओ। तुम अपने पति में ऐसी भावना रखो कि वह माया-रहित परमात्मा है। लोग पत्थर की मूर्ति पूजते हैं। मूर्ति पत्थर की होती है, किन्तु लोग भावना रखते हैं कि यह भगवान् की है।  यदि कोई मूर्ति में ईश्वर की भावना रखकर पूजा करे, तो वह पूजा भगवान् को मिलती है। इससे पूजा सफल होती है और पूजा करने वाले का कल्याण होता है। पति चाहे जैसा है, किन्तु वह चेतन है, पत्थर की मूर्ति जड़ है। जड़ में परमात्मा की भावना रखकर, जड़ में चेतन की भावना रखकर जो पूजा की जाती है, वह सफल होती है। फिर तुम चेतन पति में परमात्मा की भावना क्यों नहीं करतीं?"

 तब एक गोपी ने उत्तर दिया, 

"पति में परमात्मा की भावना रखी जाए तो वह भावना वियोग में फलित होती है। वह भावना संयोग में नहीं होती। प्रत्यक्ष परमात्मा के दर्शन के बाद कोई पत्थर की मूर्ति की पूजा नहीं करता। जिसे दर्शन नहीं हुआ है, वह ऐसी भावना रखता है कि यही भगवान् है।जब तक आपके दर्शन नहीं हुए थे तब तक हम सब में आपकी ही भावना करते थे। अब आपके दर्शन हो जाने पर आपको छोड़कर हम भावना सिद्ध करने के लिए कहाँ जाएँ?"

परमात्मा ने कहा,

 "मेरी आज्ञा है कि तुम अपने घर जाओ।"

 गोपियों ने कहा कि,

" हम आपकी आज्ञा मानकर घर तो जाएँ, किन्तु हमारा मन जो आपके पास है, उसे वापस दीजिए।"

 परमात्मा ने कहा,

 "तुम्हारा मन तो मुझ में मिल गया है। परमात्मा में मन मिलने के बाद उसे परमात्मा भी अलग नहीं कर सकता। जो मन भगवान् को अर्पण किया जाता है, वह उसमें मिल जाता है। उसे भगवान् भी अलग नहीं कर सकता ।"

 एक गोपी बोली,

 "जहाँ मन मिलता है वहीं आत्मा स्थिर हो जाती है। हे नाथ, ऐसा मत कीजिए।"

प्रभु ने कहा,

 "सखियो, तुम्हारे वचन बड़े सुन्दर हैं। तुम्हारी इच्छा क्या है?"

 गोपी कहती हैं, 

"मुझे अधरामृत दीजिए। मैं अधरामृत लेने आई हूँ।"

अधरामृत का अर्थ भागवत में एक-दो स्थानों पर ऐसा किया गया है-  जहाँ जगत् नहीं है, जहाँ मैं नहीं हूँ, जहाँ केवल परमात्मा ही विराज रहा है। उस परमात्मा के साथ मैं एकाकार हो जाऊँ। परमात्मा के साथ एकाकार होने का अर्थ जगत् की विस्मृति है। मुझे ऐसा ही अधरामृत दीजिए।

 गोपी अधरामृत माँगती है। मुझे ऐसा ज्ञानामृत दीजिए।

 पृथ्वी ही धरा है- संसार के विलासी जीव तो धरामृत का भोग करते हैं, जो अमृत पीने पर मृत्यु होती है। ऐसा ज्ञानामृत दो कि मैं एक क्षण भी श्रीकृष्ण से दूर न होऊँ, ऐसा अधरामृत दो कि आपका नित्य संयोग प्राप्त हो। यानी जहाँ जगत् नहीं, जहाँ केवल परमात्मा है। गोपी अब श्रीकृष्ण से अलग रह ही नहीं सकती। उसे अब श्रीकृष्ण का वियोग असह्य है। रासलीला में गोपी श्रीकृष्ण का रूप ग्रहण संयोग प्राप्त हो। यानी जहाँ जगत् नहीं, जहाँ केवल परमात्मा है। गोपी अब श्रीकृष्ण से अलग रह ही नहीं सकती। उसे अब श्रीकृष्ण का वियोग असह्य है। रासलीला में गोपी श्रीकृष्ण का रूप ग्रहण करती है। वह कहती है, 

"मुझे ऐसा अधरामृत दीजिए। उसे ही पीने मैं यहाँ आई हूँ।"

 श्रीकृष्ण ने कहा, 

"तुम्हें तो अधरामृत लेने की इच्छा है, किन्तु यदि मेरी इच्छा अधरामृत देने की न हो तो? मुझे अधरामृत नहीं देना है। तुम यहाँ से अपने घर जाओ।"

 गोपियों ने कहा, 

"आप घर जाओ,  घर जाओ, किससे कहते हैं। हम आपको अपने लिए नहीं मना रही हैं। हम जानती हैं कि आप बड़े ही संकोची हैं। यदि हम सब घर चली जाएँ, तो आप यहाँ रहकर क्या करेंगे? भगवान् की शोभा भक्तों से है। आप भी हमसे मिलने के लिए आतुर हैं। ईश्वर की इच्छा होती है कि जीव मेरा अंश है, वह मुझसे मिले। हे नाथ, हम पर कृपा करो। हमारे मन में श्रीकृष्ण को छोड़ दूसरा कोई नहीं है। हम यहाँ से घर जाकर आपके वियोग में प्राण त्यागकर आपसे ही मिलने वाली हैं। अन्तिम उपाय तो हमारे हाथ में है। अर्थात् हम अपने प्राण छोड़कर आपसे मिलने ही वाली हैं, किन्तु उसका कलंक आपको न लगने पाए। आपकी अपकीर्ति न हो, इसीलिए हम आपको मना रही हैं। "

"मुझे मरण से थोड़ी भी भीति नहीं लगती। मृत्यु से वही घबराता है; जिसके मन में वासना होती है। जिसके मन में वासना नहीं होती, उसे मृत्यु से कोई भय नहीं लगता । मृत्यु तो मिलन कराने वाली होती है, वह परमात्मा के साथ ऐक्य कराती है।"

 गोपियों को मरने का न तो कोई दुःख है, न भीति है। प्रभु ने यह सुना और उनकी हार हो गई।

भगवान् विचार करते हैं, 

इन गोपियों में कितनी आतुरता है? मैं इनसे मिलूँ और मिलन क्रम में जिसकी अन्तिम बारी हो, वह कदाचित् अपने प्राण छोड़ दे तो?इसीलिए श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं उतने स्वरूप धारण कर यह अनुभव कराया कि मैं तेरे साथ ही हूँ। हजारों वर्षों से भगवान् से बिछुड़ा हुआ यह जीव प्रभु के पास आया है और भगवान् उसे भुजाओं में भरकर आलिंगन देते हैं। गोपी और श्रीकृष्ण का यह मिलन जीव ईश्वर का मिलन है। इस समय अंशी और अंश एक हो गए हैं। गोपी के हाथ में भगवान् आ गए हैं। वे इस बात से मगन हैं कि मुझे परमात्मा मिले हैं। इससे उन्हें अत्यन्त आनन्द हुआ। आज भगवान् को भी आनन्द हो रहा है कि मुझसे बिछुड़ा हुआ अंश आज मुझसे मिला है। रास में संगीत, साहित्य और नृत्य तीनों का समन्वय हुआ है। गोपियाँ आनन्दातिरेक में नाच रही थीं। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण ने भी ताल का अनुसरण करते हुए नाचना शुरू कर दिया।

 यह लीला खुले मैदान में हुई है। यह दरवाजा बन्द करके नहीं की गई। श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में खुले मैदान में यह लीला की है। प्रत्येक गोपी के साथ श्रीकृष्ण का एक स्वरूप है। मध्य में राधा-माधव हैं। उस समय ब्रह्मादिक देव इस लीला के दर्शन करने आए। ब्रह्माजी ने विचार किया कि यह लीला शुद्ध तो है; किन्तु मेरे विचार से कुछ लोक- विरुद्ध है। 

 वास्तव में इस मिलन में कोई विकार नहीं हैं, कोई वासना नहीं है। यह बिल्कुल निष्काम है, शुद्ध है। फिर भी लोक-विरुद्ध है इस प्रकार स्त्रियों के साथ नाचना-कूदना अधर्म है। इससे ब्रह्माजी को थोड़ी शंका हुई। श्रीकृष्ण तो ब्रह्माजी के मन में विराजमान हैं, अन्तर्यामी हैं। श्रीकृष्ण को ज्ञात हुआ कि ब्रह्माजी की भावना कुछ बिगड़ी है। मैंने उसे धर्म का मर्म समझाया है; किन्तु आज वह मुझे समझा रहा है। प्रभु ने अब ऐसी लीला की कि गोपी को छाती से लगा कर आलिंगन किया और  उसे आत्मस्वरूप दान किया। अब साड़ी पहनने वाली कोई गोपी नहीं रह गई। सभी पीताम्बर धारी कृष्ण बन गईं। अब श्रीकृष्ण के साथ श्रीकृष्ण की क्रीड़ा हो रही है। शुद्ध जीव अब ब्रह्म रूप बन जाता है। ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास करने का नाम रास है।

यदि सजातीय सजातीय से मिले तो धर्म- मर्यादा का भंग नहीं होता। विजातीय का सजातीय से मिलना यह भले ही धर्म-भंग हो । यह तो आत्मा का अंश परमात्मा को मिला। यह लोक विरुद्ध नहीं हो सकता न तो धर्म-विरुद्ध है। यह तो स्वयं धर्म का फल है। ब्रह्माजी को दर्शन हुआ कि साड़ी पहनने वाली कोई गोपी है ही नहीं। सभी पीताम्बर धारी श्रीकृष्ण हैं! तब उन्हें विश्वास हुआ कि यह मिलन लोक-विरुद्ध नहीं है, यह अति शुद्ध  है । 

ब्रह्माजी साष्टांग वन्दन करते हैं और रासबिहारी लाल की जय-जयकार करते हैं। जब ब्रह्माजी वन्दन कर खड़े हुए तब लाला ने विनोद किया अब तो पीताम्बरधारी कृष्ण दिखाई नहीं देते, सब गोपियाँ हैं। श्रीकृष्ण एक बार दर्शन कराते हैं तो सब श्रीकृष्ण ही हैं, उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है। अब जो दर्शन कराते हैं, उनमें कोई पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण नहीं है। सभी साड़ी पहनने वाली गोपियाँ ही हैं। यह पूर्ण अद्वैत की कथा है।

श्रीकृष्ण-लीला का रहस्य श्रीकृष्ण कृपा से ही ध्यान में आता है। अब गोपी के साथ श्रीकृष्ण का स्वरूप दिखाई देता है। उस समय नारदजी वहाँ आए। उनकी इच्छा हुई कि यदि मैं अन्दर जाऊँ तो क्या भगवान् मुझे आलिंगन देंगे? मुझे परमात्मा से मिलना है लेकिन इधर तो सखियों का पहरा है। उन्होंने नारदजी से कहा,

 "आप दूर से दर्शन कर सकते हैं। आपको अन्दर प्रवेश नहीं मिल सकता। आप अन्दर नहीं जा सकते।"

 प्रवेश न मिलने पर नारदजी को दुःख हुआ । उनको मन में ऐसा आया कि ब्रह्माजी का पुत्र होकर मैंने बड़ी भूल की। मैं यदि गोपी हुआ होता तो मुझे अन्दर प्रवेश मिलता। अब नारदजी 'श्री राधे-राधे' कहकर रोने लगे। इस पर राधाजी को दया आ गई। श्रीधाम वृन्दावन में यदि कोई जीव रोने लगे, तो श्रीराधाजी वहाँ तुरन्त पहुँच जाती हैं।

आनन्दमय वृन्दावन में कोई रोता नहीं है। वहाँ तो ब्रह्म भी नाचता है। राधाजी नारदजी से  पूछती हैं, 

'नारद, तू क्यों रोता है? तुझे क्या हो गया है?' 

उस समय नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा है,

 'मुझे अन्दर आना है किन्तु ये सब मुझे रोकती हैं।'

 राधाजी की आज्ञा मिल गई। नारदजी राधा-कुण्ड में स्नान कर रहे हैं। इससे उनमें अलौकिक गोपी भाव पैदा हो जाता है, और नई नारदी गोपी उत्पन्न हो उठती है। अब नारदजी ने पुरुषत्व के अभिमान का त्याग कर दिया। क्योंकि किसी पुरुष या स्त्री को रास में प्रवेश नहीं मिलता। राधाजी इस नई सखी को श्रीकृष्ण के पास ले जाती हैं। श्रीकृष्ण नारदी सखी का आलिंगन कर रहे हैं। नारदजी ने विचार किया यदि भगवान् मिलता हो, तो साड़ी पहनने से मेरा क्या बिगड़ता है? मैं बहुत भटक चुका।  मैं पुरुष हूँ। यह अहं धारण कर मैं बहुत दुःखी हुआ। गोपियाँ स्त्रीत्व छोड़कर प्रभु से मिलने आती हैं। इसलिए नारदजी ने पुरुषत्व का अभिमान छोड़ दिया। उनमें गोपीभाव जागृत हो उठा। इस प्रकार प्रभु ने गोपियों को परमानन्द दिया है और गोपियाँ कृतार्थ हो उठी हैं। 

श्री डोंगरेजी महाराज  

हरिओम सिगंल 




मदनमोहन भगवान श्रीकृष्ण

 रासलीला में स्त्री और पुरुष के मिलन की कथा नहीं है, बल्कि जीव-ब्रह्म के मिलन का वर्णन है। 'गोपी' शब्द सुनने से प्रायः लोगों को स्त्री का शरीर दिखाई देता है।   गोपियों का आकार कुछ स्त्री जैसा दिखाई देता है, किन्तु उनमें स्त्रीत्व नहीं है। आचार्यों ने 'गोपी' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं।  जिसके शरीर में कृष्ण का स्वरूप गुप्त हैं, जिसके हृदय में श्रीकृष्ण को छोड़ कुछ नहीं है जो भगवद्-स्वरूप को ही अपने हृदय में रखता है उसे गोपी कहते हैं।

 साधारण मनुष्य अपने मन में संसार को रखता है। मन में जो संसार है, वही रुलाता है, वहीं सताता है। तुम संसार में भले रहो, किन्तु संसार को अपने मन में मत रखो। संत लोग संसार में रहते हैं, किन्तु संसार उनके मन में नहीं आता। संत जन अपने मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर करते हैं। गोपी ने मन से सर्वस्व त्याग कर दिया है और मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर कर लिया है। न तो गोपी नाम की कोई स्त्री, न कोई पुरुष और न कोई स्त्री- पुरुषोत्तर है। परमात्मा के दर्शन की, मिलन की तीव्र इच्छा ही गोपी है। भागवत में ही 'गोपी' शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है। इस जीव को प्रभु के दर्शन की इच्छा ही नहीं होती। मनुष्य का मन ऐसा मैला है कि इसे संसार सरस लगता है। मनुष्य का मन संसार में उलझा हुआ है। इसे यह इच्छा नहीं होती कि मुझे भगवान् का दर्शन हो अथवा मुझे परमात्मा से मिलना है। प्रभु मिलन की तीव्र भावना ही गोपी है।

 जो प्रत्येक इन्द्रिय से भक्तिरस का पान करता है। भक्ति अलौकिक दिव्य रस है। जो आँख से भक्ति करे, कान से भक्ति करे, मन से भक्ति करे, जीभ से भक्ति करे, जो अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को भक्तिरस में डुबो दे उसे गोपी कहते हैं। जब प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति फूटती हैं, तब देहाभिमान छूटता है।  इन्द्रियों को भक्तिरस से पुष्ट करना है। वासना का विनाश करने के बाद प्रेम-मार्ग में प्रवेश मिलता है। प्रेम और मोह दोनों का आकार समान है, किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। मोह में सुख भोगने की इच्छा होती है, किन्तु प्रेम मार्ग में प्रियतम के लिए सर्वसुख का त्याग करना पड़ता है। मोह प्रेम माँगता है और प्रेम प्रेम देता है। प्रेम सारी वासनाओं को नष्टकर, प्रतिकूल सारे विषयों में से इन्द्रियों को हटाकर अनुकूल परमात्मा के प्रति अपने भावों को मोड़ता है। 

रासलीला में स्त्री और पुरुष के मिलन की कथा नहीं है। न तो गोपी कोई स्त्री है और न श्रीकृष्ण कोई पुरुष श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम परमात्मा हैं, गोपी शुद्ध जीव है और रासलीला शुद्ध जीव तथा ईश्वर के मिलने की कथा है। यही भागवत का फल है। भागवत में वर्णन आता है, गोपियों के शरीर ने प्रभु का स्पर्श किया ही नहीं, जब शरीर का विचार किया जाता है, जब शरीर का स्पर्श होता है तभी काम पैदा होता है। 

 परमात्मा का स्वरूप आनन्दमय है। निराकार आनन्द निराकार श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुआ है। हमारे शरीर में माँस-रुधिर है। ठाकुरजी का स्वरूप आनन्दमय है। जीव को जो शरीर मिलता है, वह पूर्वजन्म की वासना के अनुसार ही मिलता है। परमात्मा अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं।

भगवान् की तरह गोपियों का स्वरूप भी अलौकिक, अप्राकृतिक और दिव्य है। गोपियों का शरीर भगवान् का सतत ध्यान करने से भगवान् की तरह गोपियों का स्वरूप भी अलौकिक, अप्राकृतिक और दिव्य है। गोपियों का पंच-भौतिक शरीर श्रीकृष्ण-वियोग में भस्म हो गया है। वियोग बहुत बड़ी अग्नि है ।  गोपियों ने परमात्मा का अलौकिक दिव्य स्वरूप प्राप्त किया है । गोपियों को श्रीकृष्ण के दर्शन के बाद प्रेम जगा है। प्रेम का आरम्भ द्वैत से होता है किन्तु प्रेम की समाप्ति अद्वैत में होती है। आरम्भ में प्रेमी और प्रियतम दोनों अलग होते हैं, किन्तु अतिशय प्रेम बढ़ने पर ये दोनों अलग नहीं रह सकते और मिट कर एक हो जाते हैं। प्रेम का अर्थ है 'मैं' मिटाकर 'तू' हो जाना। साधारण प्रेम में 'मैं' और 'तू' दोनों अलग है। अतिशय प्रेम बढ़ने पर 'मैं' अलग नहीं रह सकता, वह 'तू' में मिल जाता है। गोपियाँ अब श्रीकृष्ण से अलग नहीं रह सकतीं। गोपियों का प्रेम अन्तिम कक्षा में पहुँच गया है। रासलीला में गोपी और श्रीकृष्ण एक हो गए हैं।  

रासलीला की कथा सुनने के पहले तीन सिद्धान्त ध्यान में रखने चाहिए। प्रथम यह कि यह रमण शरीर के साथ नहीं है, दूसरा यह शुद्ध जीव-ईश्वर की दिव्य लीला है और तीसरा यह कि इसमें स्त्री-पुरुष के मिलन की इच्छा नहीं है। गोपी में स्त्रीत्त्व है ही नहीं। 

 बाहर से जो शरीर दिखाई दे रहा है उसे स्थूल शरीर कहते हैं। अन्दर सूक्ष्म शरीर है जिसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि ये सत्रह तत्व होते हैं। सूक्ष्म शरीर में मन के अन्दर अनेक जन्मों की जो वासनाएँ होती हैं, उन्हीं के कारण उसे शरीर कहा गया है।  जिस मन में कोई वासना नहीं होती वह शांत हो जाता है। मन वासना से ही जीता है। बिना संकल्प के मन नहीं जी सकता। हमारे जैसे साधारण मनुष्य यह कथा कहने के योग्य नहीं हैं और हमारे जैसे साधारण मनुष्य यह कथा सुनने योग्य भी नहीं हैं। यह सर्वोच्च भाव है। मन के पूर्ण निष्काम होने के बाद अब गोपियाँ परमात्मा से अलग नहीं रह सकतीं। यह शुद्ध मिलन की कथा है। गोपियाँ ऋषिरूपा हैं।

यदि काम का विषय कोई स्त्री या पुरुष हो तो वह पतन करता है और यदि परमात्मा उसका विषय हो तो जीव निष्काम बन जाता है।  निष्काम परमात्मा को अर्पण किए गए काम से विकार उत्पन्न नहीं होता। काम के सकाम होने पर विकार-वासना जागृत होती है और उसे निष्काम में रखने पर विकार वासना का विनाश होता है। सकाम का स्मरण करने पर काम जागृत होता है, किन्तु निष्काम का चिन्तन करने पर निष्काम बना जा सकता है।

 गोपियाँ ऋषिरूपा हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि श्रीकृष्ण को काम अर्पित करूँगी। तुम यह इच्छा रखो कि भगवान् से मिलना है। विचार करो कि तुम्हें किसी मनुष्य से मिलने पर सुख मिलता है, तो यदि भगवान् से मिलो तो कैसा आनन्द प्राप्त होगा! जो एक बार परमात्मा से मिलता है वह उससे अलग नहीं हो सकता। वह परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है। ऋषिरूपा गोपियाँ काम को श्रीकृष्ण को अर्पण करती हैं। बड़े-बड़े ऋषि गोपी बनकर आए हैं। गोपियाँ चार-पाँच वर्ष की थीं, तभी से उनकी इच्छा है कि श्रीकृष्ण उनके पति हों। इसके लिए गोपियों ने उन दिनों में कात्यायनी व्रत किया था। 

ऋषिरूपा गोपियों के लिए भागवत में कुमारिका शब्द प्रयोग किया गया है। संस्कृत भाषा में चार-पाँच वर्ष की कन्या को कुमारिका कहा गया है। पाँच वर्ष पूरा होने पर छठा वर्ष लगते ही कन्या कुमारिका नहीं कही जा सकती। ये गोप कन्यायें चार-पाँच वर्ष की हैं और आशा रखती हैं कि श्रीकृष्ण पति होकर मिलें। चार-पाँच वर्ष की कन्या को भला क्या खबर पड़े कि पति क्या और पत्नी क्या? श्रीकृष्ण पतिरूप में मिलें ऐसी अपेक्षा रखने का अर्थ यह है कि मेरा सम्बन्ध किसी जीव से न हो। मुझे परमात्मा से मिलना है और परमात्मा के साथ एकाकार बनना है।  वे चार-पाँच वर्ष की कन्याएँ है। ये अपना वस्त्र यमुनाजी के किनारे रखती हैं और नग्न स्नान करती हैं। नग्न स्नान करने वाला तीर्थदेव का अपमान करता है और उसे पाप लगता है। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचते हैं, उनके वस्त्र उठाकर कदम्ब वृक्ष पर रख देते हैं और कहते हैं तुम बाहर आओ और अपने वस्त्र पहनकर ले जाओ। कुछ लोगों को इस लीला में अश्लीलता दिखाई देती है। वास्तव में यह लीला शुद्ध है। ध्यान में रखकर विचार करने पर पता लगेगा कि वहाँ श्रीकृष्ण गोपियों की नग्न काया देखने नहीं आए हैं। यमुनाजी के जल में श्रीकृष्ण जलस्वरूप बनकर निवास करते हैं, गोपियों से मिले ही हैं। गोपियों पर वासना का पर्दा पड़ा होने के कारण मिलन का अनुभव नहीं होता था। यह समस्त जगत् भगवान् में स्थित है। जगत् का आधार परमात्मा हैं। इसलिए वह सबमें सम्मिलित हैं। यदि ईश्वर एक से मिले और दूसरे से न मिले तो उसे सर्वव्यापक कौन माने? सर्वव्यापक तो सबका आधार होता है। वे भगवान् सबसे मिले ही हैं। जीव और ईश्वर तो साथ ही होते हैं। ईश्वर जीव को देखता है, किन्तु जीव ईश्वर को देख नहीं सकता। जीव और ईश्वर के बीच एक परदा है। परमात्मा सबसे मिले हुए हैं और वह मिला हुआ भगवान् ही मिलता है। तत्त्व दृष्टि से विचार करने पर परमात्मा सबसे मिला हुआ दिखाई देता है। वासना रूपी अज्ञान अथवा माया का पर्दा होने के कारण जीव को ईश्वर का अनुभव नहीं होता। शरीर को वस्त्र और आत्मा को वासना ढँकती है। जिस प्रकार सामान्य बादल सूर्य को ढँकता है। उसी प्रकार वासना परमात्मा को ढँकती है। परमात्मा सर्वत्र है, किन्तु उसका दर्शन नहीं होता। प्रभु ने वस्त्रहरण द्वारा वासना का पर्दा दूर किया है।और गोपियों से कहा है, 

"यह तुम्हारा आखिरी जन्म है। तुम शरद पूर्णिमा की रात्रि को मिलना। फिर तुम्हें जन्म लेने का अवसर नहीं आयगा ।'

गोपियों की संख्या अधिक है, किन्तु उनमें सबको रास में प्रवेश नहीं मिला है। जिसका अन्तिम जन्म है, जिसकी वासना का पर्दा प्रभु ने दूर किया है और जिस जीव को  परमात्मा ने अपनाया है, वही जीव रास में जाता है। यह लीला दिव्य है, मधुर है।

रासलीला श्रीकृष्ण का काम विजय है। ब्रह्मादि देवों का पराभव करने से कामदेव का अभिमान बहुत बढ़ गया है। वह अपने को ईश्वर समझने लगा हैं काम का नाम ही महारथी है। अनेक देवों और ऋषियों को मारने से जिस कामदेव का अभिमान बढ़ गया है, वह श्रीकृष्ण से युद्ध करने आया है । कामदेव कहता है कि मैं इस बात को भूला नहीं हूँ, यह मुझे याद है कि आपने रामावतार में मुझे हराया है। रामावतार में कामदेव ने अनेक बार ऐसा अवसर उपस्थित किया है, जिससे रामजी की आँख में अथवा उनके मन में विकार उत्पन्न हो, किन्तु वे तो निष्काम हैं, कामदेव ने कहा कि

 रामावतार में मेरी हार तो हुई, किन्तु मेरे मन में सन्देह रह गया है। रामावतार में आपक नियम था कि किसी स्त्री का स्पर्श न करूँगा, प्रत्येक स्त्री में मातृभाव रखूँगा। आपने मर्यादा में रहकर मुझें हराया। वास्तव में मर्यादा का बन्धन ईश्वर के लिए नहीं है। वह जीव के लिए है। आपको सब ईश्वर मानते हैं। इसलिए आपको बन्धन में रहने की क्या आवश्यकता है?

 श्रीकृष्ण ने कहा कि भाई, तेरी क्या इच्छा है?

 कामदेव ने कहा,

 "मेरी इच्छा हैं कि शरद ऋतु हो, पूर्णिमा हो, मध्यरात्रि का समय हो उस समय किसी स्त्री को स्पर्श न कर उसमें मातृ भाव रखने की मर्यादा आप न रखिये। उस समय आप स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कीजिए और मैं आकाश में रहकर बाण मारूँ। यदि आपके मन में विकार पैदा हो, तो मैं ईश्वर होऊँगा । उस समय आप निष्काम रूप ईश्वर नहीं माने जाएँगे। काम की मार खाने वाला जीव है और जो काम की मार नहीं खाता, वह ईश्वर है।"

प्रभु ने कहा कि मैं यह शर्त मानने को तैयार हूँ। प्रभु इसीलिए शरद पूर्णिमा की मध्य रात्रि को गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हैं। कामदेव आकाश में खड़ा है और श्रीकृष्ण को बाण मारता है। श्रीकृष्ण के चरण में गंगाजी है, और भगवान् शिवजी के माथे पर भी गंगाजी हैं। शिवजी और श्रीकृष्ण ज्ञान - स्वरूप हैं। उनका काम क्या बिगाड़ सकता है? काम अनेक प्रयत्न करने पर भी श्रीकृष्ण को अपने आधीन नहीं बना सका। इसलिए उसे विश्वास हो गया कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं। वह अब श्रीकृष्ण की शरण में आया है। श्रीकृष्ण ने मदन का पराभव किया। इसलिए उनका नाम मदनमोहन पड़ गया। मदन का अर्थ है काम। अर्थात् काम से ही काम का नाश करना। महापुरुष लौकिक काम को अलौकिक काम से मारते हैं। मुझे किसी मनुष्य से नहीं मिलना है, केवल परमात्मा से मिलना है और उनके साथ एकाकार होना है ।


श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 




रासलीला 2

 श्रीकृष्ण बालकों के साथ भोजन करते हैं। उस समय सबने बछड़े चरने के लिए छोड़े हैं। ब्रह्माजी बछड़ों को उठाकर ब्रह्मलोक में ले गए। भोजन के बाद बालकों ने देखा कि बछड़े नहीं हैं। उन्होंने लाला से कहा कि कन्हैया, बछड़े दिखाई नहीं देते। लाला ने कहा कि तुम भोजन करो। मैं बछड़ों को खोजकर ले आता हूँ। कन्हैया बछड़े खोजने निकल पड़ता है। उसी समय ब्रह्माजी ने उन बालकों को भी उठा लिया और उन्हें ब्रह्मलोक में ले गए। लाला को मालूम हो गया कि यह बुड्ढा आज अकारण ही मेरे पीछे पड़ गया है। यह बात लाला को पसन्द नहीं आई। इसलिए उसने एक ही समय सभी बछड़ों और ग्वालबालों का स्वरूप अचानक प्रकट कर दिया। 

कमरी भी श्रीकृष्ण हो गई, लकड़ी भी श्रीकृष्ण हो गई। जिसका जो स्वभाव था, वह श्रीकृष्ण हो गया। जिसका स्वभाव उताबलापन था, भगवान् भी उसी तरह उताबले हो गए। श्रीकृष्ण इसके स्वभाव के अनुसार उनका स्वरूप धारणकर घर लौट आए हैं। सबेरे गए हुए बालक. शाम को घर लौट आए हैं और वे दौड़ते-दौड़ते अपनी दादी माँ के पास गए हैं। दादी माँ ने बालकों को गोद में लेकर छाती से लगा लिया है। अत्यंत आनन्द-आनन्द पैदा हो गया है। इस प्रकार आज ये वृद्ध गोपियाँ बालकों से न मिलकर सीधे परमात्मा श्रीकृष्ण से मिलती हैं, जब कि उनके बालक ब्रह्मलोक में हैं। इन वृद्ध गोपियों को श्रीकृष्ण मिलन की तीव्र भावना थी इसलिए बालकों के स्वरूप में श्रीकृष्ण उनके घर आए हैं, वृद्ध गोपियों से मिलते हैं तथा एक-एक का मनोरथ सफल करते हैं।

आज गोकुल के एक-एक घर में आनन्द समुद्र बह रहा है। आज तक गोपियाँ आनन्द लेने के लिए यशोदाजी के घर जाती थीं, किन्तु आज प्रत्येक गोपी के घर परमानन्द प्रकट हुआ है। आज गायों को भी अत्यंत आनन्द हुआ हैं उनके बछड़े ब्रह्मलोक में हैं और बछड़ों के स्वरूप में श्रीकृष्ण ही घर आए हैं। यह गायों के साथ रासलीला है। यह जीव और ईश्वर का मिलन है। गायों को अत्यंत आनन्द हो रहा है। ग्वाल गायों को रोकने के लिए जाते हैं लेकिन उन्हें अपने बछड़ों के प्रति ऐसा अलौकिक प्रेम जागा हैं कि वे दौड़ती-दौड़ती बछड़ों के पास चली जाती हैं। यह देखकर ग्वालों को आश्चर्य होता है। इस प्रकार गायों को ब्रह्म-सम्बन्ध प्राप्त हो गया है। इस समय कमरी श्रीकृष्ण, डण्डा श्रीकृष्ण, गोप बालक श्रीकृष्ण, बछड़े श्रीकृष्ण, यानी सभी श्रीकृष्ण- श्रीकृष्ण बनकर परस्पर क्रीड़ा कर रहे हैं।

ज्ञानी पुरुष आत्म-स्वरूप में रमण करते हैं, बिहार करते हैं। वेदान्त का विवर्तवाद और वैष्णवाचार्यों का ब्रह्म परिणामवाद इन दोनों का उद्भव इस लीला से हुआ है। भागवत में इन दोनों वादों का समन्वय किया गया है। वेदान्त का ऐसा कहना है कि ब्रह्म तत्व सत्य है, सभी में ब्रह्म ही सत्य है, माया के कारण यह संसार चित्र-विचित्र दिखाई देता है। प्रभु के सहारे यह संसार दृष्टिगोचर होता है। सिनेमा के पर्दे पर अनेक चित्र दिखाई देते हैं। कभी उस पर जोरदार बरसात दिखाई देती है, कभी समुद्र उछलता है। चित्र में यह भले दिखाई दे, किन्तु पर्दे का एक सूत भी भीगता नहीं। ब्रह्म एक सच्चा आधार है। सहारा है। ब्रह्म में माया के कारण यह संसार चित्र-विचित्र रूप में दिखाई देता है।  लकड़ी और बछड़ा दिखाई देते हैं, किन्तु वे श्रीकृष्ण हैं उन्हें छोड़ कुछ दूसरे नहीं। माया के कारण विविधता दिखाई देती है। इस प्रकार की अनेकता और विविधता ही अविद्या है। इसलिए ज्ञानी महापुरुष इसे माया का भँवर मानते हैं। वैष्णवाचार्यों का कथन है कि यह जगत् ब्रह्म का परिणाम है अर्थात् ब्रह्म ही एक प्रकार से जगत् है । ब्रह्म ही अनेक स्वरूप धारण करता है और वही सर्वत्र दिखाई देता है। श्रीकृष्ण ही अनेक रूपों में दर्शन देते हैं।

यह लीला एक वर्ष तक चलती रही। किसी को भी वास्तविक बात खबर न पड़ी। श्रीकृष्ण अनेक बछड़ों के स्वरूप में, अनेक ग्वाल-बालों के स्वरूप में स्वयं अपने स्वरूप के साथ क्रीड़ा करते रहे। महान् योगी अपने ही आत्म - स्वरूप आत्मरति में ही लीन रहते हैं। ब्रह्माजी ने विचार किया कि ग्वाले बहुत दुःखी हुए होंगे, रोते होंगे, उन्हें देखने के लिए वे गोकुल में आए। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक भी बालक कम नहीं हुआ है, सभी दिखाई दे रहे हैं। अब ब्रह्माजी विचार में पड़ गए कि मैंने जिन्हें ब्रह्मलोक में रखा है, वे सच्चे हैं अथवा जो सामने दिखाई दे रहे हैं वे सच्चे हैं?

उस समय लाला ने एक और चमत्कार दिखाया। वे ब्रह्माजी का स्वरूप धारणकर उनकी गद्दी पर जा बैठे और उनके सेवकों से कहा, 

"अब मैं अन्दर आराम कर रहा हूँ। आजकल एक भूत जैसा नकली ब्रह्मा उत्पन्न हुआ है। वह कदाचित् आधे घण्टे बाद यहाँ आएगा। तुम उसके लिए मुझसे पूछे बिना ही बाहर ही छड़ी से अच्छी तरह से उसकी पूजा करना।"

 श्रीकृष्ण ब्रह्मा होकर उनकी गद्दी पर बैठे हैं और आराम कर रहे हैं। ब्रह्मा विचार करते-करते गोकुल से ब्रह्मलोक में आते हैं। यहाँ आने पर उनके नौकर ही उन्हें मारने लगते हैं। इससे ब्रह्मा को बहुत बुरा लगता है। उन्होंने अपने नौकरों से कहा

 "अरे! तुम्हें कुछ होश है। तुम मेरे नौकर हो और मेरा ही अपमान कर रहे हो! मैं ब्रह्मलोक का राजा हूँ।"

 नौकर कहते हैं

 "तुम किसके राजा? हमारे राजा तो अन्दर आराम कर रहे हैं। तू भूत जैसा कहाँ से यहाँ आया है? हम लोग तुझे अन्दर नहीं जाने देंगे।" 

इस प्रकार लाला की परीक्षा करने वाले बूढ़े ब्रह्मा की ही परीक्षा हो गई। मार पड़ने पर ही अक्ल आती है। मार न पड़े तो बुद्धि नहीं आती यह एक सिद्धांत है। ब्रह्माजी ने आँखें बन्दकर ज्यों ही ध्यान लगाया तो, उन्हें विश्वास हो गया कि मेरी गद्दी पर कृष्ण कन्हैयालालजी विराजमान हैं। यह बस श्रीकृष्ण की लीला है। वास्तव में श्रीकृष्ण देव नहीं हैं, सर्व देवों के देव हैं, परमात्मा हैं। ब्रह्माजी को पश्चाताप होने लगता है कि मैंने भूल की है, परमात्मा का अपमान किया है। क्या अब मैं उनके पास जाकर क्षमा माँगू? ब्रह्माजी जिस समय क्षमा माँगने आए, उस समय अनेक बछड़े और अनेक ग्वाल-बालों में श्रीकृष्ण का जो स्वरूप था वह एक ही क्षण में अन्तर्धान हो गया। अकेले श्रीकृष्ण रह गए और ऐसा नाटक किया मानों उन्हें डर लग रहा है। उस समय श्रीकृष्ण रोते जा रहे हैं, बड़ों और मित्रों को ढूंढ रहे हैं और कहते हैं, मधुमंगला मनसुखा श्रीदामा तुम सब मुझे छोड़कर कहाँ चले गए? मुझे अकेले बहुत डर लग रहा है। ब्रह्माजी ने उन्हें देखकर हाथ जोड़े और कहा, महाराज किसी को तुम्हारे जैसा नाटक करना नहीं आएगा, मैं तुम्हारे चरणों में पड़कर क्षमा माँगने आया तो मुझे आप ऐसा स्वरूप दिखा रहे हैं?


रोना यह माया का धर्म है श्रीकृष्ण में माया का यह धर्म भले ही दिखाई दे, किन्तु श्रीराम श्रीकृष्ण माया रहित शुद्ध ब्रह्म हैं, आनन्दमय हैं। जिस प्रकार सूर्य के पास अन्धकार नहीं जा सकता उसी प्रकार ब्रह्मा के पास माया नहीं जा सकती, उसे स्पर्श नहीं कर सकती। यह तो प्रभु ने ऐसा नाटक किया है कि आज आनन्द रोता हुआ दिखाई देता है। कदाचित् श्रीराम- श्रीकृष्ण रोएँ, किन्तु वे अपने स्वरूप में स्थिर होकर ही लीला करते हैं। जिस प्रकार किसी नाटक में कोई राजा भिखारी का वेश धारणकर भीख माँगने जाए और भीख न मिलने पर नाटक करे कि मुझे कुछ नहीं मिला और रोने लगे किन्तु अन्दर से उसे पता है कि मैं राजा हूँ। उसी प्रकार परमात्मा श्रीराम-श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। भले ही वे रोते हुए दिखाई दें।

रामायण में वर्णन आता है। जब रावण सीताजी को हरण करके ले गया, तब श्रीराम सीताजी को खोजने निकल पड़ते हैं। जब लंका में रामजी का स्मरण कर सीताजी रोती हैं, तब रामचन्द्रजी ऐसा नाटक करते हैं कि सीता के वियोग से मुझे बहुत दुःख है। यदि कभी भक्त भगवान् के वियोग में रोने लगे, तब भगवान् कभी-कभी ऐसी लीला करते हैं कि मुझे भक्त का वियोग सहन नहीं होता। श्रीसीताजी के वियोग में रामजी को रोते देखकर लक्ष्मणजी समझाते हैं, 

"बड़े भाई,आप रोएँ नहीं, सीताजी मिलेंगी।"

 रामजी कहते हैं कि मेरी सीता कहाँ है? वृक्ष से पूछते हैं कि सीता कहाँ है? श्रीराम जिस समय दंडकारण्य से होकर गुजर रहे थे उसम समय भगवान् शंकर सतीजी के साथ उसी मार्ग में आ जाते हैं और उन्हें श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन होते हैं। शिवजी वृक्ष की ओट में खड़े हैं, प्रेम से उनका दर्शन करते हैं, शरीर में रोमाँच का अनुभव करते हैं। उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए हैं। यह कैसा नाटक है! मनुष्य जैसी लीला हो रही है। आज आनन्द रोता- रोता जा रहा है।

श्रीराम आनन्दमय हैं, श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। शिवजी महाराज वृक्ष की ओट में खड़े होकर वंदन करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि मैं सामने जाकर वंदन करूँ, तो भगवान् की लीला में विघ्न पड़ेगा। सतीजी ने पूछा कि आप किसे वंदन करते हैं। शिवजी ने कहा,

 "ये परमात्मा हैं। मैं इनको वंदन करता हूँ।"

 सतीजी ने कहा,

 "यह तो रोते-रोते जा रहे हैं। क्या आनन्द कभी इस प्रकार रोयेगा? यह तो राजा दशरथ के पुत्र हैं।" 

शिवजी ने कहा, 

"ये राम हैं, परमात्मा हैं, मेरे इष्ट देव हैं। ये राम सर्वमय हैं। ये अंदर से आनन्दमय हैं, सावधान हैं। यह तो लीला कर रहे हैं।"

 सतीजी को इस बात पर विश्वास नहीं होता। वे कहती हैं कि मैं इनकी परीक्षा लूँगी। शिवजी ने परीक्षा लेने की अनुमति दी। सतीजी परीक्षा लेने निकल पड़ीं। रामचन्द्रजी जिस मार्ग से आने वाले हैं, उसी मार्ग पर वे सीता का रूप धारण कर खड़ी हो गई हैं। सतीजी ने सोचा कि राम जब सीता का स्वरूप देखेंगे, तब एकदम प्रसन्न हो जाएँगे। सतीजी को सामने खड़ी देखकर राम ने वह रास्ता छोड़ दिया और दूसरा रास्ता पकड़ लिया। सतीजी ने यह समझा कि राम स्त्री - वियोग में बहुत व्याकुल हैं, बहुत दुःखी हैं। इसलिए उन्होंने मुझे नहीं देखा है। अतः वे फिर रामजी के रास्ते में चलकर आगे खड़ी हो जाती हैं। यह भी पुकारकर कहा कि मैं तो यहाँ खड़ी हूँ। आप क्यों रो रहे हैं? श्रीराम इस बात को अनसुनी कर देते हैं और वे रास्ता छोड़कर दूसरा रास्ता पकड़ लेते हैं। सतीजी को आश्चर्य होता है कि अभी उनकी नजर ठीक तरह मुझ पर नहीं पड़ी है। मैं उनके पास जाकर खड़ी रहूँ तो वे प्रसन्न होंगे। सीताजी के रूप में सतीजी रामचन्द्रजी के पास जाकर खड़ी हों गईं। उन्हें देखकर श्रीराम अपना मस्तक धरती पर झुकाकर वन्दन करते हैं और कहते हैं,

 "दशरथ पुत्र राम आपको वन्दन करता है। माँ, तुम अकेले ही जंगल में क्यों घूम रही हो? भगवान् शंकर कहाँ हैं?"

 अब सतीजी को विश्वास हो गया, 

"भले ही ये रो रहे हैं, किन्तु अन्दर से बहुत सावधान हैं, आनन्द में हैं। इनको माया का स्पर्श नहीं है।"

 जो परमात्मा का सेवा-स्मरण करे, उसे माया का स्पर्श नहीं होता। फिर स्वयं परमात्मा को श्रीराम को, श्रीकृष्ण को माया कैसे स्पर्श कर सकती है?


ब्रह्माजी ने निश्चय किया है कि श्रीकृष्ण भले ही रोयें, किन्तु ये परमात्मा हैं। ब्रह्माजी को यह विश्वास हो गया। हंस पर विराजे हुए ब्रह्माजी नीचे उतरते हैं और 'कृष्ण कन्हैयालाल की जय' कहकर श्रीकृष्ण के चरणों में वंदना करते हैं। 

आपका श्रीअंग मेघ जैसा श्याम है। आपने पीला पीताम्बर धारण किया है और आपके गले में अर्थात् चणोठी (गुजराती शब्द) ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है श्रीकृष्ण अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं। उन्होंने ब्रह्माजी को बताया है तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे-ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं। वे अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं इसलिए उन्होंने गले में गुंजा की माला धारण की है, उनके मस्तक पर मोर पिच्छ का मुकुट है। 

माता के पेट में निवास करने वाला बालक यदि अज्ञान में उसे लात भी मारे, तो वह उसे क्षमा करती है। इसी प्रकार आप मुझे क्षमा कीजिए। मैं आपकी लीला से विमोहित हो गया था । आपकी लीला का पार भला कौन पा सकता है? 

श्रीकृष्ण की लीला ही उनकी बहुत बड़ी कृपा है। श्रीकृष्ण आनन्द में हैं। इसलिए उन्हें सुख भोगने की इच्छा होती ही नहीं। श्रीकृष्ण को कोई भी स्वार्थ नहीं होता । परमात्मा जो कोई काम करता है, वह हमारे लिए करता है। यह जीव ईश्वर का है। परमात्मा का होते हुए भी यह जीव अपने को भूल गया है। यह जीव ऐसा मानता है कि मैं ही जगत् हूँ, मैं किसी स्त्री का हूँ, मैं किसी पुरुष का हूँ। जीव का जगत् से जो सम्बन्ध है, वह कच्चा है, केवल श्री परमात्मा, श्रीकृष्ण के साथ ही स्थापित होने वाला सम्बन्ध सच्चा है। यह जीव भगवान् का होने पर भी संसार में उलझ गया है। जीव के आकर्षण के लिये ही परमात्मा लीला करते हैं।  श्रीकृष्ण-लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है कि उनकी कथा सुनते ही अनायास हमारा मन संसार को भूल जाता है। मुक्ति मन को मिलती है, आत्मा को नहीं मिलती। आत्मा परमात्मा का अंश है। 

आत्मस्वरूप के सम्बन्ध में सन्तों में थोड़ा मतभेद है। अनेक सन्त ऐसा मानते हैं कि आत्मा और परमात्मा दोनों एक ही हैं। आत्मा-परमात्मा के स्वरूप में जो भेद दिखाई देता है वह सच्चा नहीं है, वह अज्ञान से पैदा हुआ है। अनेक साधु-सन्त ऐसा मानते हैं कि यह जीव ईश्वर का अंश है, परमात्मा अंशी है। ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि परमात्मा का स्वरूप ऐसा दिव्य है कि उसमें से थोड़ा भी अंश अलग नहीं हो सकता।

अनेक लोगों को व्यवहार में यह अनुभव होता है कि ठाकुरजी ने मुझपर बड़ी कृपा की है, मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं है। क्योंकि दो लड़के काम-धन्धे में लग गए हैं। दो लड़कों के लिए दो बंगले अलग बनवा दिये हैं। उनमें झगड़ा होगा ही नहीं। मुझे कोई परेशानी नहीं है, कोई बन्धन नहीं है। अब मैं स्वतंत्र हूँ। अब मैं कितनी भक्ति करूँ, उतनी कम है। अब मुझे भक्ति करने के लिए गंगा तट पर जाना है। मनुष्य जितना बोलने में होशियार है, उतना व्यवहार में होशियार नहीं है। वह कहता है कि मुझे कोई झंझट नहीं है। एक पुत्री बाकी है। इसकी शादी हो जाए, तो मैं तुरन्त गंगा तट पर भजन करने चला जाऊँगा। वहीं अपना शरीरान्त करना है। क्या अभी आप गंगा तट पर नहीं गए? यह सुनकर कोई वृद्ध पुरुष उत्तर देता है, "मुझे तो सब कुछ छोड़ना है; किन्तु ये लड़के जाने नहीं देते। ये घर में रहने के लिए ही जिद करते हैं और कहते हैं कि घर में भी भक्ति होती है।

यह बात सत्य है कि घर में भक्ति होती है, लेकिन घर में रहकर सतत भक्ति नहीं होती।घर में रहने पर बालक बालिकाओं की भी भक्ति करनी पड़ती है। घर में सारे दिन भगवान् की घर भक्ति करना अशक्य है। वृद्ध कहता है कि लड़कों के इनकार करने के कारण मैं कहीं बाहर भक्ति करने नहीं जाता। वास्तव में उसे घर छोड़ने की इच्छा नहीं है किन्तु लड़कों को व्यर्थ अपयश देता है। जब यमराज के यहाँ से धर-पकड़ का वारण्ट आएगा, तब क्या उसे किसी प्रकार रोका जा सकेगा? या यह कहा जाएगा कि लड़के जाने नहीं देते। उस समय तो यमदूत धक्का मारकर ले जाएँगे। एक दिन सब कुछ छोड़ना ही पड़ेगा। जब विवश होकर छोड़ना पड़ता है, तो बड़ी तकलीफ होती है और मनुष्य सोच समझकर छोड़ दे तो बड़ा सुख मिलता है। उसके बिना कोई काम रुका नहीं है, न किसी ने उसे बाँध रखा है। फिर भी वह अपने अज्ञान के कारण स्वयं बँधा हुआ है। आत्मा को किसी प्रकार का बन्धन नहीं है। बन्धन तो मन को है।

श्रीकृष्ण-लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है कि सांसारिक विषयों में फँसा हुआ मन अनायास ही संसार को भूल जाता है। इस जगत् में रहकर किसी न किसी निमित्त से इसे भूलना है और परमात्मा के स्मरण में तन्मय होना है। यही श्रीकृष्ण लीला का रहस्य है। श्रीकृष्ण की लीला अमृत है। मनुष्य स्वर्ग का अमृत पीने से अमर नहीं बनता। उल्टे स्वर्ग का अमृत पीने से विकार-वासना की वृद्धि होती है। यदि कृष्ण कथामृत का पान करे और प्रभु में प्रेम जगे, तो धीरे-धीरे मनुष्य की वासना विनष्ट होती जाती है। स्वर्ग का अमृत पीने से पुण्य का नाश होता है; किन्तु कथामृत - पान से पापों का विनाश होता है। स्वर्ग का अमृत थोड़े समय के लिए सुख-शान्ति देता है; किन्तु कुछ समय पश्चात् मन अशान्त बन जाता है। तुम जितने समय तक कथा सुनते हो, उतने समय तक संसार को भूल जाते हो । भगवान् की लीला में ऐसी दिव्य शक्ति है। योगीजन जगत् को भूलने के लिए प्राणायाम, प्रत्याहार करते हैं। कृष्ण-लीला ऐसी मधुर है कि इसमें अनायास ही यह जीव जगत् को भूल जाता है। इससे प्रभु में प्रेम जगता है और परमात्मा के दर्शन स्मरण में तन्मयता उत्पन्न होती है। 

श्रीकृष्ण की कृपा से ही श्रीकृष्ण-लीला का रहस्य ध्यान में आता है। भगवान् की सारी लीला बड़ी अटपटी है। उसमें अनेक बार ब्रह्मादिक देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं। प्रभुजी ने ब्रह्मा का मोह दूर कर दिया। ब्रह्माजी बालकों और बछड़ों को ब्रह्मलोक से धरती पर ले आए हैं। वे सब मानो ऊँघ में से जाग गए हैं। 

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 




रास लीला 1

 आज की भोजन व्यवस्था कमलाकार हो रही है। यह बालकों का शुद्ध प्रेम है। उनकी इच्छा है कि मुझे आज श्रीकृष्ण से सटकर ही बैठना है। जो श्रीकृष्ण से दूर बैठता है उसे आनन्द नहीं मिल पाता, श्रीकृष्ण को स्पर्श कर बैठने वाले को ही आनन्द प्राप्त होता है।  चार प्रकार की रासलीलाओं का वर्णन है। एक रास लीला में श्रीकृष्ण वृद्ध गोपियों के साथ रमण करते हैं। दूसरी रासलीला गायों के साथ होती है, तीसरी रासलीला ग्वालमित्रों के साथ होती है और चौथी रासलीला युवती गोपियों के साथ होती है। 

रासलीला का क्या तात्पर्य है इसे समझो। उपनिषद् में "रसो वै सः " कहकर परमात्मा का वर्णन किया गया है। अर्थात् परमात्मा रसस्वरूप है, रसमय है। अति मधुर रस ही परमात्मा है। रसमय मनुष्य ही परमात्मा को प्राप्त करता है। रसमय परमात्मा के साथ एक होना ही रास कहलाता है। गोकुल में वृद्ध गोपियाँ थीं। वे बालकृष्णलाल का दर्शन करती हैं। दर्शन में आनन्द तो आता है किन्तु उनके मन में यह भाव जगता है कि यदि हमें श्रीकृष्ण के दर्शन में इतना अधिक आनन्द आता है तो जब यशोदा माता लाला को अपनी गोद में लेकर छाती से चिपकाती होंगी तो उन्हें कितना आनन्द आता होगा। किन्तु हमें लाला से मिलना है, मुझे उसके साथ एकाकार होना है। ये वृद्ध गोपियाँ श्रीकृष्ण के दर्शन करते-करते अपने मन द्वारा श्रीकृष्ण से मिलती हैं। वे मन से तो श्रीकृष्ण से मिल रही हैं, अब भी उनकी भावना प्रत्यक्ष मिलन की है। 

गोकुल में जो गायें थीं, उन्हें भी लाला से मिलने की इच्छा थी।  इन गायों से लाला किस प्रकार मिले? यह बड़ा भारी प्रश्न है। गायों के मन में ऐसा भाव जगता है कि जिस प्रकार बछड़ा गाय का दूध पीता है, उसी प्रकार कृष्ण मेरा दूध पिएँ तो मैं उससे मिलूँ। गाय जब बछड़े को दूध पिलाती है तब गाय और बछड़ा दोनों एकमय हो जाते हैं। उनका अद्वैत ऐसा हो जाता है। कि उसे कोई तीसरा नहीं समझ सकता। इसका अनुभव गाय और बछड़े ही कर सकते हैं। इन गायों को कन्हैया के साथ एकाकार होना है, लाला से मिलना है। 

 ग्वालों की ऐसी भावना है कि मुझे श्रीकृष्ण को स्पर्श करके ही बैठना है कोई श्रीकृष्ण से दूर बैठने को तैयार नहीं है। अब श्रीकृष्ण तो ठहरे एक और बालक हैं अनेक। फिर वे एक ही समय सबसे किस प्रकार मिलें।

आज की भोजन-बैठक कमल जैसी है। कमल के मध्य में गाभा (पुष्प दण्ड) होता है। श्रीकृष्ण मध्य में हैं। छोटी-छोटी पंखुरियाँ गाभे के पास होती है। बड़ी पंखुरी गाभा से दूर दिखाई देती हैं। दूर दिखाई देने पर भी प्रत्येक पंखुरी का संयोग गाभा के साथ होता ही है। कमल एक हजार पंखुरियों का होता है। उसमें एक भी पंखुरी ऐसी नहीं होती जिसका सम्बन्ध गाभा से न हो। छोटे बालक श्रीकृष्ण के पास हैं और बड़े बालक थोड़े दूर हैं।  तुम्हारे बड़े हो जाने पर कन्हैया तुम्हें दूर रखेगा। 

 यदि छोटे होगे, मन से बालक की तरह छोटे रहोगे, तो श्रीकृष्ण तुम्हें पास बैठाएँगे।  प्रभु ने अनेक बालकों को एक साथ अपने मिलने का अनुभव कराया है कि तुम से सटकर बैठा हूँ। श्रीकृष्ण ने रासलीला में प्रत्येक गोपी को यह अनुभव कराया है कि मैं तेरे पास हूँ।

बालकों का प्रेम शुद्ध हैं। ये बच्चे अपने-अपने घर से जो कुछ लाते उसमें जो अच्छी से अच्छी वस्तु होती उसे लाला के लिए अलग रख देते, जो मध्यम वस्तु होती उसे मित्रों को देते और जो साधारण वस्तु होती उसे अपने आप खाते। अच्छी वस्तु दूसरे को देना ही भक्ति है। जो अच्छी वस्तु अपने लिए रखी जाए, वह आसक्ति है बालकों की ऐसी भावना है कि लाला के मुँह में मुझे कौर (कवल) देना है। यदि मैं श्रीकृष्ण से दूर बैठूं तो मुँह में कौर किस प्रकार दे सकूँगा? बालक प्रेम से लाला को भोजन कराते हुए कहते हैं,

 'लाला मेरी माँ ने तेरे लिये जलेबी बनाई है। उसने मुझसे यह कहा है कि तू इसे लाला के हाथ में मत देना। उसके मुँह में ही खिला देना । लाला मैं इसे तेरे मुँह में ही दूँगा।' 

कन्हैया भोजन में भी बालकों को बोध देता है और कहता है कि तू मुझ अकेले को ही जलेबी देता है, मेरे मित्रों को नहीं देता। मेरे गुरु ने मुझे यह विशेष रूप से सिखाया है जो अकेला खाता है, वह दूसरे जन्म में बिल्ली हो जाता है। इसलिए किसी दिन अकेले नहीं खाना चाहिए। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जो वस्तु अधिक हो तो देने की उदारता दिखाते हैं,  किन्तु थोड़ी होने पर उसे छिपा रखते हैं। यदि अंगूर खाते हों और उस समय अपने किसी साथी को आते हुए देखते हैं, जिनके साथ दो बच्चे हैं तो तुरन्त ही अपनी पत्नी से कहते हैं इसे अन्दर रख दो, वे आते हैं। इसलिए जय श्रीकृष्ण-जय श्रीकृष्ण किया जाता है। वह पूछता है कि क्या कर रहे हो? तो जवाब मिलता है कि-

'कुछ नहीं खाली बैठे हैं।'

 मित्र ने देखा था इसका सीढ़ी चढ़ते समय मुँह कुछ हिल रहा था, यह कुछ खाता होगा; लेकिन यह बात बदल गया। जगत् में कोई मूर्ख नहीं है, जो दूसरे को मूर्ख समझता है वही मूर्ख होता है। सभी यह समझते हैं कि जीव ईश्वर का अंश है। यदि तुम खाने बैठे हो और उसी समय तुम्हारे घर कोई आ जाए, तो ऐसा मानना कि इस अन्न में इसका भी भाग है। वह अपना भाग लेने आया है। अर्थात् वह खाने नहीं आया है। आज उसका भाग नहीं दोगे तो एक दिन ब्याज के साथ उसे देना पड़ेगा। दूसरे को देने से कुछ घटता नहीं है बल्कि बढ़ता है। जिसका मन बड़ा है, उसके घर में कमी नहीं होती। मन बड़ा रखो। कोई चीज थोड़ी हो, तो थोड़े में से भी थोड़ा भाग दूसरे को दो ।

कन्हैया उस बालक को समझता हैं, 

'सभी को जलेबी दो।' 

वह बालक सभी को जलेबी देने के बाद लाला के मुँह में जलेबी डालता है। कन्हैया उसे खाता है, उसकी प्रशंसा करता है और कहता है कि तेरी माँ ने जलेबी बहुत अच्छी बनाई है। ऐसी जलेबी मेरी माँ को बनानी नहीं आती।

तात्पर्य यह है कि जिसका खाओ उसका बखान करो। जिसने मेहनत की है, जिसने पैसा लगाया है उसकी ऐसी इच्छा होती है कि लोग मुझे अच्छा कहें, मेरा बखान करें और मैं उसे सुनूँ। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मेरा बखान मुझे पसन्द नहीं आता । किन्तु प्रायः वे गलत कहते हैं। अपना बखान सभी को पसन्द आता है। क्योंकि बखान सुनने के बाद क्या नया उत्साह आता है, थकावट उतर जाती है। दूसरा एक बालक आया और उसने कहा कन्हैया मैं तो बरफी लाया हूँ। मैंने सभी को दे दी है। तू ही अकेला बाकी है। उसने लाला के मुँह में बरफी डाल दी। इस प्रकार श्रीकृष्ण ग्वालबाल मित्रों के साथ प्रेम से भोजन करते हैं। तुम इसका दर्शन मन से करो और ऐसी भावना करो कि मैं इस समय वृन्दावन में हूँ, श्रीकृष्ण के ग्वालबाल मित्रों के साथ मण्डल में हूँ। मैं कृष्ण के लिए अच्छी सामग्री ले गया हूँ। मैं लाला को खिला रहा हूँ। उस समय तुमको समाधि लग जाएगी। यह मन संसार की लीला का चिन्तन करने से बिगड़ गया है। यह यदि श्रीकृष्ण लाला का चिन्तन करे, तो धीरे-धीरे सुधर सकता है। कन्हैया बर्फी खाता है और बखान करता है कि यह बहुत अच्छी है।

श्रीकृष्ण के बाल मण्डल में एक ब्राह्मण का बालक भी है। वह शांडिल्य ऋषि का पुत्र है। उसका नाम मधुमंगल है। उस बालक की उम्र चार-पाँच वर्ष की है। नंदबाबा ने शांडिल्य ऋषि से कहा है कि यज्ञोपवीत करने के बाद आपका बालक हमारे घर में नहीं खाएगा। अभी उसको जनेऊ नहीं दिया गया है। इसलिए रोज सुबह-शाम हमारे यहाँ भोजन करने के लिए भेजना। वह पुरोहित महाराज का लड़का था इसलिए यशोदा माता उसका बहुत आदर करती हैं उसे लाला के साथ ही भोजन करने के लिए बैठाती हैं। यशोदा मैया यदि लाला के लिए कुछ बनातीं तो बनाने के बाद सबसे पहले पुरोहित महाराज के लड़के को देतीं। इसके बाद लाला को देतीं। यशोदा माता की ऐसी भावना है कि पुरोहित महाराज के आशीर्वाद से बालक का जन्म हुआ है। कन्हैया उसका यजमान है। इसलिए वह रोज लाला के घर भोजन करने आता है।

आज कन्हैया मधुमंगल के पीछे पड़ गया और कहा कि तू प्रतिदिन मेरे घर खाने आता है, लेकिन किसी दिन अपने घर मुझे भोजन करने के लिए नहीं बुलाता। आज मुझे तेरे घर भोजन करना है। तू अभी अपने घर जा और तेरी माँ ने जो कुछ बनाया हो, उसे ले आ। यह सुनकर मधुमंगल थोड़ा शरमा गया और सोचने लगा कि मेरी माँ ने कभी लाला को अपने घर नहीं बुलाया। वह दौड़ते-दौड़ते अपने घर गया। उसकी माँ का नाम पूर्णमासी है। उसने माँ से कहा कि लाला को अपने घर क्यों नहीं बुलाती? तूने अपने घर जो खाने की चीज तैयार की हो, उसे लाला को खाने की इच्छा प्रबल हो उठी है। तू उसमें से मुझे थोड़ा दे दे। पूर्णमासी जानती थी कि कन्हैया परमात्मा है। आज परमात्मा को मेरे घर की वस्तु खाने की इच्छा हुई है। परमात्मा तो माँगता है, किन्तु मैं उन्हें क्या दूँ! पूर्णमासी का हृदय पिघल गया है। वह बोली, 

"बेटा, मैं घर में रसोई करती ही नहीं। तेरे पिता महान् तपस्वी भक्त हैं। उन्हें खाने के लिए अधिक फुर्सत ही नहीं मिलती ।। शांडिल्य ऋषि ऐसे तपस्वी ब्राह्मण हैं कि सबेरे चार बजे उठते हैं, यमुनाजी में स्नान कर आसन पर बैठते हैं और रात के सात-आठ बजे तक नित्य कर्म पूरा करते हैं। उन्होंने सत्कर्म के इतने अधिक नियमों का पालन किया था कि एक पूरा हो, तो दूसरा शुरू करें। प्रातः संध्या पूरी होने पर सूर्यनारायण को अर्घ्य देते हैं, वंदन करते हैं। इसके बाद उनकी स्तुति करते हैं। फिर गणपति महाराज की पूजा शंकर-पार्वती की पूजा, लक्ष्मीनारायण की पूजा करते हैं, वेद मन्त्र बोल-बोल कर एक-एक देवता की अभिषेक के साथ पूजा करते-करते बारह बज जाते हैं। बारह के नाम बजने के बाद मध्याह्न की संध्या करते हैं। मध्याह्न की संध्या में गायत्री का जप करते हैं, वेदाध्ययन करते हैं, देव, ऋषि, पितरों का तर्पण करते हैं। महाराज का नियम है कि प्रतिदिन प्रभु के इक्कीस हजार जप नियमपूर्वक करें। ब्राह्मण का अवतार खाने के लिए नहीं, बल्कि सारे दिन भक्ति करने के लिए है।  यह सब करते-करते सायंकाल की संध्याकाल की संध्या का समय हो जाता है। फिर वे सायं-संध्या करते हैं। भला उन्हें खाने की फुर्सत ही कहाँ है? सायं-संध्या के बाद रात को दो-चार केले खाकर सो जाते हैं। कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं।

पूर्णमासी महान् पतिव्रता है। वह यह सोचकर कि मेरे पतिदेव भोजन नहीं करते, तो मुझे भी भोजन नहीं करना है। इसलिए वह घर में रसोई ही नहीं बनाती। उसके घर में एक लड़का है वह रोज नंदबाबा के घर खाने जाता है फिर रसोई की आवश्यकता किसके लिए ? पूर्णमासी सारे दिन पतिदेव की सेवा में रहती है। पतिदेव फल खाएँ तो रात को वह बाकी बचे दो-चार फल खाकर उनके चरणों में सो जाती है। पति-पत्नी सारे दिन तपश्चर्या करते हैं। उनका घर तपस्वी ब्राह्मण का घर है। उनके घर में कुछ नहीं हैं, किन्तु सन्तोष है जहाँ सन्तोष है वहाँ सब कुछ है। जहाँ सन्तोष नहीं है वहाँ सब कुछ होने पर भी कुछ नहीं है। पूर्णमासी को सन्तोष है, वह कहती है कि मैं बहुत गरीब हूँ, किन्तु मैंने पूर्वजन्म में कुछ पुण्य तप किया था, जिससे मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए हैं। उसके पति को पैसे के लिए कोई प्रवृत्ति करने की इच्छा नहीं होती। वे सारे दिन भक्ति करते हैं। वे प्रायः गरीबी ही में रहते हैं। जो सारे दिन भक्ति करता है वह लक्ष्मीजी को पसन्द नहीं होता। लक्ष्मीजी को मन में ऐसा लगता है कि यह व्यक्ति मुझे अपने मालिक के साथ पाँच-सात मिनट भी एकान्त में बोलने नहीं देता। यह यहाँ से चला जाय तो मैं कुछ अपनी निजी बात करूँ। यह तो मेरे पतिदेव का चरण छोड़ता ही नहीं। इसीलिए जो दिन भर भक्ति करता है, वह लक्ष्मीजी को नहीं सुहाता। जो भगवान् को छोड़कर प्रवृत्ति करता है वह लक्ष्मीजी को सुहाता है। पूर्णमासी ने सुना कि लाला को मेरे घर की वस्तु खाने की इच्छा हुई है, यह सुनकर उनका हृदय भर आया । भला यह गरीब ब्राह्मणी लाला को क्या दे? यशोदाजी रोज मुझसे कहती हैं कि मुझे कुछ सेवा बताओ, किन्तु मेरे पतिदेव किसी की सेवा लेते ही नहीं। कल मैं यशोदाजी से कहूँगी कि थोड़ा खोया भेजो में उससे लाला के लिए मिठाई बनाऊँगी और उसे दूंगी। आज तो घर में कुछ भी नहीं है। यह सुनकर बालक बोला, 

"माँ तू मुझे कुछ दे। दूसरे सभी मित्र लाला के लिये मिठाई लाते हैं। मैं ही एक ऐसा हूँ जो खाली हाथ जाता हूँ।"

 यह कहकर बालक रोने लगा। पूर्णमासी ने अपने घर में देखभाल की, किन्तु उसे दूसरा कुछ नहीं मिला। थोड़ी छाछ पड़ी थी। वही हाथ लगी। पूर्णमासी ने विचार किया कि यह गरीब ब्राह्मणी लाला को दूसरा कुछ क्या दे? वह छाछ देते समय आँख में आँसू भरकर बोली, लाला के लिए घर में जो अच्छी से अच्छी वस्तु हो वही देनी चाहिए, किन्तु मेरे घर में कुछ दूसरी वस्तु नहीं है केवल यह छाछ है, किन्तु वह भी खट्टी है। कन्हैया का शरीर बहुत कोमल है। उसे यह खट्टी छाछ पीने पर बहुत तरह की तकलीफ खड़ी होगी। बेचारी गरीब ब्राह्मणी दूसरा कर ही क्या सकती थी। उसने छाछ में थोड़ी चीनी मिला दी और उसे मीठी बनाकर एक छोटी-सी हाँडी में रख दिया। उसने बालक के हाथ में वह हाँडी देते हुए कहा, 

'बेटा, आज मैं लाला के लिए छाछ दे रही हूँ, किन्तु कल मैं उसके लिए मिठाई दूँगी। आज मेरे घर में कुछ नहीं है। लाला से कहना कि यह छाछ देते हुए मेरी माँ रोने लगी थी, मैं छाछ लेकर आया हूँ।'

गरीब ब्राह्मण का बालक प्रेम से वह छाछ लेकर आया है, लेकिन उसे लाला को छाछ देने की हिम्मत नहीं होती। वह जानता है कि कन्हैया परमात्मा है। यदि उसे छाछ दूँ तो मुझे भी जन्म भर छाछ पीनी पड़ेगी। हमें लाला को अच्छी से अच्छी वस्तु देनी चाहिए। यह छाछ लाला को नहीं दी जा सकती। इसे मैं ही पी जाऊँ। कल मेरी माँ मिठाई बनाएगी। वह मिठाई लाकर मैं लाला को दूँगा। यह विचारकर मधुमंगल छाछ पीने लगा। यह देखकर लाला ने कहा,

 'हे मधुमंगल तेरी माँ ने मेरे लिए छाछ भेजी है, वह मुझे दे।'

 मधुमंगल ने कहा कन्हैया मैं वह छाछ तुझे नहीं दूँगा कल मैं तुझे मिठाई लाकर दूँगा। कन्हैया बोला, 

'तू यह छाछ क्यों नहीं देगा, कल की बात कल देखी जाएगी। मैं तेरी हाँडी खींच लूँगा। मधुमंगल ने देखा कि कन्हैया खड़ा हो गया है। वह दौड़ता हुआ आएगा और हाँडी मुझसे छीन लेगा। मुझे लाला को मिठाई खिलानी है। क्या मैं उसे छाछ दूँ। जब तक कन्हैया आए, तब तक मैं अकेले सारी छाछ पी जाऊँ और हाँडी खाली कर दूँ। ऐसा विचार कर मधुमंगल ने छाछ पीली और हाँडी खाली कर दी। लेकिन अधिक जल्दी के कारण उसके मुँह में से छाछ की एक धारा बाहर निकल पड़ी। वह प्रेम में देह का भान भूल गया था। कन्हैया दौड़ता आया और मधुमंगल का मुँह चाटने लगा। यह प्रेम कथा है। यह जीव जब परमात्मा के साथ प्रेम करते हुए अपना देह भान भूल जाता है, तब परमात्मा भी उसके सामने अपना ईश्वरत्व भूल जाता है। आज श्रीकृष्ण को यह याद नहीं आता कि मैं लक्ष्मी का पति हूँ, वैकुण्ठ का स्वामी हूँ। उसने ग्वालों के साथ ऐसा सच्चा प्रेम किया है कि मधुमंगल उससे शरमा गया। उसने कहा कि 

कन्हैया, तू यह क्या कर रहा है ? 

लाला ने कहा,

 'तेरे घर की जूठी छाछ भी यदि मुझे मिल जाए, तो मेरी बुद्धि सुधर जाए। तेरे पिता महान् तपस्वी ब्राह्मण हैं। उनके पुण्य प्रताप से हमारा ब्रज सुखी हुआ है। चौबीस लाख गायत्री जप का एक -पुरूश्चरण होता है। उस तपस्वी ब्राह्मण ने ऐसे तीन पुरूश्चरण किए हैं। दिन में तीन बार नियमित रूप से संध्या करता है, भगवान् भी उसके घर का माँगकर भोजन करते हैं।'

 लाला ने मधुमंगल के पिता का खूब बखान किया। गरीब ब्राह्मण का बालक अपने पिता का बखान सुनकर खूब खुश हो गया और लाला के कंधे पर हाथ रखकर कहा,

 "कन्हैया, मेरे घर में आज कुछ नहीं था। इसलिए मेरी माँ रोने लगी थी। मेरी माँ ने कहा है कि कल मैं लाला के लिए स्वादिष्ट मिठाई बनाऊँगी। इसलिए मैं कल तेरे लिए मिठाई ले आऊँगा ।"


आकाश में ब्रह्मादि देवता इस लीला का दर्शन करते हैं। ब्रह्माजी के मन में शंका हुई कि यह श्रीकृष्ण तो बालकों का मुँह चाटता है। क्या यह परमात्मा है? क्या जो परमात्मा होगा वह बालकों का मुँह चाटेगा? श्रीकृष्ण की लीला ऐसी विचित्र है कि देवता भी भ्रम में पड़ जाते हैं। यदि आज कल के लोग शंका करें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ब्रह्माजी ने ऐसा निश्चय किया कि मुझे श्रीकृष्ण की परीक्षा करनी पड़ेगी कि वे ईश्वर हैं या देव हैं? 

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 






सोमवार, 19 सितंबर 2022

परमानन्द

 अति सम्पत्ति के कारण जुआखोरी का व्यसन आ जाता है। अति सम्पत्ति से माँस मदिरा का व्यसन पैदा हो जाता है। सम्पत्तिवान लोग सादा भोजन नहीं करते। वे वासना - विकार बढ़ाने वाले तामसी अन्न का सेवन करते हैं। तदुपरांत अति सम्पत्ति में स्त्री-भोग का व्यसन होता है। मदिरा पान कर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हैं।  

यह गंगा तट बहुत पवित्र है। ये विलासी लोग गंगा-तट पर आकर इस तीर्थ को भ्रष्ट कर रहे हैं। विलासी लोगों के आने से तीर्थ-देवों को भी कष्ट होता है। कितने ही लोग गंगा तट या यमुना तट पर बैठकर अपने घर की बातें करते हैं। यदि घर की बात ही करनी थी तो उसे छोड़ा ही क्यों? तुम किसी यात्रा में जाओ, भगवान् के लिए घर छोड़ो, भगवान् में यह विश्वास करो कि वह तुम्हारा घर सम्हालेगा, तुम्हारे बच्चों को सम्हालेगा। घर में रहकर गंगाजी और यमुनाजी का स्मरण करना पुण्य है किन्तु गंगा के किनारे बैठकर घर का स्मरण करना पाप है।  मनुष्य को कितना सुन्दर शरीर मिला है, प्रभु ने बिना टूटे फूटे यह शरीर दिया है। इसका दुरुपयोग वह भोग-विलास में करता है। इस जीव को यह पता नहीं है कि इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता यह समझती है कि पुत्र हमारा है। मैंने इसे पेट में दस मास रखा है। वर्ना यह पैदा ही नहीं होता। इस प्रकार माता अपने पुत्र के शरीर पर अपना अधिकार जताती है। बाप यह समझता है कि पुत्र मेरा है। मेरे बिना पुत्र पैदा ही नहीं होता। इस प्रकार पुत्र- शरीर पर मेरा अधिकार है। पत्नी यह कहती है कि जब तक विवाह नहीं हुआ था, तब तक आप दोनों का अधिकार था। मैं अपने माँ-बाप को छोड़कर यहाँ आई हूँ। इस शरीर पर अब आपका कोई अधिकार नहीं। अब इस पर मेरा अधिकार है। अग्नि देव इन सबसे पहले कहते हैं कि पिता, माता और पत्नी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार जताते हैं, किन्तु प्राण निकल जाने के बाद कोई इसे घर में रखने को तैयार नहीं होता ? ये लोग उसे जल्दी से जल्दी श्मशान में ले जाते हैं। वे मुझे मेरा भोजन देने के लिए वह शरीर मेरे पास ले आते हैं। यह शरीर मेरा भोजन है। इस पर मेरा अधिकार है। प्रभु ने यह फैसला किया कि इस शरीर पर न तो पत्नी का, न पिता का, न माता और न अग्नि का अधिकार है। इस पर भगवान् का अधिकार है। यह जीव अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है। इसलिए प्रभु को इस पर दया आती है और वह इसे मनुष्य योनि प्रदान करते हैं, जिससे यह परमात्मा का काम करे और उसकी शरण में जाए। भगवान् ने मानव-शरीर भगवान् की भक्ति करने के लिए दिया है। फिर भी कोई मनुष्य भक्ति नहीं करता। मनुष्य को सुन्दर शरीर मिला है, घर में सब सुविधाएँ मिली हैं। फिर भी वह भोग-विलास में फँस गया है, अपने को भूल गया है। 

भगवान् यदि तुमको खूब सम्पत्ति दें तो सुख मत भोगना, नित्य कुछ दुःख सहन करके भी भक्ति करना, तप करना ।

कन्हैया ओखली के साथ बँधा पड़ा है। कन्हैया मेरा पुत्र है। नन्दबाबा ने इस प्रकार अपना वात्सल्य भाव दिखाया। उनको ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा बालक घबड़ा गया है। ये गोप गोपियाँ बातें कर रहे हैं। कोई लाला को छुड़ाता नहीं। अनेक देवताओं की मनौती मानने पर बुढापे में यह बालक मिला है। इसकी माता को जरा भी इसकी चिन्ता नहीं है।

नन्दबाबा यह दृश्य न देख सके। आँखें गीली हो गईं। वे दौड़कर उस स्थान पर आ गये। लाला ने देखा कि नन्दबाबा दौड़ते हुए आ रहे हैं। इसलिये वे मुझे छुड़ा देंगे। लाला ने दोनों हाथ जोड़ कर ऊँचा किया और कहा, 

"बाबा, मुझे मेरी माता ने बाँधा है।"

 नन्दबाबा ने कहा कि बेटा, मैं तुझे छुड़ा देता हूँ। नन्दबाबा लाला को छुड़ा देते हैं और उसे अपनी छाती से चिपका लेते हैं। पिता-पुत्र एकाकार हो जाते हैं। लाला बाबा को प्यार करता है और कहता है कि बाबा, मेरी माता मुझे बाँधती है और मारती है। नन्दबाबा ने कहा कि तेरी माता ने तुझे बाँधा, किन्तु मैंने तुझे छुड़ाया है। लाला ने कहा, 

“हाँ आपने छुड़ाया है।" 

नन्दबाबा ने पूछा, 

"तू किसका लड़का है?

  कृष्ण ने कहा कि मैं अपनी माता का बालक हूँ। नन्दबाबा की बड़ी इच्छा है कि लाला कभी यह कहे कि बाबा, मैं आपका बालक हूँ आपका पुत्र हूँ, लेकिन उनकी इच्छा परिपूर्ण न हुई। वे बालकृष्णलाल को लेकर घर में आए और यशोदाजी को उलाहना दिया कि क्या तेरी बुद्धि खराब हो गई है? तू ने मेरे लाला को क्यों बाँधा ? यशोदा माता ने कहा, 'सब मुझे ही उलाहना देते हैं गोपियाँ मुझे उलाहना देती हैं, किन्तु इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। नन्दबाबा ने कहा कि ,

"यह अभी बालक है। बाल्यावस्था में सब ऐसा ही करते हैं। बड़ा होने पर भला ऐसा क्यों करेगा? तूने लाला को बाँधकर अच्छा नहीं किया।,"

 यशोदा माता व्याकुल हो उठीं और कहा कि मैंने प्रेम से बाँधा है। वह लाला को प्रेम से बुलाती हैं, 

"बेटा, तू मेरे पास आ ।"

 लाला ने माता के पास जाने से इनकार करते हुए कहा कि

 "मैं तो बाबा का पुत्र हूँ।"

 लाला को खुश करने के लिए नन्दबाबा ने कहा, 

"लाला, तू रो मत। तुझे तेरी माँ ने बाँधा था। तो मैं उसे खम्भे से बाँध दूँगा और सोटी से मारूँगा।"

 लेकिन यह सुनकर भी कन्हैया खुश नहीं हुआ। लाला ने कहा,

 "बाबा, मेरी माता भले मुझे मारे, किन्तु उसे न बाँधिए और न मारिए। वह मेरी माता है" 

यशोदा माता इसे सुनती है और कहती है कि बालक का यह कैसा प्रेम है। मुझे सब रोकते थे, किन्तु मैंने इसे बाँधा। मेरी बुद्धि ही बिगड़ गई थी, मैं बहुत निष्ठुर बन गई। यह कैसे प्रेम कर रहा है और मेरे बाँधे जाने की बात पसन्द नहीं करता । मैं इसकी योग्य माता नहीं हूँ। मैं निष्ठुर हूँ, यह प्रेम की मूर्ति है, सबके साथ प्रेम करता है । यह सोचकर यशोदा माता रोने लगती हैं और कहती हैं कि कन्हैया मेरी गोद में कब आएगा ? वह मुझसे रूठ गया है, वह मेरे पास नहीं आएगा। माता का हृदय विकल हो उठा है।


कोई भी जीव जब परमात्मा के लिए रोने लगता है, तब प्रभु को दया आ जाती है। लाला ने देखा कि मेरी माता मेरे लिए रो रही है। उसी समय लाला ने नन्दबाबा से कहा,

 "बाबा, मुझे तो भूख लगी है। आपके पास तो कुछ है नहीं। मैं आपका लड़का नहीं हूँ, बल्कि अपनी माता  का लड़का हूँ। "


यह कहकर कन्हैया बाबा को छोड़ दौड़ता-दौड़ता अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उनकी गोद में बैठ जाता है और उनसे कहता है कि माता, मैं आ गया। उस समय माता ने अपनी आँखें खोलकर देखा तो कन्हैया उनकी गोद में था। माता ने उसे छाती से लगा लिया और कहा कि मेरा रोना इससे सहा नहीं गया, मेरी आँखों में आँसू आना इसे सहन नहीं होता है। यह मुझसे बहुत प्रेम करता है। माता लाला को प्यार करने लगी। रस्सी से बाँधे जाने के कारण लाला का नाम दामोदर पड़ गया।

ग्वाल-बालों ने आज अपने-अपने घरों में पानी भी नहीं पिया। क्योंकि उनका कन्हैया बाँधा गया है। लाला ने कहा कि मैंने अपने मित्रों से कहा था कि अपनी माता का बन्धन छूट जाने पर वह सबको अपनी ओर से खाने की दावत देगा। माता! मुझे मित्रों को खाने के लिए दावत देनी है? यशोदा माता ने कहा, "बेटा, घर में सभी चीजें तैयार हैं। तुम सब एक साथ खाने बैठ जाओ ।"

 लाला ने कहा कि मुझे आज परोसना है। मुझे परोसने में बड़ा मजा आता है; खाने में मजा नहीं आता। जब मैं अपने मित्रों को खिलाता हूँ, तब मुझे और भी मजा आ जाता है। खाने वाले की अपेक्षा प्रेम से परोसने वाले को हजार गुना सुख मिलता है। खाने वाले में भगवान के दर्शन करो, प्रेम से परोस कुछ लोग परोसते समय दौड़ते-दौड़ते चलते हैं, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो खिलाकर तृप्त होता है, वह सच्चा वैष्णव है।

यशोदा माता समझाती हैं, 

"बेटा! तू अभी छोटा है। तुझे परोसना नहीं आएगा।"

 बालकृष्णलाल ने कहा कि मुझे परोसना बड़ा अच्छा आता है। आज मुझे परोसने दो। मेरे मित्र भूखे हैं। यह कहकर बालकृष्णलाल परासेने लगे। सभी उनकी जय-जय करते हैं और प्रेम से भोजन करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि आज बहुत खाया, बहुत खाया। अब मेरे पेट में जगह नहीं है। कन्हैया कहता है कि मेरे गुरु ने मुझे ऐसा मंत्र सिखाया है कि उसे बोलने पर पेट के अन्दर भी दिखाई देता है। मैं उसके प्रभाव से देख रहा हूँ कि अभी तुम्हारे पेट में दो मालपुए की जगह है। इस प्रकार वे प्रेम से मालपुआ परोसते हैं, बारंबार मित्रों से विनोद करते हैं। इससे बालक प्रसन्न हो जाते हैं। कन्हैया एक-एक का हाथ पकड़ता है, उसे उठाता है और जल देता है। एक मित्र कहता है, 

"मेरा पेट बहुत भर गया है; मुझसे तो उठा ही नहीं जाता। लाला तूने मुझे बहुत परोस दिया था। अब तो यदि कोई बिछौना बिछा दे, तो यहीं सो जाऊँ। इस समय मुझे नींद आ रही है। "..

 कन्हैया मजाक में जबाब देता है,

 "मित्र, प्रसाद तो मेरा था, किन्तु पेट तो तेरा था। तू ने इतना अधिक क्यों खा लिया?"

 मित्रों ने कहा कि लाला, जब परोसने लगा तो अपने आप ही अधिक खाया गया। इस प्रकार सब विनोद करते हैं और परमानन्द प्राप्त करते हैं।

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल






परमप्रेम 2

 यशोदामाता ने दूध उतारकर रख लिया है। अग्नि बुझाकर उन्होंने फिर चूल्हे पर दूध रख दिया है। वहाँ से वापस आने पर यशोदामाता ने देखा कि लाला ने मटकी फोड़ दी है सारा दही दुलक गया है और लाला यहाँ नहीं है। माता ने यह सोचा कि लाला कहाँ गया? उन्होंने घर में नजर दौड़ाकर देखा तो लाला घर में ओखली पर चढ़कर मक्खन उतार रहा है और उसे ग्वाल-बाल मित्रों तथा बन्दरों को खिला रहा है। माता को बड़ा दुःख यह हुआ कि मेरे लाला को चोरी करने की आदत पड़ गई है। जो वह माँगे, वह देने को तैयार हूँ। मैंने देने से मना ही कब किया है? घर में बहुत माखन है। उसके मित्रों को भी दूँगी; किन्तु इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। आज मुझे उसका व्यवहार ठीक नहीं लगा है, कुछ क्रोध भी पैदा हो गया है। यशोदामाता ने हाथ में सोटी पकड़ ली है। ग्वाल-बालों ने माता को देखकर कहा कि कन्हैया ! कन्हैया ! तेरी माता आ गई है। लाला तुरन्त कूदकर वहाँ से भागने लगता है। यशोदा माता लाला के पीछे-पीछे दौड़ पड़ती हैं और कहती हैं, "तू बहुत शरारती हो गया है। तू भागकर कहाँ जाएगा! आज मैं तुझे सजा अवश्य दूँगी।" यशोदाजी कन्हैया के पीछे-पीछे दौड़ती हैं, किन्तु वह हाथ नहीं आता। इससे हमें उपदेश मिलता है कि लाला को पकड़ना हो तो सोटी फेंक कर दौड़ो। जो हाथ में सोटी लेकर दौड़ता है, वह लाला को पकड़ ही नहीं सकता। सोटी अर्थात् अभिमान हाथ में सोटी लेकर कोई कितना भी दौड़े, उसके हाथ में कृष्ण आ ही नहीं सकता। इसलिए अभिमान छोड़कर भगवान् के पीछे दौड़ो। यशोदाजी में यहं एक सूक्ष्म अभिमान है कि लाला मेरा बेटा है, मैं उसकी माता हूँ। यशोदामाता दौड़ते-दौड़ते थक गई हैं। कन्हैया हाथ में नहीं आता। इस पर महापुरुषों ने अनेक भाव प्रकट किये हैं। वे कहते हैं कि यशोदा के दौड़ने पर भी कन्हैया क्यों हाथ में नहीं आता? माता की यह भूल है कि लाला की पीठ पर नजर रखकर दौड़ती है। उन्हें लाला का मुँह नहीं दिखाई देता। उनकी नजर लाला की पीठ पर है। अर्थात् जो भगवान् की पीठ पर नजर रखकर दौड़ता है, वह उसे नहीं पकड़ सकता। ईश्वर को वह पकड़ सकता है, जो श्रीकृष्ण के चरण अथवा मुखारविन्द पर नजर रखकर सामने को दौड़ता है। भगवान् की पीठ में अधर्म है और उनके हृदय में धर्म है।

 यदि भक्ति धर्मानुकूल हो, तो भगवान् हाथ में आते हैं। अधर्म के सामने दौड़ने से अनेक लोग भक्ति तो करते हैं, किन्तु धर्म का पालन ठीक तरह नहीं करते। वे ऐसा समझते हैं कि हम भक्ति करते हैं, सेवा करते हैं। इसलिए हमें धर्म का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम भक्ति करो, सेवा करो । यह बहुत अच्छी बात है, किन्तु धर्म को मत छोड़ो। धर्म का भक्ति के साथ कोई विरोध नहीं है। अपने धर्म का ठीक-ठीक पालन करते हुए भक्ति करो। मनुष्य आकाश से सीधे धरती पर नहीं उतर आया है। उसका किसी कुल में, किसी जाति में जन्म हुआ है। जन्म से ही कुल धर्म और जाति के साथ सम्बन्ध जुड़ गया है। यह समझकर धर्म को छोड़ना नहीं चाहिए। धर्म के छोड़ देने पर भक्ति सफल नहीं होती और भक्ति में विघ्न आते हैं। धर्म को कभी मत छोड़ना। जब तक देह में चेतना है, तब तक धर्म का पालन करना चाहिए। कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हम ध्यान क्षेत्र में आगे बढ़ गए हैं। अब हमें धर्म का पालन करने की आवश्यकता नहीं। भागवत में विशेष रूप से आज्ञा दी गई है कि जिसे देह का ज्ञान है, उसे धर्म की आवश्यकता है। जो देहातीत अवस्था में है या जिसे देह का ज्ञान नहीं है, उसके लिए कोई धर्म नहीं है।

श्रीकृष्ण भागते जा रहे हैं। वे माता के हाथ में नहीं आते। यशोदामाता चिढ़ गई हैं। उन्हें अब थोड़ा क्रोध भी आ गया है। वे दौड़ती-दौड़ती थक गई हैं। इसलिए वे रास्ते में एक जगह बैठ जाती हैं और सोटी हाथ से दूर फेंक देती हैं। लाला तो यही चाहता था कि माता सोटी फेंक दे और उसके हाथ में आ जाऊँ। अब श्रीकृष्ण माता के पास जाते हैं। यशोदामाता यह समझ जाती हैं कि मेरे सोटी फेंक देने से लाला को यह विश्वास हो गया है कि अब माता मुझे नहीं मारेगी। इसीलिए कन्हैया पास आता है। लेकिन कन्हैया कहता है कि माता! तेरा ऐसा सोचना ठीक नहीं है। मैं तेरा अभिमान उतर जाने के कारण तेरे पास आया हूँ। अब यशोदा माता की नजर श्रीकृष्ण के मुँह पर है, पीठ पर नहीं है। कन्हैया पास आ जाता है। मुँह पर नजर रखकर जहाँ यशोदाजी थोड़ा दौड़ती हैं कि कृष्ण हाथ में आ जाता है। यशोदाजी ने कहा कि लाला ! तू बहुत शरारत करता है। आज मैं तुझे सजा देने वाली हूँ। यह सुनकर लाला ने तुरन्त कहा कि माता ! अब मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा। आज तू मुझे छोड़ दे। माता ने कहा, "आज मैं बिल्कुल मानने वाली नहीं हूँ। तूने जिस ओखली पर चढ़कर चोरी की है, उसी से आज तुझे बाँधूंगी। यशोदामाता कृष्ण को पकड़कर घर ले गयीं और उसे ओखली में बाँधने की तैयारी कर रही हैं। इससे कृष्ण के ग्वाल-बाल मित्र दुःखी हो गए हैं। आज बाल-मण्डल का अध्यक्ष पकड़ा गया है। इसीलिए सारी बाल- मण्डली रो पड़ी।

बालक यशोदामाता का वन्दन करते हैं और समझाते हैं कि माता, लाला ने हमारे लिये चोरी की है। माँ मुझे आज घर पर कुछ खाने को नहीं मिला। इसलिये मैंने लाला से बार-बार कहा कि मुझे भूख लगी है। इसके कारण लाला ने मेरे लिये चोरी की। तुम्हें जो सजा करनी हो, मुझे करो। लाला को मत बाँधो । अब इसे छोड़ दो। यह सुनकर यशोदामाता को आश्चर्य होता है बालकों का यह कैसा प्रेम है। वह बालकों को धमकाती है कि तुम अपने घर चले जाओ। मेरे सामने तुम वकालत करने चले हो ! यहाँ से निकल जाओ यशोदामाता ने अब तक किसी बालक से घर चले जाने को नहीं कहा था। वे ऐसा मानती थीं कि गाँव के सब बालक मेरे ही हैं। आज वे क्रोध में हैं। इसीलिए उन्होंने बालकों से घर जाने को कहा। बालक भागकर अपने घर गये और वहाँ जाकर गोपियों से कहा कि आज यशोदामाता बहुत चिढ़ गई हैं। लाला ने मटकी फोड़ डाली है। इसलिए उन्होंने लाला को बाँध रखा है। तुम जाओ और यशोदा माता को समझाओ कि लाला को बाँधे नहीं।

गोपियाँ यह खबर पाते ही दौड़ी-दौड़ी यशोदा माता के पास जाती हैं और उनको समझाती हैं कि माता, तू यह क्या करती है? हमने अनेक देवों की मनौती मानी अनेक व्रत किये, तब हमें यह बालक मिला है। मैं घर की गरीब हूँ। तेरा कन्हैया मेरे घर आता है, कभी मटकी भी फोड़ देता है, तब मैं इसे कभी धमकाती हूँ, किन्तु कभी इसे बाँधने का विचार नहीं किया है। माता ! क्या तुमको इस पर दया नहीं आती? तुम इसे बाँधना मत। मेरे बालक घर पर जाकर रो रहे हैं। इस कारण आज कोई मेरे घर पानी भी नहीं पीता है। सभी को कन्हैया दुलारा है। आज तुमको यह क्या हो गया है? तुम इतनी निष्ठुर क्यों बन गई हो? आज गोपियों की ये बातें माता को नहीं सुहाती। वे कहती हैं कि मैंने अपनी आँखों से देखा है कि इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। यह किसी की परवाह नहीं करता। तुम लोग इसको बहुत लाड़-प्यार करती हो, इसे सिर पर चढ़ा रही हो। क्या यह उसे समझता है? यह मेरा लड़का है। मुझे जैसा उचित लगेगा वैसा करूंगी। यशोदा माता ये बातें कहकर कन्हैया को बाँधने का प्रयत्न करती हैं। वे जिस डोरी से उन्हें बाँधने जाती हैं, वह एक अंगुल छोटी हो जाती है।


 महापुरुषों ने वर्णन किया है कि श्रीकृष्ण के कोमल गात को स्पर्श करते ही डोरी में दया आ गई है। वह सोचती है कि कन्हैया अत्यन्त कोमल है। उसे बाँधने पर कष्ट होगा। तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्म - संस्पर्श करता है, उसका स्वभाव सुधरता है आज डोरी भगवान् का स्पर्श करती है और दो अंगुल छोटी हो जाती है, इस प्रकार जीव और ईश्वर में दो अंगुल का अन्तर है। यदि जीव निर्माही और निर्मानी बने, तो ही ईश्वर को बाँध सकता है। माता उस डोरी के साथ दूसरी डोरी जोड़ती है, लपेटती है और उससे फ़िर कृष्ण को बाँधने जाती है, लेकिन वह डोरी भी दो अँगुल छोटी पड़ती है। गोपियों ने माता से कहा, "यह तेरा कन्हैया है। इसके भाग्य में बन्धन लिखा ही नहीं है। यह हम सबको बन्धन से छुड़ाने आया है। इसको कोई बाँध नहीं सकता। यह सुनकर कन्हैया धीरे-धीरे मन में हँसने लगता है। इससे यशोदामाता चिढ़कर बोलती हैं,

 "तू चार-पाँच वर्ष का बालक मुझे दाँत दिखाता है? तू समझता क्या है? आज मैं तुझे बाँधने ही वाली हूँ। चाहे जो भी हो। घर की सारी डोरियाँ इकट्ठी करूंगी, लेकिन तुझे जरूर बाँधूंगी।"

माता यशोदा दूसरी डोरी जोड़ती है और बालकृष्णलाल को जहाँ बाँधने के लिए जाती है, वहाँ डोरी दो अँगुल छोटी हो जाती है। इस पर महापुरुषों ने कहा है,

  श्रीकृष्ण जहाँ विराजते हैं, वहाँ ऐश्वर्य शक्ति सेवा उपस्थित होती है। ऐश्वर्य शक्ति और वात्सल्य भक्ति का झगड़ा शुरू हो गया है । यशोदाजी में वात्सल्य भाव है। इसीलिए वे कहती हैं कि यह मेरा बालक है। इसे चोरी करने की आदत पड़ गई है। इसकी आदत मैं नहीं सुधारूं तो कौन सुधारेगा ? मुझे इसकी आदत सुधारनी है। ऐश्वर्य शक्ति कहती है किं यह मेरा पति है मेरे पतिदेव को कोई बाँधे, तो मुझ से सहन नहीं होंगा। मैं देखती हूँ कि ये कैसे बाँधती हैं? ऐश्वर्य शक्ति डोरी में प्रवेश कर उसे छोटा कर देती है।  माता थक गई हैं। उसे देख बालकृष्णलाल को दया आ गई। अल्पशक्ति होने पर भी दुराग्रही है और ईश्वर अनन्त शक्तिमान होने पर भी अनाग्रही है। इस जीव में शक्ति तो कम है; किन्तु वह अपना ही उल्लू सीधा करना चाहता है। दुराचारी हमेशा दुःखी होता है। माता का यह दुराग्रह था कि चाहे जो हो, मुझे तो लाला को बाँधना ही है। बालकृष्णलाल आज माता के दुराग्रह पर सहमत हैं। इस पर ऐश्वर्य शक्ति से कहा है कि मेरी माता मुझे बाँधना चाहती है, तू डोरी को क्यों छोटा कर देती है? इस समय मैं तेरा मालिक नहीं हूँ, बल्कि यशोदा माता का बालक हूँ। मैं प्रेम-रस लेने और प्रेम-रस देने के लिए बालक हुआ हूँ। तू द्वारका चली जा । जब मैं द्वारका आऊँगा, तब तेरा मालिक होकर आऊँगा । श्रीकृष्ण द्वारका में तो राजाधिराज हैं, किन्तु गोकुल में बालक हैं। इस समय लाला को दया आ गई है।

परमात्मा ने बन्धन स्वीकार किया है। जब ईश्वर बन्धन में आता है, तब जीव बन्धन से मुक्त होता है। लाला ने यशोदाजी से कहा "माता, तू मुझे छोड़ दे।"

 इस पर माता इन्कार कर देती है। उसके हृदय में तो प्रेम है कि मुझे कोई बाँधने की इच्छा नहीं; लेकिन क्या करूँ? लाला को चोरी करने की आदत पड़ गई है। वह मुझे छुड़ानी है। यशोदाजी ने विचार किया कि मैं जब रसोई घर में रसोई बनाने जाऊँगी, तो लाला को छोडूंगी उसे खिलाऊँगी। फिर बालक सब भूल जाएगा। लाला को बाँध कर वे रसोई बनाने गईं। उनका तन तो रसोई बनाने में लगा है; किन्तु मन श्रीकृष्ण में लगा है। है। वह रसोई बनाते-बनाते बारंबार कृष्ण को देखती हैं। लाला के ग्वालबाल मित्र आते हैं और वे उन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं; किन्तु यशोदा माता ने गाँठ इतनी मजबूत बाँध वह किसी से खुली नहीं। कोई बालक लाला के कन्धे पर हाथ रखता है, कोई उनके माथे पर हाथ फिराता है। वे पूछते हैं कि लाला, क्या तेरे पेट में दर्द होता है? तुझे क्या कोई तकलीफ होती. है ? लाला ने सोचा कि यदि मैं मित्रों से यह कहूँगा कि मुझे तकलीफ हो रही है, तो ये रोने लगेंगे। मित्रों का प्रेम विशुद्ध है। लाला ने कहा,

 "मुझे कोई तकलीफ नहीं है। तुम मेरी जरा भी चिन्ता मत करो। मैं तो झूठा झूठा रो रहा था। मैं आनन्द से हूँ। मेरी माता ने मुझे बाँध कर अच्छा ही किया है। आज तो मुझे बैलगाड़ी का खेल खेलना ही था ।"

लाला को खेल पसन्द है। कन्हैया ऐसा खेल करता है, जिसे देखकर ग्वाल बाल रीझ उठते हैं, मक्खन-मिश्री खाते लाला अपने मित्रों का बड़ा ध्यान रखता था।

श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 





प्रेम बन्धन

 सूरदासजी महाराज के जीवन में एक घटना घटी थी। वे जन्म से अन्धे नहीं थे। जब उन्होंने आँख से पाप होते देखा तब यह जानकर कि आँख भक्ति में विघ्न डालती है, उन्होंने उसे फोड़ डाला था कि मुझे अब जगत् को नहीं देखना है, बल्कि सतत श्रीकृष्ण का दर्शन करना है, सतत भक्ति करनी है। सूरदासजी वृन्दावन में रहते थे। उनके इष्टदेव बालकृष्णलाल थे। वे सारे दिन शुद्ध भाव से ध्यान करते थे, जप करते थे और कीर्तन करते थे। उनके चरित्र में लिखा है कि जब वे बड़े प्रेम से कृष्ण-कीर्तन करते, तब बालकृष्णलाल उनके सामने बैठकर कीर्तन सुना करते थे। उनके कीर्तन में भगवान् को बहुत आनन्द आता था। सूरदासजी का ऐसा नियम था कि किसी मनुष्य से भीख न माँगे। जब वे कहते कि लाला मुझे बहुत भूख लगी है। मैं किसी मनुष्य से नहीं माँगूँगा। वे बालकृष्णलाल को अपना मालिक मानकर कहते कि मेरा कपड़ा बहुत फट गया है। श्रीकृष्ण किसी न किसी को प्रेरणा प्रदान करते और किसी से सूरदास को वह वस्तु मिल जाती। एकबार सूरदासजी कहीं जा रहे थे। उनके रास्ते में एक बड़ा गड्ढा मिला। वे उसमें जा गिरे। गड्ढा बड़ा होने के कारण वे उससे बाहर न निकल सके। वे कुछ घबरा गये कि क्या करें? बालकृष्ण को दया आ गई। बालकृष्णलाल वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने सूरदासजी का हाथ पकड़ लिया। सूरदासजी को मालूम दिया कि किसी ने हाथ पकड़ा है। वे पूछ बैठे कि तुम कौन हो? बालकृष्णलाल ने कहा, 

"मैं नन्दबाबा के गाँव के एक ग्वाले का पुत्र हूँ। मैं गायों को लेकर इस ओर आया था। यहाँ आपको गड्ढे में पड़ा देखकर आपको निकालने के लिए चला आया।" 

सूरदासजी विचार में पड़ गए कि वह किस ग्वाले का लड़का है? किसे मेरी इतनी चिन्ता है? यह कोई दूसरा ग्वाला नहीं है। यह तो मेरा बालकृष्ण हैं वे उस लाला को पकड़ने के लिए आगे बढ़े। उनकी आँख से तो दिखाई नहीं देता था। बालकृष्णलाल आगे भाग गए। तब सूरदास ने कहा 

हाथ छुड़ाऐ जात हौ, निबल जानि के मोहि ।

हिरदय ते जो जाउ तौ, सबल कहौं मैं तोहि ॥

 तुम बलवान हो, मैं निर्बल हूँ, तुम सिन्धु हो, मैं बिन्दु हूँ। तुम अंशी हो मैं अंश हूँ। तुम सर्वज्ञ हो, मैं अल्पज्ञ हूँ, तुम ईश्वर हो, मैं जीव हूँ। तुमको सर्वशक्तिमान मानते हैं, किन्तु मैं तुमको सर्व शक्तिमान तब मानूँगा, जब तुम मेरे हृदय से बाहर निकल सको। सूरदासजी ने प्रभु को प्रेम से अपने हृदय में बाँध रखा है। परमात्मा प्रेम का बन्धन नहीं तोड़ सकते। सर्वतंत्र स्वतंत्र परमात्मा प्रेम-परतंत्र हैं। जहाँ अतिशय प्रेम, वहाँ परमात्मा अपनी हार मान लेते हैं।

भ्रमर को कमल से अतिशय प्रेम होता है। वह भ्रमर कमल के मकरन्द में लीन होता है। संध्याकाल सूर्य अस्त होने पर कमल मुँद जाता है। भ्रमरकाल की पंखुरियों में बन्द होकर सबेरा होने की प्रतीक्षा करता है। और अन्त में घुट कर मर जाता है। लकड़ी को छेदने वाला समर्थ भ्रमर कमल को तोड़ नहीं सकता। क्योंकि उसे कमल से प्रेम है। परमात्मा भी प्रेम-बन्धन नहीं तोड़ सकता। इसीलिए परमात्मा से प्रेम करो। यदि प्रभु प्रेम न हो सके, तो भगवान् का नाम-जप करो। जब पाप कम होता है, तब प्रभु में प्रेम जागृत होता है। जो श्रीकृष्ण के साथ प्रेम करता है, उसे श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण बना देते हैं। यदि तुम किसी धनवान की खुशामद करो, तो वह धनवान तुमको क्या देगा? यदि बहुत उदार होगा, तो तुम्हें दस हजार देगा, बीस हजार देगा। अति उदार होगा, तो तुम्हें अठन्नी का पचास प्रतिशत का हिस्सेदार बना देगा। क्या कोई तुम्हें अपना सोलहों आना भाग देगा? मानो कोई उदार हुआ, तो आधी सम्पत्ति देगा। उससे अधिक तो क्या देगा? कोई तुमको अपनी सोलहों आने सम्पत्ति देने को तैयार नहीं हो सकता। केवल श्रीकृष्ण ही सोलह आना दे सकते हैं।






परमप्रेम 1

 परमात्मा श्रीकृष्ण परम प्रेमस्वरूप हैं। प्रेम और परम प्रेम में अन्तर है। श्रीकृष्ण सभी जीवों से प्रेम करते हैं। जब परमात्मा प्रेम करते हैं, तब इस जीव की पात्रता का भी विचार नहीं करते। इस जगत् में अनेक जीव ऐसे हैं, जो परमात्मा का अनादर करते हैं कि ईश्वर कहाँ हैं? मैं ईश्वर को नहीं मानता। फिर भी परमात्मा सबको मानते हैं। यह पृथ्वी परमात्मा की है । मानव पृथ्वी के आधार पर स्थित है। परमात्मा पवन सभी को देते हैं। परमात्मा सभी को प्रकाश देते हैं। परमात्मा ही अन्न-जल देते हैं। फिर भी जीव अभिमान में आकर बोलता है कि मैं ईश्वर को नहीं मानता। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि मैं ईश्वर को मानता हूँ; किन्तु एक आसन पर तीन घण्टे बैठकर मुझे भगवान् की भक्ति करने की फुरसत नहीं है। जिसे चौबीस घण्टे में केवल तीन-चार घण्टे एक आसन बैठकर भगवान् की भक्ति करने की फुरसत नहीं है वह ईश्वर को माने या न माने दोनों समान ही हैं। "मैं ईश्वर को मानता हूँ।" यह कहने से कोई लाभ नहीं। तुम भगवान् के लिए कितना समय देते हो, उसी का महत्त्व है। जो भगवान् के लिए तीन-चार घण्टे का भी समय नहीं देता, वह भगवान् को ठीक तरह से मानने वाला नहीं कहा जा सकता।

प्रेम और परम प्रेम में दूसरा भी अन्तर है। जो प्रेम थोड़ा-सा भी स्वार्थ लेकर किया जाता है। वह साधारण प्रेम कहलाता है। जो प्रेम किसी बदले की भावना छोड़कर निःस्वार्थ भाव से किया जाता है, उसे परम प्रेम कहते हैं। परमात्मा बिना किसी स्वार्थ के जीव से प्रेम करता है। लक्ष्मीपति परमात्मा किसी से पैसा नहीं माँगते, वह केवल प्रेम चाहते हैं। यह जीव अनेक बार परमात्मा को पैसा देता है किन्तु प्रेम नहीं देता। मनुष्य स्त्री के साथ प्रेम करता है, किसी पुरुष के साथ प्रेम करता है, किसी कपड़े से प्रेम करता है। उसे परमात्मा को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने में संकोच होता है, लज्जा आती है। उसे कपड़ा गन्दा होने की चिन्ता होती है। मनुष्य जितनी सावधानी कपड़ा सम्हालने में करता है उतनी वह अपने दिल की नहीं करता। उसे कपड़े में दाग लगने की तो चिन्ता होती है, किन्तु अपने मन को दाग लगने की चिन्ता नहीं होती। थोड़ा-सा अपने अन्तर की ओर देखो, मन को बारंबार देखो तो पता लगे कि मन में कितने दाग लगे हुए हैं? यदि कपड़े में दाग लगेगा तो वह बाजार से दूसरा खरीदा जा सकता है; किन्तु यदि मन खराब हो जाएगा, तो वह बाजार से दूसरा नहीं मिलेगा।

शरीर एक दिन गलित हो जाएगा। इस संसार में जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका क्षय भी होता है। जिसका क्षय होता है, उसे शरीर कहते हैं। " शीर्यते इति शरीरम् " किसी के मरण से ईश्वर की सृष्टि में कोई अन्तर नहीं पड़ता। मरने पर पंच महाभूत में मिल जाते हैं। जीवात्मा मरने के बाद केवल मन को साथ लेकर जाता है, शरीर छोड़ने पर मन ही साथ में आता है। हमारा यह तन पूर्व जन्म का मन लेकर आता है। जो मन मरने के बाद भी साथ जाने वाला है, उसे अधिक सावधानी से सम्हालना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि जगत् से घृणा करो; किन्तु यहाँ किसी जीव से अधिक प्रेम भी न करो। इस संसार में केवल परमात्मा ही प्रेम करने योग्य है। परमात्मा से प्रेम करो। कदाचित् आप यह शंका करेंगे कि महाराज आप प्रतिदिन परमात्मा से प्रेम करने को तो कहते हैं, किन्तु प्रभु में तो प्रेम होता ही नहीं। आप भगवान् में प्रेम होने का कोई उपाय बताइए। आप जरा विचार तो कीजिए कि अपने घर के लोगों से कैसे प्रेम करते हैं? पति ऐसा समझता है कि पत्नी मुझे सुख देती है और पत्नी ऐसी कल्पना करती है कि पति के कारण ही सुखी हूँ। घर के लोग मुझे सुख देते हैं, ऐसा समझने से प्रेम होता है। आज से आप ऐसा निश्चय कीजिए कि प्रभु ने ही मुझे सुख दिया है। न कोई स्त्री सुख देती है, न कोई पुरुष सुख देता है। यहाँ सब अपने किये गये कर्म का फल भोगने के लिए इकट्ठा हुए हैं। कर्म का सम्बन्ध पूरा होते ही सुख देने वाला ही दुःख का कारण बनता है।

व्यवहार में यह देखा गया है कि जिससे अधिक सुख मिलता है, वही रुलाता है। सुख तो परमात्मा देता है। आपको यदि थोड़ा ठंडा पानी मिले तो विचार करो कि यह किसने दिया है? किसी मनुष्य में पानी पैदा करने की शक्ति नहीं है। पानी तो परमात्मा देता है। यदि पानी मिले, तो भगवान् का एहसान मानना कि उसने पानी दिया। यदि आप बारंबार अपने मन में विचार करेंगे कि मैं परमात्मा की कृपा से सुखी हूँ, तो ही प्रभु में प्रेम उत्पन्न होगा। जो यह समझता है कि मैं अपने कर्म से सुखी हूँ, वह अभिमानी है। ऐसा विचार करो कि भगवान् मुझे सुख देते हैं; प्रभु की 'कृपा से मुझे धन मिला है और जो मान या धन आपको मिला है क्या वह किसी योग्यता से मिला है ? इसके लिए अपनी दृष्टि अन्दर की ओर मोड़ो और विचार करो कि क्या मैं इसके योग्य हूँ?

मैंने आज तक कितना पाप किया है? विचार करो कि मैंने मन से बहुत पाप किया है, आँख से बहुत पाप किया है। फिर भी प्रभु ने मुझे बहुत कम सजा दी है। प्रभु ने मुझे बहुत सुख दिया है। परमात्मा मनुष्य की योग्यता से अधिक मान या आदर देते हैं, सुख देते हैं। परमात्मा अत्यन्त उदार हैं। अहेतुकी प्रेम करना प्रभु का स्वभाव है। परमात्मा प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। वह नास्तिकों से भी प्रेम करता है। वैष्णव जन अपने प्रेम द्वारा ही भगवान् को अपने वश में करते हैं। इसलिए प्रेम-बल ही सबसे श्रेष्ठ बल है। जब द्रव्य-बल, बुद्धि-बल, -बल, शरीर-ब ज्ञान-बल इन सबकी हार हो जाती है, तब प्रेम की जीत होती है। जहाँ अतिशय प्रेम है, वहाँ मनुष्य हार स्वीकार कर लेता है। प्रेम के सब नियम भिन्न हैं। प्रेम में अति मान मिलना अपमान जैसा लगता है। प्रेमी को अति मान नहीं सुहाता। इसीलिए वह कह पड़ता है कि मैं तो घर का हूँ। मैं क्या कोई पराया हूँ? मुझे इतना आदर क्यों देते हो? प्रेम में अति मान ही अपमान जैसा लगता है। इसीलिए वह कह पड़ता है कि मुझे अपना समझकर ही ऐसा कहा जाता है। प्रेम में अपमान भी मान है, आदर है। प्रेम के अनेक तत्त्व काफी भिन्न हैं।प्रेम में हार ही जीत है और जीत ही हार है। यानी मेरे प्रियतम की जीत ही मेरी जीत है और उसकी हार ही मेरी हार है। जहाँ अतिशय प्रेम है, वहाँ जीव भी हार पसन्द करता है। कल्पना करो कि कोई माता कथा सुनने के लिए जाने वाली है। उसके घर में तीन-चार वर्ष का बालक है। माता की ऐसी इच्छा है कि बालक घर में ही खेले उसे यहीं छोड़ मैं कथा सुनने जाऊँ। माता बालक को समझाती है, उसे खिलौना देती है, मिठाई देती है, पैसा देती है और कहती है कि बेटा ! तू घर में ही खेलना। लेकिन बालक पैसा फेंक देता है। उसे पैसा भी नहीं चाहिए, खिलौना भी नहीं चाहिए। उसे तो उसकी माता चाहिए। उसे माता को छोड़ कोई चीज पसन्द नहीं आती। बालक का सम्पूर्ण प्रेम माता में होता है। यदि बालक अपनी माता की साड़ी पकड़कर खूब रोने लगे तो क्या उसकी माता उसे रोता हुआ छोड़कर कथा में जाएगी। वास्तव में माता अपने बालक का प्रेम देखकर विह्वल हो जाएगी। यदि उससे कोई पूछे कि तुम कथा में क्यों नहीं आई? तो वह जवाब देगी कि बच्चे ने मुझे रोक लिया। क्या छोटा बालक माता को रोक सकता है? माता में तो बालक से अधिक शक्ति है; किन्तु बालक में प्रेम अधिक है। बालक का प्रेम देखकर माता दुर्बल बन जाती है कि बेटा! तेरी इच्छा नहीं है, तो मैं कथा में नहीं जाती ।

मान लो कि वह बालक अब बड़ा होकर चौबीस-पच्चीस वर्ष का जवान हो गया। उसकी शादी भी हो गई और उसकी पत्नी घर में आ गई। तब यदि माता कथा में जाने को तैयार हुई और वह विवाहित युवक उसे रोकना चाहता हो, तो क्या माता उसका कहना मानेगी? माता साफ शब्दों में कह देगी कि तू आज कथा में जाने से रोकेगा, तो भी मैं जाऊँगी। मुझे अपनी देह का, अपनी आत्मा का कल्याण करना है। विवाहित युवक माता को कथा में जाने से कितना ही रोके, किन्तु वह अवश्य जाएगी। अब यदि लड़का माता से कहे कि मैं छोटा था तो कथा में जाने से जब तुझे रोकता था, तब तू नहीं जाती थी। इस समय मैं पैसा कमाता हूँ और कथा में जाने से तुझे रोकता हूँ, फिर भी तू कथा में क्यों जाती है? माता बड़ी सरलता से उत्तर देगी कि जब तू छोटा था, तब तेरा सम्पूर्ण प्रेम मुझ में ही था। अब तेरी पत्नी आ गई है और तेरा पहले जैसा प्रेम मुझ में नहीं है।

आज लड़कों की शादी होती है। उसके बाद वे माता-पिता का प्रेम और उनका उपकार भूलने ही लगते हैं। बालक बाल्यावस्था में माता के आधीन था। इसलिए माता भी उसके आधीन रहती थी और बालक जो कहता था उसे वह करती थी। लड़के के बड़ा होने पर माता उसके अधीन नहीं रहती । पुत्र का प्रेम कम होते ही माता का प्रेम भी कम हो जाता है। जीव और ईश्वर का सम्बन्ध पिता-पुत्र जैसा है, माता-पुत्र जैसा है। परमात्मा सबकी माता है। वही सबका पिता है। उस परमात्मा से प्रेम करो, सतत प्रभु स्मरण की आदत डालो, भगवान् का नाम जप करो, प्रतिपल भगवान् के उपकारों का स्मरण करो कि उसकी मुझ पर बड़ी कृपा है। जो परमात्मा के उपकारों का स्मरण करता है, प्रतिपल भगवान् की मुझ पर कृपा है ऐसा सोचता रहता है वही भक्ति कर सकता है। उसे ही प्रभु के प्रति प्रेम जगता है। कोई भी जीव प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। जीव प्रेम तो करता है किन्तु जगत् के साथ प्रेम करता है। वह परमात्मा से प्रेम नहीं करता। जीव पैसे से भी प्रेम करता है। कितने ऐसे सुधरे हुए लोग भी हैं, जो अपनी चप्पल से भी बहुत प्रेम करते हैं। वे चप्पल पहनकर घर में फिरते हैं और चप्पल पहनकर रसोई घर में भी जाते हैं। वे ऐसा समझते हैं कि हम सभ्य हैं। जो चमड़े से अधिक प्रेम करे, उसे सुधरा हुआ कहें या बिगड़ा हुआ कहें ? मन्दिर की तरह ही अपना रसोईघर पवित्र रखना चाहिए ।

सूतजी सावधान करते हुए कहते हैं, कोई भी जीव प्रेम किये बिना नहीं रह सकता। लेकिन मनुष्य भगवान् से प्रेम नहीं करता। यह जीव जगत् से प्रेम करके ही दुःखी हुआ है। जगत् के साथ वैर मत करो, परन्तु उससे अधिक प्रेम भी मत करो। यह जगत् अधिक प्रेम करने योग्य नहीं है। तुमसे जो मिले, उसे 'जय श्रीकृष्ण' कहो, हाथ जोड़ो, दो मधुर शब्द कहो, किन्तु यदि तुमसे कोई न मिले, तो ऐसा न सोचो कि वे भाई दो-तीन महीनों से क्यों नहीं मिले? कोई मिले तो अच्छा, न मिले तो अधिक अच्छा! यह सोचो कि मुझे परमात्मा से मिलना है, परमात्मा से एकाकार होना है; जगत् के साथ विवेक पूर्वक प्रेम करो। उससे अधिक प्रेम मत करो। जिसका संयोग तुम्हें अधिक सुख देता है, उसका वियोग बहुत रुलाएगा। संसार का संयोग वियोग के ही लिए होता है। संयोग में जितना सुख है, उससे हजार गुना दुःख वियोग में है। एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन तुम उसे छोड़ दोगे अथवा वह तुम्हें छोड़कर चला जाएगा। यह सोचकर कि एक दिन वियोग होने ही वाला है, यह याद रखते हुए विवेक पूर्वक प्रेम करो। यदि शरीर से प्रेम करो, तो उसे काम कहेंगे, धन से प्रेम करो, तो उसे लोभ कहेंगे। मनुष्य का प्रेम अनेक स्थानों पर बिखरा हुआ है। इस बिखरे हुए प्रेम को इधर-उधर से बटोर कर परमात्मा को अर्पित कर दो। सर्व शक्तिमान परमात्मा प्रेम-परतंत्र, प्रेमाधीन बन जाता है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।

 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

जब तक ईश्वर के साथ पूर्ण प्रेम न करो, तो वह प्रेम अधूरा है, अपूर्ण है। जो परमात्मा से प्रेम करता है, उसे परमात्मा पूर्ण बनाता है। फिर भी भगवान् परिपूर्ण ही रहता है। परमात्मा की तरह प्रेम करने वाला संसार में कोई नहीं है, न कोई हो सकेगा। भगवान् गोप-बालकों का स्वरूप धारण करते हैं और गोपियों को आत्म-स्वरूप का दान करते हैं। वे अत्यन्त उदार हैं। जब तक जीव भगवान् से प्रेम न करे, तब तक वह माया के बन्धन में पड़ा रहता है। जब जीव परमात्मा को प्रेम-बन्धन से बाँधता है, तभी यह जीव माया के बन्धन से मुक्त होता है। जब गोपियों का प्रेम बढ़ने लगता है, तब वे बालकृष्णलाल का नाम माखनचोर रख देती हैं। उन्हें 'माखनचोर-माखनचोर' कहकर बुलाती हैं। यशोदामाता को ऐसा पुकारना अच्छा नहीं लगता। वे कहतीं हैं कि मेरे बालक का नाम चोर रखती हैं। कन्हैया अपने घर का माखन नहीं खाता, वे गोपियों के घर का मक्खन खाने जाता है। इसीलिए तो वे सब उन्हें माखन चोर कहती हैं। लाला मुझ से कहता है कि मुझे अपने घर का माखन पसन्द नहीं। लाला को घर का माखन पसन्द न होने का कारण क्या है? घर का काम नौकर करता है। इसलिए नौकर का काम नौकर जैसा ही होता है। माता प्रेम से रसोई बनाती है। इसलिए उसके स्वाद में बहुत फर्क पड़ जाता है। माता के परोसने और नौकर के परोसने में काफी फर्क पड़ जाता है। घर में नौकर काम करते हैं। इसलिए लाला को माखन नहीं भाता है इसलिए यशोदा माता ने आज यह निश्चय किया है कि आज मैं अपने हाथ से दधि-मन्थन करूँगी और अपने हाथ से स्वादिष्ट माखन निकालूँगी। उसे अपने लाला को मना-मनाकर खिलाऊँगी। जब वह पेट भरकर माखन खालेगा, तब उसे दूसरे के घर का माखन खाने की इच्छा नहीं होगी। यशोदा में शुद्ध भक्ति का स्वरूप है। शुद्ध भक्ति भगवान् को बाँध लेती है। वस्त्र वासना का प्रतीक है। सूत्री वस्त्र रेशमी वस्त्र की अपेक्षा अधिक मुलायम होता है। जीव वासना का बिल्कुल नाश नहीं कर सकता। वह पहले वासना को मुलायम बनाता है। इसलिए यदि तुम्हें भक्ति मार्ग में आगे बढ़ना हो तो सुख भोगने की वासना मत रखना। तुम दूसरे को सुखी करने और सुखी देखने की इच्छा करना, अपनी वासना को मुलायम बनाना। जिसे दूसरे को सुख देने की वासना होती हैं, वही भक्ति कर सकता है और वह कभी दुःखी नहीं हो सकता। यशोदा ने रेशमी साड़ी धारण की है। उनके कान में कुण्डल हैं। वह भक्ति का शृंगार है। यशोदा माता भक्ति- रूपिणी है। साँख्य और योग रूपी कुण्डल भक्ति का श्रृंगार है। ये दोनों भक्ति के साधक हैं। साँख्य शास्त्र जड़-चेतन का विभाग करता है। जो जड़-चेतन का विभाग करता है। जो जड़-चेतन का अच्छी तरह विभाग कर सकता है, वही भक्ति कर सकता है। मैं इस शरीर से पृथक् हूँ। मैं यह शरीर नहीं हूँ। यह शरीर पंच महाभूत (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) अथवा पाँच तत्त्वों से बना है। शरीर से आत्मा भिन्न है, पृथक है। आत्मा परमात्मा का अंश है। शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है। यही समझना साँख्य शास्त्र है। योग शास्त्र का काम मन को एकाग्र करना है। जब भगवत के स्वरूप और उनके नाम में आँख और मन एकाग्र होंगे, तो भक्ति होगी। भक्ति करने का अर्थ है भगवान की मूर्ति में परमात्मा के मंत्र में मन को पिरो देना । तभी भक्ति सिद्ध होती है। यशोदामाता दधि-मंथन करते समय लाला को देखती हैं। माता की नजर श्रीकृष्ण में है।  हमें भी ऐसी आदत डालनी चाहिए। घर में चाहे जो भी काम करो अपनी नजर भगवान् में स्थिर करो। जो अपनी आँखें भगवान् में रखता है, उसे भगवान दिव्य भक्ति देते हैं। आँखें भगवद्-स्वरूप में स्थिर करो। यशोदा माता जो काम करती हैं, वह लाला के लिए करती हैं। घर का प्रत्येक काम भगवान् के लिए करना ही भक्ति है।

कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि मन्दिर में जाकर काम करना ही भक्ति है। वास्तव में तुम्हारे घर के मालिक परमात्मा हैं यदि घर में जो काम करो, वह भगवान् को ध्यान में रखकर करो और भगवान् के लिए करो, तो यह भी भक्ति है। जब बाजार में साग-सब्जी लेने जाओ, तो भगवान् को याद करना कि मैं यहाँ भगवान् के लिए आया हूँ। अपने घर में कोई काम करो तो उसे भगवान् के लिए करो। कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि स्नान तो शरीर को स्वच्छ करने के लिए किया जाता है। अरे, यह शरीर तो मल-मूत्र से भरा हुआ है। एक-दो बार क्या अनेक बार धोने या स्नान करने पर भी यह स्वच्छ नहीं हो सकता। अनेक लोग शरीर पर खूब साबुन घिसते हैं। क्या बहुत साबुन रगड़ने पर शरीर का रंग बदल जाएगा? एकाध बार साबुन लगाना तो ठीक है। स्नान सेवा करने के लिए है। ऐसा भाव रखो कि मुझे स्नान करके भगवान् की सेवा में जाना है। अधिक क्या कहें? कोई भी काम हो, वह भगवान् के लिए करो।

गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि शृंगार करने में कोई मानसिक विकार हो, वासना हो, तो वह आसक्ति कहा जाएगा। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। यह सोचना कि मुझे ठाकुरजी के सामने बैठना है। यदि मेरा कपड़ा गन्दा होगा तो मेरे भगवान् को पसन्द नहीं पड़ेगा। मैं भगवान् का हूँ। तुम्हें अच्छा और स्वच्छ कपड़ा पहिनकर भगवान् की सेवा करनी है, परमात्मा का ध्यान करो, प्रेम से कीर्तन करो। तुमको इस प्रकार देखकर भगवान् प्रसन्न होंगे।

मीराबाई के चरित्र में लिखा है कि वह सुन्दर श्रृंगार करती और गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती - 'गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।' उनका भाव ऐसा था । यदि शृंगार के पीछे शुद्ध भाव हो तो श्रृंगार भी भक्ति है। प्रायः ऐसा होता है कि लोग जब बाहर निकलते हैं, तब अच्छा कपड़ा पहनते हैं, किन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं, कि जब घर के अन्दर ठाकुरजी की पूजा करने बैठते हैं, तब फटा कम्बल पहनकर बैठते हैं अथवा साधारण कपड़ा पहनते हैं और सोचते हैं कि यहाँ कौन देखने वाला है? तुम जगत् को अच्छा कपड़ा दिखाते हो और भगवान् को साधारण कपड़ा दिखाते हो। क्या यह भगवान् को पसन्द आएगा? तुम यदि भगवान् को अच्छा कपड़ा पहनकर प्रेम से पूजोगे, तो भगवान् की तुम पर नजर पड़ेगी। केवल तन को ही नहीं, अपने मन को भी सजाना है, मन को शुद्ध और सुन्दर बनाना है। कपड़े की अपेक्षा हृदय का शृंगार अधिक महत्वपूर्ण है। श्रृंगार में यदि कोई शुद्ध भाव है तो वह भक्ति ही है। व्यवहार और भक्ति दोनों भिन्न नहीं है। अपने व्यवहार को भक्तिमय बनाओ। यशोदा मैया दधि-मन्थन करते समय अपने लाला को निहार लिया करती हैं। इस पर थोड़ा विचार करें तो यह संसार भी एक मटकी (दुग्ध पात्र) जैसा ही है। इसमें माया ने विषय रूपी दही भरा है। जिस प्रकार दही में खट्टापन होता है, उसी प्रकार संसार के विषयों में अधिक खट्टापन होता है, अधिक कड़वाहट होती है, मीठापन बहुत ही कम होता है। दही का मन्थन करने से मक्खन निकलता है। दही में भले ही खट्टापन हो; वह मक्खन मधुर होता है। तुम विषयों का मन्थन विवेक पूर्वक करो और प्रेमरूपी मक्खन निकालकर परमात्मा को अर्पित करो। यशोदा श्री सम्पन्न हैं। उन्होंने कभी ऐसी मेहनत नहीं की थी, किन्तु आज अपने लाला के लिए वह मेहनत कर रही हैं। इसीलिए उसे  पसीना छूट रहा है । फिर भी उनके हृदय में श्रीकृष्ण प्रेम भरा पड़ा है। वह सोच रही हैं कि आज लाला के लिए मक्खन निकाल रही हूँ। आज मैं लाला को मना-मनाकर अपने हाथ से निकाला हुआ मक्खन खिलाऊँगी, जिससे वह फिर दूसरी जगह मक्खन खाने न जाए। माता यशोदा थक गई हैं, प्रेम में हृदय गद्गद हो गया है, द्रवीभूत हो उठा है। इसीलिए उसे अपनी थकावट का पता नहीं लगता। यदि तुम प्रेम से काम करो, परमात्मा प्रसन्न करने की भावना से काम करो, श्रीकृष्ण में नजर रखकर काम करो, थकावट होने पर भी उसकी खबर नहीं पड़ेगी, पता नहीं लगेगा। प्रेम एक ऐसी ही शक्ति है। प्रेम में भले ही थक जाए किन्तु उस थकावट का पता नहीं लगता। श्रीकृष्ण के प्रेम में माता यशोदा का हृदय पिघल गया है। धम-धम-धम की जो मधर ध्वनि होती हैं, वह दधि-मन्थन की धमधमाहट है। यशोदा मैया प्रेम से श्रीकृष्णलीला का वर्णन करती हैं कि मेरे लाला का जब से जन्म हुआ, तभी से इस गाँव की शोभा बढ़ी है। मेरा लाल सारे गाँव को प्राणों से भी प्यारा लगता है। श्रीकृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करते-करते माता के शरीर में रोमाँच हो उठता है, आँखें गीली हो जाती हैं। यशोदा माता दधि-मन्थन में तन्मय हो गई हैं। उनकी बहुत इच्छा है कि कन्हैया के जागने से पहले मक्खन निकाल लें। इसका कारण यह कि वह जागने के बाद काम नहीं करने देता। हर रोज का नियम तो यह था कि यशोदा माता के मंगल गीत गाने पर श्रीबालकृष्णलाल जागते थे। कई बार ऐसा भी होता था कि कन्हैयालाल बिछौने पर जागते, किन्तु माता की गोद में फिर सो जाते। यशोदा मैया लाला को समझातीं कि बेटा ! अब सूर्योदय का समय हो गया है। तुझे तेरी गायें बुला रही हैं। इस प्रकार जब यशोदा माता बहुत प्रेम से जगातीं, तब कन्हैया जागता है। आज यशोदा माता की ऐसी इच्छा है कि जल्दी-जल्दी मन्थन करूँ, तो मक्खन निकले। उसे निकाल कर रख लूँ। इसके बाद लाला को जगाऊँगी, लेकिन आज लाला को जगाने की कोई जरूरत पड़ी नहीं। बालकृष्णलाल जाग उठे हैं और जगकर घुटनों से चलते हुए पीछे से माता की साड़ी खींचने लगे हैं। माता को आश्चर्य हुआ कि यह कौन आया ? माता ने मुड़कर देखा तो बालकृष्ण नजर आए। निद्रा से जागने के बाद तो कन्हैया की शोभा कुछ और ही होती है। बालकृष्णलाल के बाल रेशम की तरह नरम हैं बाल उनके गाल पर आ गए हैं। लाला की आँखों में केवल प्रेम भरा है। वे प्रेम से अपनी माता को देख रहे हैं कि वह मेरे लिये कितना दुःख सहन कर रही है। आज लाला से यह न देखा गया। वे बोले, माँ तू मेरे लिए कितना दुःख सहन करती है। लाला को आज सहन नहीं हुआ। वे बोल पड़ा, माँ, मुझे भूख लगी है! माता का हृदय प्रेम से पिघल उठा। इसीलिए लाला को आज भूख लगी है। माता ने मटकी में नजर दौड़ाई, तो थोड़ा मक्खन ऊपर आया देखा । माता को अब ऐसा लगा कि यदि दस-पन्द्रह मिनट और दधि-मन्थन करूँ तो अच्छी तरह मक्खन निकलेगा। माता ने लाला से कहा, बेटा, तू बैठ! मैं मक्खन निकाल लूँ तो तुझे खिलाऊँ। माता पुनः दधि-मन्थन आरम्भ कर देती है, किन्तु लाला को जरा भी भूख सहन नहीं होती। उसे खूब भूख लगी है। फिर तो कन्हैया वहाँ से उठा और मथानी पकड़ कर रोने लगा। माता को उस पर दया आ गई। माता ने दही मथना बन्द कर दिया है और बालकृष्णलाल को अपनी गोदी में उठा लिया है। माता अपने हृदय का प्रेम-रस अर्पित कर रही है।

माता जिस समय अपने बालक को दूध पिलाती है माता और पुत्र दोनों एक हो जाते हैं। यशोदा माता और बालकृष्णलाला दोनों एक हो गए हैं। यही यशोदाजी की ब्रह्म सम्बन्धी कथा है। माता बालकृष्णलाल को गोद में लेकर बैठी है। वह अपने लाला को हृदय का प्रेम रस अर्पित कर रही है, तन्मय बन गई है। उसी समय माता ने देखा कि चूल्हे पर रखा हुआ दूध उफन रहा है। जब जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध होता है, तभी दूध में उफान आता हैं।

यदि शान्ति से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह लीला हर घर में होती है। तुम सबेरे चार बजे उठे, स्नान किया, पवित्र आसन पर बैठे और ऐसा संकल्प किया कि ध्यान के साथ जप करते हुए मैं तन्मय हो जाऊँगा, मुझे भगवान् के दर्शन होंगे, मुझे परमात्मा से मन पूर्वक मिलना है। परमात्मा से मिलने की भावना रखते हुए ध्यान के साथ जप करने के कारण तुम्हारी तन्मयता थोड़ी बढ़ेगी, लेकिन जीव जब परमात्मा से मिलता है, तभी दूध में उफान आता है।

इसीलिए यशोदामाता ने लाला को धरती पर उतार दिया और दूध उतारने गईं। लाला को अभी तृप्ति नहीं हुई है। माता जल्दी से दूध उतारने जा रही है। लाला को यह बात पसन्द नहीं आई कि मेरी माता मुझे छोड़कर दूध उतारने जाए! उसने मेरे लिए अनेक वर्षों तक जंगल में रहकर, पेड़ों के पत्ते खाकर भक्ति की थी किन्तु अब? जीव का एक स्वभाव है कि उसे जो मिलता है, उसकी उपेक्षा करता है। माता ने भी यही सोचा कि कन्हैया कहाँ जाने वाला है? मैं उसे बाद में दूध पिलाऊँगी ! पहले इस दूध को अग्नि में गिरने से बचा लूँ। इसीलिए यशोदामाता लाला को धरती पर उतारकर दूध उतारने गईं। लाला से यह सहन नहीं हो सका। जो भगवत् सेवा और स्मरण छोड़कर लौकिक सुधारने जाता है, भगवान् उसका लौकिक अधिक बिगाड़ देते हैं।

आप सब वैष्णव हैं, प्रभु के प्यारे हैं। इसलिए भगवान् में अधिक विश्वास रखिए। भगवान् को आपके लौकिक-अलौकिक की अधिक चिन्ता है। जो परमात्मा से प्रेम करता है और परमात्मा के सेवा स्मरण में रहता है, उसके लौकिक की चिन्ता भगवान् को अधिक होती है। आप जिस देव की पूजा करते हैं और जिस देव का नाम-जप करते हैं, उस देव को आपकी सभी चिन्ता होती है। माता जब लाला को छोड़कर दूध उतारने गई तो इससे लाला को बहुत बुरा लगा। उनके मन में यह बात आई कि माता मेरी कीमत एक दो लीटर दूध से भी कम समझती है। वह उफनता दूध उतारने गई है। यशोदा ने एक-दो सेर दूध बचाया होगा; किन्तु लाला ने विचार किया आज मैं एक मन दही का नुकसान करूंगा। माता को भी यह याद रहेगा कि मैं लाला को छोड़ दूध उतारने गई तो उसने इतना बड़ा नुकसान कर दिया। उसी समय लाला को क्रोध आ गया। वहाँ एक चटनी पीसने वाला पत्थर पड़ा था। लाला ने उसे उठा लिया दही की मटकी पर दे मारा। उससे दही भरी मटकी फूट गई। संसार की आसक्ति ही मटकी है। जो भगवत् स्वरूप में आसक्ति होती हैं, उसे भक्ति कहते हैं। विषयासक्ति भक्ति का विनाश करती है। श्रीकृष्ण एक-एक घर में जाकर मटकी इसलिए फोड़ते थे कि मेरी शरण में आया हुआ जीव मेरी अपेक्षा दूसरे से अधिक प्रेम करे, तो वह मुझ से कैसे सहन होगा? भगवान् विषयासक्ति का विनाश करते हैं। प्रायः ऐसा देखा गया है कि यह जीव संसार को ठीक करने जाता है। वह यह भी समझता है कि संसार को ठीक करके भगवान् की भक्ति करूँगा। आश्चर्य है कि अब तक न किसी का संसार व्यवस्थित हुआ है न होगा। संसार तो क्षण - प्रति क्षण बदलता है, किन्तु परमात्मा का स्वरूप एक सा स्थिर रहता है। संसार को व्यवस्थित करने के बाद भक्ति करने की कल्पना ही गलत है। इसलिए भगवान् मटकी फोड़ देते हैं। संसार की आसक्ति तोड़ देते हैं।

उसी समय वहाँ ग्वाल-बाल मित्र आ जाते हैं। उन्होंने लाला से पूछा कि कन्हैया ! आज किसके घर चोरी करने जाना है? लाला को इस समय क्रोध चढ़ा है। उन्होंने क्रोध में ही कह दिया कि मुझे आज अपने ही घर में चोरी करनी है।

बालकृष्णलाल ग्वाल-बालों की पीठ पर चढ़कर मक्खन उतारते हैं और ग्वाल-बाल मित्रों को मक्खन देते हैं। श्रीकृष्ण जिस घर में चोरी करते हैं, उस घर के झरोखों के पास बन्दर एकत्र हो जाते हैं। उस समय भगवान् को यह बात याद आती है कि ये मेरे रामावतार के भक्त हैं। रामावतार में मैं तपस्वी था। उस समय मैं इन बन्दरों को कुछ खिला न सका। ये सब पेड़ के पत्ते खा-खाकर मेरे लिए युद्ध करते थे। इसलिए वे उन बन्दरों को कृष्णावतार में मक्खन खिलाते हैं। 


 

श्री डोंगरेजी महाराज

हरिओम सिगंल 





कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...